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[ गाथा १०५
कषायरूप द्रव्य है । अब यहां पर कंषायरूप द्रव्यको क्रोधादि चारकषायोंकी १२ संग्रहकृष्टियोमें विभाग करनेपर क्रोध प्रथम संग्रहकृष्टिका द्रव्य (२) अंकप्रमाण रहता है जो कि मोहनीयकर्मके सकल (४९) द्रव्यकी अपेक्षा कुछ अधिक २४वां भागप्रमाण है । प्रकृत कृष्टिकरणकालमे चोकषायोंका सर्वद्रव्य भी सज्वलनक्रोधमे सक्रमित हो जाता है। जो कि सर्व ही द्रव्यकृष्टि करनेवालेके क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टिरूपसे ही परिणत होकर अवस्थित रहता है | इसका कारण यह है कि वेदन की जानेवाली प्रथमसग्रहकृष्टिरूप से ही उसके परिणमनका नियम है । इसप्रकार क्रोधकी प्रथमसग्रहकृष्टि के प्रदेशाप्रका स्वभाग (२) इस वोकषायद्रव्य (२४) के साथ मिलकर ( २ + २४ = २६ ) क्रोधको द्वितीयसग्रहकृष्टि के दो अप्रमाण द्रव्यकी अपेक्षा तेरहगुणा ( २x१३ = २६ ) सिद्ध हो जाता है | अतएव चूर्णिकारने उसे तेरहगुणा बतलाया है ।
क्षपणासाय
इसप्रकार उपर्युक्त सूत्र से सूचित स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार जानना चाहिए । क्रोध की द्वितीयसंग्रहकृष्टिमे प्रदेशाग्र संख्यातगुणित हैं। मानका स्वस्थान अल्पबहुत्व इसप्रकार है - मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिमे प्रदेशान सबसे कम है, द्वितीय संग्रहकृष्टि मे विशेष अधिक हैं, तृतीय संग्रहकृष्टिमे विशेषअधिक हैं । इसीप्रकार माया और लोभसम्बन्धी स्वस्थान -प्रत्पबहुत्व जानना चाहिए' ।
पढमादिसंगदाओ पल्ला संखेज्ज भागहीणाओ ।
कोहस्स तदीयाए अकसायाणं तु किट्टीओ ॥ १०५ ॥ ४६६॥
अर्थ — संग्रहकृष्टिकरण की प्रथम ( जघन्य ) संग्रहकृष्टिसे लेकर आगे-आगे क्रोधकी द्वितीयसग्रहकृष्टितक द्रव्य हीन होता गया है । प्रथमसंग्रहकृष्टि के द्रव्यको पल्यके असंख्यातवेभागसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतना द्रव्य द्वितीयसग्रहकृष्टि कम है । कृष्टिकरणकी अपेक्षा क्रोधकी तृतीयकृष्टि ( उदयापेक्षा क्रोधकी प्रथमकृष्टि ) में नोकषायका द्रव्य मिल जाता है ।
१. क० पा० सुत्त ८१२ | गाथा ६६ से १०४ तक ६ गाथाओकी टीका मात्र क० पा० सुत्त और धवल पु० ६ के आधार से लिखी गई है क्योकि जयधवल मूल (फलटनसे प्रकाशित ) के पृष्ठ २०४५ से २०४८ के पृष्ठ नही मिल सके। इन गाथाओं सम्बन्धी विषय उन पृष्ठोमे होगा ऐसा प्रतीत होता है ।