________________ प्रथम सांख्य मत की प्रक्रिया का विचार किया जायगा / वे सत्व, रज और तम इन तीन गुणों की साम्यावस्या को प्रधानमूल-प्रकृति मानते हैं। तो भी उस मत में प्रसाद, लाधव, उपष्टम्म, चलन और आवरणादि भिन्न 2 स्वभाव वाले अनेक धर्मों का एक ही धर्मी के अन्दर होना स्वीकार किया गया है। तब विचारना यह है कि इस का नाम अनेकान्तवाद-स्थाद्वाद नहीं है तो और क्या है ? इसी तरह नित्यत्व, अनित्यत्व जैसे परस्पर विरोधी धर्मों का पृथ्वी में होना नैयायिकों ने स्वीकार किया है। यह भी "स्यावाद ' के सिवा और क्या है ! पंचवर्णी रत्न का नाम 'मेचक है / बौद्ध लोग अनेकाकार मेचक के ऐसे ज्ञान को एकाकार में मानते हैं। वह भी 'स्याद्वाद' ही है। उत्तरमीमांसक लोग, 'घटमहं जानामि ! ( मैं घट को जानता हूँ) इस प्रकार के अनुभव से और उनके मत में ज्ञान स्वप्रकाशक होने से, एक ही ज्ञान में प्रमाता, प्रमिति तथा प्रमेय रूप विषयता को स्वीकार करते हैं। इस का नाम मी 'स्यावाद / के सिवा और कुछ नहीं है। वास्तव में तो प्रत्येक मतवालोंने ' अंधमुजंग / न्यायद्वारा मूल मार्ग ही का स्वीकार किया है। अर्थात् अंधा सर्प फिर