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क्षपणासार
[गाथा १३४-१३६ कृष्टिको चरमकृष्टिसे उपरिम अन्यसंग्रहकृष्टिको आदिकृष्टि में जो विशेषहीन क्रम पाया जाता है वह परस्यानगोपुच्छ कहलाता है । कृष्टियोके हीनाधिक द्रव्यका संक्रमण होनेसे चय (विशेष) हीनरूप क्रम नष्ट हो जानेसे पूर्व में जो स्वस्थानगोपुच्छ था वह संक्रमणद्रव्यके द्वारा नष्ट हो गया तथा नीचलीसंग्रहकृष्टिकी चरमकृष्टि व उपरिमसंग्रहकृष्टिको आदिकृष्टि में कृष्टियों का घात होनेसे एकविशेषहीनरूप क्रमका अभाव हो गया अतः पूर्व में जो परस्थानगोपुच्छ था, उसका अग्रकृष्टिघातद्वारा नाश हुआ।
यहां कोई कहता है कि व्ययद्रव्य तो गया और आयद्रव्य आया अत. व्ययद्रव्यसे स्वस्यानगोपुच्छ का नाश कहा तथा प्रायद्रव्यसे स्वस्थानगोपुच्छका होना कहा उसोको कहते हैं- आय और व्यय द्रव्य का कथन
आयादो वयमहियं, हीणं सरिसं कर्हिपि अण्णं च । तम्हा आयव्वा, ण होदि सट्ठाणगोउच्छं ।।१३४॥५२५॥
अर्थ-किसी संग्रहकृष्टि में आयद्रव्यसे व्ययद्रव्य अधिक है तो किसीमें हीन है और किसी संग्रहकृष्टिमें आय-व्ययद्रव्य समान भी है। किसी संग्रहकृष्टि में आयद्रव्य तो है, किन्तु व्ययद्रव्य नही है और किसी व्ययद्रव्य तो है आयद्रव्य नही है इसलिए आयद्रव्यसे स्वस्थानगोपुच्छका होना मानना ठीक नही है ।
अब स्वस्थान-परस्थानगोपुच्छके सद्भावका विधान कहते हैं
घादयदव्वादो पुण वय प्रायदखेत्तद्व्वगं देदि । सेसासंखाभागे अणंतभागूणयं देदि ॥१३५।।५२६॥
अर्थ-घातक द्रव्यसे व्यय और आयतक्षेत्रद्रव्यको देनेसे एक गोपुच्छ होता है तथा शेष असंख्यात भागमें अनन्तभाग ऊण द्रव्य दिया जाता है ।
विशेषार्थ-घात की हुई कृष्टियोके व्ययद्रव्यको पूर्वोक्त व्ययद्रव्य में से घटावेपर अवशिष्ट द्रव्यप्रमाण द्रव्य घातद्रव्यसे ग्रहणकरके जिन कृष्टियोका जितना-जितना द्रव्य व्यय हुआ था उनमें उतना-उतवा द्रव्य देकर उनको पूर्ण करनेसे स्वस्थानगोपुच्छ होता है।
उदयगदसंगहस्स य मझिमखंडादिकरणमेदेन । दव्वेण होदि णियमा एवं सम्वेसु समयेसु ॥१३६॥५२७॥