________________
६८] क्षपणासार
[गाथा ७५ अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमै अनुभागखण्डके लिए ग्रहण किए गये स्पर्धक क्रोधके स्तोक, मानके विशेषाधिक, उससे मायाके विशेष अधिक और उससे लोभके विशेष अधिक इसक्रमसे होते हैं।
क्रोधमे जितना अनुभाग छोड़कर शेषको घात करने के लिए ग्रहण किया जाता है मानमें उसका अनन्तवांभाग छोड़कर शेषको घात करने के लिये ग्रहण करते हैं । इसीप्रकार माया व लोभमे भी जानना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण निम्त अङ्कसंदृष्टिसे हो जाता है। घातसे पूर्व कोवादि चारसज्वलनकषायोके अनुभागका क्रम [६६/६५६७।६८] घातके लिए ग्रहण किये गए स्पर्धक
[६४१७६।८६६४] तोषादिके शेष स्पर्धक
[३२।१६।८।४] घातसे पूर्व क्रोधादि कषायोके अनुभागका अल्पबहुत्व घातके लिए ग्रहण किये गए स्पर्षकोका अल्पबहुत्व तथा क्रोधादिके शेष अनुभागका अल्पबहुत्व ये तीनो अल्पहुत्व उपर्युक्त अङ्घसन्दृष्टि से स्पष्ट हो जाते हैं ।
अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें होनेवाले अपूर्वस्पर्धकोंका कथन करते हैं-- 'ताहे संजलणाणं देसावरफड्डयस्स हेट्ठादो।
णंतगुणूणमपुव्वं फड्ढयमिह कुणदि हु अणंतं ॥७५॥४६६॥
अर्थः-वहा अर्थात् अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमे ही सज्वलनकषायोके देशघाति जघन्यस्पर्धकके नीचे अनन्तगुणितहानिके क्रमसे अनन्त अपूर्वअनुभागस्पर्धको को करता है।
विशेषार्थः-अवकर्णकरण करनेके प्रथमसमयमें ही क्रोध-मान-माया और लोभत्प चार संज्वलनकपायोके अपूर्वस्पर्धक करता है ।
अपूर्वस्पर्षक-जो स्पर्धक पूर्वमे कभी प्राप्त नहीं हुए, किन्तु क्षपकश्रेणी में ही लश्वकर्णकरणके कालमे प्राप्त होते हैं और जो ससारावस्थामें प्राप्त होनेवालेपूर्वस्पर्धकों से मनन्तगुणितहानिके द्वारा क्रमशः हीयमान स्वभाववाले हैं वे अपूर्वस्पर्धक हैं। १. पा०पा० सुत्त पृ० ७८६ सूत्र ४६०-४६६ । घ.पु. ६ पृष्ठ ३६५-६६ । ज. ध मूल पृष्ठ २०२५ । २. पानि अपुन्धफद्दयाणि णाम? ससारावत्याए पुवमलद्धप्पसरूवाणि खवगसेढीए चैव अस्स
फरपक्षाए सम्बनभमाणसरूवाणि पव्वफद्दएहितो अणतगुणहाणीए ओवट्टिज्जमाणसहावाणि जापि फयाणि ताणि अपुवफद्दयाणि ति भण्णते । (ज० घ० मूल पृष्ठ २०२५)