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क्षपणासार
गाथा १४४ ]
[ १२६ जाती हैं। क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारहसंग्रहकृष्टियोके नीचे अपूर्वकृष्टियां सक्रम्यमाण प्रदेशाग्न अर्थात् अपकर्षित समस्तद्रव्यके असंख्यातवेंभागसे रची जाती हैं अतः वे अल्प हैं । संक्रम्यमाणप्रदेशाग्र अर्थात् अपकर्षित समस्तद्रव्यके असंख्यातबहुभाग द्वारा कृष्टिअंतरालोंमें जो अपूर्वकृष्टियां रची जाती हैं उससे संग्रहकृष्टियोंके नीचे अपूर्वकृष्टियोकी रचनामें दिये जानेवाले द्रव्यसे असख्यातगुणे द्रव्यद्वारा कृष्टिअन्तरालोंमे रची जानेवाली अपूर्वकृष्टिया असख्यातगुणी हैं, क्योंकि इनकी रचनामें असंख्यात गुणा द्रव्य लगा है'।
संगहअंतरजाणं अपुवकिहि व बंधकिहि वा। इदराणमंतरं पुण पल्लपदासंखभागं तु ॥१४४॥५३५॥
अर्थ-सग्रहकृष्टि अन्तरालोमें जो अपूर्वकृष्टियोंकी रचना की जाती है उनका विधान कष्टिकरणमे निर्वय॑मानकृष्टियोंके विधान जैसा जानना चाहिए । 'इदराणाम' अर्थात् कृष्टि अन्तरालोमें रची जानेवाली अपूर्वकृष्टियोंका विधान बध्यमानप्रदेशाग्रसे निर्वय॑मान अपूर्वष्टियोके विधान (गाथा १४१-४२) जैसा यहां भी जानना चाहिए, किन्तु यहां अपूर्वकृष्टिगत अन्तर पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेंभाग है।
विशेषार्थः- कृष्टिकरणकाल में पूर्व में निर्वय॑मान अपूर्वकृष्टियोंकी जो विधि वही विधि निरवशेषरूपसे अपकर्षितद्रव्यके द्वारा संग्रहकृष्टियोके अन्तराल में रची जानवाली अपूर्वसंग्रहकृष्टियों के सम्बन्धमें भी जानना चाहिए, क्योकि उष्ट्रकूटश्रेणिके आकार से दिये जानेवाले प्रदेशानकी निषेकप्ररुपणाके प्रति भेदकी अनुपलब्धि पायी जाती है । इसप्रकार उष्ट्रकूटश्रेणिसामान्यकी अपेक्षासे दोनों विधानों में कोई विशेषता नही है ऐसा कहा गया है, किन्तु अर्थतः (वास्तवमें) देखनेपर इन दोनों में सादृश्य नहीं दिखाई देता, क्योंकि दोनों में कुछ विशेषता संभव है । वह विशेषता इसप्रकार है कि कृष्टिकरणकालके प्रथमसमयमें कृष्टिरूपसे परिणत प्रदेशपिण्डसे द्वितीयसमयवर्ती कृष्टियोमें निःसिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा होता है, उससे तृतीयसमयमे निःसिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असख्यातगुणा है, उससे चतुर्थसमयमें नि:सिंच्यमान प्रदेशपिण्ड असंख्यातगुणा है। इस
१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ८५४ सूत्र १११५ से १११६ । धवल पु० ६ पृ० ३८७ । जयधवल मूल
पृष्ठ २०७४-७५ ।। २. क. पा. सुत्त पष्ठ ८५४ सूत्र ११२० से ११२३ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३८७ ।