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गाथा १६८-१६६ ] क्षपणासार
[१४७ 'पडमगमायाचरिमे पणवीसं वीसदिवसमासाणि । अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो दु संजलणगाणं ॥१६८॥५५६।।
अर्थ-उसके अनन्तर मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिका वेदक होता है, इसका वेदककाल मायाके सम्पूर्ण वेदककालका त्रिभागमात्र है। इसके चरमसमयमें सज्वलनभाया व लोभका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम २५ दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहूर्तकम २० माहप्रमाण होता है।
विशेषार्थ-मानकषायके वेदनके चरमसमयसे अनन्तरसमयमें द्वितीयस्थितिसे मायाकी प्रथमकृष्टिके प्रदेशानका अपकर्षण करके प्रथमस्थितिको करता है और उसी विधिसे मायाकी प्रथमकृष्टि को वेदन करनेवालेकी जो प्रथम स्थिति है उसमें एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेतक पूर्वोक्त सर्वकार्य करता हुआ चला जाता है। प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक आवलिकाल शेष रहनेपर माया और लोभ इन दोनों संज्वलनोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्तकम २५ दिवस और स्थितिसत्त्व अन्तमुहर्तकम २० माह होता है । यहां भी घटनेका प्रमाण त्रैराशिक विधीसे ही प्राप्त करना चाहिए।
'विदियगमायाचरिमे वीसं सोलं च दिवसमासाणि ।
अंतोमुहुत्तहीणा बंधो सत्तो दु संजलणगाणं ॥१६६॥५६०॥ - अर्थ-उसके पश्चात् मायाकी द्वितीयसंग्रहकष्टिका वेदक होता है उसके चरमसमयमें दो संज्वलनकषायोंका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम २० दिन और स्थितिसत्त्व अंतमुहूर्तकम १६ माहप्रमाण होता है ।
विशेषार्थ-मायाकषायकी प्रथमकृष्टिके चरमसमयसे अनन्तरवर्तीसमयमै द्वितीयस्थितिसे मायाकी द्वितीयकृष्टि से प्रदेशाग्रका अपकर्षण करके मायाकी द्वितीयकृष्टिसम्बन्धी प्रथम स्थितिको करता है, वह मायाकी द्वितीयकृष्टिका वेदक भी पूर्वोक्त विधिसे द्वितीयकृष्टिको तबतक वेदन करता है और सर्वकार्य तबतक करता है जबतक प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक एकआवलिकालशेष रहता है। उससमय दो (माया व लोभ
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ८६० सूत्र १२०६ से १२१२ । धवल पु. ६ पृष्ठ ३९४ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २१६२ । ३. क. पा. सत्त पृष्ठ २६०-६१ सूत्र १२१३ से १२१६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ६६५ ।