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क्षपणासार
गाथा १४३
विशेषार्थ-बध्यमानप्रदेशाग्रकी श्रेरिपप्ररुपणा कही जाती है--चारों प्रथमसंग्रहकृष्टियोके नीचे व ऊपर असख्यातवेंभाग कृष्टियोंको छोड़कर शेषसमस्त मध्यमस्वरूपसे प्रवर्तमान नवकबन्धका अनुभाग पूर्वकृष्टिस्वरूप भी होता है और अपूर्वकृष्टिस्वरूप भी। नवकसमय प्रबद्धका अनन्तर्वाभाग प्रदेशाग्र पूर्वकृष्टियोंमें दिया जाता है और शेष अनन्त बहुभाग नवीन अपूर्वकृष्टिस्वरूपसे दिया जाता है। नवकसमयप्रबद्धके उपर्युक्त अनन्तवेंभागमे से जघन्यकृष्टिमें बहुत प्रदेशान दिया जाता है । द्वितीयकृष्टि में अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है । तृतीयकृष्टि में अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है, चतुर्थकृष्टिमै अनन्तवेंभागसे विशेषहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है। इसप्रकार विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशाग्न नवीन अपूर्वकृष्टि के प्राप्त होनेतक दिया जाता है । पुनः अनन्तगुणेप्रदेशाग्र द्वारा अपूर्वकृष्टि निर्वतित होती है । इस अपूर्वकृष्टि से अनन्तरकृष्टि में अनन्तगुणाहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है। तदनन्तर अनन्तभागहीन-अनन्तभागहीन प्रदेशाग्न तब तक दिया जाता है जबतक कि अन्य अपूर्वकृष्टि प्राप्त हो । पुनः अनन्तगुणे प्रदेशानद्वारा अन्य अपूर्वकृष्टि निर्वतित होती है, उससे अवन्तरकृष्टि में अनन्तगुणाहीन प्रदेशाग्र दिया जाता है और उससे आगे अनन्तवेंभागहीन प्रदेशाग्न दिया जाता है । इसीप्रकार शेष सर्वकृष्टियों में जानना चाहिए । पूर्व और अपूर्वकृष्टियोमें गोपुच्छसम्पादन के लिए प्रदेशाग्रका यह क्रम होता है । इसप्रकार बध्यमानप्रदेशाग्रसे अपूर्वकृष्टियोकी रचना कही गई।
संकमदो किट्टीणं संगहकिट्टीणमंतरं होदि। संगह अंतरजादो किट्टी अंतरभवा असंखगुणा ॥१४३॥५३४॥
अर्थ--संक्रमणरूप द्रव्यसे उत्पन्न हुई अपूर्वकृष्टियोमें से कुछ कृष्टियां तो संग्रहकृष्टियोके नीचे उत्पन्न होती हैं और कुछ कृष्टियां पूर्वमे जो अवयवकृष्टि थी उनके अन्तरालोमें होती हैं। यहां संग्रहकृष्टियोके अन्तरालमें नीचे उत्पन्न हुई कृष्टियोंसे अवयवकृष्टियोके अन्तरालमें उत्पन्न हुई कृष्टि असंख्यातगुणी हैं ।
विशेषार्थ-संक्रम्यमाण प्रदेशाग्रसे जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं वे दो अवकाशो (स्थलों) अर्थात् कृष्टिअन्तरालमें भी और सग्रहकृष्टिअन्तराल में भी रची
१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५३ सूत्र ११०५ से १११४ । घ० पु० ६ पृष्ठ ३८६ । जयधवल मूल पृष्ठ
२०७२ से २०७४ ।