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क्षपणासार
[ गाथा ३९ ३८ ] सूक्ष्म, साधारण) प्रकृतियोका स्थितिसत्त्व पृथक्त्वस्थितिखण्डोके काल द्वारा परप्रकृतिस्प सक्रमण होता है, उच्छिष्टावलीप्रमाण स्थितिसत्त्व शेष रह जाता है ।
विशेषार्थः- इसके उपर पृथक्त्वस्थितिबन्ध बीत जानेपर निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि ये तीन दर्शनावरणकर्मकी और नरक गति-नरक गत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति-तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि चारजाति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, साधारण ये १३ नामकर्मकी इन १६ प्रकृतियोका सक्रमण द्वारा क्षपणाका प्रारम्भ करते हैं। समय-समयप्रति इनके द्रव्यको पूर्वोक्तप्रकार एक-एक फालिका सक्रमण होनेपर प्रथमकाण्डकघात होकर पथक्त्व स्थितिकाण्डको द्वारा संक्रमण होता है वहा अन्तिमकाण्डकघात होते हए अवशेष स्थितिसत्त्व कालापेक्षा आवलिमात्र और निपेकापेक्षा समयकम आवलिमात्र रहता है । इसप्रकार इनका उदयवलोसे बाहर सर्वनिषेकोका द्रव्य स्वजातीय अन्यप्रकृतियोमे सक्रमण होकर क्षयको प्राप्त होती हैं । अपनी जातिकी अन्य प्रकृतियोकी स्वजाती कहते हैं । जैसे-स्त्यानगृद्धित्रिककी स्वजातीय दर्शनावरणकी अन्य प्रकृति हैं इसीप्रकार अन्य प्रकृतियोके सम्बन्धमे भी जानना । यहा पृथक्त्व शब्द विपुलतावाची है । इसप्रकार यहा मोहनीयकर्मकी तो आठ प्रकृतियोका नाश होने से नामकर्मकी १३ प्रकृतिया, दर्शनावरणकर्मकी तीन प्रकृतियोका नाश हो जानेपर छह प्रकृतिका और नामवर्मकी १३ प्रकृतिका नाश हो जानेसे ८० प्रकृतिका सत्त्व रह जाता है ज्ञानावरण, वेदनीय, गोत्र और अन्तरायकर्ममे किसी प्रकृतिका नाश नही होता है। -
क्षायिकसम्यग्दृष्टिजीव सातिशय अप्रमत्तगुणस्थानको प्राप्त होकर जिससमय क्षपणविधि प्रारम्भ करता है उससमय अध प्रवृत्तकरणको करके क्रमसे अन्तमुहूर्तमे मपूर्वकरणगुणस्थानवाला होता है, वह एक भी कर्मका क्षय नही करता किन्तु प्रत्येक समयमे असख्यातगुणितरूपसे कर्मप्रदेशोकी निर्जरा करता है। एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकाण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर सख्यातहजार स्थितिकाण्डकोका घात करता है और उतने ही स्थितिबन्धापसरण करता है तथा उनसे सत्यातहजारगुणे अनुभागकाण्डकोका घात करता है; क्योकि, एक अनुभागकाण्डकके उत्कीरणकालसे एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल सख्यातगुणा है ऐसा सूत्र वचन है ।
१. जवधवल प० १९६३-६४ । क० पा० सुत्त पृ० ७५१ सूत्र १६८-६६ । २. जयववल पु० १३ पृष्ठ ४२ व २२५ ।