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क्षपणासार
गाथा १२४ ]
[ ११५ प्रहणकरके प्रथमस्थितिको करता है। क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि वेदककालसे उच्छिष्टावलिमात्र अधिक उस प्रथमस्थितिके निषेकोका प्रमाण है और वही गुणश्रेणोआयाम भी कहा जाता है, उसके वर्तमानमें उदयरूप प्रथमनिषेकमें तो सबसे स्तोकद्रव्य देता है, उससे द्वितीयादि से चरमसमयपर्यन्त असंख्यातगुणे क्रमसे द्रव्य दिया जाता है। इसप्रकार उस एकभागप्रमाण द्रव्यका गुणश्रेणीरूपसे देना कहा । यहां प्रथमस्थिति के अन्तिमनिषेकको ही गुणश्रेणीशीर्ष कहते हैं। जो अवशेष बहुभागमात्र द्रव्य था उसको स्थितिकी अपेक्षा क्रोधकी द्वितीय व तृतीयसंग्रहकुष्टिसे भो अपकर्षित द्रव्यमें मिलानेपर जितना द्रव्य हुआ उसमें, यहां आठवर्षमात्र स्थिति है, उसकी संख्यातावलियां हुई
और वही हुआ गच्छ, उस गच्छका भाग देनेसे मध्यधन प्राप्त होता है। उस मध्यधनमें एककम गच्छके माधेप्रमाण चय मिलानेपर द्वितीयस्थिति के प्रथमनिषेकमें दिये हुए द्रव्य का प्रमाण होता है, यह द्रव्य गुणश्रेणिशीर्षमै दिये गए द्रव्यसे असंख्यातगुणा है सो इसके असंख्यातवेंभागमात्र विशेषका (चयका) प्रमाण है अतः इस विशेषरूप घटते क्रमसे द्वितीयादि निषेकोंमें अतिस्थापनावलिके नीचे-नीचे द्रव्य दिया जाता है। इस क्रमसे प्रतिसमय उदयादि गलितावशेष गुणश्रेणि करता है। यहांपर मोहनीयकर्म का अपवर्तनघात होता है । इससे पूर्व अश्वकर्णकरणरूप अनुभागका अन्तर्मुहूर्त में पूर्ण होनेवाला काण्डकघात होता था, किन्तु अब संज्वलनकी बारहकृष्टियोंका प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ अतुभाग होनेसे अपवर्तनघात-प्रवर्तता है।
'पडमस्स संगहस्स य असंखभागा उदेदि कोहस्स । बंधेवि तहा चेव य माणतियाणं तहा बंधे ।।१२४॥५१५॥
अर्थ-कृष्टिवेदककालके प्रथमसमयमें क्रोधकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसम्बन्धी अन्तरकृष्टियोंके प्रमाणको असंख्यातका भाग देवेपर उसमेंसे बहुभागमात्रकृष्टि उदयमें आती है । यहां जो बहुभागमात्र कहा गया है वह एकभागप्रमाण उपरितन व अघस्तन कृष्टिको छोड़कर मध्यवर्ती कृष्टियोंका प्रमाण है । प्रथम, द्वितीयादि कृष्टियोंको तो अघस्तव और चरम व उपांतआदि कृष्टियोंको उपरितवकृष्टि कहते हैं। उदयल्प नहीं होती ऐसी अधस्तन कृष्टि तो अनन्तगुणेरूपसे बढ़ते हुए अनुभागरूप होकर तथा उपरितन
१. जयधवल मूल पृष्ठ २०६७ व २०६८ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६६०-६१ । घ० पु०६
पृष्ठ ३८३।