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क्षपणासाय
[ गाथा ६२ अप्रशस्तप्रकृतियोंके अनुभागका प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन श्रेणिरूपसे वेदन (उदय) होता है ।
विवक्षितसमयमे अप्रशस्तप्रकृतियोंका जो अतुभागबन्ध होता है वह स्तोक है, उसीसमयमे बन्धसे अनुभागोदय अनन्तगुणा होता है अर्थात् अतुभागोदयसे अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन होता है, क्योकि अनुभागोदय चिरतनसत्त्वके अनुरूप है अर्थात् पूर्वबद्ध अनुभागका उदय विवक्षितकालसे होता है और पूर्वबद्ध अनुभागसत्कर्म विवक्षितसमय में वधनेवाले अनुभागसे अनन्तगुणा होता है । अन्तिमसमयमे बद्ध अनुभागसे वही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है, उससे द्विचरमसमयमे होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है, उससे वही उदयागत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । इसप्रकार अपूर्वकरणके प्रथमसमयपर्यंत क्रमसे नीचे उतरना चाहिए।
विवक्षितसमयमे अनन्तर उत्तरसमयमे अशुभप्रकृतिका जो अनुभागोदय है वह विवक्षितसमयके अनुभागबन्धसे अनन्तगुणाहीन है । इसप्रकार अपूर्वकरणके प्रथमसमयसे लेकर अपनी-अपनी बन्धव्युच्छित्तितक ले जाना चाहिए ।
'बंधेण होदि उदश्रो अहियो उदयेण संकमो अहियो । गुणसेडि अांतगुणा बोधव्वा होदि अणुभागे ॥६२॥४५३॥
१. क. पा० सुत्त पृष्ठ ७७० गाथा १४६ का पूर्वार्ध एवं सूत्र ३५६ । धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२
"अणुभागवन्धो अणुभागउदओ च समय पडि असुहाण कम्माणमणतगुणहीणो" | जयधवल
मूल पृष्ठ १६६६ । २. "वट्टमाणसमयपबद्धादो वट्टमाणसमए उदओ अणंतगुणो ति दट्टव्वो। किं कारण ? चिराण
सत सस्वत्तादो।" (धवल पु० ६ पृष्ठ ३६२ टि० न०३ व जयधवल मूल पृष्ठ १६६६) ३. जयघवल पु० ५ पृष्ठ १४६ । क० पा० सुत्त पृष्ठ ७७० सूत्र ३४६ से ३५२ व गाथा १४५ का
उत्तरार्ध । “से काले उदयादो एव भणिदे णिरुद्धसमयादो तदणतरोवरिमसमए जो उदओ अणुभागविसओ, तत्तो एसो सपहिसमयपबद्धो अणतगुणो त्ति दट्ठन्यो । कुदो एव च समए समए अणुभागोदयस्स विसोहिपाहम्मेणाणतगुणहाणीए ओवट्टिज्जमाणस्स तहाभावोववत्तीए । (जयधवल मूल पृष्ठ १९६६, धवल पु०६ पृष्ठ ३६२ टि० न० ३)
४. क. पा. सुत्त पृष्ठ ७६६ गाथा १४३ । धवल पु०६५० ३६२। जयधवल मूल पृष्ठ १६६३ ।