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क्षपणासाय
गाथा ८६]
[८३ .: विशेषार्थ-तत्काल में अपूर्वस्पर्धकरूपसे परिणत अनुभागसत्कर्ममेसे असंख्यातवेंभाग प्रदेशाग्रका अपकर्षणकरके उदीरणा करनेवालेके उदयस्थिति में सर्व अपूर्वस्पर्धक, स्वरूपसे अनुभागसत्कर्म उपलब्ध होता है, किन्तु अपूर्वस्पर्धक रूपसे परिणतसत्कर्म निरवशेष (पूर्ण) उदयमे नही आता, क्योंकि अपूर्वस्पर्धकके समान धनवाले जो परमाणु स्पर्धकोमे समवस्थित हैं, उनमे से कितने परमाणु उदयको प्राप्त होते हैं और शेष वहीपर अवस्थित रहते है। इसलिए सर्व अपूर्वस्पर्धाकोका उदय होता भी है और नही भी होता है । इसीप्रकार आदिसे लेकर अनन्तवेभागतक पूर्वस्पर्धक भी उदय व अनुदय स्वरूप हैं । पूर्वस्पर्शकोमे भी सदृश धनवाले उदयके अभिमुख रहने वालोका उदय होता है और तत् जातिस्वरूप शेष अनुदयरूप रहते हैं, क्योकि विप्रतिषेधका अभाव है। लताके अनन्तवेंभागसे ऊपरके अनन्तबहुभाग पूर्वस्पर्धक नियमसे अनुदयस्वरूप हैं, वे सभी अपने-अपने स्वरूपसे उदयको प्राप्त नहीं होते । पूर्वमे संज्वलनकषायके अनुभागका पूर्वस्पर्धकस्वरूपसे बन्ध लताके अनन्तवेंभाग स्पर्धकस्वरूपसे प्रवृत्त होते थे, किन्तु अब उससे अनन्तगुणहीन घटकर प्रथम अपूर्वस्पर्धकसे लेकर लताके अनन्तवेंभाग अनुभागवाले स्पर्धकतक जितने स्पर्धक, हैं उन स्पर्धक-स्वरूप प्रवृत्त होते हैं, किन्तु पूर्वकथित उदयस्वरूप स्पर्धाकोसे बन्धस्वरूप स्पर्धक अनन्तगुणेहीन अनुभागवाले होते हैं, क्योकि यहांपर बन्धसे उदय अनन्तगुणा होता है । यह सब अश्वकर्णके प्रथमसमयकी प्ररूपणा है' ।
. *विदियादिसुसमयेसु वि पढमं व अपूव्वफड्ढयाण विही । । 'णवरि अणंतगुणणं हीणो अनुभाग पडिसमयं ॥८६॥४७७॥
१. जयधवल मूल पृष्ठ २०३६-३७ । २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६४ सूत्र ५२७ व ५२८ । धवल पु ६ पृष्ठ ३७० । ज. घ. मूल पृष्ठ २०३७ । ३. गाथा ८६ के उत्तरार्ध में मुद्रितप्रति (शास्त्राकार) में पाठ टित था उसके स्थानपर "णवरि
अणत गुणूण बधो अनुभाग पडिसमयं" यह पाठ रखा है जो कि क पा सुत्तके चूणिसूत्र ५२८ पृष्ठ ७४६ व जयघवल मूल पष्ठ २०३७ के विषयानुसार किया है सो सूत्र इसप्रकार है (अणुभांगबधो अणतगुणहीणो) इस आधारसे ४७७ गाथा के उत्तरार्धमे जो पाठ पूर्ति की है उसे विद्वद्जन विचारें यदि अशुद्ध प्रतीत हो तो शुद्ध कर लेवे । हमने उपर्युक्त आधारसे स्वकीय वृद्धिद्वारा पाठ पूर्ति की है।