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गाथा १७८]
क्षपणासार
[१५३ प्रकारसे मायाको प्रथमसंग्रहकृष्टि में संक्रान्त होनेपर उसकी विशेषकृष्टि योंका प्रमाण (+) ३६ हो जाता है, जो विशेषअधिक है । मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अपेक्षा मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टि में मानकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकृष्टियोके च भाग तथा मायाको प्रथमसग्रहकृष्टिका १ भाग, इसप्रकार ३. और मिल जाने से मायाकी प्रथमसंग्रहकृष्टि सम्बन्धी अन्तरकृष्टियोका प्रमाण विशेष अधिक सिद्ध हो जाता है । मायाका लोभमे संक्रमण होनेपर लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् ३२ भाग हो जाता है, क्योकि उसमे मायाको द्वितीय तृतीयसग्रह कृष्टियोका हा भाग तथा स्वयंका - भाग, ऐसे ३ भाग और अधिक बढ़ जाने से (३१+११) ३१ भाग अन्तरकृष्टियोंका प्रमाण हो जाता है । जो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां प्रथमसमयमे की जाती हैं उनका प्रमाण विशेष अधिक अर्थात् ३४ भाग प्रमाण हो जाता है, क्योंकि उसमें लोभकी द्वितीय-तृयीयसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी (२.) भाग मिल जानेसे (२३+३.) ३४ हो जाता है । इसप्रकार उत्तरोत्तर अधिक होनेवाले इस विशेषका प्रमाण अपने पूर्ववर्ती प्रमाणके संख्यातवेभागप्रमाण सिद्ध हो जाता है।
सुहमानो किट्टीओ पडिसमयमसंखगुणविहीणाश्रो ।
दव्वमसंखेज्जगुणं विदियस्स य लोहचरिमोत्ति ॥१७८॥५६६॥ * " अर्थ--सूक्ष्मकृष्टियां प्रतिसमय असंख्यातगुणे हीनक्रमसे की जाती हैं तथा द्वितीयसमयसे लोभकषायके चरमसमयतक द्रव्य असख्यातगुणे क्रमसे दिया जाता है।
विशेषार्थ-प्रथमसमयमे जो सूक्ष्मकृष्टियां की जाती हैं वे बहुत हैं, द्वितीयसमय में जो कष्टियां की जाती है वे असंख्यातगुणीहीन होती हैं । इसप्रकार अन्तरोपनिधारूप श्रेणीकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण सम्पूर्ण सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टिकरणके काल में अपूर्वसूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां असख्यातगुणीहीन श्रेणीके क्रमसे की जाती हैं। प्रथम समयमें सूक्ष्मसाम्परायिककृष्टियोके भीतर जो प्रदेशाग्न दिया जाता है वह स्तोक है, द्वितीयसमयमें दिये जानेवाला प्रदेशाग्न असंख्यातगुणा है । इसप्रकार प्रतिसमय अनन्त
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१६६-६७ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८६४-६५ सूत्र १२४४ से १२४६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३९८ ।