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क्षपणासार
गाया ७२ ]
[ ६५ तक वृद्धिरूप अर्थात् हानि-वृद्धिरूप दिखाई देनेके कारण इसे अपवर्तनोद्वर्तनकरण भी कहते है ।
छह नोकषायका द्रव्य और पुरुषवेदका प्राचीन सत्कर्म सर्वसंक्रमणद्वारा क्रोध संक्रांत हो जाने के अनन्तरसमयमें प्रथमसमयवर्ती अवेदी होता है उसी समय में प्रथमसमयवर्ती अश्वकर्णकरणकारक होता है अर्थात् क्रोधसे लोभतक चारों संज्वलनकषायोंका अनुभागक्रमसे हीयमान हो जाता है । क्रोधके अनुभागसे मानका अनुभाग हीयमान, मानसे मायाका अनुभाग हीयमान और मायासे लोभका अनुभाग हीयमान हो जाता है ।
'ताहे संजलणाणं ठिदिसंतं संखवस्सयसहस्सं । अंतोमुहुत्तहीणो सोलसवस्साणि ठिदिबंधो ॥७२।।४६३॥
अर्थः-'ताहे' वहां अश्वकर्णकरणके प्रथमसमयमें संज्वलनकषायोंका स्थितिसत्त्व संख्यातहजारवर्ष है और स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्तकम सोलहवर्ष है ।
विशेषार्थः-यद्यपि सात नोकषायोके क्षपणकालमें सर्वत्र संज्वलनकषायोंका स्थितिसत्त्व सख्यातहजारवर्ष ही था, किन्तु अश्वकर्णकरण करने के प्रथमसमयमें वह संख्यातसहस्र स्थितिकाडकोसे संख्यातगुणितहानिके द्वारा पर्याप्तरूपसे घटकर उससे संख्यातगुणितहीन हो जाता है। सवेदके अतिमसमयमे चारोंसंज्वलनकषायोंका स्थितिबध पूर्ण १६वर्षप्रमाण था वह स्थितिबध वहीपर समाप्त हो जाता है । अश्वकर्णकरणके अर्थात अवेदके प्रथमसमयमें
१, अश्वस्य कर्णः अश्वकर्णः, अश्वकर्णवत्करणमश्वकर्णकरणम् । यथाश्वकर्णः अनात्प्रभृत्यामलात्
क्रमेण हीयमानस्वरूपो दृश्यते, तथेदमपि करण क्रोधसज्वलनात्प्रभत्यालोभसंज्वलनाद्यथाक्रममनन्तगुणहीनानुभागस्पर्धकसंस्थानव्यवस्थाकरणमश्वकर्णकरणमिति लक्ष्यते । संपहि आदोलनकरणसण्णाए अत्थो वुच्चदे-आदोलं णाम हिंदोलमादोलमिवकरणमादोलकरणं। यथा हिदोलत्थभस्स वरत्ताए च अतराले तिकोणं होदूण कण्णायारेण दीसइ, एवमेत्थ वि कोहादिसंजला णाणमणुभागसणिवेसो कमेण हीयमाणो दीसइ त्ति एदेण कारणेण अस्सकण्णकरणस्स आदोल: करणसण्णा जादा। एवमोवट्टण-उव्वट्टणकरणेत्ति एसो वि पज्जायसद्दो अणुगयट्ठो दटुव्वो, कोहादिसंजलणाणमणुभागविण्णासस्स हाणिवड्डिसरूवेणावट्ठाणं पेक्खियूण तत्थ ओवट्टणुव्वट्टणसण्णाए पुव्वाइरिएहिं पयट्टिवेदत्तादो। क. पा. सुत्त पृ० ७५५-५६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६४
टिप्पण नं०५। २. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७८८ सूत्र ४७४-७५ । ध. पु. ६ पृष्ठ ३६५ । ज.ध. मूल पृष्ठ २०२२-२३ ।