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क्षपणासार
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[गाथा १४५-१४६ करना चाहिए । कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयकी यह प्ररुपणा जिसप्रकार को गई है, वह सर्वप्ररुपणा उसीप्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी कहना चाहिए' ।
कृष्टियोंके घातका कथनकोहादिकिहिवेदगपढमे तस्स य असंखभागं तु । णासेदि हु पडिसमयं तस्सासंखेज्जभागकमं ॥१४५॥५३६॥ कोहस्त य जे पढमे संगहकिट्टिम्हि णकिट्टीओ। वंधुझियकिट्टीणं तस्स असंखेज्जभागो हु ।।१४६॥५३७॥
अर्थ-क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिका वेदकजीव प्रथमसमयमें सर्वकृष्टियोंका असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियोंको वष्ट करता है तथा द्वितीयसमयमें उसके असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियोंका घात करता है। इसी क्रमसे प्रतिसमय असंख्यातवेंभागप्रमाणरूप क्रमसे कृष्टियोका घात करता है । क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिके सर्ववेदककालमें जो कृष्टियां नष्ट हुई हैं वे क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अबध्यमान कृष्टियोंके असंख्यातवेंभागप्रमाण हैं।
विशेषार्थ-विशुद्धिके माहात्म्यसे कोषकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी कृष्टियोमें से अग्रकृष्टिको आदि करके कृष्टियोका असंख्यातवेभाग प्रतिसमय अपवर्तनाघातद्वारा विनाश किया जाता है । जो कृष्टियो प्रथमसमयमें विनष्ट होती हैं वे बहुत हैं, क्योकि समस्तकृष्टियोके असंख्यातवेंभागप्रमाण हैं और जो कृष्टियां द्वितीयसमयमें नष्ट की जाती हैं वे प्रथमसमयमे विनष्टकृष्टियोंसे असंख्यातगुणीहीन हैं । यद्यपि द्वितीयसमयमै विशुद्धि अनन्तगुणी बढ़ जाती है तथापि प्रथमसमयमें विनष्ट कृष्टियोसे रहित शेष बची हुई कृष्टियोके असंख्यातवेंभागका घात करता है इसलिये द्वितीयसमयमें असंख्यातगुणोहीन कृष्टियोंका नाश करता है । इसीप्रकार तृतीयादि समयों में भी प्रतिसमय अपवर्तनाघातका क्रम जानना चाहिए। यह असंख्यातगुणाहीनक्रम अपने विनाशकालके द्विचरमसमयतक चला जाता है। प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदकके क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिमें
१. जयववल मूल पृष्ठ २१७७-७८ । २. इन दोनो गाथासम्बन्धी विषय क० पा० सुत्त पाठ ८५४-५५ सूत्र ११२४ से ११२८ तक एवं
धवल पु० ६ पृष्ठ ३८७.८८ पर भी है।