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क्षपणासार
गाथा १५६]
[१४१ स्थानमें आवलिका असंख्याताभाग प्रतिभागस्वरूप है । इसीप्रकार ऊपर भी स्वस्थानविशेष और परस्थानविशेष कहना चाहिए। उससे मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिको अंतरकृष्टियां विशेष अधिक हैं । मायाकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी अंतरकृष्टियां विशेष अधिक हैं, मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरष्टियां विशेष अधिक हैं। इससे लोभकी प्रथमसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेष अधिक हैं, लोभकी द्वितीयसग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक हैं, उससे लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां विशेषअधिक है उससे कोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिकी अन्तरकृष्टियां सख्यात अर्थात् चौदहगुणी हैं, क्योंकि चारित्रमोहनीयकर्मके सम्पूर्ण द्रव्यंसे २४ कृष्टियां बनी थीं। क्रोधकी द्वितीयकृष्टिमें अपना मूल द्रव्य तो है, किन्तु इसमें क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य १३ प्रविष्ट होनेसे इसका द्रव्य (+१) ३४ हो गया । अतः अन्तरकृष्टियां व प्रदेशाग्र भी चौदहगुणा हो गया' ।
वेदिज्जादिट्टिदिए समयाहियावलीयपरिसेसे । ताहे जहण्णुदीरणचरिमो पुण वेदगो तस्स ॥१५६॥५५०॥
अर्थ-वेद्यमान कृष्टिकी प्रथमस्थितिमें समयाधिक आवलिकाल शेष रहतेपर जघन्य उदीरणा होती है और विवक्षित कृष्टिके वेदककालका चरमसमय होता है ।
विशेषार्थ-वेद्यमान कृष्टिकी प्रथमस्थितिमै आवलि-प्रत्यावलि शेष रहनेपर आगाल-प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है। यद्यपि कृष्टिकरणकालके प्रारम्भसे ही मोहनीयकर्मके उत्कर्षणका अभाव हो जानेसे प्रथमस्थितिके प्रदेशाग्रका द्वितीयस्थिति में संचार नही होता तथापि द्वितीयस्थितिसे प्रदेशाग्रका अपकर्षण होकर प्रथमस्थितिमें आगमन होता है अतः आगाल- प्रत्यागाल कहा जाता है। इसके पश्चात् एकसमयकम आवलिकाल व्यतीत हो जाने पर जब प्रथमस्थितिमें एकसमयाधिक एकआवलिकाल शेष रह जाता है तब जघन्य उदीरणा होती है अर्थात् उदयावलिसे बाह्य स्थित निषेकके द्रव्यका अपकर्षणद्वारा उदयावलिमें विक्षेप होता है वही विवक्षितकृष्टिके वेदनका चरमसमय होता है।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१८५-८६ । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५८ सूत्र ११७५-७६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६१ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २१८६ ।