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गाथा १३७
क्षपणासार
[ १२५ अर्थ-उदयको प्राप्त संग्रहकृष्टिका इस घातद्रव्यद्वारा मध्यमखंडादि किये जाते हैं यह विधान सभी समयोंमें होता है।
विशेषार्थः-जिस संग्रहकृष्टिका अनुभव करता है उसमें आयद्रव्यका अभाव है अत. संक्रमणद्रव्यसे मध्यमखंडादि नही होते हैं। इसलिए मध्यमखण्ड, उभयद्रव्य, विशेष इत्यादि वक्ष्यमाण विधान करने के लिये उस वेदनेरूप सग्रहकृष्टिका असंख्यातवांभागप्रमाण द्रव्य घातद्रव्यसे पृयक रखकर अवशिष्ट घातद्रव्यको ही पूर्वोक्तप्रकार विशेषहीन क्रमसे एकगोपुच्छाकार द्वारा दिया जाता है। एक भागके आगे मध्यमखण्डादि विधानसे द्रव्यदेने का कथन करेगे। यह विधान सर्वसमयों (कृष्टिगत उदयके समयो) में जानना । इसप्रकार घातद्रव्यसे एकगोपुच्छ हुआ, अब जो अन्यसंग्रहका द्रव्य विवक्षित संग्रहमें द्रव्य आया उसको पूर्व में आयद्रव्य कहा था उसका नाम यहां संक्रमण द्रव्य कहा जाता है तथा जो द्रव्य नवीनसमयप्रबद्धमें बन्धकरके कृष्टिरूप होता है वह बन्धद्रव्य कहा जाता है। उसका विधान कहते हैं
कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यसे कुछ चवीन अपूर्वकृष्टियोंको करता है । इनमें संक्रमणद्रव्यके द्वारा तो उन संग्रहकृष्टियोंकी जघन्यकृष्टिके नीचे कुछ अपूर्वकृष्टियोको करता है, इनको अधस्तनकृष्टि कहते हैं तथा उन सग्रहकृष्टियोंको पूर्वअवयवकृष्टियोंके बीच-बीच में नवीन अपूर्वकृष्टियोको करता है, इनका नाम अन्तरकृष्टि है । बन्धद्रव्यके द्वारा अवयवकृष्टियोंके बीच-बीच में ही क्वीनअपूर्वकृष्टियोंको करता है, इनको भी अन्तरकृष्टि कहते हैं। कुछ संक्रमणद्रव्य और बन्धद्रव्यको पूर्वकृष्टियोमें ही निक्षेपण करता है । इसीका विधान अगली गाथामें कहते हैं--
हेढाकिट्टिप्पहुदिसु संकमिदासंखभागमेतं तु। सेसा संखाभागा अंतरकिटिस्स दव्वं तु ॥१३७।।५२८॥
अर्थ-संक्रमणद्रव्यको असख्यातका भाग देनेपर उसमें से एकभागमात्र द्रव्य तो अघस्तन कृष्टिआदिमे देता है अर्थात् इस एकभागप्रमाण द्रव्यसे क्रोधकी प्रथमकृष्टिके अतिरिक्त शेष ११ सग्रहकृष्टियोके अधस्तन अपूर्वकृष्टि करता है तथा अवशेष असख्यातबहुभागप्रमाण अन्तरकृष्टिसम्बन्धी द्रव्य है, इससे अन्तरकृष्टियोंके अन्तरमें अपूर्वकृष्टियों को करता है । इस गाथाका विशेष अर्थ जानने के लिये गाथा १४३का विशेषार्थ देखना चाहिए।