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क्षपणासार
[गाथा ५१ ५० ]
'गुणसेढिअसंखेज्जा पदेलअग्गेण संकमो उदओ। ले काले से काले भज्जो बंधो पदेसग्गे ॥५१॥४४२॥
अर्थ:-प्रदेशाग्रकी अपेक्षा सक्रमण और उदय उत्तरोत्तर काल में असंख्यातगुणधेणिरूपसे होते हैं, किन्तु प्रदेशाग्रमे बन्ध भजनीय है ।
विशेषार्थः-अन्तरकरणकी समाप्तिके पश्चात् प्रथमसमय में प्रदेशोदय अल्प होता है, तदनन्तर्समयमे असख्यातगुणा होता है । इसी क्रमसे उत्तरोत्तर समयोमें असल्यातगुणितक्रमसे प्रदेशोका उदय होता रहता है । जैसी प्ररूपणा उद्यसम्बन्धी है वैसी ही गुणसक्रमणकी भी है । प्रथमसमयमें प्रदेशों का संक्रमण अल्प होता है तदनन्तरसमयमे असख्यातगुणे प्रदेशोंका सक्रमण होता है। उत्तरोत्तर समयों में असख्यातगुणितक्रमसे प्रदेशोका सक्रमण होता है। पूर्व समयमे जितने प्रदेशोका बन्द हुआ उससे अनंतर समयमे असख्यातगुणित प्रदेशवन्धका नियम नही है ! प्रदेशबन्ध कदाचित् चतुविधवृद्धिसे (असख्यातवेंभागवृद्धि, सख्यातवेभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असख्यातगुणवृद्धि) बढ़ भी सकता है, कदाचित् चतुर्विध हानिरूपसे (असंख्यातवेंभागहानि, सख्यातवें भागृहाति, संत्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि) घट भी सकता है और कदाचित् तदवस्थ भी रह सकता है अर्थात जितने प्रदेशोका पूर्वसमयमें बन्ध हुआ था उतने ही प्रदेशोका उत्तरसमयमें भी बत्व होता है । अव प्रवृत्तसक्रमणमें असंख्यातगुणाक्रम नही है मात्र विशेष. अधिक या विशेषहीन होती है ।
प्रदेशवन्ध योगके कारण होता है । क्षपकश्रेणीपर आरोहण करनेवालेके योगकी वृद्धि हानि और अवस्थान ये तीनो अवस्थायें सम्भव हैं, क्योकि वीर्यान्तरायकर्मके क्षयोपशमफे अनुसार योगमे हानि-वृद्धि और अवस्थान होता है। योगस्थान असख्यात है, पयोकि जोवप्रदेश असंख्यात हैं अत. योगमें अनन्तभागवृद्धि, अनन्तगुणवृद्धि, अन्तवेभागहानि और अनन्तगुणहानि सम्भव नही है । इसीलिये षट्स्थानपतित हानि-वृद्धिके स्थानपर चतुर्विध हानि-वृद्धि कहो गई है।
१. . पा. गुत्त पृष्ट ७७२ गाथा १४६ के समान । घ० पु० ६ पृ० ३६० । ज० घ० मूल पृष्ठ १६६६ । २. उपास्त मूल पृष्ठ १६६६ ।