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गाथा १०५)
क्षपणासार
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विशेषार्थ-गाथा १०५ का विशेषार्थ कषायपाहुड़ गाथा १७० और जय धवलमूलटीका के आधारसे लिखा जा रहा है। क. पा. गाथा १७० में उदयकी अपेक्षा 'प्रथमादि' क्रम रखा गया है अतः यहां भी उदयकी अपेक्षा हो प्रथमादि क्रम लिखा जावेगा । जैसे ऊपर गाथामें तो "क्रोधको तृतीयकृष्टिमें नोकषायका द्रव्य मिलाया गया है" ऐसा कहा है, किन्तु उदयापेक्षा वह तृतीयकृष्टि ही प्रथमकृष्टि है इसीलिए क. पा. गाथा १७० में "प्रथमकृष्टि में नोकषायका द्रव्य मिलाया गया है" ऐसा कहा है, क्योंकि कृष्टिरचना तो नोचेसे ऊपरकी ओर होती है अर्थात् जघन्यअनुभागसे उत्तरोत्तर अनुभाग बढते हुए कृष्टिरचना होती है, किन्तु प्रथमउदय अधिक अनुभागवाला होता है तथा आगे उत्तरोत्तर हीनअनुभागका उदय होता जाता है अर्थात् उदय ऊपरसे नीचेकी मोर होता है।
क्रोधोदयको अपेक्षा द्वितीयसंग्रहकृष्टिके प्रदेशाग्र अल्प हैं, उससे उदयागत प्रथमसंग्रहकृष्टिमें संख्यातगुणे अर्थात् तेरहगुणे प्रदेशाग्न हैं, क्योकि इस कृष्टि में नोकषाय का द्रव्य मिल गया है । उसी द्वितीयसंग्रहकृष्टिसे तृतीयसंग्रहकृष्टिमें विशेष अधिक द्रव्य है, क्योकि यह बादमे उदय आवेगी । इस प्रकार क्रोधकषायको तीनसंग्रहकृष्टिसम्बन्धो अल्पबहुत्व जानना।
शंका-क्रोधकी द्वितीयसंग्रहकष्टि से उदयागत प्रथमसंग्रहकष्टि तेरहगुणी किस प्रकार है ? समाधान-अङ्कसन्दष्टिमें मोहनीयकर्मका सर्वद्रव्य (४६) है। इसके दो भाग करनेपर असंख्यातवेंभागअधिक एकभाग कषायका द्रव्य है जिसकी अङ्कसन्दृष्टि (२५) है और असंख्यातवेंभागसे हीन शेष दूसरा नोकषायसम्बन्धी द्रव्य है, जिसकी अंकसंदृष्टि (२४) है । कषायभागको बारह संग्रहकृष्टियों में विभाजित करनेपर क्रोधकषाय की प्रथमसंग्रहकृष्टि में कषायसम्बन्धी द्रव्यका १२वां भाग है उसकी सन्दृष्टि (२) है । वोकषायका सर्वद्रव्य भी क्रोधको प्रथमसंग्रहकृष्टि में मिलता है, क्योकि यह उदयागतकृष्टि है । कषायसम्बन्धी प्रत्येकसंग्रहकृष्टिके द्रव्यसे नोकषायका द्रव्य १२ गुणा है, क्योंकि कषाय द्रव्यका १२ सग्रहकृष्टियोमे विभाजन होनेसे प्रत्येक सग्रहकृष्टिको १२ वे भाग द्रव्य मिला है । क्रोधकषायको द्वितीयसंग्रहकृष्टि का द्रव्य कषायसम्बन्धी सकलद्रव्यका १२ वां भाग है जिसकी सन्दष्टि दो है अतः द्वितीयसग्रहकष्टिके द्रव्य (२) से उदयागत प्रथमसंग्रहकृष्टिका द्रव्य (२६) तेरहगुणा सिद्ध हो जाता है ।