________________
क्षपणासार
१५०
[गाथा १७४-१७५ यथायोग्य सख्यातवर्षोंसे घटकर वर्षपृथक्त्व तथा स्थितिसत्त्व हीन होते हुए असंख्यातवर्ष रह जाता है।
से काले लोहस्स य विदियादो संगहादु पढमठिदी। ताहे सुहमं किर्टि करेदि तविदियतदियादी ॥१७४।५६५॥
अर्थ--अनन्तरवर्तीकालमें लोभकी द्वितीयकृष्टिमें से प्रथमस्थितिको करता है और उसी कालमै द्वितीय व तृतीय कृष्टिसे सूक्ष्मकृष्टि करता है।
विशेषार्थ--लोभवेदकके प्रथमसंग्रहकष्टिको अनन्तर प्ररुपित क्रमसे वेदकरके पश्चात् अनन्तरसमयमै लोभवेदककालके द्वितीयविभागके प्रथमसमयमें द्वितीयस्थिति में स्थित लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे से प्रदेशाग्न अपकर्षित करके उदयादिगुणश्रेणीरूपसे द्वितीयकृष्टिवेदककालसे आवलिअधिकप्रमाणवाली 'प्रथमस्थितिको उत्पन्न करता है । इसप्रकार प्रथमस्थितिको करके द्वितीय विभागके प्रथमसमयमै लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका वेदक द्वितीय व तृतीयसग्रहकष्टिमें से असंख्यातवेभागप्रमाण प्रदेशानको अपकर्षित करके सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोंको करता है । यदि द्वितीयत्रिभागमें सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोको नहीं करे तो तृतीयभागमें सूक्ष्मकृष्टिके वेदकरूपसे परिणमन नहीं हो सकता । यदि कहा जावे कि तृतीयविभागसे सूक्ष्मष्टिवेदककाल में सूक्ष्मसाम्परायिककष्टियोंको करलेगा तो ऐसी शंका भी ठीक नही, क्योंकि सूक्ष्मकृष्टिरूप परिणसत किये बिना अपने स्वरूपसे उदयमै आनेसे सूक्ष्मसाम्परायिक परिणामोंकी अनुपलब्धि होती है । सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिका लक्षण इसप्रकार है--संज्वलनलोभकषायके अनुभागको बादरसाम्परायिककृष्टियोंसे भी अनन्तगुणित हानिरूपसे परिणमित करके अत्यन्तसूक्ष्म या मन्द अनुभागरूपसे अवस्थित करनेको सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टि कहते है । सर्वजघन्यबादरकृष्टिसे सर्वोत्कृष्ट सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिका भी अनुभाग अनंतगुणाहीच होता है ।
*लोहस्स तदियसंगहकिट्टीए हेट्ठदो अवट्ठाणं । सुहमाणं किट्टीणं कोहस्स य पढमकिट्टिणिभा॥१७५॥५६६॥
१. जयघवल मूल पृष्ठ २१६३-६४। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६२ सूत्र १२३३-३४। धवल पु० ६ पृष्ठ ६६६ ।। ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१६४-६५ । ४. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६२ सूत्र १२३६-३७ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६६-६७ ।