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गाथा १३० ]
क्षपणासार
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नीचे उतरकर संप्रति उदयकृष्टिकी जघन्यकृष्टि होती है । उसके नीचे पूर्व समय सम्बन्धी अनुभयकृष्टियों के असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टिं नीचे उतरकर वर्तमान में जघन्यप्रनुभयकृष्टि होती है, वही सर्वकृष्टियों में जघन्यकृष्टि है । इसप्रकार अधस्तन कृष्टियों में विधान जानना | ऐसे प्रतिसमय पूर्व समयसम्बन्धी अघस्तन अनुभयरूप उदयकृष्टि और उपरितन उदय व अनुदयरूप कृष्टियोंके प्रमाणसे उत्तरसमयसम्बन्धी कृष्टियों का प्रमाण प्रसंख्यातगुणा कम है और मध्यवर्ती उभयकृष्टियोंका प्रमाण विशेषअधिक होता है ऐसा जानना ।
'पडिसमयं अहिंगदिया उदये बंधे च होदि उक्कस्सं । बंधुदये च जहां अंतगुणहीणया किट्टी ॥ १३० ॥ ५२१ ॥
अर्थ - प्रतिसमय सर्पको गतिवत् उदय व बन्धमें तो उत्कृष्टकृष्टि तथा बन्ध व उदय में जघन्यकृष्टि अनुभाग अपेक्षा अनन्तगुणे घटते हुए क्रमसहित जाननी ।
विशेषार्थ - सर्व कृष्टियोके अनन्त मध्यवर्ती कृष्टिय उदयरूप हैं और उदयरूप कृष्टियोके मध्यवर्ति कृष्टियां बन्धरूप है । उनमे सबसे स्तोक अनुभागवाली प्रथमकृष्टि हो जघन्यकृष्टि है और सबसे अधिक अनुभाग सहित अन्तिमकृष्टि उत्कृष्ट कृष्टि है । कृष्टिवेदककालके प्रथम समय में उदयसम्बन्धी उपरितन उत्कृष्टकृष्टि बहुत अनुभागसहित है, उसी समय में बन्धकी उपरितन उत्कृष्टकृष्टि उससे अनन्तगुणेकम अनुभागयुक्त है, क्योंकि उदयागत कृष्टि से अनन्तकृष्टि नीचे जाकर बन्धकृष्टिका अवस्थान है | उससे द्वितीयसमयमें उदयकी उपरितन उत्कृष्टकृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभाग वाली है, क्योंकि प्रथमसमयसे द्वितीयसमय में विशुद्धि अनन्तगुणी है । उससे द्वितीय समय में हो बन्धकी उपरितन उत्कृष्ट कृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभागसहित है, उससे तृतीयसमयवर्ती उदय सम्बन्धी उत्कृष्टकृष्टि अनन्तगुणेहीन अनुभागयुक्त है, उससे उसी समयवाली वधकी उत्कृष्टकृष्टि अचन्तगुणेहीन अनुभागसहित है । इसप्रकार सर्पगतिवत् (जैसे सर्प इधर से उधर और उधर से इधर गमन करता है) विवक्षित समय में उदयकी कृष्टि से बन्धको कृष्टि और पूर्व समयसम्बन्धी बन्धकृष्टिसे उत्तरसमयवाली उदयकृष्टिमें प्रनन्तगुणाहीन अनुभाग क्रमसे जानना । कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमे व्यवस्तन बन्धमम्वन्धी जघन्यकृष्ट बहुत अनुभागयुक्त है, क्योकि जघन्य उदयकृष्टि से अनन्तकृष्टि ऊपर जाकर
१. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८५० सूत्र १०७२-१०८२ । घवल पु० ६ पृष्ठ ३८४ । जवववल मूल पृष्ठ २१६६ व २१६७ ।