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[ गाथा ८३
विशेषार्थः — क्रोधादि चार संज्वलनकषायोंसे प्रतिबद्ध प्रथमअपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा लोभादिकी परिपाटी मे यथाक्रम अनन्तभाग अधिक है अर्थात् लोभकषायसम्बन्धी प्रथमअपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा में अविभागप्रतिच्छेद स्तोक, मायाकषाय में अनन्तभाग अधिक, मानकषायमे अनन्तवेभाग अधिक और क्रोधकषाय में अनन्तवेभाग अधिक है । इस परिपाटी क्रमसे स्थित आदिवर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोको अपनीअपनी अपूर्व स्पर्धक शलाकाओसे गुणा करनेपर अपने-अपने अन्तिमस्पर्धकफी आदिवर्गणा प्राप्त होती है जो एक दूसरेकी अपेक्षा परस्पर समानप्रमाणवाली हैं । प्रथमस्पर्धककी आदिवर्गणासे द्वितीय, तृतीयादि स्पर्धकोकी प्रथमवर्गेणाका गच्छमान दुगुणा, तिगुणा आदि क्रमसे होता है, इसप्रकार चरमस्पर्धक की आदिवर्गणा के गच्छमान में अपूर्वस्पर्धक - शलाकाप्रमाण गुणकार सिद्ध हो जाता है । इसप्रकार अपने प्रथम अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाको स्पर्धकशलाकासे गुणा करनेपर चरमस्पर्धककी प्रादिवर्गणाका प्रमाण प्राप्त होता है | शिष्यगणको इसका सरलतापूर्वक बोध हो जावे जयघवलाटीकाकार इस विषयको असन्दृष्टि द्वारा समझाते हैं
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८० ]
क्रोधादि चार सज्वलनकषायकी प्रथम अपूर्वस्पर्धकको आदिवर्गणा के अविभाग
[ोष - मान-माया - लोभ ] अपूर्वस्पर्धकशलाका
१०५ ८४ ७० ६०
प्रतिच्छेदोका मान इसप्रकार है
माया - लोभ
२४
क्रोध - मान १६ २०
-
प्रथम स्पर्धक आदिवर्गणा
स्पर्धकाला का चरम स्पर्धक आदिवर्गणा
क्षपणासार
२८
] अन्तिम अपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणाका प्रमाण
क्रोध मान माया लोभ
१०५ ८४ ७० ६० x १६x२०x२४x२८ . १६८०-१६८०-१६८०-१६८०.
-=७,
क्रोधादि चारों सज्वलनकषायोकी चरम अ स्पर्धक की आदिवर्गरणाका प्रमाण सर्वत्र १६८० होने से सदृश है ।
क्रोधादिकी अन्तिमअपूर्वस्पर्धककी आदिवर्गणा ही सदृश है यह अन्तदीपक न्यायसे कहा गया है, क्योकि नीचे भी अनन्त अपूर्वस्पर्ध कोकी आदिवर्गणा सदृश है । सन्दृष्टि मे क्रोध की स्पर्धकशलाका १६ है और मानकषायकी २० शलाका है इनको घटानेपर (२०-१६) शेषका प्रमाण ४ होता है । इसीप्रकार मान व मायाकषायकी और माया व लोभकषायकी स्पर्धकशलाकाओं को घटानेपर ( २४ - २०), (२८-२४) सर्वत्र शेष ४ रहता है । इस ४ से क्रोधादिकी स्पर्धकशलाकाओमे भाग देनेपर क्रमशः १६= ४, 8, 20 ==५, ४, ५, ६, ७ लब्ध प्राप्त होता है । क्रोधसज्वलन में
२४ २८ = - ६, ४
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