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गाथा ६६] क्षपणासार
[8 विशेषार्थः-अनुभागकाण्डकका काल अन्तर्मुहूर्त है, अनुभागकाण्डककालमें प्रतिसमय एक-एक फालिका पतन होता है। फालिपतनसे यद्यपि फालीप्रमाण कर्मप्रदेशोंका अनुभाग अनन्तगुणाहीन हो जाता है, किन्तु शेष कर्मप्रदेशोमे उतना ही रहता है। अनुभागकाण्डकके शेष सर्व कर्मप्रदेशोंका अन्तिम फालिद्वारा ग्रहण होता है अतः अन्तिमफालिके पतनके समय सर्वप्रदेशोंमेसे अनुभागघात होकर अनन्तगुणाहीन हो जाता है। जबतक अन्तिमफालीका पतन नही होता तबतक अनुभागकाण्डककालमे अनुभागसत्कर्म उतना ही रहता है इसलिए अनुभागसंक्रमण भी उतना ही अवस्थितरूपसे होता रहता है । अनुभागकाण्डककी अन्तिमफालीके पतन होनेपर अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणाहीन हो जानेसे अनुभागसंक्रमण भी अनन्तगुणाहीन होता है। यही क्रम अन्य अनुभागकाण्डकोंके विषयमें भी जान लेना चाहिए।
'सत्तरहं संकामगचरिमे पुरिसस्स बंधमडवस्सं ।
सोलस संजलणाणं संखसहस्साणि सेसाणं ॥६६॥४५७॥
अर्थः-सातकर्मोंके संक्रमणके अन्तिमसमयमै पुरुषवेदका आठवर्षप्रमाण, संज्वलनकषायोंका १६ वर्षप्रमाण एवं शेष छहकर्मोंका संख्यातहजारवर्षप्रमाण स्थितिबन्ध होता है।
विशेषार्थः-पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन सात नोकषायरूप कर्मोके संक्रामक अर्थात् क्षपकके अन्तिम स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षसे यथाक्रम घटकर पुरुषवेदका आठवर्षप्रमाण, सज्वलन क्रोध-मान-माया व लोभका १६ वर्षप्रमाण और शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, नाम व गोत्र इन घातिया-अघातियारूप छहकर्मोंका स्थितिबन्ध संख्यातहजारवर्षप्रमाण होता है । यहांपर पुरुषवेदकी बन्धव्युच्छित्ति हो जाने से पुरुषवेदका यह आठवर्षवाला जघन्यस्थिति बन्ध होता है तथा शेषकर्मोंका जघन्य स्थितिबन्ध अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तिके समय होता है। इन उपर्युक्त पुरुषवेदादि सातकर्मोका क्षय क्रोधसज्वलनमें संक्रमणके द्वारा होता है अंतः गाथामें 'क्षपक' के स्थानपर 'संक्रामक' शब्दका प्रयोग किया गया है। यहांपर संक्रामकका अभिप्राय क्षपकसे ही है।
१. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७५५ सूत्र २४३-४४-४५। . पु. ६ पृष्ठ ३६३ । ज० घ० मू० पृष्ठ १९७० ।