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क्षपणासार
- [ गाथा ७६
चिन न० ५
इन विकल (अवान्तर) खण्डोंमे से एक विकल खण्डको ग्रहणकर अपूर्वखण्डोके पार्श्वमें देना चाहिए और शेष समस्त विकलखण्डोको पूर्वस्पर्धकोमें देना चाहिए। इसीप्रकार शेष
समस्त सकलखण्डोके विकल (अवान्तर) खण्ड करके पूर्व-अपूर्व अङ्कसन्दृष्टिमे
स्पर्धकोमे देना चाहिए। इसप्रकार पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें १२ खण्ड दिए गये सर्वविकलखण्डोका प्रमाण एक सकलखण्डके बराबर नही होता, किन्तु किंचित्ऊन सकलखण्डप्रमाण होता है । यदि अपकर्षण-उत्कर्षणभागाहारप्रमाण विकलखण्ड और होते तो एक सकलखण्ड हो जाता । इस प्रकार अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामे जो द्रव्य दिया गया है वह किंचित्ऊन एक सकलखण्डप्रमाण है। अपूर्वस्पर्वकोमे एककम अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारप्रमाण द्रव्य दिया गया है। इससे सिद्ध हो जाता है कि अपूर्वस्पर्धककी अन्तिमवर्गणामे निक्षिप्त प्रदेशाग्रोसे पूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणामे निक्षिप्त प्रदेशाग्न असंख्यातगुणहीन है । यहांपर गुणाकार साधिक अपकर्षणउत्कर्पणभागाहार है । इसलिए पूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणामें जो प्रदेशाग्न पहलेसे विद्यमान हैं उनके असख्यातवेंभाग प्रदेशाग्रोका निक्षेपण होता है। पूर्वस्पर्षकोकी द्वितीयवर्गणामे विशेषहीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं । पूर्व और अपूर्वस्पर्धकोमें दिये गये अवशेष द्रव्य द्वारा पूर्व और अपूर्वस्पर्धकोकी एक गोपुच्छाकार बन जाती है।
पुर्व स्पर्थक
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