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गाथा १८४-८६
क्षपणासार
। १५० अर्थ-सूक्ष्म साम्पसयिककृष्टिकारक लोभकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टियोंमें से असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्नका अपकर्षणकरके सक्रमणके द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिरूप संक्रमित करता है । इसप्रकार संक्रमण करनेवाला तृतीयबादरसाम्परायिककृष्टिसे अपकर्षणकरके जो प्रदेशाग्न सूक्ष्म साम्परायिककृष्टिरूप संक्रमण करता है वे प्रदेशाग्न थोड़े हैं, उससे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकृष्टिमें संक्रमण करता है, क्योकि लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्रसे द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्र संख्यातगुणे हैं । लोभकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे जो प्रदेशाग्र तृतीयसग्रहकृष्टिरूप संक्रमित किये जाते हैं उनसे संख्यातगुणे प्रदेशाग्र द्वितीयसंग्रहकृष्टि से सूक्ष्मसाम्परायिकरूप संक्रामित होते हैं, क्योकि लोभके तृतीयसंग्रहकृष्टि आयामसे सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिका आयाम संख्यातगुणा है और आयामके अनुसार ही प्रदेशागोंकी संख्याका प्रमाण जानना चाहिए । प्रतिग्राह्यके अल्पबहुत्वके अनुसार 'पडिगेज्झमाण' अर्थात् प्रतिग्राह्य संक्रमणद्रव्यका अल्पबहुत्व कहना चाहिए' ।
किट्टीवेदगपढमे कोहस्स य विदियदो दु तदियादो। माणस्स य पढमगदो माणतियादो दु मायपडमगदो॥१८४॥५७५।। मायतियादो लोभस्लादिगदो लोभपढमदो विदियं । तदियं च गदा दव्वा दसपदमद्धियकमा होति ॥१८५॥५७६।। 'कोहस्स य पडमादो माणादी कोहतदियविदियगदं । तत्तो संखेज्जगुणं अहियं संखेज्जसंगुणियं ॥१८६॥तियल।।५७७।।
अर्थ-कृष्टिवेदकके प्रथमसमयमे क्रोधकी द्वितीयकृष्टिसे जो प्रदेशाग्न मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि से सक्रमण होता है वह स्तोक है। क्रोधका तृतीयसग्रहकृष्टि से जो प्रदेशाग्र मानकी प्रथमसग्नहकृष्टि में सक्रमित होता है वह विशेष अधिक है, मानकी प्रथमसंग्रह कृष्टि से मायाकी प्रथमसग्रहकष्टिमे विशेष अधिक प्रदेशानका सक्रमण होता है,
१. जयधवल मूल पृष्ठ २२०३ । २ क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६७-६८ सूत्र १२८० से १२८६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८६८ सूत्र १२६० से १२६२ । धवल पु० ६ पृष्ठ ४०१.४०२ ।