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क्षपणासार
गाथा ८०-८३]
७९ 'कोहादीणमपुव्वं जेठं सरिसं तु अवरमलरित्थं । लोहादिनादिवग्गणअविभागा होति अहियकमा॥८०॥४७१॥ सगसगफडयएहिं लगजे? भाजिदे सगीआदि । मज्केवि अणंताओ वग्गणगायो ससाणाओ ।।८१॥४७२॥ जे हीणा अवहारे रूबा तेहिं गुणित्तु पुव्वफलं । हीणबहारेरणहिये अद्ध पुब्वं फलेण हियं ॥८२॥४७३॥ कोहदुसेसेणव हिदकोहे तक्कंडयं तु माणतिए । रूपहियं सगकडयहिदकोहादी समाणसला ॥८३॥१७४॥
अर्थ-क्रोधादि चार सज्वलनकषायोके अपूर्वस्पर्धकोंमें उत्कृष्ट (अन्तिम) स्पर्वककी आदिवर्गणा सदृश हैं और जघन्य (प्रथम) स्पर्धकको आदिवर्गणा विसदृश है। लोभादि कषायोके अपूर्वस्पर्धकोकी आदिवर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद अधिकक्रम लिए हुए हैं ।।८०।। अपने-अपने उत्कृष्टस्पर्धककी आदिवर्गणाको अपने-अपने स्पर्धकोंकी सख्यासे भाग देनेपर अपनी-अपनी भादिवर्गणा प्राप्त होती है। अन्तिमस्पर्धकके समान मध्यमे भी चारोकघायोंकी अनन्तवर्गणा समान होती है ।।८१।। जिसका पूर्वफल अर्थात् आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद हीन है उसको अधिक अवहार काल (स्पर्धकसख्या) से गुणा करना चाहिए और पूर्वफल (आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद) अधिक है उसको हीन अवहारकालसे गुणा करना चाहिए ।।२।। क्रोधकी अपूर्वस्पर्धकसंख्याको मानकपायको अपूर्वस्पर्धकसंख्या में से घटानेपर जो शेष रहे उससे क्रोधकी अपूर्वस्पर्धक सख्या को भाग देनेपर क्रोधके काण्डकोंका प्रमाण प्राप्त होता है । उस काण्डकप्रमाणमें एक एक अधिक करनेसे मान-माया व लोभ इनतीन काण्डकोका प्रमाण प्राप्त होता है । अपने-अपने काण्डकोंसे अपनी-अपनी अपूर्वस्पर्धकसख्याको भाग देनेपर समानशलाका प्राप्त होती हैं ।।८।।
१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७६१ सूत्र ५१० से ५१४ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६८ । जय धवल मूल
पृष्ठ २०३१ । २. गाथा ८२ का अर्थ स्वकीयबुद्धिसे किया है अतः यदि अशुद्ध हो तो बुद्धिमान उसे सुधार लेवें।