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क्षपणासार
[ गाथा १४१ बन्ध अन्तर्मुहूर्तकम १० वर्ष है और स्थितिसत्त्व संख्यातहजार वर्ष है। शेष (तीन अघातिया) कर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातवर्ष और स्थितिसत्त्व असख्यातवर्ष है'।
विशेषार्थ--प्रथमसमयवर्ती कृष्टिवेदक संज्वलनक्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टि में से अवयवकृष्टियोका अपकर्षणकरके उसके द्वारा क्रोधवेदककालके साधिक विभागकालसे एक प्रावलि अधिकप्रमाण स्थितिको करता है । क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिको वेदन करनेवाले की जो प्रथमस्थिति है उस प्रथमस्थितिका वेदन करते हुए जिससमय एकसमयअधिक आवलिमात्र काल उस प्रथमस्थितिमे शेष रह जाता है वही क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिके वेदनका अन्तिमसमय होता है । प्रथमस्थितिमे समय अधिक आवलिमात्र शेष रह जानेपर अन्तिम स्थितिका अपकर्षणकरके उदयावलिमें क्षेपण करनेवालेके संज्वलनक्रोधकी जघन्यस्थितिउदीरणा होती है वहांपर द्वितीयस्थितिसे उदीरणा सम्भव नहीं है, क्योंकि उसप्रथमस्थिति में आवलि-प्रत्यावलिकाल शेष रह जानेपर पहले ही आगालप्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जाती है । कृष्टिवेदकके प्रथमसमयसे संज्वलनचतुष्कके अनुभागसत्त्वकी जो पूर्वप्रवृत्त अनुसमय अपवर्तना है वह उसीप्रकारसे होती रहती है।
पूर्व अर्थात् कृष्टिवेदनके प्रथम समय में संज्वलनचतुष्कका स्थितिवन्ध पूर्ण चारमाह होता था वह संख्यातहजार स्थितिबन्धापसरणोके द्वारा यथाक्रम घटकर प्रथमकृष्टिकी प्रथमस्थिति के एकसमयअधिक आवलिकाल शेष रह जानेपर चालीसदिनअधिक दो माह अर्थात् (४०+६०) १०० दिन रह जाता है। तीनो संग्रहकृष्टियोके वेदककालमे स्थितिबन्ध दो माह अर्थात् ६० दिन घटता है तो एक (प्रथम) संग्रहकृष्टि के वेदककालमे स्थितिबन्ध कितना कम होगा? इसप्रकार त्रैराशिकविधि करनेपर (१) २० दिन प्राप्त होते हैं, जो कि प्रथमसग्रहकृष्टिवेदककालके विभागसे कुछ अधिक है । अतः प्रथमसग्रहकृष्टिवेदककालमे चारसंज्वलन कषायोका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त अधिक २० दिन, घटकर अन्तमुहूर्त कम १०० दिन रह जाता है ।
१. "जा पुत्व पवत्ता सजलणाणुभागसंतकम्मस्स अणुसमयमोवट्टणा सा तहा चेव" अर्थात् सज्वलन
चतुष्कके अनुभागसत्त्वकी जो पूर्व प्रवृत्त अनुसमयवर्ती अपवर्तना है वह उसीप्रकार होती रहती है । (क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५५ सूत्र ११३३) यह पाठ जयधवल मूल पृष्ठ २१८० तथा धवल
पु० ६ पृष्ठ ३८८ मे भी, किन्तु नेमिचन्द्राचार्यने उसे यहा ग्रहण नहीं किया है। २. जयघवल मूल पृष्ठ २१७९-८० ।