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क्षपणासार
गाथा १४७-१४६ ]
(१३३ ऊपर और नीचेकी असंख्यातवेंभागप्रमाण कृष्टियां अबध्यमान कहलाती हैं । कृष्टिवेदकके प्रथमसमयसे लेकर निरुद्ध प्रथमसंग्रहकृष्टिके विनाशकालके द्विचरमसमयतक उपरिम अबध्यमानकष्टियोके असंख्यातवेंभागमात्र कृष्टियोंका विनाश होता है । उपरिम व अधस्तन इन दोनो भागोंमेसे उपरिमभागमें विनष्ट कृष्टियों का प्रमाण आवलिके असंख्यातवेभागमात्र विशेष है। जैसा क्रोधकी प्रथमसंग्रहकष्टिके विनाशका क्रम कहा गया है वैसा ही क्रम शेष संग्रहकृष्टियोंके विनाशका भी जानना चाहिए, क्योंकि इसमें विरोधका अभाव है।
क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टिको प्रथमस्थितिमें समयाधिक आवलोकाल शेष रहनेको अवस्थाका कथन
'कोहादिकिहियादि द्विदिम्हि समयाहियावलीसेसे । ताहे जहएणुदीरइ चरिमो पुण वेदगो तस्स ॥१४७॥५३८॥ ताहे संजलणाणं बंधो अंतोमुहुत्तपरिहीणो । सत्तोवि य सददिवसा अडमासब्भहियछवरिसा ॥१४८॥५३६॥ घादितियाणं बंधो दसवासंतोमुहुत्तपरिहीणा । सत्तं संखं वस्सा सेसाणं संखऽसंखवस्साणि ॥१४६॥५४०॥
अर्थ-क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको प्रथमस्थितिमें समयअधिक आवली अवशेष रहनेपर जघन्यस्थितिकी उदीरणा करनेवाला होता है। आवलीके ऊपर जो एकसमय है उस समयसम्बन्धी निषेकको अपकर्षित करके उदयावलिमें निक्षेपण करता है तथा वही क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टिवेदकका चरमसमय होता है। वहा (पूर्वोक्त समयाधिक आवलिकाल शेष रह जानेपर) संज्वलनका स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त कम १०० दिन और स्थितिसत्त्व अन्तर्मुहर्तकम आठमाह अधिक ६ वर्ष है । तीवघातिया कर्मोका स्थिति
१. जयधवल मूल पृष्ठ २१७८-७६ ।। २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५५ सूत्र ११२६ से ११३१ । ३० पु० ६ १४ ३८८ ।