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क्षपणासार १४४]
[गाथा १६५ अर्थ-क्रोधवेदककालके अनन्तरसमयमै मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे मानकी प्रथमस्थितिको करता है जिसका काल मानोदयकालके तृतीयभागमात्र है।
विशेषार्थ-क्रोधकी तृतीयसग्रहकष्टिके चरमसमयसे अनन्तरसमयमें मानकी प्रथमकृष्टिके द्रव्यको द्वितीयस्थितिसे अपकर्षित करके प्रथमस्थितिको करता है। क्रोधवेदककालसे विशेषहीन मानवेदकका सर्वकाल होता है । इस मानवेदकके सर्वकालके तृतीयभागप्रमाण मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदककाल होता है। मानकी प्रथमकृष्टिवेदकके कालसे आवलिप्रमाण अधिक प्रथमस्थिति होती है । मानकी प्रथमकृष्टिको वेदन करनेवाला प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियोंके असंख्यातबहुभागप्रमाण अन्तरकृष्टियोका वेदन करता है और उसोसमय उन कृष्टियोसे विशेषहीनकृष्टियोको बांधता है, क्योकि वेद्यमानकष्टियोमें ऊपर और नीचेकी असंख्यातवेभागप्रमाण कृष्टियोको छोड़कर मध्यवर्ती बहुभागप्रमाण कृष्टिरूपसे बन्ध होता है ऐसा पहले कहा जा चुका। क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके दोसमयकम दोआवलिप्रमाण नवकसमयप्रबद्ध और उच्छिष्टालिके द्रव्यको छोड़कर शेष सर्वद्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिरूपसे परिणमन कर जाता है, क्योंकि मानुपूर्वीसंक्रमणके वशसे माव में संक्रमण होना अविरुद्ध है। क्रोधके प्रदेशाग्न मानरूप सक्रमित हो जानेपर जबतक सक्रमावलि व्यतीत नही हो जाती तबतक उनका उदय नहीं होता। क्रोधकी तृतीयसग्रहकृष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके उपरिमभागमै अपूर्वकृष्टिरूप होकर परिणमन नहीं करता, किन्तु मानकी सदृशमनुभागवाली कृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टिरूपसे क्रोधका प्रदेशाग्र परिणमन करता है। उसमें भी थोड़ाद्रव्य तो पूर्वकृष्टिरूपसे तथा बहुतद्रव्य अपूर्वकृष्टिरूपसे परिणमन करता है । क्रोधकी तृतीयकृष्टि का द्रव्य मानकी प्रथमसग्रहकष्टि में परिणमन करनेसे मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य १६ गुणा हो जाता है, शेष दो कषायों (माया व लोभ) की प्रथमसग्रहकृष्टियोका बन्ध होता है।
कोहपढमं व माणो चरिमे अंतोमुहत्तपरिहीणो। दिणमासपण्णचत्तं बंधं सत्तं तिसंजलणगाणं ॥१६५॥५५६॥
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१. जयधवल मूल पृष्ठ २१८६ से २१६० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११६६-६६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६३ ।