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गाथा ११८-११६ ] क्षपणासार
[१११ वर्षमात्र रह गया। तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय) कर्मोका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्षप्रमाण है, क्योंकि जिसप्रकार मोहनीयकर्मके स्थितिसत्त्वका विशेष घात होता है वैसा विशेषघात शेष तीन घातियाकर्मोका नहीं पाया जाता है। तीनअघातियाकर्मोंका सत्त्व यद्यपि असंख्यातगुणहानियों द्वारा अपवर्तनघात होता हैं तथापि उनका स्थितिसत्त्व यहां असंख्यातहजारवर्षप्रमाण ही है।
पडिपदमणंतगुणिदा किट्टीयो फड्डया विसेसंहिया । किट्टीण फड्ढयाणं लक्षणमणुभागमासेज ॥११८५०६॥
अर्थ-यहां सर्वकृष्टियां तो प्रतिपद अनन्तगुणा अनुभाग लीये हैं अर्थात् प्रथमकृष्टि के अनुभागसे द्वितीयकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे तृतीयकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है । इसप्रकार चरमकृष्टि' पर्यन्त क्रमसे अनन्तगुणा अनुभाग पाया जाता है तथा जो स्पर्धक हैं वे प्रतिपद विशेषअधिक अनुभाग लोए हैं। अर्थात् स्पर्धकोंकी प्रथमवर्गणासे द्वितीयवर्गणामें और द्वितीयवर्गणासे तृतीयवर्गणोंमें, इसप्रकार अनन्तवर्गणा पर्यन्त क्रमसे विशेषअधिक अनुभाग पाया जाता है । इसप्रकार अनुभागका आश्रयकरके कृष्टि और स्पर्धकोंका लक्षण कहा । द्रव्यको अपेक्षा तो चये घटेंता क्रम कृष्टि और स्पर्धक इन दोनों में ही है। किन्तु अनुभाग क्रमको अपेक्षा कृष्टि और स्पर्धकका लक्षण पृथक्-पृथक् है।
'पुवापुवप्फड्डयमणुहदि हुकिट्टिकारो णियमा । तस्सद्धा णिट्ठायदि पढमढिदि आवलीसेसे ॥११६॥५१०॥
अर्थ-कृष्टि करनेवाला कृष्टिकरणकालमें पूर्व-अपूर्वस्पर्धकोके उदयको नियमसे अनुभवता है । जैसे अपूर्वस्पर्धकोको करते हुए पूर्वस्पर्धकके साथ अपूर्वस्पर्धकका अनुभव करता है वैसे 'कृष्टि करते हुए कृष्टिको नही भोगता है। इसप्रकार सज्वलन क्रोधकी प्रथमस्थिति में उच्छिष्टावलिप्रमाण काल शेष रहनेपर कृष्टिकरणकालकी निष्ठापना (समाप्ति) करता है । यह कथन उत्पादानुच्छेदकी अपेक्षासे है।
॥इति कृष्टिकरणाधिकारः ॥
१. क० पा० सुत्त पृष्ठ ८०४ सूत्र ६७८ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३८२। जयधवल मूल पृष्ठ २०६५।