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क्षपणासार
गाथा १६२-१६४]
। १६३ देता है जबतक गुणश्रेणीशीर्ष प्राप्त नहीं होता । यह गुण श्रेणी आयाम सकल अन्तरायाम. के सख्यातवेंभागप्रमाण है, तथापि सूक्ष्मसाम्परायकाल से विशेषअधिक है । विशेष अधिकका प्रमाण सूक्ष्मसाम्परायके संख्यातवेंभाग है । ज्ञानावरणादिका गलितावशेष गुणश्रेणीआयाम भी इतना है । अपकर्षित प्रदेशाग्रका असख्यातबहुभाग जो पृथक रखा था वह गुणश्रेणीसे उपरि मस्थितियोमे दिया जाता है।
'गुणसेढि अंतरहिदि विदियट्ठिदि इदि हवंति पवतिया। सुहुमगुणादो अहिया अवट्ठिदुदयादि गुणसेढी ॥१६२॥५८३॥
अर्थ- गुणश्रेणि, अन्तरस्थिति और द्वितीयस्थिति ये तीन पर्व होते हैं । सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके कालसे उदयादि अवस्थित गुणश्रेणिका आयाम अधिक है।
विशेषार्थ- गुणश्रेणि, अन्तरस्थिति व द्वितीयस्थिति इन तीनों प॰में अपकर्षितद्रव्यका विभाजन किया जाता है । जबतक अपकर्षितद्रव्य असंख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है वह गुणश्रेणी कहलाती है, उसके ऊपरवर्ती जिन निषेकोंका पहले अभाव किया था उनके प्रमाणरूप अन्तर स्थिति है तथा उससे ऊपरवर्ती अवशिष्ट सर्वस्थितिको द्वितीय स्थिति कहते हैं । सूक्ष्म साम्परायगुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त मात्र है, उससे विशेषअधिक अर्थात् सख्यातवेभागअधिक गुणश्रेणी आयाम हैं। ज्ञानावरणादि कर्मोंकी भी गलितावशेषगुणश्रेणि निक्षेपका आयाम सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानके कालसे अन्तमुहर्तअधिक, क्योकि इसमें क्षीणकषायगुणस्थानका काल भी गभित है।
'श्रोक्कदिइगिभागं गुणसेढीए असंखबहुभागं ।
अंतरहिद विदिय ठिदी संखसलागा हि अवरहिया ॥१६३॥५८४॥ गुणिय चउरादिखंडे अंतरसयल द्विदिम्हि णिक्खिवदि ।
सेसबहुमागमावलिहीणे वितियट्ठिदीएहू ॥१६४॥५८५॥ १. जयघवल मूल पृष्ठ २२०८-२२०६ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६६ सूत्र १३०८ । ३. जयघवल मूल पृष्ठ २२० । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६९-७० सूत्र १३०६-१३१२ ।