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[ गाथा ४५-४६
प्रदेशपुञ्जका उत्कर्षेणवश अपनी द्वितीयस्थिति में संचार होता है, क्योंकि उदयसहित ववनेवाली प्रकृतियो की प्रथम व द्वितीयस्थितिमे तथा अनुदयरूप बघनेवाली प्रकृतियोकी द्वितीयस्थितिमे सचार विरुद्ध नही है । इस क्रम से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण फालिरूपसे प्रतिसमय असख्यातगुणी श्रेणीद्वारा उत्कीरण होनेवाला अन्तर अन्तिमफालिके उत्कीर्ण होनेपर पूरा उत्कीर्ण हो जाता है, किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्तरसम्बन्धी अन्तिमफालिका पतन हो जानेपर सब द्रव्य प्रथम और द्वितीय स्थिति मे सक्रमित होता है । यथा - प्रथमस्थिति से सख्यातगुणी स्थितियोको ग्रहणकरके आबाधाके भीतर अन्तरको करता है और गुणश्रेणिके अग्रभाग के अग्रभागमे से असंख्यातवे भागको खण्डित करता है तथा उससे ऊपर की सख्यातगुणी अन्यस्थितियो को भी अन्तर के लिए ग्रहण करता है' ।
क्षेपणासार
संक्रमणकरण का कथन करते हैं-
'सत्त करणाणि चंतर कंद पढमे ताणि मोहणीयस्स । इगठबंधुंद तस्सेव य संखवस्सठिदिबंधो ॥४५॥४३६ ॥ तस्सारणुपुव्विसंकम लोहस्स संक्रमं च संस्स । प्रवेत्तकरणसंकम छावलितीदेसुदीरणदा ॥४६॥४३७॥
अर्थ. . - अन्तर करने की क्रिया समाप्त हो जानेके पश्चात् अनन्तर प्रथम सातकरण होते है -- (१-२) मोहनीय कर्मका एक स्थानीय अर्थात् लतारूप अनुभागका बन्ध व उदय (३) मोहनीयकर्मका संख्यातवर्षवाला स्थितिबन्ध ( ४ ) मोहनीय कर्म की प्रकृतियो का आनुपूर्वीक्रमण (५) सज्वलन लोभका असक्रमण (६) नपुंसक वेदका आयुक्त - करण सक्रमण ( ७ ) छह आवलियोके बीत जानेपर उदीरणा ।
विशेषार्थ :- अन्तरकरणक्रिया समाप्तिका जो काल है उसीसमय मे ये सातकरण युगपत् प्रारम्भ होते हैं - ( १ ) मोहनीय कर्म का एक स्थानीय ( लतारूप) अनुभाग
१ जयघवल पु० १३ पृष्ठ २५३ से २६२ ।
२ वे दोनो गाथाए कुछ अन्तर के साथ ल० सार गा० २४८ व २४९ के समान हैं । क० पा० सु० पृष्ठ ७५३ सूत्र २१५ । पर तत्र " आवेत्तकरण" इत्यस्य स्थाने "आजुत्तकरण" इति पाठो | ० पु० ६ पृष्ठ ३५८; तत्रापि ' आउत्तकरण" इति पाठो स च उपयुक्तो प्रतिभाति ।
४. जयचवल मूल पृष्ठ १६६६-६७ ।