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गाथा ७४ ॥]
क्षणासा
सत्त्व विशेषअधिक होता है।' यहां विशेषअधिकेका प्रमाण अनन्त अविभागप्रतिच्छेद है | अनुभागका यह अल्पबहुत्व अन्तदीपक है, इससे नीचे भी संज्वलन के अनुभागसत्कर्ममे अल्पबहुत्वका यही विधान है और अनुभागबन्ध भी इसी अल्पबहुत्व' विधिक क्रमसे होता है
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"रसखंडफड्ढयाओ कोहादीया हवंति अहियकमा । वसेसफड्ढया लोहादि अांतगुणिदकमा ॥७४॥४६५॥ ८
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अर्थः- अनुभागखण्ड के लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक क्रोधादि कषायोंमें विशेष - अधिक क्रमसे होते हैं, किन्तु घात होनेके पश्चात् शेष रहे स्पर्धक लोभादिकषायों में अनन्तगुणितक्रमसे होते है ।
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विशेषार्थ :- शङ्काः - अश्वकर्णकरणसे नीचे अशेष अनुभागकाण्डकोंमें मानके स्पर्धक स्तोक, उससे विशेषअधिक क्रोधके, इससे विशेष अधिक मायाके और इससे विशेषअधिक लोभके स्पर्धक प्रवृत्त होते है, क्योंकि अनुभागसत्त्व के अनुसार अनुभागकाण्डकघातोमें अल्पबहुत्व होता है, किन्तु अश्वकर्णकरणसम्बन्धी अनुभाग काण्डक क्रोधके स्पर्धक सबसे स्तोक और उससे मानसे लोभपर्यन्त स्पर्धक विशेषअधिक क्रमसे क्यों ग्रहण किए गये ? -
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समाधान:- अश्वकर्णकरण में घात से बचे हुए शेष अनुभागका लोभसे अनन्तगुणा मायाका, मायासे अनन्तगुणा मानकी और मानसे अनन्तगुणा क्रोधका ऐसा स होता है जो गाथामें कथित अनुभागके द्वारा ही सम्भव है अन्यप्रकार घातके द्वारा संभव नहीं है | अथवा अपूर्वस्पर्धक विधान के पश्चात् क्षय होनेवाले कर्मो में जिनेका मन्द उदय होकर घात होता है उनके अनुभागसत्कर्मका बहुत घात होता है । लोभका सबसे अंत में घात होनेसे उसका मन्दतम उदय होकर घाव होता है अतः अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमे लोभके अधिकस्पर्धक घात के लिए ग्रहण होते हैं उससे पूर्व मायाका सन्दतर उदय होकर घात होता है और उससे भी पूर्व मानका मन्दउदय होकरे घात होता है । क्रोधका सर्वप्रथम घात होनेसे उसके अनुभागका मानके समान मन्दउदय होकर घात नहीं होता, किन्तु मानकी अपेक्षा विशेषअधिक अनुभाग के साथ घात होता है | इसलिए
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१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४८१-८८ । ध० पु० ६ पृष्ठ ३६५ | ज० घ० मूल पृष्ठ २०२३-२४ ।.