________________ (18) हेतु की आवश्यक्ता पड़ती है; क्यों कि विना हेतु के साध्य सिद्ध नहीं होता है। मगर जो हेतु होता है वह हमेशा साध्य का साधक और साध्याभाव का बाधक होता है। इस तरह विचारने से ज्ञात होता है कि-हेतु के अंदर साधकत्व और बाधकत्व दोनों धर्म मौजूद हैं / इस भाँति एक ही हेतु में साधक और बाधक दोनों धर्मों का अनायास ही समावेश हो गया है। इस लिए तुम्हारे कथनानुसार ही तुम्हारा हेतु संकर, व्यतिकर और विरोधादि दूषणों से दूषित ठहरता है। इस प्रकार का दूषित हेतु क्या कभी साध्य का साधक होता है ? ___ यदि कहोगे कि-हम हेतु के अन्दर साधकत्व और बाधकत्व जो धर्म मानते हैं वे अपेक्षित हैं; तो फिर तुमने ही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे दिया है / जैन मी निरपेक्षित धर्म कहाँ मानते हैं ? / एक वस्तु के अन्दर सापेक्षरीत्या परस्पर विरुद्ध उभय धर्मों का मानना 'स्याद्वाद' है। चाहे किसी मार्ग से रवाना हों; मगर जब तक हम सत्य मार्ग को ग्रहण नहीं करते हैं-वास्तविक मार्ग पर नहीं चलते हैं तब तक हम अपने इच्छित नगर में नहीं पहुंच सकते हैं। मैं ज़ोर देकर कहूँगा कि प्रत्येक दर्शन वालों ने, प्रकारान्तर से स्याद्वाद सिद्धान्त को ही स्वीकार किया है। यदि उन में से कुछ का यहाँ उल्लेख किया जायगा तो वह अयोग्य नहीं होगा।