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गाथा ३६ ]
क्षपणासार
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अर्थः-तत्पश्चात् संख्यातहजार स्थितिबन्ध बीत जानेपर आठ (अप्रत्याख्यानावरण ४, प्रत्याख्यानावरण ४) कषायोंका पृथक्त्वस्थितिखण्डसम्बन्धी कालके द्वारा संक्रमण होता है तथा उच्छिष्टावलीमात्र स्थितिसत्त्व शेष रह जाता है ।
विशेषार्थः-असंख्यातसमयप्रबद्धमात्र उदीरणा होने से लगाकर संख्यातहजार स्थितिकाण्डक व्यतीत होनेपर अप्रत्याख्यान व प्रत्याख्यानक्रोध-मान-माया व लोभरूप आठ कषायोंका संक्रमण होता है । यहांपर प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा क्षपणाका प्रारम्भ होना संक्रमण जानना। ये उपयुक्त आठकषाय अप्रशस्त थे अतः प्रथम हो इनकी क्षपणा सम्भव है। इन कषायोंके द्रव्यमें से कुछ द्रव्य तो क्षपणाके प्रारम्भके प्रथमसमयमें, कुछ द्रव्य द्वितीय समय में इसप्रकार समय-समयप्रति एक-एक फालिका सक्रमण होते हुए अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं उतनी फालियोंके द्वारा प्रथमकाण्डकका संक्रमण होता है । इसप्रकार ये कर्म परमुखसे नष्ट होते हैं, सो अन्यप्रकृतिरूप होकर जिसका नाश होता है वही परमुखनाश कहलाता है । मोहनीयकर्मरूप राजा की सेनाकी नायकरूप इन आठ कषायोंका अन्तिमकाण्डकसम्बन्धी अन्तिमफालिके नाश होनेसे अवशिष्ट स्थितिसत्त्व कालकी अपेक्षा आवलीमात्र रहता है और निषेकोंकी अपेक्षा एकसमयकम आवलिप्रमाण रहता है, क्योंकि अन्तिमकाण्डकघातके समय प्रथमनिषेकका संक्रमण स्वमुख उदयसहित किसी सज्वलनकषायमें होता है तथा उदयावली को प्राप्त निषेकका काण्डकघात नही होनेसे एकसमयकम आवलिमात्र निषेक अन्तिमफालिके साथ नष्ट नहीं होता है । प्रतिसमय स्तुविकसंक्रमणद्वारा प्रत्येकनिषेक संज्वलनरूप परिणमनकरके विनाशको प्राप्त होता है ।
'ठिदिबंधपुधत्तगदे सोलसपयडीण होदि संकमगो। ठिदिखंडपुधत्तेण य तट्ठिदिसंतं तु प्रावलिपविट्ठ॥३६॥४३०॥
अर्थः--तत्पश्चात् पृथक्त्वस्थितिकाण्डक व्यतीत हो जानेपर सोलह (स्त्यानगृद्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यञ्चगतिद्विक, एकेन्द्रियादि चारजाति, आतप, उद्योत, स्थावर,
१. क० पा० सुत्त प०७५१ सूत्र १६७-६८ । जयघवल मूल पृ० १६६३-६४ । धवल पु०६ पृष्ठ
३५६ । एत्थ णिरयतिरिक्खगईपाओग्गणामाओ ति वृत्त णिरयगइरिणरयगइपाओग्गाणुपुवीतिरिक्खगइतिरिक्खगईपाओग्गाणुपुव्वीएइन्दियवीइदियतीइदियचउरिदियजादि आदावुज्जोवथावरसुहुमसाहारणणामाण तेरसह पयडीणं गहणं कायन्व (जयघवल मूल पृष्ठ १६६४)