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गाया ६१-६२ ]
क्षपणासार - विशेषार्थ-प्रथमअनुभागकाण्डक उत्कीर्ण होने के अन्तिमसमयसे अनन्तर अगले समय में अनुभागसत्त्व में विशेषता हो जाती है जो इसप्रकार है-संज्वलनलोभमें अनुभागसत्त्व स्तोक है, उससे संज्वलनमायामें अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है, उससे संज्वलनमानका अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है और उससे भी संज्वलनक्रोधका अनुभागसत्त्व अनन्तगुणा है । इससे आगे सम्पूर्ण अश्वकर्णकरणकालमें यही क्रम है'।
'आदोलस्ल य पढमे णिव्वत्तिदअपुवफड्डयाणि बहू । ' पडिसमयं पलिदोवममूलासंखेज्जभागभजियकमा।।६१॥४८२॥
अर्थ-आंदोल अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें निर्वतित अपूर्वस्पर्धक बहुत हैं उसके आगे प्रति समय पल्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवेभागसे भाजित क्रमसे हैं। - विशेषार्थ-अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें जो अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या बहुत है, द्वितीयसमयमें जो नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे गए हैं उनकी संख्या असंख्यातगुणीहीन है । प्रथमसमयमें रचे गए अपूर्वस्पर्शकोंकी संख्याको पल्यके प्रथमवर्गमूल के असंख्यातवेंभागसे भाजित करने पर जो लब्ध प्राप्त हो उतने दूसरे समयमै रचित नवीन अपूर्वस्पर्धक हैं । द्वितीयसमयके अपूर्वस्पर्धकोंको पल्यके प्रथमवर्गमूलके असंख्यातवेंभागसे भाजित करनेपर जो प्राप्त हो तत्प्रमाण तृतीयसमय में नवीन अपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । इसप्रकार अश्वकर्णकरणकालमे प्रतिसमय जो नवीनअपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं वे क्रमसे असंख्यातगुणेहीन होते जाते हैं । असख्यातगुणाहीन प्राप्त करनेके लिए पूर्वके अपूर्वस्पर्धकोको पल्योपमके प्रथमवर्गमूलके असख्यातगेभागसे भाजित किया जाता है ।
"आदोलस्स य चरिमे अपुवादिमवग्गणाविभागादो । दो चढिमादीणादी चढिदव्वा मेत्तणतगुणा ॥६२॥४८३॥
अर्थ-आंदोलकरण अर्थात् आश्वकर्णकरणकाल के अन्तिमसमयमे प्रथमस्पर्धक की आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदसे द्वितीयादि स्पर्धाकोकी आदिवर्गणाके अविभाग
१. जयघवल मूल पृष्ठ २०४० । २. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६६ सूत्र ५४६ से ५५३ । धवल पु०,६ पृष्ठ ३७२ । ३. जयधवल मूल पृष्ठ २०४१ । ४. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ सूत्र ५५४ से ५५७ तक । धवल पु० ६ पृष्ठ ३७२-७३ ।