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गाथा १५३-५४]
क्षपणासार
[ १३७ संग्रहकृष्टिके नीचे और मध्यमें अपूर्वकृष्टिरूप परिणमाता है, वहां उस संग्रहकृष्टिको अवयवकृष्टियोके मध्य में जो अपूर्वकृष्टियां करता है, उनको पूर्ववत् चरमसमयवर्ती स्व. कीय द्रव्य के असंख्यातवेंभागप्रमाण द्रव्यसे रचता है तथा अवशिष्टद्रव्यसे उस सग्रहकृष्टिके नीचे अपूर्वकृष्टियोंको करता है, क्योंकि यहां क्रोधको प्रथमसग्रहकृष्टिके अनतर द्वितीयसग्रहकृष्टि को भोगता है अत. ऐसा विधान जानना ।
'कोहस्स विदियकिट्टी वेदयमाणस्स पढमकिटिं वा । उदो बंधो णासो अपुवकिट्टीण करणं च ॥१५३॥५४४॥
अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टिका वेदन करनेवालेके उदय, बन्ध, घात तथा संक्रमण व बन्ध द्रव्यसे अपूर्वकृष्टियोंका करना आदि विधान प्रथमसंग्रहकृष्टिवत् ही जानना ।
विशेषार्थ:-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिवेदककालमै जो विधि कही गई है वही विधि द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदककालमें भी जानना चाहिए। वह इसप्रकार है-उदीर्ण कष्टियोकी, बध्यमानकृष्टियोंकी, विनाश की जानेवाली कृष्टियोंकी, बध्यमाव प्रदेशाग्नसे निर्वर्त्यमान कृष्टियोकी तथा संक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे निर्वय॑मान अपूर्वकृष्टियोकी विधि प्रथमसग्रहकृष्टिकी प्ररुपणाके समान है।
कोहस्स विदियसंगहकिट्टी वेदंतयस्त संकमणं । सट्टाणे तदियोत्ति य तदणंतरहेट्ठिमस्स पढमं च ॥१५४॥५४५॥
अर्थ-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिवेदकके स्वस्थान अर्थात् विवक्षित कषायमै ही संक्रमण तो तृतीयसंग्रहकृष्टि में होता है और परस्थान अर्थात् अन्यकषायमें जो संक्रमण होता है वह उसके नीचे जो (मान) कषाय है उसको प्रथमसंग्रहकृष्टिमें होता है ।
विशेषार्थ-क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टिका वेदक क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशानको क्रोधकी तृतीयसंग्रहकृष्टि में और मावकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संक्रमित करता है १. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४२ से ११४४ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८६ । २. जयधवल मूल पृष्ठ २१८२ । ३. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५६ सूत्र ११४७ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३८६ ।