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क्षपणासार
[ गाथा ५५-५७
ता मोहो थोत्रो संजगुणं तिघादिठिदिबंधो । तत्तो असंखगुणियो गामडुगं साहियं तु वेयणियं ॥ ५५ ॥ तासंखगुणियं मोहाद तिघा दिपय डिठिदिसंतं । तत्तो असंखगुखियं णामदुगं साहियं तु वेयणियं ॥५.६ ॥
अर्थः- स्त्रीवेदकी क्षपणा के अनन्तर समय में ( प्रथमसमयवर्ती) सात नोकषाय ( पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा) का संक्रामक होता है । उस प्रथमसमयमे मोहनीय कर्मका स्थितिबन्ध स्तोक, तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मो का स्थितिबन्ध सख्यातगुणा, नामद्विक (नाम - गोत्र ) कर्मों का स्थितिबन्ध असख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध विशेष अधिक अर्थात् डेढगुणा है । उसी प्रथमसमयमे मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व स्तोक, तीन घातिया (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय) कर्मो का स्थितिसत्त्व असख्यातगुणा, नामद्विक (नाम - गोत्र ) का स्थितिसत्त्व असख्यातगुणा और वेदनीयकर्मका स्थितिसत्त्व विशेष अधिक है ।
विशेपार्थः - मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म संख्यातवर्षका हो जानेपर भी तीन घातिया कर्मो का स्थितिसत्त्व संख्यातवर्षप्रमाण नही होता इसीलिए स्थिति सत्कर्मका अल्पबहुत्व पूर्वके समान है' |
सत्तरहं पढमट्ठिदिखंडे पुराणे दु मोहठिदिसंतं । संखेज्जगुणविहीणं सेसागमसंखगुणहीणं ॥५७॥ ४४८ ||
अर्थ:- सात ( पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा. ) प्रकृतियो का प्रथमस्थितिकाण्डकघात पूर्ण होनेपर मोहनीय कर्मका स्थितिसत्त्व संख्यातगुणा होन और शेपकर्मोका स्थितिसत्त्व असख्यातगुणाहीन हो जाता है ।
विशेषार्थ : - मोहनीय कर्मको भेदरूप नव नोकषायोमे से नपुंसक व स्त्रीवेदका संक्रमणद्वारा क्रमश. क्षय हो जानेपर शेष सात नोकषायोका घात करने के लिये स्थितिपाण्डघात, अनुभागकाण्डकघात, स्थितिबन्धापसरणादिका प्रारम्भ होता है । स्थिति
१. जय
मूल पृष्ट १६६६ ।
२. ० प० मुत्त पृष्ठ ७५४ सूत्र २३३-३४ | ० पु० ६ पृष्ठ ३६१ । जयचवल मूल पृष्ठ १६६६