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गाथा ६९-७० ] क्षपणासार
। ६३ भी वह निर्लेप नहीं होता, क्योंकि संक्रमणावलिके अन्तिमसमयमै उसका अभाव पाया जाता है इसलिए अपंगतवेदीकी द्वितीयआवलिके तृतीयसमयतक वह समयप्रबद्ध पाया जाता है तथा उस द्वितीयआवलिके द्विचरमसमय में अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि सवेदीके अन्तिमसमयसे गिनने पर वहां पूरी दोआवलियां पाई जाती हैं। उपान्तसमयवर्ती सवेदीने जो पुरुषवेदकर्म बाँधा है वह अपगतवेदोके द्वितीयआवलिके चतुःचरमसमयतक दिखाई देता है और त्रिचरमसमयमें अकर्मपको प्राप्त होता है, क्योकि अपगतवेदीको दोसमयकम प्रथमावलिसे बंधावलि बिताकर प्रथम आवलिके द्विचरमसमयमें इस नवकसमयप्रबद्धका संक्रमण प्रारम्भ होता है एवं अपगतवेदीको द्वितीयआवलिके त्रिचरमसमयमें वह नवकसमयप्रबद्ध अकर्मभावको प्राप्त होता है । बन्धसमयसे लेकर यहतिक गिनने पर पूरी दो आवलियां हो जाती है। जो कर्म संवेदीने त्रिचरमसमय में बाँधा है वह अपगतवेदीके द्वितीय आवलिके पंचमचरमसमयंतक दिखाई देता है। जो पुरुषवेदकर्म सवेदीने अपने चतुर्थ समय में बांधा है वह अपगतवेदीको द्वितीय आवलिके षष्ठम चरमसमयतक दिखाई देता है। इसीप्रकार अन्तिमआवलिके प्रथमसमयतक ले जाना चाहिए । सवेदभागकी अन्तिमआवलिके प्रथमसमयमें जो पुरुषवेदकर्म बधा है वह अपगतवेदोकी प्रथमआवलिके, अन्तिमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योकि कर्मबन्धके समयसे गिनती करनेपर अपगतवेदोकी प्रथमझावलिके अन्तिमसमयमें बन्धावलि और संक्रमावलि इसप्रकार वहांतक पूरी दोआवलियोंका प्रमाण पाया जाता है एवं नवकसमयप्रबद्ध एकसमयकम दोआवलिसे अधिककालतक नही रहता है, क्योंकि और अधिककालतक इसके रहनेता निषेध है । सवेदीने अपनी द्वि चरमावलिके प्रथमसमयमें जो कर्म बाधा है वह सवेदीके अन्तिमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि नवकबन्धके समयसे लेकर गिनती करनेपर वहां पूर्ण दोआवलियां पाई जाती हैं । जो कर्म सवेदीकी उसी द्विचरमावलिके द्वितीयसमयमें बधा है वह अपगतवेदीके प्रथमसमयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि नवकबन्धके समयसे लेकर अपगतवेदके प्रथमसमयमै पूर्ण दोआवलियां पाई जाती हैं ।
इसप्रकार सवेदभागकी- विचरमावलिके प्रथम, और द्वितीयसमयमें बत्वको प्राप्त हुए समयप्रबद्ध-अपगतवेदके प्रथमसमयमें नहीं हैं, किन्तु सवेदभागकी दोसमयकम द्विचरमावलि और चरमावलिसम्बन्धी सर्व समयंप्रबद्ध पाए जाते है, क्योकि सवेद१. जयधवल पु० ६ पृष्ठ २६३ से २९७ तक ।