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गाथा ८८ ] क्षपणासार
[८५ असंख्यातगुणे प्रदेशाग्र तृतीयसमयमै अपकर्षित होते हैं। प्रदेशाग्रके अपकर्षण होनेका यही क्रम चतुर्थादि समयोंमें भी है, इसप्रकार गुणश्रेणि असंख्यातगुणी है । प्रथमसमयमै जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हैं द्वितीयसमय में वे भी रचे जाते हैं और उनसे असंख्यातगुणे हीन अन्य भी नवीन अपूर्वस्पर्धकों की रचना होती है। प्रथम और द्वितीयसमयोंमें जो अपूर्वस्पर्धक निर्वतित हुए हैं तृतीयसमयमें वे भी रचे जाते हैं (उनमें भी सहशअनुभागवाला अपकर्षितद्रव्य दिया जाता है) और द्वितीयसमयमै रचित नवीनअपूर्वस्पर्धकोंसे असंख्यातगुणहीन नवीनअपूर्वस्पर्धक रचे जाते हैं । यहीक्रम चतुर्थ आदि समयोंमें विरचित नवीनअपूर्वस्पर्धकोंके विषयमें भी जानना।
'पढमादिसु दिज्जकर्म तक्कालजफड्डयाण चरिमोत्ति । हीणकम से काले असंखगुणहीणयं तु हीणकमं ॥८८॥४७६॥
अर्थ-उसी समय (काल) में रचे गए नवीनअपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणासे अन्तिमवर्गणातक प्रदेशान हीनक्रमसे दिये जाते हैं तदनन्तर पूर्वसमयोंमें रचे गये अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें असख्यातगुणाहीन द्रव्य दिया जाता है और द्वितीयादि वर्गणाओं में विशेषहीन क्रमसे दिया जाता है ।
विशेषार्थ-द्वितीयसमयमें रचित नवीन अपूर्वस्पर्धकोंकी आदिवर्गणामें बहुतप्रदेशाग्न दिये जाते हैं, द्वितीयवर्गणामें विशेष (चय) हीन प्रदेशाग्न दिये जाते है । इस. प्रकार अनन्तरवर्तीवर्गणाओमें विशेषहीन क्रमसे तबतक दिये जाते हैं जबतक नवीनअपूर्वस्पर्धकोकी अन्तिमवर्गणा प्राप्त होती है। पश्चात् उनको अन्तिमवगंणासे प्रथमसमयमें निर्वतित अपूर्वस्पर्धकोकी प्रथमवर्गणामे असख्यातगुणे हीन प्रदेशाग्न दिये जाते हैं तथा उन्ही अपूर्वस्पर्धकोको द्वितीयवर्गणामे उससे होन प्रदेशाग्र दिये जाते है। यहासे लेकर अनन्तरवर्ती सभी वर्गणाओमे विशेष (चय) होन क्रमसे प्रदेशाग्न दिये जाते हैं । पूर्वस्पर्धकोंकी आदि (प्रथम) वर्गणामे विशेषहीन ही प्रदेशाग्र दिये जाते हैं शेष वर्गणाओ में भी विशेषहीन-विशेषहीन प्रदेशान दिये जाते हैं।
तृतीयसमयमें विरचित असंख्यातवेभागमात्र नवीन अपूर्वस्पर्धकोको आदिवर्गणामें बहुतप्रदेशाग्र दिया जाता है, द्वितोयवर्गणामे विशेष (चय) हीन प्रदेशाग्न दिये
१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६४-६५ सूत्र ५३३ से ५३५ एवं ५३७ से ५३६ तक । धवल पु०६ पृष्ठ
३७०-७१-७२।