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क्षपणासार
गाथा १६६ ]
[ १४५ अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको जिस विधीसे वेदता है उसी विघिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदन करता है। मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि वेदकके चरमसमयमें संज्वलनत्रयका स्थितिबन्ध अन्तमुहर्तकम ५० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम ४० माह होता है।
विशेषार्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे अग्रकृष्टिआदि असंख्यातवेंभाग उपरिमकृष्टियोंका प्रतिसमय अपवर्तवाघात करता है उसीप्रकार मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको वेदन करनेवाला कृष्टियोंका अपवर्तनाघात करता है । क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक जिस विधिसे बध्यमान प्रदेशाग्नसे और संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे अन्तरकृष्टिके अन्तरालोंमें और संग्रहकृष्टिके अन्तरालोंमें यथासम्भव अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है उसी विधिसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक अपूर्वकृष्टियोंकी रचना करता है तथा क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिका वेदक जिसप्रकार कृष्टियोके बन्ध व उदयसम्बन्धी प्रतिसमय अनन्तगुणे हीवरूपसे अपसरणोंको करता है उसीप्रकार मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदक अपसरणों को करता है । इन करणो में तथा अन्यकरणोंमें कोई अन्तर नहीं है। मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदकके इसप्रकार प्रथम स्थिति क्षीण होते हुए जब एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है और मानकी प्रथमसंग्रहकष्टिका चरमसमयवर्ती वेदक होता है। तीन संज्वलनका स्थितिबन्ध व स्थितिसत्त्व यथाक्रम घटकर स्थितिबन्ध तो अन्तर्मुहूर्तकम ५० दिन अर्थात् एकमाह २० दिन एवं स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम ४० माह अर्थात् ३ वर्ष चारमाह रह जाता है । यह पूर्वोक्त त्रैराशिक विधिसे प्राप्त कर लेना चाहिए।
'विदियस्स माणचरिमे चत्तं बत्तीसदिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो तिसंजलणगाणं ॥१६६॥५५७॥
अर्थ-इसके अनन्तर मानकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक होता है और उसके चरमसमयमें तीन संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम ४० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्त कम बत्तीसमासप्रमाण है ।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१६०-६१ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०० से १२०३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४ ।