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गाथा १५६-५७]
क्षपणासार
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की प्रथमसग्रहकृष्टि में संक्रमण करता है तथा मायाकी तृतीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यको लोभकी प्रथमसंग्रह कृष्टि में ही संक्रमित करता है। लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकष्टिका द्रव्य लोभकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकष्टि में संक्रमित करता है और लोभकी द्वितीयसग्रहकृष्टिके द्रव्यका संक्रमण लोभको तृतीयसंग्रहकृष्टिमें करता है, (देखो गाथा १३१ की टोका) क्रोधकी प्रथमसंग्रहकुष्टिका द्रव्य मानकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में भी दिया जाता है।
यहां विवक्षित कषायके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्य स्वस्थानमें (अपनी ही अन्य संग्रहकृष्टिमें) संक्रमित करता है और परस्थानमें (अन्यकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें) विवक्षितकषायके द्रव्यको अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देकर एकभागमात्र द्रव्यका सक्रमण करता है' ।
कोहस्स पढमकिट्टी सुण्णोत्तिण तस्स अत्थि संकमणं । लोभंतिमकिहिस्स य णस्थि पडित्थावणणादो ॥१५६॥५४७॥
अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि तो शून्य हो गई (नास्तिरूप हो गई) अतः उसका संक्रमण नही होता तथा लोभकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका भी संक्रमण नही है, क्योंकि अतिस्थापनाका अभाव है।
विशेषार्थ-इसप्रकार क्रोधकी प्रथम व लोभकी तृतीयसंग्रहकष्टि बिना शेष दशसंग्रहकृष्टि योके द्रव्यका संक्रमण करता है। वेदन करनेयोग्य द्वितीयसंग्रहकष्टि में आयद्रव्यका अभाव है अतः वहाँ घात (व्यय) द्रव्यको पूर्वकृष्टियोमें पूर्वोक्तप्रकार दिया जाता है तथा लोभको तृतीयसग्रहकृष्टिमें व्ययद्रव्य नहीं, किन्तु आयद्रव्य ही है अतः दशसंग्रहकृष्टियोमें संक्रमणद्रव्यको पूर्वोक्तप्रकार पूर्व-अपूर्वकृष्टियोमे दिया जाता है ।
'जस्स कसायस्स जं किहि वेदयदि तस्स तं चेव । सेसाण कसायाणं पढमं किर्टि तु बंधदि हु ॥१५७।५४८॥
अर्थ--जिसकषायकी जिस संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उस कषायकी उसी संग्रहकृष्टि का बन्ध करता है तथा अन्यकषायोंकी प्रथमसंग्रहकृष्टिका बन्ध करता है।
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१८३-८४ । २. क० पा० सूत्त पृष्ठ ८५७ सूत्र ११६० । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६० ।