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क्षपणासार
(गीर्थो १०५ .६८
शंका---क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यसे तृतीयसंग्रहंकष्टिका द्रव्य कितना अधिक है? समाधान--क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिके द्रव्यंको पल्यके असंत्यातवेंभागसे खण्डित करके एकखण्डप्रमाण तृतीयसग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है।'
उदयं (वेदक) की अपेक्षा मानकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टि अथवा कारककी अपेक्षा मानकपायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य स्तोक है; उससे द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषयधिक है, क्योंकि तीव्रअनुभागवाले प्रदेशपिण्डसे मेन्दअनुभागवाला प्रदेशपिण्ड अधिक होता है । द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्यं विशेषअधिक है । विशेष के लिए प्रतिभाग पल्यको असंख्यातवांभाग है, यह प्रतिभाग स्वस्थानके लिए है अर्थात मानकषायकी तीनसंग्रहकृष्टियों में परस्पर विशेषका प्रमाण स्वस्थानविशेष है। इसी प्रकार माया व लोभकषायमे भी स्वस्थानविशेष जानना चाहिए।
मानकषायकी तृतीयसग्रहकृष्टि से क्रोधकषायकी द्वितीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है। यहांपर विशेषके लिए प्रतिभाग आवलिका असख्याताभांग है, क्योकि यहां परस्थानविशेष है कारण कि मान और क्रोध दोनों भिन्न-भिन्न कषाय हैं । क्रोध कपायको तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है। यहाँविशेषको प्रतिभाग पल्यंका असंत्यातवांभाग है । मायाकषायकी प्रथमसग्रहकृष्टिका द्रव्य क्रोधकषायंकी तृतीयसंग्रहकृष्टि से विशेषअधिक है, यहां विशेष अधिकके लिए प्रतिभाग आवलिका असख्यातवांभाग है, क्योंकि परस्थान है । मायाकी प्रथमसग्रहकृष्टिके द्रव्यसे माया कषायकी द्वितीयसंग्रहकृप्टिका द्रव्य विशेषअधिक है । यहा विशेष अधिकके लिए प्रतिभाग पल्यका असंख्यातवांभाग है, क्योकि स्वस्थान है। इससे मायाकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है यहां भी स्वस्थान होनेसे विशेषअधिकके लिए प्रतिभांग पल्यका असख्यातवांभाग है । मायाकषायकी तृतीयसंग्रहकृष्टिसे लोभकायकी प्रथम सग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेष अधिक है, यहापर परस्थान होनेसे विशेषअधिकके लिए प्रतिभांग आवलिका असंख्यातवांभाग है, क्योकि माया व लोभकषाय भिन्न-भिन्न कषाएं हैं। लोभकषायकी प्रथमसंग्रहकृष्टिसे लोभकी ही द्वितीयसग्रहकृष्टिको द्रव्य विशेषअधिक है और इससे तृतीयसंग्रहकृष्टिका द्रव्य विशेषअधिक है । यहा द्वितीय और तृतीय दोनों ही कृष्टियोमै विशेपअधिकके लिए प्रतिभाग पल्यका असख्यातवाभाग है, क्योकि स्वस्थान है । इस
१. "विसेसो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागपडिभागो" (क. पा. सुत्त पृ० ८१२ सूत्र ७६२)