________________
- 'क्षपणांसार
[गाथा १३८२४० : बंधद्दव्वाणंतिमभागं पुण पुवकिपिडिबद्धं ।
सेसाणंता भागा अंतरकिटिस्से दव्वं तु ॥१३८॥५२६॥
अर्थ-बन्धको प्राप्त द्रव्यमें अनन्तका भाग देनेपर एकभागप्रमाण तो पूर्वकृष्टिसम्बन्धी द्रव्य है अतः इस एकभागप्रमाण द्रव्यका पूर्वोक्त कुप्टियोमे निक्षेपण करता, है तथा अवशिष्ट अनन्त बहुभागप्रमाण द्रव्य अन्तरकृप्टिसम्बन्धी है, इससे. नवीन, अन्तरकृष्टियोको करता है। इस गाथाके सम्बन्धमे विशेषकथन गाथा १४२के विशेषार्थसे जानना चाहिए।
कोहस्स पढमकिट्टी मोत्तूणणेकारसंगहाणं तु। वंधणसंकमदव्वादपुवकिहि करेदी हु ॥१३६॥५३०॥ ।
अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिके बिना अवशेष ग्यारह संग्रहकृष्टियोंके यथासम्भव बन्ध व सक्रमणरूप द्रव्यसे अपूर्वकृष्टियोंको करता है । क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टि मे संक्रमणद्रव्यका अभाव होने से मात्र बन्धद्रव्यसे ही अपूर्वकृष्टि करता है।
. विशेषार्थ-वेद्यमान क्रोधकी प्रथम सग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारहसंग्रहकृप्टिसम्बन्धी सम्यमान और यथासम्भव बध्यमान प्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टिकी रचना की जाती, किन्तु क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टि सम्बन्धी अपूर्वकृष्टियां मात्र बध्यमान प्रदेशाग्रसे रची जाती हैं उसमे संक्रम्यमान प्रदेशाग्रका अभाव है । अतः "क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिको छोड़कर" ऐसा कहा गया है । मान, माया व लोभकी. प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अपूर्वकृष्टिया वध्यमान और संक्रम्यमान दोनों प्रकारके प्रदेशाग्रसे रची जाती है, शेष सग्रहकृष्टिसम्बन्धी अपूर्वकृष्टिया मात्र सक्रम्यमान प्रदेशाग्रसे रची जाती हैं उनमें बध्यमान प्रदेशाग्रका अभाव है । यहाँपर अपकर्षित द्रव्यको सक्रम्यमान सज्ञा है । सर्वत्र यहां ऐसा ही ग्रहण करना चाहिए'। . . .
बंधणदव्वादो पुण चदुसटाणेसु पढम किट्टीसु। बंधुप्पवकिट्टीदो संकमकिट्टी असंखगुणा ॥१४०॥५३१॥
१ उपधवल मूल पृष्ट २१६६ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५२ सूत्र १०८६ से १०६१ तक । घ० पु०६
पष्ट ३८५।