Book Title: Panchsangraha Part 10
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक Fabuely योगो माग वाततिक OTT Vhee मरूधर केसरी मूल-शब्दार्थ एवं विवेचन युक्त हिन्दी व्याख्याकार श्री चन्द्रर्षि महत्तर प्रणीत बन्धक सत्कर मप्राभृत बन्धव्य ग्रह श्री मिश्रीमलजी महाराज प्रकृति बनधविद्य संपादक-देवकुमार जैन Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रर्षि महत्तर प्रणीत पंच संग्रह [सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार] (मूल, शब्दार्थ, विवेचन युक्त) हिन्दी व्याख्याकार श्रमणसूर्य प्रवर्तक मरुधरलेसरी श्री मिश्रीमलजीमहाराज दिशा-निदेशक मरुधरारत्न प्रवर्तक मुनिश्री रूपचन्दजी म० 'रजत' सम्प्रेरक मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि सम्पादक देवकुमार जैन प्रकाशक आचार्य श्री रघुनाथ जैन शोध संस्थान, जोधपुर Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री चन्द्रर्षि महत्तर प्रणीत पंचसंग्रह (१०) (सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार) . _ हिन्दी व्याख्याकार ___ स्व० मरुधरकेसरी प्रवर्तक मुनि श्री मिश्रीमल जी महाराज 0 दिशा निदेशक मरुधरारत्न प्रवर्तक मुनि श्री रूपचन्द जी म० 'रजत' D संयोजक-संप्रेरक मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि । सम्पादक देवकुमार जैन - प्राप्तिस्थान श्री मरुधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) प्रथमावृत्ति वि० सं० २०४२ पौष; जनवरी १९८६ .. [गुरुदेवश्री की द्वितीय पुण्य तिथि] 0 मूल्य लागत से अल्पमूल्य २०/- बीस रुपया सिर्फ 0 मुद्रण श्रीचन्द सुराना 'सरस' के निदेशन में शक्ति प्रिंटर्स, आगरा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैनदर्शन का मर्म समझना हो तो 'कर्मसिद्धान्त' को समझना अत्यावश्यक है। कर्म सिद्धान्त का सर्वांगीण तथा प्रामाणिक विवेचन 'कर्मग्रन्थ' (छह भाग) में बहुत ही विशद रूप से हुआ है, जिनका प्रकाशन करने का गौरव हमारी समिति को प्राप्त हुआ। कर्मग्रन्थ के प्रकाशन से कर्मसाहित्य के जिज्ञासुओं को बहुत लाभ हुआ तथा अनेक क्षेत्रों से आज उनकी मांग बराबर आ रही है। ___ कर्मग्रन्थ की भाँति ही 'पंचसंग्रह' ग्रन्थ भी जैन कर्मसाहित्य में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है । इसमें भी विस्तारपूर्वक कर्मसिद्धान्त के समस्त अंगों का विवेचन हुआ है। पूज्य गुरुदेव श्री मरुधरकेसरी मिश्रीमल जी महाराज जैनदर्शन के प्रौढ़ विद्वान और सुन्दर विवेचनकार थे। उनकी प्रतिभा अद्भुत थी, ज्ञान की तीव्र रुचि अनुकरणीय थी। समाज में ज्ञान के प्रचारप्रसार में अत्यधिक रुचि रखते थे। यह गुरुदेवश्री के विद्यानुराग का प्रत्यक्ष उदाहरण है कि इतनी वृद्ध अवस्था में भी पंचसंग्रह जैसे जटिल और विशाल ग्रन्थ की व्याख्या, विवेचन एवं प्रकाशन का अद्भुत साहसिक निर्णय उन्होंने किया और इस कार्य को सम्पन्न करने की समस्त व्यवस्था भी करवाई। जैनदर्शन एवं कर्म सिद्धान्त के विशिष्ट अभ्यासी श्री देवकुमार जी जैन ने गुरुदेवश्री के मार्गदर्शन में इस ग्रन्थ का सम्पादन कर प्रस्तुत किया है। इसके प्रकाशन हेतु गुरुदेवश्री ने प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीयुत श्रीचन्द जी सुराना को जिम्मेदारी सौंपी और वि० सं० २०३६ आश्विन मास में इसका प्रकाशन-मुद्रण प्रारम्भ कर दिया Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। गुरुदेवश्री ने श्री सुराना जी को दायित्व सौंपते हुए फरमाया -'मेरे शरीर का कोई भी भरोसा नहीं है, इस कार्य को शीघ्र सम्पन्न कर लो।' उस समय यह बात सामान्य लग रही थी। किसे ज्ञात था कि गुरुदेवश्री हमें इतनी जल्दी छोड़कर चले जायेंगे। किंतु क र काल की विडम्बना देखिये कि ग्रन्थ का प्रकाशन चालू ही हुआ था कि १७ जनवरी १९८४ को पूज्य गुरुदेव के आकस्मिक स्वर्गवास से सर्वत्र एक स्तब्धता व रिक्तता-सी छा गई। गुरुदेव का व्यापक प्रभाव समूचे संघ पर था और उनकी दिवंगति से समूचा श्रमणसंघ ही अपूरणीय क्षति अनुभव करने लगा। पूज्य गुरुदेवश्री ने जिस महाकाय ग्रन्थ पर इतना श्रम किया और जिसके प्रकाशन की भावना लिये ही चले गये, वह ग्रन्थ अब दस भागों में पूज्य गुरुदेवश्री के प्रधान शिष्य मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि जी महाराज के मार्गदर्शन में सम्पन्न हो गया है, यह प्रसन्नता का विषय है। श्रीयुत सुराना जी एवं श्री देवकुमार जी जैन ने इस ग्रन्थ के प्रकाशनमुद्रण सम्बन्धी सभी दायित्व निभाया है और इसे शीघ्र ही पूर्ण कर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया, यह अतीव आनन्द का विषय है । आचार्य श्री रघुनाथ जैन शोध संस्थान अपने कार्यक्रम में इस ग्रन्थ को प्राथमिकता देकर सम्पन्न करवाने में प्रयत्नशील रहा है। आशा है, जिज्ञासु पाठक लाभान्वित होंगे। ___ मन्त्री आचार्य श्री रघुनाथ जैन शोध संस्थान जोधपुर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kol श्रमणसूर्य प्रवर्तक गुरूदेव विद्याभिलाषी श्री सुकन मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज www.jainelibrary.or Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संघ के भीष्म पितामह श्रमणसूर्य स्व० गुरुदेव श्री मिश्रीमल जी महाराज स्थानकवासी जैन परम्परा के ५०० वर्षों के इतिहास में कुछ ही ऐसे गिने-चुने महापुरुष हुए हैं जिनका विराट व्यक्तित्व अनन्त - असीम नभोमण्डल की भांति व्यापक और सीमातीत रहा हो। जिनके उपकारों से न सिर्फ स्थानकवासी जैन, न सिर्फ श्वेताम्बर जैन, न सिर्फ जंन किन्तु जैन- अजैन, बालक - वृद्ध, नारी-पुरुष, श्रमण श्रमणी सभी उपकृत हुए हैं और सब उस महान् विराट व्यक्तित्व की शीतल छाया से लाभान्वित भी हुए हैं । ऐसे ही एक आकाशीय व्यक्तित्व का नाम है श्रमणसूर्य प्रवर्तक मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी महाराज ! पता नहीं वे पूर्वजन्म की क्या अखूट पुण्याई लेकर आये थे कि बाल सूर्य की भांति निरन्तर तेज प्रताप - प्रभाव यश और सफलता की तेजस्विता, प्रभास्वरता से बढ़ते ही गये, किन्तु उनके जीवन की कुछ विलक्षणता यही है कि सूर्य मध्यान्ह बाद क्षीण होने लगता है, किन्तु यह श्रमणसूर्य जीवन के मध्यान्होत्तर काल में अधिक-अधिक दीप्त होता रहा, ज्यों-ज्यों यौवन की नदी बुढ़ापे के सागर की ओर बढ़ती गई त्यों-त्यों उसका प्रवाह तेज होता रहा, उसकी धारा विशाल और विशालतम होती गई, सीमाएँ व्यापक बनती गईं, प्रभाव - प्रवाह सौ-सौ धाराएँ बनकर गांव-नगर- वन-उपवन सभी को तृप्त - परितृप्त करता गया । यह सूर्य डूबने की अन्तिम घड़ी, अंतिम क्षण तक तेज से दीप्त रहा, प्रभाव से प्रचण्ड रहा और उसकी किरणों का विस्तार अनन्त - असीम गगन के दिक्कोणों के छूता रहा । जैसे लड्डू का प्रत्येक दाना मीठा होता है, अंगूर का प्रत्येक अंश मधुर होता है, इसी प्रकार गुरुदेव श्री मिश्रीमल जी महाराज का Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन, उनके जीवन का प्रत्येक क्षण, उनकी जीवनधारा का प्रत्येक जलबिन्दु मधुर मधुरतम जीवनदायी रहा। उनके जीवन सागर की गहराई में उतरकर गोता लगाने से गुणों की विविध बहुमूल्य मणियां हाथ लगती हैं तो अनुभव होता है, मानव जीवन का ऐसा कौनसा गुण है जो इस महापुरुष में नहीं था । उदारता, सहिष्णुता, दयालुता, प्रभावशीलता, समता, क्षमता, गुणज्ञता, विद्वत्ता, कवित्वशक्ति, प्रवचनशक्ति, अदम्य साहस, अद्भुत नेतत्व क्षमता, संघ-समाज की संरक्षणशीलता, युगचेतना को धर्म का नया बोध देने की कुशलता, न जाने कितने उदात्त गुण उनके व्यक्तित्व सागर में छिपे थे। उनकी गणना करना असंभव नहीं तो दुःसंभव अवश्य ही है। महान तार्किक आचार्य सिद्धसेन के शब्दों में कल्पान्तवान्तपयसः प्रकटोऽपि यस्मान मीयेत केन जलधेर्ननु रत्नराशेः कल्पान्तकाल की पवन से उत्प्रेरित, उचालें खाकर बाहर भूमि पर गिरी समुद्र की असीम अगणित मणियां सामने दीखती जरूर हैं, किन्तु कोई उनकी गणना नहीं कर सकता, इसी प्रकार महापुरुषों के गुण भी दीखते हुए गिनती से बाहर होते हैं। जीवन रेखाएँ श्रद्धय गुरुदेव का जन्म वि० सं० १९४८ श्रावण शुक्ला चतुर्दशी को पाली शहर में हुआ। पांच वर्ष की आयु में ही माता का वियोग हो गया । १३ वर्ष की अवस्था में भयंकर बीमारी का आक्रमण हुआ। उस समय श्रद्धय गुरुदेव श्री मानमलजी म. एवं स्व. गुरुदेव श्री बुधमलजी म. ने मंगलपाठ सुनाया और चमत्कारिक प्रभाव हुआ, आप शीघ्र ही स्वस्थ हो गये। काल का ग्रास बनते-बनते बच गये । गुरुदेव के इस अद्भुत प्रभाव को देखकर उनके प्रति हृदय की असीम श्रद्धा उमड़ आई । उनका शिष्य बनने की तीव्र उत्कंठा जग Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) पड़ी । इसी बीच गुरुदेव श्री मानमलजी म. का वि. सं. १९७४, माघ वदी ७ को जोधपुर में स्वर्गवास हो गया । वि. सं० १९७५ अक्षय तृतीया को पूज्य स्वामी श्री बुधमलजी महाराज के कर-कमलों से आपने दीक्षारत्न प्राप्त किया । आपकी बुद्धि बड़ी विचक्षण थी । प्रतिभा और स्मरणशक्ति अद्भुत थी । छोटी उम्र में हो आगम, थोकड़े, संस्कृत, प्राकृत, गणित, ज्योतिष काव्य, छन्द, अलंकार, व्याकरण आदि विविध विषयों का अधिकारिक ज्ञान प्राप्त कर लिया । प्रवचनशैली की ओजस्विता और प्रभावकता देखकर लोग आपश्री के प्रति आकृष्ट होते गये और यों सहज ही आपका वर्चस्व, तेजस्व बढ़ता गया । वि. सं० १९८५ पौष बदि प्रतिपदा को गुरुदेव श्री बुधमलजी म. का स्वर्गवास हो गया । अब तो पूज्य रघुनाथजी महाराज की सप्रदाय का समस्त दायित्व आपश्री के कंधों पर आ गिरा । किन्तु आपश्री तो सर्वथा सुयोग्य थे । गुरु से प्राप्त संप्रदाय - परम्परा को सदा विकासोन्मुख और प्रभावनापूर्ण ही बनाते रहे । इस दृष्टि से स्थानांगसूत्रवर्णित चार शिष्यों (पुत्रों) में आपको अभिजात ( श्रेष्ठतम ) शिष्य ही कहा जायेगा, जो प्राप्त ऋद्धि-वैभव को दिन दूना रात चौगुना बढ़ाता रहता है। वि.सं. १९६३, लोकाशाह जयन्ती के अवसर पर आपश्री को मरुधरकेसरी पद से विभूषित किया गया । वास्तव में ही आपकी निर्भीकता और क्रान्तिकारी सिंह गर्जनाएँ इस पद की शोभा के अनुरूप ही थीं । स्थानकवासी जैन समाज की एकता और संगठन के लिए आपश्री के भगीरथ प्रयास श्रमण संघ के इतिहास में सदा अमर रहेंगे । समयसमय पर टूटती कड़ियाँ जोड़ना, संघ पर आये संकटों को दूरदर्शिता के साथ निवारण करना, संत-सतियों की आन्तरिक व्यवस्था को सुधारना, भीतर में उठती मतभेद की कटुता को दूर करना - यह आपश्री की ही क्षमता का नमूना है कि बृहत श्रमणसंघ का निर्माण हुआ, बिखरे घटक एक हो गये । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किन्तु यह बात स्पष्ट है कि आपने संगठन और एकता के साथ कभी सौदेबाजी नहीं की। स्वयं सब कुछ होते हुए भी सदा ही पदमोह से दूर रहे। श्रमणसंघ का पदवी-रहित नेतृत्व प्रापश्री ने किया और जब सभी का पद-ग्रहण के लिए आग्रह हुआ तो आपश्री ने उस नेतृत्व चादर को अपने हाथों से आचार्य सम्राट (उस समय उपाचार्य) श्री आनन्दऋषिजी महाराज को ओढ़ा दी । यह है आपश्री की त्याग व निस्पृहता की वृत्ति। कठोर सत्य सदा कटु होता है। आपश्री प्रारम्भ से ही निर्भीक वक्ता, स्पष्ट चिन्तक और स्पष्टवादी रहे हैं। सत्य और नियम के साथ आपने कभी समझौता नहीं किया, भले ही वर्षों से साथ रहे अपने कहलाने वाले साथी भी साथ छोड़कर चले गये; पर आपने सदा ही संगठन और सत्य का पक्ष लिया । एकता के लिए आपश्री के अगणित बलिदान श्रमणसंघ के गौरव को युग-युग तक बढ़ाते रहेंगे। संगठन के बाद आपश्री की अभिरुचि काव्य, साहित्य, शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में बढ़ती रही है। आपश्री की बहुमुखी प्रतिभा से प्रसूत सैकड़ों काव्य, हजारों पद छन्द आज सरस्वती के शृगार बने हुए हैं। जैन राम यशोरसायन, जैन पांडव यशोरसायन जैसे महाकाव्यों की रचना, हजारों कवित्त, स्तवन की सर्जना आपकी काव्यप्रतिभा के बेजोड़ उदाहरण हैं । आपश्री की आशुकवि-रत्न की पदवी स्वयं में सार्थक है। कर्मग्रन्थ (छह भाग) जैसे विशाल गम्भीर ग्रन्थ पर आपश्री के निदेशन में व्याख्या, विवेचन और प्रकाशन हुआ जो स्वयं में ही एक अनूठा कार्य है । आज जैनदर्शन और कर्म सिद्धान्त के सैंकड़ों अध्येता उनसे लाभ उठा रहे हैं । आपश्री के सान्निध्य में ही पंचसंग्रह (दस भाग) जैसे विशालकाय कर्मसिद्धान्त के अतीव गहन ग्रन्थ का सम्पादन, विवेचन और प्रकाशन प्रारम्भ हुआ, जो वर्तमान में आपश्री की अनुपस्थिति में आपश्री के सुयोग्य शिष्य श्री सुकनमुनि जी के निदेशन में सम्पन्न हो गया है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन, जैन उपन्यास आदि की आपश्री की पुस्तकें भी अत्यधिक लोकप्रिय हुई हैं । लगभग ६-७ हजार पृष्ठ से अधिक परिमाण में आप श्री का साहित्य आँका जाता है । शिक्षा-क्षेत्र में आपश्री को दूरदर्शिता जैन समाज के लिये वरदानस्वरूप सिद्ध हुई । जिस प्रकार महामना मालवीय जो ने भारतीय शिक्षा-क्षेत्र में एक नई क्रान्ति–नया दिशादर्शन देकर कुछ अमर स्थापनाएँ की हैं, स्थानकवासी जैन समाज के शिक्षा क्षेत्र में आपको भी स्थानकवासी जगत का 'मालवीय' कह सकते हैं। लोकाशाह गुरुकुल (सादड़ी), राणावास की शिक्षा संस्थाएँ, जयतारण आदि के छात्रावास तथा अनेक स्थानों पर स्थापित पुस्तकालय, वाचनालय, प्रकाशन संस्थाएं शिक्षा और साहित्य-सेवा के क्षेत्र में आपश्री की अमर कीर्ति गाथा गा रही हैं। लोक-सेवा के क्षेत्र में भी मरुधरकेसरी जी महाराज भामाशाह और खेमा देदराणी की शुभ परम्पराओं को जीवित रखे हुए थे। फर्क यही है कि वे स्वयं धनपति थे, अपने धन को दान देकर उन्होंने राष्ट्र एवं समाज सेवा की, आप एक अकिंचन श्रमण थे, अतः आपश्री ने धनपतियों को प्रेरणा, कर्तव्य-बोध और मार्गदर्शन देकर मरुधरा के गांवगांव, नगर-नगर में सेवाभावी संस्थाओं का, सेवात्मक प्रवृत्तियों का व्यापक जाल बिछा दिया। आपश्री की उदारता की गाथा भी सैकड़ों व्यक्तियों के मुख से सुनी जा सकती है। किन्हीं भी संत, सतियों को किसी वस्तु की, उपकरण आदि की आवश्यकता होती तो आपश्री निःसंकोच, बिना किसी भेदभाव के उनको सहयोग प्रदान करते और अनुकूल साधन-स मग्री की व्यवस्था कराते । साथ ही जहाँ भी पधारते वहां कोई रुग्ण, असहाय, अपाहिज, जरूरतमन्द गृहस्थ भी (भले वह किसी वर्ण, समाज का हो) आपश्री के चरणों में पहुंच जाता तो आपश्री उसकी दयनीयता से द्रवित हो जाते और तत्काल समाज के समर्थ व्यक्तियों द्वारा उसकी उपयुक्त व्यवस्था करा देते । इसी कारण गांव-गांव में किसान, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) कुम्हार, ब्राह्मण, सुनार, माली आदि सभी कौम के व्यक्ति आपश्री को राजा कर्ण का अवतार मानने लग गये और आपश्री के प्रति श्रद्धावनत रहते । यही सच्चे संत की पहचान है, जो किसी भी भेदभाव के बिना मानव मात्र की सेवा में रुचि रखे, जीव मात्र के प्रति करुणाशील रहे। इस प्रकार त्याग, सेवा, संगठन, साहित्य आदि विविध क्षेत्रों में सतत प्रवाहशील उस अजर-अमर यशोधारा में अवगाहन करने से हमें मरुधरकेसरी जी म० के व्यापक व्यक्तित्व की स्पष्ट अनुभूतियां होती हैं कि कितना विराट्, उदार, व्यापक और महान था वह व्यक्तित्व ! श्रमणसंघ और मरुधरा के उस महान संत की छत्र-छाया की हमें आज बहुत अधिक आवश्यकता थी किन्तु भाग्य की विडम्बना ही है कि विगत १७ जनवरी १९८४, वि० सं० २०४०, पौष शुदि १४, मंगलवार को वह दिव्यज्योति अपना प्रकाश विकीर्ण करती हुई इस धराधाम से उठकर अनन्त असीम में लीन हो गयी थी। पूज्य मरुधरकेसरी जी के स्वर्गवास का उस दिन का दृश्य, शवयात्रा में उपस्थित अगणित जनसमुद्र का चित्र आज भी लोगों की स्मृति में है और शायद शताब्दियों तक इतिहास का कीर्तिमान बनकर रहेगा । जैतारण के इतिहास में क्या, संभवतः राजस्थान के इतिहास में ही किसी सन्त का महाप्रयाण और उस पर इतना अपार जन-समूह (सभी कौमों और सभी वर्ण के) उपस्थित होना, यह पहली घटना थी। कहते हैं, लगभग ७५ हजार की अपार जनमेदिनी से संकुल शवयात्रा का वह जलूस लगभग ३ किलोमीटर लम्बा था, जिसमें लगभग २० हजार तो आस-पास व गांवों के किसान बन्धु ही थे जो अपने ट्रेक्टरों, बैलगाड़ियों आदि पर चढ़कर आये थे। इस प्रकार उस महापुरुष का जीवन जितना व्यापक और विराट रहा उससे भी अधिक व्यापक और श्रद्धा परिपूर्ण रहा उसका महाप्रयाण ! उस दिव्य पुरुष के श्रीचरणों में शत-शत वन्दन ! . -श्रीचन्द सुराना 'सरस' Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाजरत्न सेठ श्री बादलचन्द जी सा. कांकरिया श्राविकारत्न धर्मशीला सौ. बादामकु वर बाई कांकरिया Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज के चमकते सितारे, धर्मनिष्ठ, समाज रत्न, पूज्य गुरुदेव श्री मरुधर केसरी जी म सा के अनन्य भक्त श्री बादलचन्द जी सा० कांकरिया सुडौल बदन, लम्बा कद, हंसमुख, राजसी दमक, साफे के खिचे हुए पेच, वाणी में ओज और बात के धनी सेठ सा० श्री बादलचन्द जी कांकरिया उन चमकते हुए सितारों में से एक हैं जो विकास के क्षेत्र में धरती से उठे और आसमान को छकर रहे । जीवन में संघर्षों के साथ खेले और हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। आपका जन्म संवत् १९८१ में राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में प्रसिद्ध पीपाड़ सिटी के निकट चौकड़ीकला में हुआ। पिता श्री हस्तीमलजी कांकरिया की गोद में आपने बहुत कुछ सीखा। बचपन से ही आप में खानदानी सुसंस्कार पड़े हैं । आपका शुभ विवाह बादामकबर बाई जी से हुआ। साधारण सी शिक्षा के बाद सन् १९६३ में आप मद्रास पधारे एवं इन्श्योरेन्स कम्पनी में साधारण सी सर्विस की। अपनी प्रखर बुद्धि, उच्च शालीन व्यवहार, विशिष्ट सम्पर्क तथा मेहनत और ईमानदारी से कार्य करते रहे । भाग्य ने भी पूरा-पूरा साथ दिया और सन् १९८४ में आपने नेशनल इन्श्योरेंस कम्पनी में मैनेजर का पद प्राप्त कर लिया । हजारों के बीच में एक ही व्यक्तित्व के धनी श्री कांकरिया जी ने जीवन में भारी उतार-चढ़ाव देखे, पर कभी भी हिम्मत नहीं हारी। आगे ही बढ़ते रहे। धर्म का रंग रग-रग में समाया हुआ था । श्रमणसूर्य मरुधर केसरी श्री मिश्रीमल जी म. सा. के प्रति आपकी पूरी आस्था एवं निष्ठा रही है । सम्पूर्ण परिवार गुरुदेव श्री का अनन्य भक्त है एवं गुरुदेव श्री के संकेत मात्र पर सर्वस्व न्यौछावर करने के लिये सदैव आगे रहते हैं। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) आप सदैव ही कहते रहते हैं कि आज जो कुछ भी हम हैं, वह सब पूज्य गुरुदेव श्री का ही प्रताप है । पूज्य गुरुदेव श्री के सान्निध्य में आपने सर्वप्रथम पाली स्थानक में सत्तावन हजार (५७ हजार) रुपये भेंट किये । मेडतासिटी में आचार्य रघुनाथ चतुर्दश चातुर्मास स्मृति भवन में हाल बनाने हेतु एक लाख, ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह रुपये ( १ लाख ११ हजार १ सौ ११ रु० ) भेंट कर भवन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया । बिलाड़ा चिकित्सालय को पच्चीस हजार रुपये ( २५ हजार रुपयों) का योगदान दिया । जोधपुर के विशाल महावीर भवन का उद्घाटन आपके ही कर-कमलों से हुआ है । इस भवन निर्माण में एक लाख एक हजार रुपयों ( १ लाख १ हजार रु० ) का महत्वपूर्ण योगदान दिया है । मद्रास जैन कॉलेज में इक्कीस हजार ( २१ हजार ) व वर्धमान महावीर केन्द्र आबू पर्वत पर ग्यारह हजार रुपये ( ११ हजार ) रुपयों का योगदान दिया है । इनके अतिरिक्त छोटी-मोटी राशियाँ तो सदैव ही स्थान-स्थान पर अर्पित करते रहते हैं । आपके यहाँ से सहायता की आशा लेकर आने वाला कभी निराश नहीं जाता । 'पुण्यवान के पग-पग नव निधान' कहावत के अनुसार आपको सुयोग्य, होनहार एवं आज्ञाकारी पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई । श्री शांतिलालजी ज्येष्ठ पुत्र हैं और बंगलौर में व्यवसाय कर रहे हैं । श्री गौतमचन्दजी आपके द्वितीय प्रतिभाशाली सुपुत्र हैं । आपका मद्रास में भारी कारोबार व वर्चस्व है । अभी जयतारण में मरुधर केसरी जी के प्रथम स्मृति दिवस पर आपने अपने साथियों के साथ दो लाख से भी ऊपर की बौलियां छुड़ाकर समाधि स्थल पर कलश चढ़ाया है । आप धार्मिक भावनाओं से ओत प्रोत, गुरुदेव श्री के अगाध श्रद्धालु भक्त, सेवाभावी होनहार नवयुवक है । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री उत्तमचन्द जी तृतीय सुपुत्र हैं। ये भी पिताश्री के कार्यों में पूरा-पूरा योगदान देते हैं। आपके चार पुत्रियाँ हैं जिनकी ससुराल मद्रास में ही है । आपका स्वयं का व्यक्तित्व ही आपका परिचय है। आपका निजी प्रभाव एवं ओज ही इतना प्रखर है कि आप जहाँ भी खड़े हो जाते हैं वहाँ हर समस्या आसानी से हल हो जाती है । धार्मिक साधना, सामायिक एवं दयादान आदि आपका नित्य का कार्यक्रम हैं । हजारों में स्पष्ट एवं निष्पक्ष भाव से बोलना, सत्य पर डट जाना आपकी विशेषता रही है। सचमुच में आप समाज के एक स्तम्भ हैं, धर्मनिष्ठ श्रावक एवं प्रतिभाशाली श्रीमंत हैं । वर्तमान में स्व० पूज्य गुरुदेव श्री मिश्रीपलजी म. सा. के शिष्य एवं आज्ञानुवर्ती मरुधरारत्न श्री रूपचन्दजी म. सा. 'रजत' एवं मरुधरा भुषण, पं० रत्न श्री सुकनमलजी म. सा. पर आपकी पूरी निष्ठा है और हर मौके पर आपकी उपस्थिति अनिवार्यत: रही है एवं उनके ही प्रशंसनीय मार्गदर्शन से कार्यरत हैं। ___ आध्यात्मिक क्षेत्र में आपकी रुचि बढ़ती रहे, समाज में आपका योगदान प्रगति लाये, आपकी भावी पीढ़ी आपका अनुसरण कर सोने में सुहागा भरे, आपकी आस्था, निष्ठा जीवन में और अधिक प्रकाश लाये, आप सदैव स्वस्थ एवं दीर्घायु हो यही हमारी हादिक मंगल कामना है । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन 'पंचसंग्रह' ग्रन्थ का यह सप्ततिका नामक अन्तिम अधिकार है। 'पंचसंग्रह' जैन कर्मसिद्धान्त की विवेचक कृति है । इसके रचयिता श्रीमदाचार्य चन्द्रर्षि महत्तर हैं। उपलब्ध प्रमाणों से यह तो स्पष्ट है कि वार्तमानिक कर्म साहित्य के आलेखन के आधार अग्रायणीय पूर्व और कर्मप्रवाद पूर्व हैं। अग्रायणीय पूर्व की पांचवी वस्तु के चौथे प्राभृत में कार्मिक विवेचन किया गया है और नामानुरूप कर्मप्रवाद पूर्व में तो मुख्य रूप से कर्म सिद्धान्त का ही वर्णन है। लेकिन काल-प्रभाव तथा बौद्धिक प्रगल्भता के अभाव में पूर्वज्ञान एवं पूर्वज्ञों की परंपरा का विच्छेद हो जाने से पूर्वगत ज्ञाननिधि भी विलुप्त सी हो गई । जिससे वर्तमान में उपलब्ध कर्म साहित्य आकर और प्राकरणिक इन दो रूपों में विभाजित हो गया। इन दो रूपों में से आकर ग्रन्थों में पूर्वोद्धृत यत्किचित् अंश समाहित है और प्रकरण ग्रन्थ तृतीय साहित्य उद्धार के समय लिखे गये पाठकों को सुगमता से बोध कराने वाले अपने अधिकृत विषय के विवेचक हैं। आकर ग्रन्थों के रूप में शतक, सप्ततिका, कषायप्राभूत, सत्कर्म प्राभृत, कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थ माने जाते हैं। पूर्वज्ञान की विलुप्ति की तरह जैन परंपरा भी श्वेताम्बर और दिगम्बर इन दो भागों में विभाजित हो गई । इसका परिणाम यह हुआ कि ग्रन्थों के नामकरण में एकरूपता रहने पर भी कुछ पाठभेदों द्वारा कतिपय अंशों में भिन्न वर्णन किया गया है। जिसका कारण यह है कि दैशिक, कालिक परिस्थितियों के कारण विज्ञ आचार्यों का संपर्क नहीं रहा और जब चर्चा-वार्ता का प्रसंग आया तब तक भिन्न Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तायें इतनी रूढ़ हो चुकी थीं कि जिनको तत्काल बदला जाना संभव नहीं हो सका। __इस सामान्य भूमिका के आधार पर अब संक्षेप में सर्वप्रथम पंचसग्रह नामकरण के कारण को स्पष्ट करते हैं। पंचसंग्रह परिचय जैन वाङमय की श्रीवृद्धि में दोनों जैन परम्पराओं के आचार्य प्रयत्नशील रहे हैं। उन्होंने स्वतन्त्र रूप से भी ग्रन्थों की रचना की और समय की आवश्यकता तथा अनुकूलता देखकर विभिन्न ग्रन्थों का संकलन कर नये नाम से भी ग्रन्थों की रचना की। पंचसंग्रह इसी प्रकार का एक सग्रह ग्रन्थ है । इसमें बंध, बंधक आदि पांच द्वार हैं, जो जैनदर्शन के लक्ष्यभूत मुख्य विषय हैं। इनके आधार पर दोनों ही परंपरा के आचार्यों ने पंचसंग्रह यही नाम देकर तदाधार से स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचनाएँ की और उत्तरवर्ती काल में उन पर अनेक टीका, टिप्पण, चूर्णियों का लेखन किया गया। जिससे मूलग्रन्थगत विशेषताओं का सरलता से स्पष्टीकरण हो सका। वर्तमान में पंचसंग्रह नाम के अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, जिनमें से कुछ प्राकृत में और कुछ संस्कृत में रचे गये हैं । इनकी रचना दोनों परम्पराओं के आचार्यों द्वारा हुई है । इनके सम्बन्ध में यह ज्ञातव्य है कि दोनों परंपराओं द्वारा रचित या संकलित पंचसंग्रह में जिन पांच ग्रन्थों या प्रकरणों का उल्लेख किया जाता है, उनमें से एकाध को छोड़कर प्रायः सभी ग्रन्थों या मूल प्रकरणों के रचयिताओं के नामादि अभी तक भी अज्ञात हैं। मूल ग्रन्थों की प्राचीनता तो सुतरां प्रमाणित है और अध्ययन करने पर ऐसा ज्ञात होता है कि उनकी रचना उस समय हुई, जबकि जैन परम्परा अक्षुण्ण थी, उसमें श्वेताम्बर-दिगम्बर जसे भेद उत्पन्न नहीं हुए थे। कालान्तर में जब इन दोनों भेदों ने अपना-अपना अस्तित्व सुदृढ़ कर लिया तब अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार पूर्व परम्परा से चले आये श्रु त को निबद्ध करना प्रारम्भ किया। उदाहरणार्थ - संस्कृत ग्रन्थों में जैसे तत्वार्थ सूत्र अपनी-अपनी Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) मान्यतानुरूप पाठ-भेदों के साथ दोनों सम्प्रदायों को मान्य है और दोनों ही संप्रदाय के आचार्यों ने टीका-टिप्पण-भाष्य आदि लिखे । यही स्थिति पचसंग्रह की भी है जिसके मूल प्रकरण दोनों सम्प्रदायों में थोड़े से पाठ-भेदों के साथ समान रूप से मान्य हैं और दोनों ही सम्प्रदाय के आचार्यों ने प्राकृत भाषा में भाष्य, गाथायें, चूर्णियां और टीका-टिप्पण ग्रन्थ लिखे हैं। दोनों सम्प्रदायों के पंचसंग्रहों में निबद्ध, संकलित या संगृहीत पांच ग्रन्थों और प्रकरणों के नाम इस तरह दो प्रकार से मिलते हैंश्वेताम्बर पंचसंग्रह प्रथम प्रकार-१ सत्कर्मप्राभृत, २ कर्मप्रकृति, ३ कषायप्राभृत ४ शतक ५ सप्ततिका। द्वितीय प्रकार-१ योगोपयोग मार्गणा २ बंधक ३ बधव्य ४ बंधहेतु ५ बंधविधि। . प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता चन्द्रषि महत्तर हैं। अतः रचयिता आचार्य ने स्वयं ही दोनों प्रकार के नाम दिये हैं। जिनमें प्रथम प्रकार के नामों का उल्लेख करते हए कहा है-इस ग्रन्थ में शतक आदि पांच ग्रन्थ यथास्थान संक्षिप्त करके संग्रह किये गये हैं, इसीलिये इस ग्रन्थ का नाम पंचसंग्रह है अथवा इसमें बंधक आदि पांच अधिकार वर्णित हैं, इसलिये भी इसका पंचसंग्रह यह नाम सार्थक या यथार्थ है। दिगम्बर पंचसंग्रह में पांचों प्रकरणों के नाम इस प्रकार से बतलाये हैं प्रथम प्रकार-१ जीवसमास २ प्रकृति समुत्कीर्तन, ३ बंधस्तव ४ शतक ५ सप्ततिका। द्वितीय प्रकार-१ बंधक, २ बध्यमान, ३ बंधस्वामित्व ४ बंधकारण ५ बंधभेद। दोनों प्रकार के नामों के विषय में यह ज्ञातव्य है कि संग्रहकार ने प्रथम प्रकारगत पांचों प्रकरणों के संक्षिप्त सूत्रात्मक रूप को सुरक्षित Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) रखते हुए भाष्य गाथाओं की रचना द्वारा पल्लवित किया और दूसरे प्रकार के नाम अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह के आधार से उल्लिखित हैं। उन्होंने प्राचीन प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत भाषा में कुछ पल्लवित पद्यानुवाद किया जिसमें उन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में नामों का उल्लेख किया है। इस प्रकार से संक्षेप में दोनों जैन परंपराओं गत पंचसंग्रह का नामकरण के कारणोल्लेखपूर्वक परिचय जानना चाहिये। जैसा कि पूर्व में संकेत किया गया है कि संप्रदाय-भेद के कारण ग्रन्थ के वर्ण्य विषय में भी भिन्नतायें आ गईं। इस दृष्टि से श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के पंचसंग्रहों में वर्णन की भिन्नतायें हैं। लेकिन अभी प्रसंग नहीं होने से यहां कुछ भी संकेत किया जाना अनुपयोगी है, ऐसा हम मानते हैं । विज्ञ पाठकगण जिज्ञासुवृत्ति से अध्ययन कर अपना मत निर्धारित करें, यह अधिक समुचित होगा। ___अब प्रस्तुत अधिकार के विषय में विचार करते हैं। सप्ततिका के संकलन का आधार पूर्व में यह संकेत किया जा चुका है कि उपलब्ध जैन कर्म साहित्य के सकलन के आधार पूर्व हैं । अग्रायणीय पूर्व की पांचवीं वस्तु के चौथे प्राभूत के आधार से षटखंडागम, कर्मप्रकृति, शतक और सप्ततिका इन ग्रन्थों का संकलन हुआ । इनमें से कर्मप्रकृति यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में और षटखंडागम दिगम्बर परम्परा में माना जाता है तथा कुछ पाठ-भेदों के साथ शतक और सप्ततिका, ये दो ग्रन्थ दोनों परम्पराओं में माने जाते हैं। प्राचीनकाल में ग्रन्थों या अधिकारों के नामकरण के विषय में विभिन्न दृष्टियाँ रही हैं। कभी तो वर्ण्य विषय को आधार बनाकर प्रकरण का नामकरण कर लिया जाता था और कभी गाथाओं या श्लोकों की संख्या के आधार पर भी नामकरण कर लिया जाता था। उदाहरण के रूप में आचार्य शिवशर्म कृत 'शतक', आचार्य सिद्ध Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) सेन कृत द्वित्रिंशिका प्रकरण, आचार्य हरिभद्रसूरि कृत पंचाचक प्रकरण, विंशति-विंशतिका प्रकरण, षोडशक प्रकरण, अष्टक प्रकरण, आचार्य जिनवल्लभ कृत षड्शीति प्रकरण आदि अनेक रचनाओं को प्रस्तुत किया जा सकता है। कभी-कभी इच्छानुसार वर्तमान में पुस्तकों के नामकरण की तरह भी ग्रन्थ या प्रकरण का नामकरण कर लिया जाता था। इस तरह नामकरण के लिये कोई भी दृष्टि हो परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि वर्तमान में जो पांच ग्रन्थ माने जाते हैं और जिन्हें कर्म विषयक मूल साहित्य कहा जा सकता है उनमें सप्ततिका भी एक है। क्योंकि सप्ततिका की गाथाओं में कर्म साहित्य का समग्र सार भर दिया गया है जिससे मूल साहित्य का कहा जाना उचित ही है। कदाचित सप्ततिका यह नाम गाथाओं की संख्या के आधार से रखा गया मान लिया जाये, तथापि इसकी गाथाओं की संख्या के बारे में मतभेद है । अभी जो संस्करण उपलब्ध हैं, उन सब में इसकी गाथाओं की अलग-अलग संख्या दी गई है । श्री जैन श्रेयष्कर मंडल मेहसाना की ओर से प्रकाशित संस्करण में ९१ गाथायें हैं । बंबई से प्रकाशित प्रकरण रत्नाकर चौथा भाग में इसकी गाथाएँ ६४ दी गई हैं। आचार्य मलयगिरि की टीका के साथ श्री आत्मानन्द जैन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित में इसकी गाथाओं की संख्या ७२ दी गई है और चूणि के साथ श्री ज्ञान मन्दिर डभोई से प्रकाशित संस्करण में गाथाओं की संख्या ७१ बताई है। परन्तु यह चूणि ७१ गाथाओं पर न होकर ८६ गाथाओं पर है, इससे चूर्णिकार के मत से सप्ततिका की गाथाओं की संख्या ८६ सिद्ध होती है। दिगम्बर पंचसंग्रह में जो सप्ततिका प्रकरण संकलित है उसमें भाष्य सहित ५०७ गाथायें हैं। उनमें ७२ मूल गाथायें हैं। चन्द्रर्षि महत्तर द्वारा रचित पंचसंग्रह में इस प्रकरण की कुल गाथायें इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रत्येक सस्करण में गाथाओं की संख्या में भिन्नता है। इस भिन्नता के कारण के रूप में निम्न द्रष्टव्य है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिपिकारों द्वारा अन्तर्भाष्य गाथाओं को मूल गाथा के रूप में अथवा प्रकरणोपयोगी अन्य गाथाओं को मूल गाथा के रूप में स्वीकार किया जाना। ____ इस स्थिति में हम यह मानकर चलें, प्रकरण के नामकरण के लिए गाथा संख्या पर भार न दें, परन्तु पूर्वकालीन नाम का बोध कराने के लिये ही सप्ततिका यह नाम रखा गया है और पूर्व में सप्ततिका में जो वर्णन था उसका गाथा प्रमाण बढ़ाकर भी यहाँ प्रतिपादन कर दिया गया है। ऐसा करने से गाथाओं की संख्या एवं नाम के बारे में विवाद को अवकाश नहीं रहता है। सप्ततिका और चन्द्रषि महत्तर आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर ने अपने पंचसंग्रह में सप्ततिका नामक ग्रन्थ संगृहीत किया है और उस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी लिखी है। लेकिन इसके पूर्व ग्रन्थकार आचार्य एक अज्ञातकत क सप्ततिका पर २३०० श्लोक प्रमाण चूणि का आलेखन कर चुके थे। चूणि लिखते समय सम्भवतः उन्हें यह स्पष्ट हो चुका था कि संख्या के आधार पर ग्रन्थ का नामकरण करने की दृष्टि से अधिकृत वर्ण्य विषय से सम्बन्धित बहुत सा अंश छूट गया है । जिसका खुलासा करने के लिए अनेक ग्रन्थों के उद्धरण दिये एवं उद्धरण देते समय शतक,सत्कर्म प्राभत, कषायप्राभृत और कर्मप्रकृति संग्रहणी का भरपूर उपयोग किया। अब यदि उसी त्रुटि को पुनः दुहरा दिया जाये तो श्रम निष्फल है तथा पाठकों और ग्रन्थ के प्रति भी न्याय नहीं होगा। इसीलिए इसकी पूर्ति हेतु गाथा संख्या में वृद्धि करना अपेक्षित है। यह कार्य चूर्णि की रचना करते समय तो नहीं किया जा सकता था, लेकिन अपने रचित पंचसंग्रह के सप्ततिका प्रकरण में उन विषयों का समावेश करने के लिए गाथाओं की संख्या में वृद्धि करना उचित समझा और वैसा किया। ऐसा करके भी आचार्य ने सप्ततिका नाम इसीलिये रखा कि पाठकों को यह ध्यान रहे कि पूर्व परम्परा से सप्ततिका प्रकरण के Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिये निर्धारित विषय का ही यहाँ प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार गाथाओं की संख्या में भिन्नता होने पर इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ग्रन्थकार आचार्य का लक्ष्य पंचसंग्रह में वर्णन की क्रमबद्धता रहा है और इसलिए ग्रन्थान्तरों में आगत गाथाओं का समावेश भी कर लिया । वे गाथाएँ किन ग्रन्थान्तरों से ली हैं, यह अनुसन्धानीय है। ___इस प्रकार से पंचसंग्रहगत सप्ततिका के बारे में यत्किचित् संकेत करने के बाद अब प्रस्तुत सप्ततिका के विषय का परिचय कराते हैं। वर्ण्य विषय परिचय पूर्व के प्रकरणों में मूल और उत्तर प्रकृतियों के जिस बंधविधान का वर्णन किया है और प्रासंगिक होने से बंधनकरण आदि आठ करणों की व्याख्या की है, अब उसी बंधविधान के संवेध का यहाँ विचार किया गया है। संक्षेप में यह वर्ण्य विषय की रूपरेखा है । जिसका कुछ विस्तार के साथ परिचय इस प्रकार से जानना चाहिए प्रारम्भ में प्रकरण के प्रतिपाद्य विषय का संकेत करके सर्वप्रथम मूलप्रकृतियों विषयक बंध का बंध के साथ संवेध का निरूपण किया है। अनन्तर इसी क्रम में मूलप्रकृतियों सम्बन्धी उदय और सत्ता का, फिर उदय का बंध के साथ संवेध बतलाया और इसी तरह बंध के साथ सत्ता के एवं बंध के साथ उदय के संवेध का विचार किया है। जिसका सारांश यह हुआ कि मूल प्रकृतियों सम्बन्धी बंध के साथ बंध के, उदय के साथ उदय के, सत्ता के साथ सत्ता के, बंध के साथ उदय और सत्ता के, उदय और सत्ता के साथ बंध के संवेध का सयुक्तिक विचार किया है। तदनन्तर सामान्य से किये गये उक्त संवेध विचार को गुणस्थान और जीवस्थान भेदों में घटित किया है। तत्पश्चात् उत्तरप्रकृतियों के संवेध का विचार करने की भूमिका के रूप में दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्म के सिवाय शेष पाँच Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूल प्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियों के स्थानों का निरूपण किया है कि प्रत्येक कर्म की कितनी-कितनी उत्तरप्रकृतियां एक साथ एक जीव को बंध, उदय और सत्ता में प्राप्त हो सकती हैं। अनन्तर आयुकर्म के बंध, उदय और सत्ता के संवेध की प्ररूपणा की है। इसी तरह दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादि स्थानों, बंध और सत्ता स्थानों का काल प्रमाण बतलाकर उनके संवेध का विचार किया है । फिर गोत्र और वेदनीय कर्म के संवेध भंगों का विवेचन किया है । यह समग्र वर्णन आदि की अठारह गाथाओं में पूर्ण हुआ है। ___इस प्रकार सामान्य से छह कर्मों की उत्तरप्रकृतियों सम्बन्धी संवेध का विचार करने के बाद गाथा १६ से ४६ तक विस्तार से संसार के प्रमुख कारण मोहनीय कर्म के संबेध से सम्बन्धित बिन्दुओं की चर्चा की है। इसके लिए सर्वप्रथम मोहनीय कर्म के बंधस्थानों की संख्या, प्रकृतिभेद से बंधस्थानों के प्रकार, बंधस्थानों का काल प्रमाण बतलाकर फिर उदयस्थानों का वर्णन किया है और प्रत्येक गुणस्थान में सम्भव उदयस्थानों एवं उनसे सम्बन्धित भगों की चौबीसियाँ आदि को बतलाया है । यथाप्रसंग सम्बन्धित मतान्तरों का भी संकेत किया है फिर गुणस्यानों में मोहनीय कर्म के उदय (उदीरणा) विकल्पों को बतलाकर मोहनीय कर्म के उदयविच्छेदक गुणस्थानों का संकेत करके उदय सम्बन्धी वर्णन समाप्त किया है। इसी तरह सत्ता सम्बन्धी वर्णन करने के लिए सत्तास्थानों की संख्या बतलाकर गुणस्थानों में उन सत्तास्थानों की प्ररूपणा की है। यह सब वर्णन हो जाने के बाद संवेध का विचार किया है। अन्त में मोहनीय कर्म के सत्तास्थानों के अवस्थानकाल बतलाकर वक्तव्यता पूर्ण हुई है। मोहनीय की तरह नामकर्म की विचारणा भी व्यापक है । अतएव प्रारम्भ में बंधादि स्थानों का सरलता से बोध कराने के लिए जिन प्रकृतियों के साथ नामकर्म की बहुत सी प्रकृतियाँ बंध अथवा उदय में प्राप्त होती हैं, उनके निर्देशक सूत्र का संकेत करके देवगति Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ :) बंध-उदय सहचारी, तीर्थंकरनाम की बंध सहभावी, नरकगति-बंधसहचारी, अपर्याप्त बंधयोग्य, त्रस, पर्याप्त एकेन्द्रियादि के बंधयोग्य प्रकृतियों को बतलाया है। तत्पश्चात् नामकर्म के बंधस्थानों और प्रत्येक गति, गुणस्थान, एकेन्द्रियादि योग्य बंधस्थानों का कथन किया है। फिर गुणस्थानों में नामकर्म की बंध और विच्छेद योग्य प्रकृतियों का उल्लेख करके बंध विषयक प्ररूपणा पूर्ण की। इसी प्रकार उदय विषयक वर्णन प्रारम्भ करने के लिए उदयसम्बन्धी विशेष कथनीय, नामकर्म के उदयस्थान तथा गति, गुणस्थान, इन्द्रियभेद, केवली भगवान की अपेक्षा उदयस्थानों का उल्लेख करके नामकर्म के उदयस्थानों का वर्णन पूर्ण किया है। अनन्तर क्रमप्राप्त सत्तास्थानों की प्ररूपणा प्रारम्भ की और चतुर्गतियों, गुणस्थानों में सत्तास्थानों को बतलाकर बंधादि स्थानों के संवेध का विचार किया है। इसके बाद ज्ञानावरणादि प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों के बंध, उदय और सत्ता प्रकृतियों के संवेध का गुणस्थानापेक्षा विचार किया है। इसी प्रसंग में मोहनीय कर्म के संवेध का विस्तार से विचार करने के लिए उसमें पद प्रमाण, गुणस्थानापेक्षा उदयपद संख्या, उपयोग, लेश्या, योग की अपेक्षा उदयपद और उनके भंगों का भी उल्लेख किया है। इसी तरह पूर्व में किये गये नामकर्म के वर्णन से शेष रहे विशेष विवेचन का निरूपण किया है। यह निरूपण गुणस्थान, जीवस्थान, गति, इन्द्रिय भेदों को माध्यम बनाकर किया है । __इसके बाद जीवस्थान भेदों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय, गोत्र, आयु, मोहनीय और नामकर्म के बंधादि स्थानों का विचार किया है। फिर मार्गणास्थान के भेदों में बंधादि स्थानों की सत्पद प्ररूपणा की है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) इस सत्पद प्ररूपणा को करने के बाद प्रकरण के उपसंहार रूप में गुणस्थानों और मार्गणास्थानभेदों में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या और नामों का उल्लेख करके अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए श्रुतदेवी को नमस्कार करके ग्रन्थकार ने अधिकार समाप्ति का संकेत किया है— समईविभवाणुसारेण पगरणमेयं समासओ भणियं । उपसंहार : आभार प्रदर्शन इस सप्ततिका प्रकरण की समाप्ति के साथ पंचसंग्रह जैसे महान ग्रन्थ के सम्पादन के दायित्व की पूर्णता होने से सन्तोष का अनुभव कर रहा हूँ कि अपनी अक्षमताओं के रहते हुए भी यह कार्य कर सका । विवेचन आदि का कार्य ज्ञात ही है । मैंने शक्ति पंचसंग्रह जैसे महान् ग्रन्थ के सम्पादन, कितना कठिन है, यह उसके अभ्यासियों को भर पूरी सावधानी रखी है, फिर भी यदि कहीं स्खलना हो गई हो तो विद्वज्जन संशोधित करने की कृपा करें । सम्पादन, विवेचन के लिए जिन आचार्यों, विद्वानों के साहित्य का उपयोग किया, उनके प्रति सविनम्र आभारी हूं । उनके परोक्ष मार्गदर्शन ने मुझे प्रति समय प्रोत्साहित किया है । उनका उपकार सदैव स्मरणीय रहेगा। आवश्यक ग्रन्थों की उपलब्धि के लिये ब्रज मधुकर पुस्तकालय ब्यावर के अधिकारियों को साधुवाद देता हूँ और मुद्रण कार्य का यथोचित संशोधन आदि दायित्व निर्वाह के लिए भाई श्री श्रीचन्दजी सुराना तथा डा० बृजमोहन जी जैन धन्यवादार्ह हैं । साथ ही इस बात के लिए प्रसन्नता है कि परोक्षतावश समय-समय पर दृष्टि - भिन्नता रहने पर भी मनभिन्नता का कोई प्रसंग नहीं आया । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) स्वर्गीय पूज्य गुरुदेव श्री मरुधर केसरी जी महाराज का शत-शत वन्दन-नमनपूर्वक स्मरण करता हूँ। मरुधरारत्न प्रवर्तक मुनि श्री रूपचन्द जी महाराज 'रजत', मरुधराभूषण मुनि श्री सुकनमुनि जी महाराज एवं उनके सहगामी श्रमण मण्डल का अभिनन्दन करता हूं कि उनका अपेक्षित सहयोग, सहकार सर्वदा प्राप्त हुआ है। अन्त में विज्ञजनों से यही अपेक्षा रखता हूंअक्षरमात्रपदस्वरहीनं व्यंजनसन्धिविजितरेफं। साधुभिरत्र मम क्षन्तव्यं, को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्र ॥ साथ ही यह भावना है कि अजित बोध का स्वोत्कर्ष के लिये उपयोग करने में सक्षम होऊं । खजान्ची मोहल्ला, देवकुमार जैन बीकानेर, ३३४००१ सम्पादक Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा १ संवेध का लक्षण गाथा २ मूलप्रकृतियों के बंधस्थान मूलप्रकृतियों के बंधस्थानों का ज्ञापक प्रारूप गाथा ३ मूलप्रकृतियों के उदयस्थान व सत्तास्थान उदय और सत्ता की अपेक्षा मूलप्रकृतियों का सम्बन्ध गाथा ४ मूलप्रकृतियों का उदय-बंध संवेध मूलप्रकृतियों का बंध- सत्ता संवेध गाथा ५ विषयानुक्रमणिका मूलप्रकृतियों का बंध-उदय संवेध मूलप्रकृतियों का बंध के साथ बंध आदि के संवेधों संक्षिप्त सारांश मूलप्रकृतियों के बंध के साथ बंध आदि संवेधों का गुणस्थानों और जीवस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व उक्त कथन का दर्शक प्रारूप गाथा ६ मोहनीय और नामकर्म व्यतिरिक्त ५ कर्मों के स्थान गाथा ७ ज्ञानावरण, अंतराय के बंध, उदय, सत्ता स्थान आयुभेदों के बंध के गुणस्थान ३ ३ wx w w 99 15 ८ -१२ १० ११ १२-१८ १२ १३ १६ १७ १८- १६ १८ १६ --- २० २० २० Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०-२१ لم २१-२६. له ل لع ا २६-२८ م २८-३० له ام س गाथा ८ आयुभेदों के उदय व सत्ता के गुणस्थान गाथा ६ नरकायु के बंध आदि का संवेध देवायु के बंध आदि का संवेध तिर्यंचायु के बंध आदि का संवेध मनुष्यायु सम्बन्धी बंध आदि का संवेध गाथा १० दर्शनावरण कर्म के बंधादि स्थान और स्वामित्व गाथा ११ दर्शनावरण के बंधस्थानत्रिक के बंधकाल का प्रमाण दर्शनावरण के सत्तास्थानों का प्रमाण गाथा १२ दर्शनावरण कर्म के उदयस्थान दर्शनावरण कर्म के उदयस्थानों का स्वामित्व . गाथा १३, १४ दर्शनावरण कर्म के बंधादि स्थानों का संवेध दर्शनावरण कर्म के बंधादि स्थानों के संवेध का प्रारूप गाथा १५, १६ गोत्र कर्म के बंधादि स्थानों का गुणस्थानापेक्षा स्वामित्व गोत्र कर्म के बंधादि स्थानों का संवेध गोत्र कर्म के संवेध का प्रारूप गाथा १७, १८ वेदनीय कर्म के बंधादि स्थानों का स्वामित्व वेदनीय कर्म के बंधादि स्थानों का संवेध वेदनीय कर्म के संवेध का दर्शक प्रारूप س س ३२-३६ ر سه ن ل ل ل ३६-४२ » » » Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) ४२ – ४३ ४२ ४३-४६ ४४ ४६-४६ २ गाथा १६ मोहनीय कर्म के बंधस्थान गाथा २०, २१ प्रकृतिभेद से मोहनीय कर्म के बंधस्थानों के प्रकार गाथा २२ . मोहकर्म के बंधस्थानों का काल प्रमाण गाथा २३ मोहनीय कर्म के उदयस्थान गाथा २४, २५ मोहनीय कर्म के उदयस्थान प्रकार बोधक सूत्र गाथा २६ मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंग व उनकी प्रकृतियाँ सासादन गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंग मिश्र गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंग अविरतसम्यकदृष्टि गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंग देशविरत गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंग प्रमत्तसंयत गुणस्थान में मोहनीन कर्म के उदयस्थानों के भंग अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंग अपूर्वकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के भंग गाथा २७ मोहनीय कर्म के दस प्रकृतिक आदि उदयस्थानों की चौबीसियों का प्रमाण xxx x ५८ ur or or Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माथा २८ मोहनीय कर्म के पांच प्रकृतिक आदि बंधस्थानों के उदय विकल्प गाथा २६, ३० उपर्युक्त बंधस्थानों के उदयविकल्प सम्बन्धी मतान्तर गाथा ३१, ३२, ३३ गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदय ( उदीरणा) विकल्प गाथा ३४ मोह प्रकृतियों के उदय विच्छेदक गुणस्थान गाथा ३५ मोहनीय कर्म के सत्तास्थान गाथा ३६, ३७ ( २५ ) मोहनीय कर्म के सत्ताविच्छेद के गुणस्थान प्रत्येक गुणस्थान में मोहनीय कर्म के सत्तास्थान गाथा ३८ मोहनीय कर्म के छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और चोबीस प्रकृतिक सत्तास्थानों का स्वामित्व सम्बन्धी विशेष गाथा ३६ मोहनीय कर्म प्रकृतियों के उद्वलक अनन्तानुबंध कषाय के उदय का स्वामित्व गाथा ४० मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध सासादन गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध गाथा ४१ मिश्र गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध ६२—६४ ६३ ६४-६६ ६५ ६६–६६ ६७ ६६ - ७० ६६ ७०-७१ ७१ ७१–७४ ७२ ७३ ७४-७५ ७५ ७६-७७ ७६ ७६ ७७७६ ७७ ७६ ७६८१ ८० ८० Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ४२ देशविरत गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध प्रमत्त संयत, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध अपूर्वकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध गाथा ४३, ४४ अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध उपशांतमोह गुणस्थान में मोहनीय कर्म का संवेध गाथा ४५, ४६ मोहनीय कर्म के सत्तास्थानों का अवस्थानकाल गाथा ४७, ४८ नामकर्म की बंधोदय सहचारिणी प्रकृतियाँ गाथा ४६ देवगति - बंध - उदय सहचारी नाम प्रकृतियाँ गाथा ५० ( २६ ) तीर्थंकरनाम की बंध सहभावी नाम प्रकृतियाँ गाथा ५१ नरकगतिबंध सहचारिणी नाम प्रकृतियाँ गाथा ५२ अपर्याप्त - बंधयोग्य नाम प्रकृतियाँ गाथा ५३, ५४ त्रस तथा पर्याप्त एकेन्द्रियादि योग्य नाम बंध प्रकृतियाँ गाथा ५५ नाम कर्म के बंधस्थान ८३-८६. ८३ ६५ ८५. ८६ – ६१ ८६. ८७ ८७ ६२—६६ २ ६६-६८ ६६ €51◊◊ ६६. ६६ - १०१ १०० १०१ १०१ १०२ - १०३ १०२ १०३-१०५ १०४ १०५-१०६ १०५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ५६ मनुष्यादि गतियों में नाम कर्म के बंधयोग्य स्थान गाथा ५७ २७ } प्रत्येक गतियोग्य नाम कर्म के बंधस्थान गाथा ५८ मिथ्यात्व गुणस्थान में नाम कर्म के बंधस्थान सासादन गुणस्थान में नाम कर्म के बंधस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नाम कर्म के बंधस्थान अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नाम कर्म के बंधस्थान देशविरत और प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नाम कर्म के बंध स्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में नाम कर्म के बंधस्थान अपूर्वकरण गुणस्थान में नाम कर्म के बंधस्थान अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में नाम कर्म के बंध गाथा ५६, ६० एकेन्द्रिययोग्य नाम कर्म के बंधस्थान और उनके भंग स्थान नौवें, दसवें गुणस्थान में तीर्थंकर आहारकद्विक आदि जैसी पुण्य प्रकृतियों के बंध न होने का कारण गाथा ६१ द्वीन्द्रियादि योग्य नाम कर्म के बंधस्थान और उनके भंग गाथा ६२ मनुष्य गति योग्य नाम कर्म के बंधस्थान और उनके भंग नरकगति योग्य नाम कर्म के बंधस्थान और उनके भंग १०६ – १०८ १०६ - १०६ १०६ १०६ – ११४ गाथा ६३ देवगति योग्य नाम कर्म के बंधस्थान और उनके भंग १०८ ११० ११० ११० १११ १११ ११२ ११२ ११२ ११२ ११४ – ११६ ११५ १२०-१२४ १२० १२४-१२६ १२४ १२६ १२७ – १२६ १२७ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) १३३ गाथा ६४ १२६-१३० मिथ्यात्व गुणस्थान में नाम कर्म की बंध एवं विच्छेद योग्य प्रकृतियां गाथा ६५ १३०-१३१ सासादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में नाम कर्म की बंधयोग्य प्रकृतियाँ १३१ गाथा ६६, ६७, ६८ १३२-१३५ मिश्र और अविरतसम्यक दृष्टि गुणस्थानों में नाम कर्म की बंधयोग्य प्रकृतियों के नाम व बंध कारण देशविरत, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नाम कर्म की बंधयोग्य प्रकृतियाँ अप्रमत्त संयत गुणस्थान में बंधयोग्य नाम कर्म की प्रकृतियाँ १३४ अपूर्वकरण से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त बंधयोग्य नाम कर्म की प्रकृतियाँ गाथा ६६, ७०, ७१, ७२ १३५–१३८ विधि-निषेधमुखेन नामकर्म की प्रकृतियों के सहचारी उदय की संभवासंभवता का विचार १३७ गाथा ७३ १३८-१३६ नामकर्म के उदयस्थान १३६ गाथा ७४ १३६-१४० चारों गतियों में नामकर्म के उदयस्थान १४० गाथा ७५, ७६, ७७ १४०-१४७ मिथ्यात्व गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४२ सासादन गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४२ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान सयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान देशविरत गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४४ १४४ १४४ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ W ( . २६ ) प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४५ मिश्र गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४५ अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४६. अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर संपराय, सूक्ष्म-संपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४६. सयोगि केवली, अयोगि केवली गुणस्थान में नामकर्म के उदयस्थान १४६ गाथा ७८ १४७-१४८ तिर्यंच और मनुष्यों में नामकर्म के उदयस्थानों का सामान्य कथन १४८ गाथा ७६, ८०, ८१ १४८-१५४ एकेन्द्रियों के नामकर्म के उदयस्थान और उनके भंग १४६ विकलत्रिकों के नामकर्म के उदयस्थान और उनके भंग गाथा ८२ १५४--- १५६ सामान्य से तिर्यंच और मनुष्यों के नामकर्म के उदयस्थान और उनके भंग १५५ सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच के नामकर्म के उदयस्थान और उनके भंग १५७ गाथा ८३ १५६-१६५ वैक्रिय शरीरी तिर्यंच, मनुष्य व आहारक शरीरी मनुष्य के नामकर्म सम्बन्धी उदयस्थान व उनके भंग १६० गाथा ८४ १६५-१६७ देवों के नामकर्म सम्बन्धी उदयस्थान व उनके भंग नारकों के नामकर्म के उदयस्थान व उनके भंग गाथा ८५, ८६, ८७ १६६-१७४ केवली भगवन्तों के नामकर्म सम्बन्धी उदयस्थान व उनके भंग १७०. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ८८ केवली भगवन्तों के अट्ठाईस से इकत्तीस प्रकृतिक तक के उदयस्थानों सम्बन्धी विशेष ' ३० ) गाथा ८६ मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र गुणस्थान में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियाँ गाथा ६० अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियाँ देशविरत गुणस्थान में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियाँ गाथा ६१, ६२ प्रमत्तसंयत अप्रमत्त संयत गुणस्थान में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियाँ अपूर्वकरण से उपशान्तमोह गुणस्थान पर्यन्त नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियाँ क्षीणमोह, सयोगि केवली गुणस्थान में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियाँ अयोगि केवली गुणस्थान में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियाँ गाथा ६३, ୧୪ नामकर्म के सत्तास्थानों का निरूपण गाथा ६५ नौवें गुणस्थान में सत्ताविच्छिन्न नामकर्म की तेरह प्रकृतियाँ गाथा ६६ नामकर्म के अध्रुव सत्तास्थानों के स्वामी १७४-१७५ १७४ १७५–१७६ १७५ १७६–१७७ १७७ १७७ १७८ - १७६ १७८ १७६ १७६ १७६ १८०-१८३ १८० १८३ – १८४ १९८३ १८४-१८५ १८५ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) गाथा ६७ १८५-१८७ चतुर्गति में प्राप्त नामकर्म के सत्तास्थान १८६ गाथा ६८ १८७-१८६ गुणस्थानों में प्राप्त नामकर्म के सत्तास्थान १८८ गाथा ६६, १०० १८६-२०७ नामकर्म के बंधादि स्थानों का संवेध १६० गाथा १०१ २०७-२०८ ज्ञानावरण, अन्तराय कर्म का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध २०८ गाथा १०२, १०३, १०४ २०८-२११ दर्शनावरण कर्म के त्रिक का गुणस्थानों में संवेध गाथा १०५ २११-२१३ गुणस्थानों में वेदनीय कर्म का संवेध २११ गाथा १०६, १०७, १०८ २१३-२१७ गुणस्थानों में आयु कर्म के संवेध भग २१५ गाथा १०६, ११० २१७-२२० गुणस्थानों में गोत्रकर्म के संवेध भंग २१८ गाथा १११, ११२, ११३ २२०-२२४ गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के पदप्रमाण २२१ गाथा ११४, ११५, ११६ २२४-२२७ गुणस्थानापेक्षा मोहनीय कर्म की उदयपद-संख्या २२५ गाथा ११७ २२७-२२८ योग, उपयोग, लेश्यादि के भेद से मोहनीय कर्म के भंग और पद जानने का विधि सूत्र २२७ गाथा ११८ २२८-२३१ उपयोगापेक्षा गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदय भंग २२८ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा ११६ लेश्यापेक्षा गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयभंग और उदयपद गाथा १२० योग द्वारा संभव गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयभंग और उदयपद ( ३२ ) गाथा १२१, १२२, १२३, १२४ योग द्वारा संभव गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयभंग और उदयपद कम करने का सूत्र गाथा १२५ मोहनीय कर्म के उदयभंगों और पदों की संख्या प्राप्ति का उपाय गाथा १२६, १२७ असंभव उदय भंगों व पदों को प्राप्त करने का उपाय गाथा १२८ कम करने योग्य पदों को प्राप्त करने का उपाय गाथा १२६ मिथ्यात्व गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन सासादन गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन मिश्र गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन देशविरत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन २३१-२३४ २३२ २३४-२४१ २३४ २४१-२४४ २४३ २४४–२४६ २४५ २४६–२४६ २४६ २४६-२५० २४६ २५१-३०८ २५१ २६८ २७८ २८१ २८६ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ لله ( ३३ ) प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन २६० अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन २६२ अपूर्वकरण गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन २६३ अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का विवेचन २६५ सुक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह आदि गुणस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थान नरकगति में नामकर्म के बंधादि स्थान २६६ तियं च गति में नामकर्म के बंधादि स्थान मनुष्यगति में नामकर्म के बंधादि स्थान ३०३ देवगति में नामकर्म के बंधादि स्थान गाथा १३० ३०८-३१० इन्द्रिय मार्गणा के भेदों में नामकर्म के बंधादि स्थान ३०८ गाथा १३१ ३१०-३११ जी वस्थानों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्म के बंधादि स्थान ३१० गाथा १३२ ३११-३१२ जीव भेदों में वेदनीय और गोत्रकर्म के बंधादि स्थान ३११ गाथा १३३, १३४ ३१२-३१४ जीवस्थानों में आयुकर्म के बंधादि स्थान ३१३ गाथा १३५, १३६ ३१४--३१७ जी वस्थानों में मोहनीयकम के बंधादि स्थान ३१६ س له Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) ३२५ ३२५ ३३१ गाथा १३७, १३८, १३६ ३१७-३२४ जीवस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थान ३१८ गाथा १४० ३२४-३२५ मार्गणाओं में मूलकर्म प्रकृतियों के बंधादि स्थानों की सत्पदप्ररूपणा गाथा १४१, १४२ ३२५-३३० मार्गणा भेदों में उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थानों की सत्पदप्ररूपणा गाथा १४३, १४४, १४५ ३३०-३३४ गुणस्थानों में बंध प्रकृतियों की संख्या गाथा १४६, १४७ ३३५-३३७ नरकगति में बंधयोग्य प्रकृतियाँ ३३५ गाथा १४८, १४६ ३३७-३३६ देवगति में बंधयोग्य प्रकृतियाँ गाथा १५०, १५१, १५२ ३३६-३४१ तिर्यंच और मनुष्यगति योग्य बंध प्रकृति ३४० गाथा १५३, १५४, १५५ ३४१-३४४ पूर्वोक्त से शेष मार्गणाओं में बंध योग्य प्रकृतियाँ ३४२ गाथा १५६ ३४४-३४५ उपसंहारपूर्वक ग्रन्थ समाप्ति का संकेत ३४५ परिशिष्ट १ सप्ततिका अधिकारकी मूल गाथाएँ ३४६ २ मोहनीय कर्म के बंधस्थानों का प्रारूप ३ मोहनीय कर्म के उदयस्थानों का प्रारूप WWW ३५६ ३६१ | Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ( ३५ ) ४. गुणास्थानापेक्षा मोहनीय कर्म के उदयस्थानों के संभव भंगों का प्रारूप ५. गुणस्थानापेक्षा मोहनीय कर्म के पूर्वोक्त उदयस्थानों की चौबीसी की प्राप्ति का प्रारूप ६. मोहनीय कर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप ७. गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के सत्तास्थान दर्शक प्रारूप ८. मोहनीय कर्म के बंध-उदय-सत्तास्थानों का संवेध दर्शक प्रारूप ३७१ ३७४ ३७७ ६. गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप १०. तत् तत् गति प्रायोग्य नामकर्म के बंधस्थानों के भंग ११. जीवस्थानों में नामकर्म के उदयस्थान और भंगों का प्रारूप १२. दिगम्बर सप्ततिकानुसार मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बंध-उदय-सत्व के संवेध भंगों का प्रारूप ३८२ ३६६ ३६८ १३. दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में मूल प्रकृतियों के बंध, उदय, सत्व का संवेध १४. दिगम्बर सप्ततिकानुसार चौदह जीवस्थानों में मूल प्रकृतियों के बंध, उदय, सत्व स्थान १५. दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादि स्थान १६. दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादि स्थान १७. दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में वेदनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादि स्थान ३६६ ४०० ४०१ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ ४०३ ४०५ ४०६ १८ दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में मोहनीय कर्म की - उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थान १६. दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में नामकर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थानों का प्रारूप २०. दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में गोत्र कर्म के बंधादि __ स्थानों के भंग २१. दिगम्बर सप्ततिकानुसार मार्गणास्थान भेदों में नाम कर्म __ के बंधादि स्थानों का प्रारूप २२. ग्रन्थानुसार मार्गणाभेदों में नाम कर्म के बंधादि स्थानों का प्रारूप २३. मार्गणाभेदों में मूल कर्मप्रकृतियों के संवेध का प्रारूप २४. मार्गणाभेदों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्मों के संवेध का प्रारूप २५. मार्गणाभेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप २६. मार्गणाभेदों में वेदनीय कर्म के संवेध का प्रारूप २२७. मार्गणाभेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप २८. मार्गणाभेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप २६. मार्गणाभेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप ३०. मार्गणाभेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप ३१. मार्गणाभेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप ३२. गाथाओं की अकारादि अनुक्रमणिका ४१३ ४२६ ४३४ ४३८ ४५४ ४६२ ४८६ ५२६. | Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीमदाचार्य चन्द्रषिमहत्तर-विरचित पंचसंग्रह [मूल, शब्दार्थ तथा विवेचनयुक्त सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार अष्ट करणों की प्ररूपणा करने के पश्चात् अब सप्ततिका प्रकरण द्वारा संवेधगत बंधविधान का कथन करने के लिए ग्रन्थकार निर्देश करते हैं मूलुत्तरपगईणं, साइ- अणाई - परूवणानुगयं । भणियं बंधविहाणं, अहुणा संवेहगं भणिमो ॥ १ ॥ शब्दार्थ - मूलुत्तरपगईणं - मूल एवं उत्तर प्रकृतियों का, साइ- अणाईपरूवणाणुगयं - सादि-अनादि प्ररूपणागत, भणियं - कथन किया, बंधविहाणंबंधविधान, अहुणा - अब, संदेहगं - संवेध को, भणिमो कहूँगा । Ade -- गाथार्थ - पूर्व में सादि-अनादि प्ररूपणानुगत मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंधविधान का कथन किया, अब संवेधगत (बंधविधान) को कहूँगा | विशेषार्थ - प्रकरणगत प्रतिपाद्य विषय का संकेत करने से यह गाथा प्रस्तावना रूप है कि अभी तक मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बंधविधान - प्रकृतिबंध, स्थितिबंधादिक के स्वरूप का सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुवादि प्ररूपणा के अनुरूप कथन किया तथा प्रासंगिक होने से बंधनकरण आदि आठ करणों की भी विस्तृत व्याख्या की । अब इसी बंधविधान के संवेध का यहाँ विचार करते हैं । तथा -7 जिस किसी मूल या उत्तर प्रकृति के बंध आदि होने पर अविरोधी रूप से जितनी मूल या उत्तर प्रकृतियों का उदय आदि होने एवं इसी प्रकार उदय होने पर संभव मूल और उत्तर प्रकृतियों के बंध आदि होने के निर्देश करने को संवेध कहते हैं । अब प्रतिज्ञानुसार सर्वप्रथम ग्रन्थकार मूल प्रकृतियों विषयक बंध का और बंध के साथ संवेध का निरूपण करते हैं । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० बंधसंवेध आउम्मि अट्ठ मोहेट्ठ सत्त एक्कं च छाइ वा तइए। बझंतयंमि बझंति सेसएसु छ सत्तट्ठ ॥२॥ शब्दार्थ-आउम्मि-- आयु का बंध हो, अट्ठ-आठ, मोहेछ-मोहनीय के बंध में आठ, सत्त-सात, एक्कं-- एक, च-और, छाइ-छह आदि, वा-अथवा, तइए-तीसरे (वेदनीय) कर्म का, बझंतयंमि-बंध होने पर, बझंति-बंध होता है, सेसएसु-शेष कर्मों के बंध होने पर, छ सत्तट्ठछह, सात, आठ । गाथार्थ-आयु का बंध हो, तब आठ, मोहनीय का बंध हो तब आठ अथवा सात, तीसरे वेदनीय कर्म के बंधकाल में छह, सात अथवा आठ और शेष कर्मों का बंध होने पर छह, सात अथवा आठ कर्म बंधते हैं। विशेषार्थ-गाथा में मूल कर्मप्रकृति सम्बन्धी बंधसंवेध का निर्देश किया है । सम्बन्धित स्पष्टता करने के पूर्व मूल प्रकृति सम्बन्धी बंधस्थानों का निर्देश करते हैं आठप्रकृतिक, सातप्रकृतिक, छहप्रकृतिक और एकप्रकृतिक, इस प्रकार मूल प्रकृतियों के चार बंधस्थान होते हैं। इनमें आठप्रकृतिक बंधस्थान सब मूल प्रकृतियों का, सातप्रकृतिक बंधस्थान आयुकर्म के बिना सात का, छहप्रकृतिक बंधस्थान आयु एवं मोहनीय कर्म के बिना छह का तथा एकप्रकृतिक बंधस्थान में मात्र एक वेदनीय कर्म का ग्रहण होता है। उक्त चार बंधस्थानों में से जब आयुकर्म बंधता हो तब अवश्य आठों कर्म बंधते हैं। क्योंकि तीसरे गुणस्थान के अतिरिक्त पहले से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक आयुकर्म का बंध होता है, वहाँ तक बंध में से एक भी कर्म कम नहीं होता है । अतएव शेष सात कर्म जब बंधते हों, तभी आयु का बंध होता है और जिन गुणस्थानों Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा २ तक आयुकर्म का बंध संभव है उनमें शेष सात कर्म भी बंधते हैं । यही आशय 'आउम्मि अट्ठ' पद में गर्भित है । 'मोहेट्ठसत्त' - अर्थात् जब मोहनीय कर्म का बंध होता हो तब आठ अथवा सात कर्म बंधते हैं । उक्त विकल्पद्वय का कारण यह है कि जिस समय आयुकर्म के साथ सभी कर्म बंधते हैं तब आठ और आयु का बंध न हो उस समय उसके बिना सात कर्मों का बंध होता है | आयुकर्म का निरन्तर बंध नहीं होता, परन्तु भुज्यमान आयु के तीसरे आदि भाग शेष हों तभी होता है । मोहनीय कर्म का बंध नौवें गुणस्थान पर्यन्त निरन्तर होता है । तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सातवें तक आयु का बंध हो तब उसके साथ आठ कर्म का और आयु बंध न हो तब उसके बिना सात कर्म का बंध होता है । मिश्र, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण इन तीन गुणस्थानों में आयु के बिना सात कर्मों का ही बंध होता है । इस प्रकार दोनों बंधस्थानों में मोहनीय के बंध का समावेश होता है। इसीलिये मोहनीय कर्म के बंधकाल में 'मोहेट्ठसत्त' - आठ और सात प्रकृतिक बंधस्थान के विकल्प का संकेत किया है । ५ तीसरा वेदनीयकर्म बंधता हो तब आठ, सात, छह या एक-इन चार बंधस्थानों में से किसी का भी बंध होता है । जिसका आशय यह है कि एक मात्र सातावेदनीय उपशान्तमोह आदि तीन गुणस्थान में, मोहनीय और आयु के बिना छह का दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में, मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में आयु के बिना सात तथा मिश्र के बिना आदि के सात गुणस्थानों तक जब आयु का बंध हो तब आठ और आयु-बंध न हो तब उसके बिना सात कर्म बंधते हैं । इन सभी बंधस्थानों में वेदनीय का बंध होता ही है । शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अंतराय कर्म का बंध होता हो तब छह, सात और आठ प्रकृतिक इस प्रकार तीन बंधस्थानों में से किसी का भी बंध होता है । इन पांचों कर्मों का बंध Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० दसवें गुणस्थान तक होता है । इसमें मिश्र के सिवाय सातवें गुणस्थान तक जब आयु का बंध होता है तब आठ, उसके सिवाय सात, तथा तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में आयु का बंध नहीं होने से सात और दसवें गुणस्थान में आयु एवं मोह के बिना छह कर्म का बंध होता है । इन तीनों बंधस्थानों में उक्त पांच कर्मों के बंध का समावेश है ही। उक्त समग्र कथन का संक्षेप में आशय इस प्रकार हैमिश्रगुणस्थान के बिना अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त छह गुणस्थानों में जीव आयु के बिना सात अथवा आयु सहित आठ प्रकार के कर्म बांधते हैं। मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादर इन तीन गुणस्थानों में आयु बिना सात प्रकार के ही कर्म बंधरूप होते हैं । एक सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में आयु व मोहनीय के बिना छह कर्मों का बंध होता है। उपशांतमोह आदि तीन गुणस्थानों में एक वेदनीय कर्म का ही बंध होता है तथा अयोगिकेवलिगुणस्थान बंधरहित हैउसमें किसी प्रकृति का भी बंध नहीं होता है । दिग्दर्शक प्रारूप इस प्रकार है मूल कर्मों के बंधस्थानों का ज्ञापक प्रारूप बंधस्थान प्रकृति अधिकारी ८ प्रकृतिक ज्ञानावरणादि सब | मिश्र बिना अप्रमत्तगुणस्थान पर्यन्त ७ प्रकृतिक आयु बिना शेष सब आदि के नो गुणस्थान ६ प्रकृतिक भोह और आयु बिना । सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान शेष छह १ प्रकृतिक मात्र वेदनीयकर्म ११वां, १२वां, १३वां गुणस्थान Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३ उक्त प्रकार से किस कर्म के बंध के साथ कितने कर्म के बंध होने का निर्देश करने के पश्चात् अब किस कर्म के उदय के साथ कितने कर्म का उदय एवं सत्ता होने का कथन करते हैं। उदयसत्तासंवेध मोहस्सुदए अट्ठवि सत्तय लब्भन्ति सेसयाणुदए। सन्तोइण्णाणि अघाइयाणं अड सत्त चउरो य ॥३॥ शब्दार्थ-मोहस्सुदय-मोहनीय का उदय हो, अवि-आठ भी, सत्त -सात, य-और, लब्भन्ति --होते हैं, सेसयाणुदए-शेष प्रकृतियों के उदय में, सन्तोइण्णाणि-सत्ता और उदय, अघाइयाणं-अघाति कर्मों के, अड सत्त चउरो-आठ, सात, चार, य- और । ___ गाथार्थ-मोहनीय का उदय हो तब आठ कर्म उदय और सत्ता में होते हैं। शेष (तीन घाति) कर्म के उदय में आठ और सात तथा अघातिकर्मों का उदय होने पर आठ, सात या चार कर्म उदय और सत्ता में होते हैं। विशेषार्थ-मूल कर्मप्रकृतियों में से किस प्रकृति के उदय रहते कितने मूलकर्म उदय एवं सत्ता में सम्भव हैं ? इसका गाथा में संकेत किया है। विशेषता के साथ जिसका स्पष्टीकरण करने के पूर्व उनके उदयस्थानों एवं सत्तास्थानों का निर्देश करते हैं। उदयस्थान-मूल प्रकृतियों की अपेक्षा आठप्रकृतिक, सातप्रकृतिक एवं चारप्रकृतिक इस प्रकार तीन उदयस्थान होते हैं। आठप्रकृतिक उदयस्थान में ज्ञानावरणादि सब मूल प्रकृतियों का, सातप्रकृतिक में मोहनीय के बिना शेष सात का और चारप्रकृतिक उदयस्थान में चार अघातिकर्मों का ग्रहण होता है। सत्त्वस्थान-उदयस्थान की तरह मूलकर्म प्रकृतियों के आठप्रकृतिक, सातप्रकृतिक और चकतिक ये तीन सत्त्वस्थान होते हैं। आठप्रकृतिक सत्त्वस्थान में सब कर्मों की, सातप्रकृतिक सत्त्व Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० स्थान में मोहनीय के बिना सात की और चारप्रकृतिक सत्त्वस्थान में चार अघातिकर्मों की सत्ता है। अब इनके उदयसत्तासंवेध का विचार करते हैं मोहनीयकर्म का उदय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त होता है, अतएव मोहनीय का जब उदय हो तब आठों कर्मों का उदय और सत्त्व होता है। एक भी कर्म कम नहीं होता है। मोहनीयकर्म यह घातिकर्म है। अतएव उक्त से शेष ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय इन तीन में से किसी भी कर्म का उदय हो तब आठ और सात कर्म उदय एवं सत्ता में होते हैं । इन तीन घातिकर्मों का उदय बारहवें गुणस्थान पर्यन्त होता है, वहाँ तक आठ और सात ये दो उदयस्थान और सत्तास्थान होते हैं। उनमें भी दसवें गुणस्थान पर्यन्त आठ का उदय और सत्त्व होता है । ग्यारहवें गुणस्थान में सात का उदय एवं आठ की सत्ता तथा बारहवें गुणस्थान में सात का उदय और सात का सत्त्व होता है। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र में से किसी भी अधातिकर्म का उदय होने पर आठ, सात और बार इन तीन में से कोई भी स्थान उदय और सत्ता में होता है। अघातिकर्मों का उदय चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त होता है, वहाँ तक उक्त तीन उदयस्थान संभव हैं। उनमें से दसवें गुणस्थान पर्यन्त आठ का उदय और सत्त्व, ग्यारहवें में सात का उदय एवं आठ का सत्त्व, बारहवें में मोहनीय के बिना सात का उदय तथा सात का सत्त्व एवं तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में घातिचतुष्क सिवाय शेष चार अघातिकर्म का उदय और सत्त्व होता है। इस प्रकार उदय का उदय तथा सत्ता के साथ संवेध जानना चाहिये । अब उदय और सत्ता के साथ सत्ता के संवेध का विचार करते हैं मोहनीयकर्म की जहाँ तक स! होती है वहाँ तक उदय आठ अथवा सात कर्मों का होता है। यह इस प्रकार--सूक्ष्मसंपरायगुण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४ स्थान पर्यन्त आठ का और उपशान्तमोहगुणस्थान में सात का उदय होता है, सत्ता में तो आठों कर्म होते हैं। क्योंकि मोहनीयकर्म की सत्ता रहने तक दूसरे सब कर्म सत्ता में अवश्य होते हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय की सत्ता होने पर सात अथवा आठ कर्मों का उदय एवं सत्त्व होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है— सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त आठ का उदय और सत्त्व, उपशांत मोह में सात का उदय और आठ का सत्त्व तथा क्षीणमोहगुणस्थान में सात का उदय और सात का सत्त्व होता है । वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चार अघातिकर्मों में से किसी भी कर्म की जहाँ तक सत्ता होती है, वहाँ तक आठ, सात अथवा चार का उदय और सत्त्व होता है । इनमें से आठ और सात के उदय एवं सत्ता का विचार पूर्ववत् कर लेना चाहिए और चार का उदय एवं सत्त्व तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में होता है । इस प्रकार से उदय और सत्ता का संवेध जानना चाहिये । उक्त समस्त कथन का सारांश इस प्रकार है सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक आठ भूलकर्म प्रकृतियों का, उपशांतमोह और क्षीणमोह इन दो गुणस्थानों में मोहनीय के बिना सात का तथा सयोगि और अयोगि इन दोनों गुणस्थानों में चार अघातिकर्मों का उदय जानना चाहिये । उपशांतमोहगुणस्थान पर्यन्त आठों प्रकृतियों की, क्षीणमोह गुणस्थान में मोहनीय के बिना सात कर्मों की तथा सयोगिकेवली, अयोगिकेवली इन दोनों गुणस्थानों में चार अघातिकर्मों की सत्ता होती है । अब उदय का बंध के साथ संवेध का निरूपण करते हैं । उदय-बंध संवेध बंध छत अट्ठ पत्तेयं संतेहि मोहुदए सेसयाण एक्कं च । बंधइ एगं छ सत्तट्ठ ॥४॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० शब्दार्थ-बंधइ-बंध होता है, छ सत्त अट्ठ-छह, सात, आठ कर्म, य-और, मोहुदए-मोहनीय का उदय होने पर, सेसयाण-शेष का, एक्क-एक के, च-और, पत्तेयं—प्रत्येक की, संतेहि-सत्ता होने पर, बंधइ-बंध होता है, एगं छ सत्तट्ट-एक, छह, सात, आठ । गाथार्थ-मोहनीय का उदय होने पर छह, सात और आठ कर्म का बंध होता है और शेष कर्मों का उदय होने पर एक, छह, सात और आठ का भी बंध होता है । एक के बंध में मोह के बिना शेष (सात) का उदय होता है। ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में से किसी भी कर्म (प्रत्येक) की सत्ता होने पर एक, छह, सात और आठ में से किसी भी बंधस्थान का बंध होता है। विशेषार्थ-मोहनीयकर्म का जब उदय हो तब यथायोग्य गुणस्थानानुसार छह, सात अथवा आठ इन तीन बंधस्थानों में से किसी भी एक का बंध होता है। जिसका आशय यह है कि मोहनीय का उदय दसवें गुणस्थान पर्यन्त होता है। उसमें से तीसरे गुणस्थान के बिना आदि के सात गुणस्थान पर्यन्त आयु के बंधकाल में आठ का और आयु का बंध न हो तब तथा तीसरे, आठवें, नौवें गुणस्थान में आयु का बंध नहीं होने से सात का बंध होता है और दसवें गुणस्थान में आयु एवं मोहनीय के बिना छह का बंध होता है। मोहनीय के बिना शेष सात कर्मों में से किसी भी कर्म का उदय हो तब एक का बंध होता है तथा गाथोक्त 'य-च' कार द्वारा ग्रहण किये गए छह, सात और आठ में से किसी का भी बंध होता है। ज्ञानावरणादि तीन घातिकर्मों का उदय बारहवें गुणस्थान पर्यन्त और चार अघातिकर्मों का उदय चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त होता है जिससे चारों बंधस्थान घटित हो सकते हैं। उनमें से मोह के बिना सात कर्मों में से किसी का भी उदय होने पर छह, सात और आठ का बंध पूर्वकथनानुसार जानना चाहिये। तीन घातिकर्मों का उदय होने पर एक का बंध ग्यारहवें और Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४ बारहवें गुणस्थान में और अघाति चार कर्मों में से किसी का उदय रहते एक का बंध ग्यारहवें से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक होता है। ___इस प्रकार उदय का बंध के साथ संवेध का अभिप्राय जानना चाहिये । अब विभक्ति का व्यत्यय करके गाथा के पूर्वार्ध द्वारा बंध का उदय के साथ संवेध का दिग्दर्शन कराते हैं छह, सात अथवा आठ के बंध में मोहनीय का उदय होता है। क्योंकि आठ का बंध (मिश्र के अलावा) पहले मिथ्यात्व से सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त, सात का बंध अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान तक और छह का बंध सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में होता है और मोहनीय का उदय दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त अवश्य होता है, अतएव छह, सात अथवा आठ के बंध में मोहनीय का उदय होता है तथा आठ, सात, छह या एक के बंध में शेष कर्मों में से किसी का भी उदय होता है। उनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का उदय क्षीणमोह पर्यन्त एवं वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र का उदय अयोगिकेवलीगुणस्थान पर्यन्त होता है तथा एक का बंध उपशांतमोहादि में होता है, जिससे शेष कर्मों का उदय सात, आठ, छह और एक के बंध में भी होता है। __ इस प्रकार बंध का उदय के साथ संवेध का कथन जानना चाहिये। अब गाथा के उत्तरार्ध द्वारा बंध के साथ सत्ता के संवेध का विचार करते हैं आठ कर्मों में से किसी भी कर्म की सत्ता होने पर आठ, सात, छह या एक प्रकृतिक इन चार में से किसी भी बंधस्थान का बंध होता है । तात्पर्य यह है कि किसी भी एक कर्म की सत्ता होने पर कौनसा बंधस्थान होता है इसका जब विचार किया जाये तब कहा जा सकता है कि एक-एक कर्म की सत्ता होने पर एक, छह, सात और आठ प्रकृतिक यह चारों प्रकार का बंध संभव है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रक Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पंचसंग्रह : १० ___ मोहनीय की सत्ता उपशान्तमोहगुणस्थान तक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की सत्ता क्षीणमोह पर्यन्त और वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र की सत्ता अयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्त होती है तथा आठों कर्मों का बंध मिश्र के बिना अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त, सात का बंध अनिवृत्तिबादरसंपराय पर्यन्त, छह का बंध सूक्ष्मसंपराय में और एक का बंध ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक होता है । इसलिये सभी कर्मों की सत्ता होने पर चारों प्रकृतिक बंधप्रकार सम्भव है । उदाहरणार्थ मोहनीय की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक होने से और वहां तक यथासंभव चारों बंधस्थान होने से मोहनीय की सत्ता होने से चारों बंधस्थान घटित होते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये। इस तरह बंध का सत्ता के साथ संवेध का विचार जानना चाहिये । अब बंध का उदय के साथ संवेध का निरूपण करते हैं। बन्ध-उदय संवेध सत्तट्ठ छ बंधेसु उदओ अट्ठह होइ पयडीणं । सत्तण्ह चउण्हं वा उदओ सायस्स बंधमि ॥५॥ शब्दार्थ-सत्तट्ठ छ बंधेसु-सात, आठ और छह का बन्ध होने पर, उदओ-उदय, अट्ठह-आठ का, होइ–होता है, पयडीणं-मूलकर्म प्रकृतियों का, सत्तण्ह चउण्ह-सात का, चार का, वा-अथवा, उदओ-उदय, सायस्स -सातावेदनीय का, बंधमि-बंध हो । गाथार्थ—सात, आठ अथवा छह का बंध होने पर आठ कर्म प्रकृतियों का उदय होता है और मात्र सातावेदनीय का बन्ध हो तब सात या चार का उदय होता है। विशेषार्थ-सात, आठ या छह प्रकृतिक इन तीन बंधस्थानों में से किसी भी एक का बंध होने पर आठों कर्म प्रकृतियों का अवश्य उदय होता है। क्योंकि आठों कर्मों का उदय दसवें गुणस्थान पर्यन्त होता है और उक्त तीनों बंधस्थान भी वहीं तक संभव हैं तथा मात्र सातावेदनीय का बंध होने पर सात या चार प्रकृतियों का उदय होता है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ १३ क्योंकि सात कर्म का उदय ग्यारहवें तथा बारहवें और चार का उदय तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में होता है । अतएव मात्र साता का बंध होने पर यही दो उदयस्थान सम्भव हैं ।' इस प्रकार से मूल प्रकृतियों सम्बन्धी बंध, उदय और सत्ता के संवेध का कथन जानना चाहिये । इस कथन में बंध के साथ बंध के संवेध, उदय के साथ उदय के संवेध, सत्ता के साथ सत्ता के संवेध, बंध के साथ उदय और सत्ता के संवेध, उदय और सत्ता के साथ बंध के संवेध का विचार किया है। जिनका संक्षिप्त सारांश इस प्रकार है१. बंध के साथ बंध का संवेध नौवें गुणस्थान तक प्रति समय आयु के बिना सातों कर्म बंधते हैं और आयुकर्म तीसरे गुणस्थान के सिवाय आदि के सात गुणस्थानों तक भुज्यमान भव की आयु के तीसरे आदि भागों के प्रारम्भ में ही बंधता है, अतएव जब आयु का बंध हो तब तीसरे के सिवाय एक से लेकर सात गुणस्थानों में आठों कर्म अवश्य बंधते हैं । मोहनीयकर्म का नौवें गुणस्थान तक बंध होता है । इसलिये मोहनीय का बंध हो तब मिश्र के सिवाय पहले से सातवें गुणस्थान तक आयु के बंधकाल में आठ तथा शेष काल एवं तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में आयु के बिना सात कर्मों का बंध होता है । वेदनीयकर्म तेरहवें गुणस्थान तक बंधता है । जिससे जब वेदनीयकर्म का बंध होता हो तब तीसरे के सिवाय आयु के बंधकाल में आदि के सात गुणस्थानों के आठ, शेष काल एवं तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में आयु के बिना सात तथा दसवें गुणस्थान में मोहनीय का भी बंधन होने से आयु और मोहनीय के बिना छह एवं ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक एक वेदनीय का ही बंध होता है । १ यहाँ मात्र सातावेदनीय का बंध ही विवक्षित है । वैसे तो सामान्यतः साता का बंध पहले से तेरहवें गुणस्थान तक होता है और वहाँ तक तो तीनों उदयस्थान संभव हैं । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० शेष ज्ञानावरणादि पाँचों कर्म दशवें गुणस्थान तक बंधते हैं। अतएव इन पाँच में से ज्ञानावरण आदि किसी भी एक कर्म का बंध हो तब तीसरे के सिवाय पहले से लेकर सातवें गुणस्थान तक आठ अथवा सात और तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में आयु के बिना सात और दशवें गुणस्थान में मोहनीय और आयु के बिना छह कर्म बंधते हैं। २. उदय के साथ उदय का संवेध ___ आठों मूलकर्मों का उदय दसवें गुणस्थान तक होता है, इसलिये मोहनीय कर्म का उदय हो वहाँ तक आठों कर्मों का और ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय का उदय बारहवें गुणस्थान तक होता है, जिससे इन तीन में से किसी भी कर्म का उदय हो तब दसवें गुणस्थान तक आठ का तथा ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय का उदय न होने से शेष सात कर्मों का उदय होता है। वेदनीय आदि चार अघातिकर्मों का उदय चौदहवें गुणस्थान तक होने से इन चार में के किसी भी कर्म का उदय हो तब दसवें तक आठ का, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय के बिना सात का तथा तेरहवें, चौदहवें गुणस्थान में वेदनीय आदि चार अघातिकर्मों का ही उदय होता है। ३. सत्ता के साथ सत्ता का संवेध ग्यारहवें गुणस्थान तक आठों कर्मों की सत्ता होती है। अतएव मोहनीय की सत्ता हो वहाँ तक आठों की और शेष तीन घाति कर्मों की सत्ता बारहवें गुणस्थान तक होती है। इसलिये उनमें के ज्ञानावरण आदि किसी की भी सत्ता हो तब ग्यारहवें गुणस्थान तक आठ की और बारहवें में मोहनीय के सिवाय सात की सत्ता होती है। ___ चारों अघातिकर्मों की सत्ता चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त होने से उनमें के किसी भी कर्म की सत्ता हो तब ग्यारहवें गुणस्थान तक आठ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ १५ की, बारहवें में मोहनीय के सिवाय सात की और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में चार अघाति कर्मों की ही सत्ता होती है । ४. बन्ध के साथ उदय और सत्ता का संवेध दसवें गुणस्थान तक उदय और सत्ता में आठ, ग्यारहवें में उदय में मोहनीय के बिना सात और सत्ता में आठ एवं बारहवें में उदय एवं सत्ता में मोहनीय के बिना सात और बाद के दो गुणस्थानों (तेरहवें, चौदहवें) में उदय और सत्ता में चार कर्म होते हैं । उनमें तीसरे के सिवाय पहले से सातवें गुणस्थान तक में आयु के बंधकाल में आठ के बंध में और इन्हीं गुणस्थानों में शेष काल एवं तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में सात के बंध में और दसवें गुणस्थान में मोहनीय एवं आयु के बिना छह के बन्ध में आठ का उदय और आठ की ही सत्ता होती है । एक का बन्ध ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक होने से एक के बन्ध में ग्यारहवें गुणस्थान में मोहनीय के बिना सात का उदय और आठ की सत्ता, बारहवें में मोहनीय के बिना सात का उदय और सात की सत्ता तथा तेरहवें गुणस्थान में चार का उदय और चार की सत्ता होती है । ५. उदय और सत्ता के साथ बन्ध का संवेध दसवें गुणस्थान तक उदय और सत्ता में आठों कर्म होने से आठ के उदय में आयुष्य के बन्धकाल में तीसरे के सिवाय पहले से सातवें गुणस्थान तक आठ और इन्हीं गुणस्थानों में शेष काल में एवं तीसरे, आठवें और नौवें में सात तथा दसवें में मोहनीय व आयु के बिना छह कर्मों का बन्ध होता है । जिससे आठ के उदय में यह तीन बन्धस्थान होते हैं । आठ की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान में भी होती है । इसलिये आठ की सत्ता में दसवें गुणस्थान तक उपर्युक्त तीन तथा ग्यारहवें में वेदनीय रूप एक कर्म का, इस तरह कुल चार बन्धस्थान होते हैं । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० ___मोहनीय के बिना सात के उदय में ग्यारहवें और बारहवें में तथा सात की सत्ता केवल बारहवें गुणस्थान में होने से सात की सत्ता में वेदनीय कर्म रूप एक प्रकृति का एक ही बन्धस्थान होता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में उदय और सत्ता चार की होती है । अतएव तेरहवें गुणस्थान में चार का उदय तथा सत्ता में एक प्रकृति रूप वेदनीय का एक बन्धस्थान होता है और चौदहवें गुणस्थान में बन्ध का अभाव है। उक्त समग्र कथन का दर्शक स्वामी एवं काल सहित प्रारूप पृष्ठ १७ पर देखिए। मूल प्रकृतियों के उक्त संवेधों के गुणस्थानों और जीवस्थानों की अपेक्षा स्वामित्व विकल्प इस प्रकार जानना चाहिये____ गुणस्थानापेक्षा तीसरे के सिवाय पहले से लेकर सातवें इस तरह छह गुणस्थानों में जब आयु का बन्ध हो तब आठ का बन्ध, आठ का उदय, आठ की सत्ता तथा शेष काल में सात का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता, इस प्रकार दो-दो भंग होने से कुल बारह तथा तीसरे, आठवें और नौवें गुणस्थान में सात का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता, दसवें गुणस्थान में छह का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता, ग्यारहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय, आठ की सत्ता, बारहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय और सात की सत्ता, तेरहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, चार का उदय और चार की सत्ता एवं चौदहवें गुणस्थान में अबन्ध, चार का उदय, चार की सत्ता। इस तरह इन आठ गणस्थानों में प्रत्येक का एक-एक भंग होने से कुल आठ। इस प्रकार चौदह गुणस्थानों सम्बन्धी मूल कर्मों के कुल संवेध विकल्प १२+८= २० बीस होते हैं। ___जीवस्थानापेक्षा-जीवस्थानों के चौदह भेदों के नाम पूर्व में बताये जा चुके हैं। उनमें से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में सभी गुणस्थान मानें Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्ध उदय बन्ध - उदय सत्ता सत्ता स्वामी स्वामी जघन्यकाल उत्कृष्टकाल ! ८ काका ८ की। अन्तर्मुहूर्त सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५ ८ का । ८ की | तीसरे के बिना आयु अन्तमुहूर्त के बन्धकाल में एक से सात गुणस्थान आयुष्य के अबन्धकाल में, तीसरे के सिवाय सात और तीसरे, आठवें नौवें गुणस्थान में। ७का | आयु बिना अन्तमुहूर्त न्यून पूर्वकोटि का तीसरा भाग अधिक, छह मास न्यून तेतीस सागरोपम अन्तर्मुहूर्त ८का एक समय | १०वां गुणस्थान मोह और आयु के बिना छह १ का वेदनीय का ७का ११वां गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त " । ७की १२वां गुणस्थान १३वां गुणस्थान ४ की देशोनपूर्व कोटि ४का अघाति कर्मों का वर्ष अबंध १४वाँ गुणस्थान पंच ह्रस्वाक्षर | जघन्यवत् प्रमाण Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ पंचसंग्रह : १० तो सात और भावमन न होने से केवली भगवन्तों को संज्ञा में ग्रहण न करें तो प्रथम पाँव संवेध विकल्प संभव हैं। शेष तेरह जीवस्थानों में आयु के बन्धकाल में आठ का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता तथा शेषकाल में सात आठ का उदय, आठ की सत्ता ये दो-दो भंग घटित होने से कुल छव्वीस । इस तरह चौदह जीवस्थानों संबन्धी कुल ७+२६-३३ अथवा ५+२६= ३१ संवेध विकल्प होते हैं । इस प्रकार मूल कर्म प्रकृतियों सम्बन्धी बंध, उदय और सत्ता विषयक संवेध निरूपण करने के पश्चात् अब मूल कर्मों का स्थान रूप में विचार करते हैं। मोहनीय, नाम कर्म व्यतिरिक्त शेष छह कर्मों के स्थान दो संतट्ठाणाई बंधे उदए य ठाणयं एक्कं । वेणियाउयगोए एगं नाणंतराएसु ॥६॥ शब्दार्थ- दो-दो, संतट्ठाणाई-सत्तास्थान, बंधे उदए-बंध और उदय में, य-और, ठाणयं-स्थान, एक्कं --एक, वेयणियाउयगोए---वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में, एर्ग--एक, नाणंतराएसु-ज्ञानावरण और अंतराय कर्म में । गाथार्थ-वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में सत्तास्थान दो और बंध तथा उदय में एक-एक स्थान है । ज्ञानावरण और अंतराय का तीनों में एक स्थान होता है । विशेषार्थ-एक साथ दो, तीन आदि प्रकृतियों के समुदाय को बंधादि में होने को स्थान कहते हैं। वेदनीय, आयु और गोत्र कर्म में से प्रत्येक के दोप्रकृतिक, एकप्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-वेदनीय की दोनों प्रकृतियाँ अयोगिकेवली के द्विचरम समय तक सत्ता में होती हैं और द्विचरम समय में दोनों में से किसी भी . Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७ १६ एक की सत्ता नष्ट होती है तब चरम समय में एक की सत्ता होती है । इस प्रकार वेदनीय में दो और एक प्रकृतिक यह दो सत्तास्थान होते हैं । आयुकर्म में परभवायु का बंध न होने तक एक की सत्ता और परभवायु का बंध होने के पश्चात् बंधी हुई आयु का जब तक उदय न हो, वहाँ तक आयुद्वय की सत्ता होती है । गोत्रकर्म में तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव उच्चगोत्र की उद्वलना करे तब अथवा अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय में नीचगोत्र का क्षय करे तब एक (उच्च) गोत्र की सत्ता होती है । इसके अतिरिक्त सर्वदा दोनों गोत्र कर्म प्रकृतियों की सत्ता होती है । उक्त तीनों कर्मों के बंध एवं उदय में तो उनकी एक-एक प्रकृति का ही बंध और उदय होने से एक-एक ही स्थान होता है । क्योंकि उन कर्मों की एक साथ दो, तीन प्रकृतियों का बंध या उदय नहीं होता है । ज्ञानावरण और अंतराय इन दोनों का बंध, उदय और सत्ता में पाँच-पाँच प्रकृति रूप एक ही स्थान होता है । क्योंकि इन दोनों कर्मों की पाँचों प्रकृतियाँ एक साथ बंध, उदय और सत्ता को प्राप्त होती है । अब उक्त स्थानों के सम्बन्ध में कुछ विशेष विचार करते हैं— नाणंतरायबंधा आसुहुमं उदयसंतया खोणं । आइमदुगचउसत्तम नारयतिरिमणुसुराऊणं ॥ ७॥ शब्दार्थ-नाणंतराय बंधा - ज्ञानावरण और अंतराय का बंध, आसुहुमं - सूक्ष्म संप रायगुणस्थानपर्यन्त, उदयसंतथा - उदय और सत्ता, खोणं - क्षीणमोहगुणस्थान तक, आइमदुगच उत्तम - पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे और सातवें गुणस्थान तक नारयतिरिमणुसुराऊणं - नारक, तियंच, मनुष्य और देवायु का । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० गाथार्थ - ज्ञानावरण और अंतराय का बंध सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त तथा उदय और सत्ता क्षीणमोहगुणस्थान पर्यन्त होती है । पहले, दूसरे, चौथे और सातवें गुणस्थान तक अनुक्रम से नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देवायु का बंध होता है । विशेषार्थ -- ज्ञानावरण और अंतराय इन दोनों कर्मों की पाँच-पाँच प्रकृतियों का बंध सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान पर्यन्त ही होता है'नाणंतराय बंधा आसुमं ।' इन दोनों कर्मों की पाँच-पाँच प्रकृतियों का एक साथ बंध होने एवं एक साथ ही बंधविच्छेद होने से पाँच-पाँच प्रकृति रूप एक-एक ही बंधस्थान होता है तथा दोनों कर्मों की पाँचों प्रकृतियों का उदय एवं सत्ता क्षीणमोह पर्यन्त होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । इस प्रकार उदय और सत्ता में पाँचों प्रकृतियाँ साथ ही होने से और साथ ही क्षय होने से इन दोनों कर्मों का उदयस्थान एवं सत्तास्थान भी पाँच-पाँच प्रकृति रूप ही होता है । २० आयुकर्म के विषय में गुणस्थानापेक्षा बंध, उदय और सत्ता सम्बन्धी स्पष्टीकरण इस प्रकार है- पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थानपर्यन्त नरकायु का, तिर्यंचायु का सासादन गुणस्थान पर्यन्त, मनुष्यायु का चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त और देवायु का सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त बंध होता है तथा उदय एवं सत्ता विषयक स्पष्टीकरण इस प्रकार है नारयसुराउ उदओ चउ पंचम तिरि मणुस्स चोद्दसमं । उवसंता आसम्म देसजोगी संतयाऊणं ॥८॥ शब्दार्थ –नारयसुराउ - नरकायु और देवायु का, उदओ— उदय, चउ चौथे गुणस्थान, पंचम - पांचवें, तिरि-तिर्यंचायु, मणुस्स - मनुष्यायु, चोद्दसमं -- चौदहवें गुणस्थान, आसम्मदेसजोगी - सम्यक्त्व, देशविरत, अयोगिकेवली, उवसंता - उपशांतमोह, संतयाऊणं - आयु की सत्ता । गाथार्थ - नरकायु और देवायु का चौथे गुणस्थान तक, तिर्यंचायु का पाँचवें गुणस्थान तक और मनुष्यायु का चौदहवें गुणस्थान तक उदय होता है तथा नरकायु की सम्यक्त्व गुणस्थान तक, तिर्यंचायु Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा | की पाँचवें गुणस्थान तक, मनुष्यायु की अयोगिकेवली गुणस्थान तक और देवायु की उपशांतमोह गुणस्थान तक सत्ता होती है। विशेषार्थ--गाथा में आयुकर्म के भेदों के उदय एवं सत्ता का निर्देश किया है देवों और नारकों के आदि के चार गुणस्थान होने से नरकायु और देवायु का उदय चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तथा तिर्यंचायु का उदय पाँचवें देशविरत गुणस्थान पर्यन्त होता है । क्योंकि तिर्यंचों में आदि के पाँच गुणस्थान होते हैं और मनुष्यों में सभी गुणस्थान सम्भव होने से मनुष्यायु का उदय चौदहवें अयोगिकेवलीगुणस्थान पर्यन्त होता है। अब आयुचतुष्क की सत्ता का निरूपण करते हैं अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान पर्यन्त नरकायु की, देशविरत पर्यन्त तिर्यंचायु की, अयोगिकेवली पर्यन्त मनुष्यायु की और उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त देवायु का सत्ता हो सकती है। ___ इस प्रकार से आयु के बंध, उदय और सत्ता का निर्देश करने के पश्चात् अब संवेध का निरूपण करते हैं। आयुकर्म के संवेध अब्बंधे इगि संतं दो दो बद्धाउ बज्झमाणाणं । चउसुवि एक्कस्सुदओ पण नव नव पंच इइ भेया ॥६॥ शब्दार्थ-अब्बंधे-आयु का बंध न हुआ हो, इगि-एक ही, संतसत्ता, दो-दो-दो-दो की, बद्धाउ-बद्धायुष्क के, बज्झमाणाणं-बध्यमान के, १ ग्यारहवें गुणस्थान तक जो देवायु की सत्ता कही है, वह विवक्षाप्रधान दृष्टि की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि देवायु का बंध करके मनुष्य उपशम श्रेणी मांड़ सकता है और ग्यारहवें गुणस्थान तक जाता है । इसलिये देवायु की सत्ता की ग्यारहवें गुणस्थान तक विवक्षा की है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पंचसंग्रह : १० चउसुवि-चारों गतियों में, एक्कस्सुदओ-एक का उदय, पण नव नव पंचपांच, नो, नौ, पांच, इइ- यह, भेया--भेद, विकल्प, भंग। ___ गाथार्थ-आयु का बंध न हुआ हो वहाँ तक एक की तथा बद्धायुष्क के और बध्यमान के दो-दो आयु की सत्ता होती है। चारों गतियों में भुज्यमान एक-एक आयु का ही उदय होता है तथा चारों गति के अनुक्रम से पाँच, नौ, नौ, और पाँच संवेधविकल्प होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में आयुकर्म के संवेधविकल्पों का संकेत करने के लिये कहा है कि चारों गति में जब तक परभव की आयु का बंध न हुआ हो, तब तक जीवों के उदय-प्राप्त भुज्यमान एक ही आयु सत्ता में होती है। किन्तु जिन्होंने परभव की आयु का बंध कर लिया हो अथवा जो बंध कर रहे हैं उनके अपनी भुज्यमान आयु एवं परभव की आयु इस तरह दो आयु सत्ता में होती हैं। चारों गतियों में से जो जीव जिस-जिस गति में हो, उस गति के अनुरूप एक ही आयु का उदय होता है, किसी भी समय एक साथ दो आयु का उदय नहीं होता है । परभव की जिस आयु का बंध हुआ हो, उस गति में जाने पर उस आयु का उदय होता है। तिर्यंच और मनुष्य सर्वत्र-चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं । अतएव उनके चारों आयु का तथा देव और नारक मनुष्य तिर्यंच गति में ही उत्पन्न होते हैं, इसलिये उनको दो आयु का ही बंध होता है। उक्त कारण से नरक गति में आयु के पाँच, तिर्यंच गति में नौ, मनुष्य गति में नौ और देवगति में पाँच संवेधविकल्प होते हैं । जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है नरकगति-नारकों के पारभविक आयु का बंध होने से पूर्व-- १. नरकायु का उदय और नरकायु की सत्ता यह विकल्प होता है और यह विकल्प नारकों के आदि के चार गुणस्थान होने से प्रथम चार गुणस्थानों में संभव है। २. परभवायु का बंध करता हो तब तिर्यंचायु का बंध, नरकायु Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा : का उदय और तिर्यंच, नरकायु की सत्ता यह विकल्प होता है। यह विकल्प मिथ्यादृष्टि और सासादन इन दो गुणस्थानों में संभव है। क्योंकि तिर्यंचायु का बंध आदि के दो गुणस्थानों में ही होता है। ३. मनुष्यायु का बंध, नरकायु का उदय और मनुष्यायु-नरकायु को सत्ता, यह विकल्प तीसरे गुणस्थान में आयु का बंध ही नहीं होने से पहले, दूसरे और चौथे, इन तीन गुणस्थानों में होता है । मनुष्यायु का बंध वहाँ तक ही होता है। इस प्रकार बंधकाल के दो विकल्प हुए। आयु का बंध संपूर्ण होने के बाद ४. नरकायु का उदय, तिथंच नरकायु की सत्ता, यह विकल्प पहले से चौथे गुणस्थान तक के चार गुणस्थानों में होता है। क्योंकि तिर्यचायु का बंध करने के पश्चात् तीसरे या चौथे गुणस्थान में जाना सम्भव है। ५. नरकायु का उदय, मनुष्यायु-नरकायु की सत्ता यह विकल्प भी आदि के चार गुणस्थानों में होता है । इस प्रकार नारकों के बंधकाल के पूर्व एक, बंधकाल के दो और बंधकाल के बाद के दो, इस तरह कुल पाँच विकल्प होते हैं। देवगति-इसी प्रकार देवों में भी नरकायु के स्थान पर देवायु का प्रक्षेप करके पाँच भंगों पर विचार कर लेना चाहिये। वे इस प्रकार हैं १. देवायु का उदय, देवायु की सत्ता। २. तिर्यंचायु का बंध, देवायु का उदय, तिर्यंच-देव आयु को सत्ता । ३. मनुष्यायु का बंध, देवायु का उदय, मनुष्य-देवायु की सत्ता । ४. देवायु का उदय, तिर्यंच-देवायु की सत्ता । ५. देवायु का उदय, मनुष्य-देवायु की सत्ता। तिर्यंचगति-सम्बन्धी विकल्प इस प्रकार हैं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पंचसंग्रह :१० १. पारभविक आयु का बंध होने के पहले तिर्यंचों के तिर्यंचायु का उदय, तिर्यंचायु की सत्ता, यह विकल्प होता है और यह विकल्प आदि के पाँच गुणस्थानों में संभव है। क्योंकि तिर्यंचों के आदि के पाँच गुणस्थान होते हैं, शेष गुणस्थान नहीं होते हैं। २. परभवायु के बंधकाल में नरकायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय, नरक-तिर्यंचायु की सत्ता । यह भंग मिथ्यादृष्टि के ही होता है । क्योंकि नरकायु का बंध, पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है, अथवा ३. तिर्यंचायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और तिर्यंच-तिर्यंच आयु की सत्ता, यह विकल्व मिथ्यादृष्टि और सासादन इन दो गुणस्थानों में होता है। इसका कारण यह है कि तिर्यंचायु का बंध आदि के दो गुणस्थानों में हो सकता है। ४. मनुष्यायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और मनुष्य-तिर्यचायु की सत्ता । यह विकल्प भी आदि के दो गुणस्थानों में हो सकता है। क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि या देशविरत तिर्यंच के देवायु का ही बंध होता है। ५. देवायु का बंध, तिर्यंचायु का उदय और देवायुतियंचायु की सत्ता, यह विकल्प मिथ्यादृष्टि, सासादन, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत के होता है। ____ यह दो से पाँच तक के चार विकल्प परभव की आयु का बंध होता हो तब बंधकाल में होते हैं । सम्यक्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान में आयु का बंध हो न होने से, उसके आयु के बंधकाल का कोई विकल्प नहीं होता है। ६. परभव की आयु का बंध हो जाने के बाद तिर्यंचायु का उदय, नरक-तिर्यचायु की सत्ता, यह विकल्प पहले से पाँचवें गुणस्थान पर्यन्त होता है। इसका कारण यह है कि नरकायु का बंध होने के बाद सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति संभव है। ७. तिर्यंचायु का उदय तिर्यंच-तिर्यंचायु की सत्ता । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ह ८. तिर्यंचायु का उदय, मनुष्य तिर्यंचायु की सत्ता । ६. तिर्यचायु का उदय, देव- तिर्यंचायु की सत्ता । ये तीनों विकल्प भी पहले से पांचवें गुणस्थान पर्यन्त होते हैं । क्योंकि किसी भी आयु का बंध होने के बाद तिर्यंच सम्यक्त्व आदि प्राप्त कर सकते हैं । २५ इस प्रकार तिर्यंचों के आयु सम्बन्धी नौ विकल्प जानना चाहिये । अब मनुष्य सम्बन्धी विकल्पों का निर्देश करते हैं । मनुष्यगति--सम्बन्धी विकल्प इस प्रकार हैं १. मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता । यह विकल्प अयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्त होता है। क्योंकि मनुष्यों के चौदह गुणस्थान हो सकते हैं । २. परभवायु के बंधकाल में नरकायु का बंध, मनुष्यायु का उदय, नरक - मनुष्यायु की सत्ता, यह विकल्प मिथ्यादृष्टि के होता है । इसका कारण यह है कि अन्यत्र नरकायु का बंध नहीं होता है । ३. तिर्यंचाय का बंध, मनुष्यायु का उदय और तिर्यंच - मनुष्यायु की सत्ता, यह विकल्प मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि के होता है, क्योंकि तिचायु का बंध प्रथम दो गुणस्थानों में ही होता है । ४. मनुष्यायु का बंध, मनुष्यायु का उदय और मनुष्य-मनुष्यायु की सत्ता, यह विकल्प भी आदि के दो गुणस्थानों तक ही होता है । क्योंकि मनुष्य को मनुष्यायु का बंध भी आदि के दो गुणस्थान तक ही होता है । ५. देवायु का बंध, मनुष्यायु का उदय, देव- मनुष्यायु की सत्ता, यह विकल्प सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होता है। क्योंकि देवायु का बंध तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सातवें तक होता है । यह २ से ५ तक के चार विकल्प परभवायु के बंधकाल में होते हैं । उपरत बंधकालापेक्षा शेष चार विकल्प इस प्रकार हैं६. परभवायु का बंध होने के बाद मनुष्यायु का उदय, नरकमनुष्यायु की सत्ता । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ पंचसंग्रह : १० ७. मनुष्यायु का उदय, तिर्यंच- मनुष्यायु की सत्ता । ८. मनुष्यायु का उदय, मनुष्य मनुष्यायु की सत्ता । ये तीनों विकल्प अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होते हैं । क्योंकि नरक, तिर्यंच या मनुष्य आयु का बंध करने के पश्चात् मनुष्य को, सम्यक्त्व देश - विरति अथवा सर्वविरति प्राप्त होना संभव है । ६. मनुष्यायु का उदय और देव मनुष्यायु की सत्ता, यह विकल्प उपशांत मोह गुणस्थान पर्यन्त होता है । क्योंकि देवायु का बंध होने के बाद मनुष्य उपशमश्रेणि पर आरोहण कर सकता है और ग्यारहवां गुणस्थान उपशमश्रेणि की अन्तिम मर्यादा है । इस प्रकार मनुष्यगति सम्बन्धी नौ भंग जानना चाहिये । पूर्वोक्त देव नारकाश्रयी पांच पांच तथा तिर्यंच - मनुष्याश्रयी नौ-नौ विकल्पों को मिलाने पर आयुकर्म के अट्ठाईस भंग होते हैं । अब दर्शनावरणकर्म के संवेध विकल्पों का प्रतिपादन करने के लिये, उसके बंध, उदय और सत्तास्थानों का कथन करते हैं । दर्शनावरणकर्म के बंधादि स्थान नव छच्चउहा बज्झइ दुगट्ठदसमेण दंसणावरणं । नव बायरम्मि सन्तं छक्कं चउरो य खीणमि ॥१०॥ शब्दार्थ- -नव छच्चउहा - नौ, छह और चार प्रकार से, बज्झइ - बंधता है, दुगट्ठदसमे दो, आठ और दसवें तक, दंसणावरणं - दर्शनावरणकर्म, नव-नौ, बायरम्मि - बादरसंप रायगुणस्थान में, संतं - सत्ता में, छक्कं चउरो - छह और चार, य— और, खीणम्मि- क्षीणमोहगुणस्थान में । गाथार्थ- नौ, छह और चार प्रकार से दर्शनावरण कर्म अनुक्रम से दो, आठ और दसवें गुणस्थान तक बंधता है । नौ प्रकृतियाँ बादरसंपरायगुणस्थान में सत्ता में होती हैं तथा छह और चार की सत्ता क्षोणमोह गुणस्थान में होती है । विशेषार्थ - गाथा में दर्शनावरणकर्म के बंध और सत्तास्थानों को बतलाकर उनके स्वामियों का निर्देश किया है । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १० दर्शनावरण कर्म के नौ, छह और चार प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं। इनमें से नौ प्रकृति रूप बंधस्थान में दर्शनावरण कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियां हैं और यह पहले मिथ्यादृष्टि एवं दूसरे सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती प्रत्येक जीव के बंधता है । स्त्यानद्धित्रिक रहित शेष छह प्रकृति रूप दूसरा बंधस्थान तीसरे सम्यक्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के पहले भाग पर्यन्त होता है । क्योंकि इन गुणस्थानों में स्त्यानद्धित्रिक का बंध नहीं होता है । स्त्यानद्धित्रिक और निद्राद्विक के बिना शेष चक्षुदर्शनावरण आदि चार प्रकृति रूप तीसरा बंधस्थान अपूर्वकरण गुणस्थान के दूसरे भाग से लेकर सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान पर्यन्त होता है । यहाँ निद्राद्विक का भी बंध नहीं होता है । इस प्रकार दर्शनावरणकर्म के तीन बंधस्थान होते हैं और वे अनुक्रम से दूसरे, आठवें और दसवें गुणस्थान तक बंधते हैं । २७ बंधस्थान की तरह दर्शनावरणकर्म के नौ, छह और चार प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । उनमें से नौ प्रकृतिक सत्तास्थान नौवें अनिवृत्तिबादरगुणस्थान के प्रथम भाग पर्यन्त सत्ता में होता है । यह कथन क्षपकश्रेणि की अपेक्षा जानना चाहिये । क्योंकि उपशमश्रेणि में तो उपशांत मोहगुणस्थान पर्यन्त नौ प्रकृतियों की सत्ता होती है । क्षपकश्रेणि में नौवें गुणस्थान के पहले भाग में स्त्यानद्धत्रिक का क्षय होने के बाद नौवें के दूसरे भाग से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त छह प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं । क्षीणमोह के द्विचरम समय में निद्राद्विक का सत्ता में से क्षय होने पर अंतिम समय में चक्षुदर्शनावरण आदि दर्शनावरण कर्म की चार प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं और वे चारों प्रकृतियाँ भी उसी क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में सत्ता में से क्षय हो जाने से, उसके अनन्तरवतीं गुणस्थानों (सयोगि, अयोगि केवली गुणस्थानों) में दर्शनावरणकर्म सत्ता में नहीं रहता है । इस प्रकार से दर्शनावरणकर्म के तीन बंधस्थान एवं तीन सत्ता Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पंचसंग्रह : १० स्थान और उनके स्वामियों को जानना चाहिये। अब इसी कर्म के तीन बंधस्थानों का जघन्य-उत्कृष्ट बंध का काल प्रमाण बतलाते हैं। दर्शनावरणत्रिक का बंधकाल प्रमाण नवभेए भंगतियं बे छावठिउ छव्विहस्स ठिई। चउ समयाओ अंतो अंतमुहूत्ताउ नव छक्के ॥११॥ शब्दार्थ-नवभेए-नौ के स्थान के, भंगतियं-तीन भंग, बे-दो, छावठिउ-छियासठ, छविहस्स-छह प्रकार के, ठिई-स्थिति, चउ-चार के, समयाओ-समय से लेकर, अंतो-अन्तर्मुहूर्त, अंतमुहत्ताउ---अन्तर्मुहूर्त से, नव-छक्के-नौ और छह में। __गाथार्थ-नौ के स्थान के अन्तर्मुहूर्त से लेकर अनादि-अनन्त आदि तीन भंग रूप, छह के स्थान का अन्तमुहूर्त से दो छियासठ सागरोपम और चार के स्थान का एक समय से लेकर अन्तमुहूर्त प्रमाण काल होता है। विशेषार्थ-गाथा में दर्शनावरणकर्म के तीन बंधस्थानों का जघन्य, उत्कष्ट बंधकाल प्रमाण इस प्रकार बताया है दर्शनावरणकर्म के नौप्रकृतिक बंधस्थान के कालापेक्षा तीन भंग होते हैं-१ अनादि-अनन्त, २. अनादि-सांत और ३. सादि-सांत । इनमें से अभव्य जीवों के कभी भी मिथ्यात्वभाव छोड़ने वाले नहीं होने से अनादि-अनन्त प्रमाण बंधकाल है। जिन भव्यों ने अभी तक मिथ्यात्वभाव नहीं छोड़ा है, किन्तु कालान्तर में मिथ्यात्वभाव को छोड़कर ऊपर के गुणस्थान को प्राप्त करेंगे, उनकी अपेक्षा अनादिसांत बंधकाल है और सम्यक्त्व से गिरकर जो मिथ्यात्व को प्राप्त हुए उनकी अपेक्षा सादि-सान्त बंधकाल है और वह सादि-सांत काल जघन्य अन्तमुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट देशोन अर्धपुद्गलपरावर्तन प्रमाण जानना चाहिये । क्योंकि सम्यत्वव से गिरकर मिथ्यात्व को प्राप्त जीव जघन्य से अन्तमुहूर्त काल और उत्कृष्ट से देशोन अर्ध Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११ २६ पुद्गल परावर्तन जितने काल के अनन्तर पुनः सम्यक्त्वादि प्राप्त कर सकता है। छह-प्रकृतिक बंध-स्थान का उत्कृष्ट निरन्तर बंधकाल एक सौ बत्तीस सागरोपम प्रमाण है। इसका कारण यह है कि मिश्र से अन्तरित क्षयोपशम सम्यक्त्व का उतना अवस्थान काल है। उतने काल के अनन्तर कोई क्षपकश्रेणि पर आरोहण करता है और कोई मिथ्यात्व को प्राप्त होता है और मिथ्यात्व को प्राप्त होने पर अवश्य नौ-प्रकृतिक बंधस्थान का ही बन्ध होता है । छह के बंधस्थान का जघन्य बंधकाल अन्तमुहूर्त है। चार-प्रकृतिक बंधस्थान का जघन्य बंधकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहर्त है। चार-प्रकृतिक बंधस्थान जघन्य से एक समय उपशमणि में होता है। क्योंकि उपशमश्रेणी में अपूर्वकरण के दूसरे भाग के प्रथम समय में चार का बंधस्थान बाँध कर बाद के समय में कोई काल करके देवलोक में जाये तो वहाँ अविरत होकर छह प्रकृतियों का बंध करता है। इस अपेक्षा चार के बंधस्थान का एक समय जघन्यकाल है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होने का कारण यह है कि चार का बंध अपूर्वकरण के दूसरे भाग से दसवें गुणस्थान तक ही होता है और उसका समुदित काल भी अन्तमुहूर्त जितना ही है । इस प्रकार चार के बंधस्थान की जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त स्थिति है। इस प्रकार दर्शनावरणकर्म के बंधस्थानों का काल प्रमाण जानना चाहिये । अब सत्तास्थानों के काल प्रमाण का निर्देश करते हैं। दर्शनावरण के सत्तास्थानों का काल प्रमाण दर्शनावरणकर्म का नौ-प्रकृतिक सत्तास्थान कालापेक्षा अनादिअनन्त, अनादि-सान्त इस तरह दो प्रकार का है। किसी भी समय व्यवच्छेद होना संभव नहीं होने से अभव्य की अपेक्षा अनादि-अनन्त Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० पंचसंग्रह : १० और भव्यों के कालान्तर में क्षपकश्र णि मांड़े, तब नौ की सत्ता का विच्छेद संभव होने से अनादि-सात काल है । किन्तु बंध की तरह सत्ता में सादि-सांत भंग संभव नहीं है । क्योंकि नौ के सत्तास्थान का विच्छेद स्त्यानद्धित्रिक का क्षय हो तब क्षपकश्र णि में होता है और क्षपकश्रेणि से प्रतिपात नहीं होने से सादि-सांत भंग संभव नहीं है । छह प्रकृतिक सत्तास्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । क्योंकि क्षपकश्रेणि के नौवें गुणस्थान में स्त्यानद्धित्रिक की सत्ता का विच्छेद होने से बारहवें गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त छह की सत्ता होती है । उसका समुदित काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है । क्षपकश्रेणि में मरण नहीं होने से छह की सत्ता का अन्तर्मुहूर्त से कम काल ही नहीं है । जघन्य और उत्कृष्ट काल समान ही है । चार की सत्ता का एक समय जितना ही काल है और वह भी बारहवें गुणस्थान का चरम समय है । बन्धस्थानों और सत्तास्थानों का इस प्रकार दर्शनावरण कर्म के काल प्रमाण है । अब दर्शनावरणकर्म के उदयस्थानों का प्रतिपादन करते हैं । दर्शनावरणकर्म के उदयस्थान दंसण सनिद्ददंसणउदओ समयं तु होइ खोणो । जाव पत्तो नवण्ह उदओ छसु चउसु जा खोणो ॥ १२ ॥ शब्दार्थ - दंसण - दर्शनावरणचतुष्क का, सनिद्ददंसण --- निद्रासहित दर्शनावरण का, उदओ – उदय, समयं - एक समय, तु — अथवा, होइ — होता है, जा - पर्यन्त खीणो- क्षीणमोह, जाव – तक, पमत्तो - प्रमत्तसंयत, नवहं नौ का, उदओ - उदय, छसु चउसु - छह और चार का, जातक, खोणो-- क्षीणमोह | गाथार्थ - दर्शनावरणचतुष्क अथवा निद्रा सहित दर्शनावरण का एक साथ उदय क्षीणमोह पर्यन्त होता है । प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक नौ का तथा छह और चार का उदय क्षीणमोह तक होता है । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२ ३१ विशेषार्थ - गाथा में दर्शनावरणकर्म के उदयस्थान और एक अनेक जीवापेक्षा उनके उदय होने के गुणस्थानों का निर्देश किया है जो इस प्रकार है दर्शनावरणकर्म के दो उदयस्थान हैं - एक साथ एक जीव के चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवल दर्शनावरण इन चार का उदय होता है अथवा पाँच निद्राओं में से किसी भी एक निद्रा के साथ पाँच का उदय होता है । एक जीव के एक साथ दो आदि निद्राओं का उदय नहीं होता है । इस प्रकार चार का और पाँच' का यह दो उदयस्थान होते हैं । ये दोनों उदयस्थान क्षीणमोहगुणस्थान तक होते हैं । इस प्रकार चार प्रकृति का समूह रूप अथवा निद्रा के साथ पाँच का समूह रूप उदयस्थान एक समय में एक जीव की अपेक्षा जानना चाहिये | अब सामान्यतः अनेक जीवों की अपेक्षा उदयस्थानों का विचार करते हैं प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त दर्शनावरणकर्म की 'नवण्ह उदओ' - नौ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं और उसके बाद स्त्यानद्धित्रिक का उदय नहीं होने से छह का उदय क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होता है और द्विचरम समय में निद्रा एवं प्रचला का उदयविच्छेद होने पर चरम समय में चार का उदय होता है— 'छसु चउसु जा खीणो ।' १. यह विशेष समझना चाहिये कि क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में निद्रा का उदय न होने से चारप्रकृतिक उदयस्थान ही होता है तथा निद्रा के उदय के साथ पाँच का उदयस्थान कर्मस्तव ग्रन्थ के अभिप्रायानुसार कहा गया है । सत्कर्म ग्रन्थ आदि के अभिप्रायानुसार तो क्षपकश्रेणि और क्षीणमोहगुणस्थान में चक्षुदर्शनावरण आदि चार प्रकृतियों का उदय होता है, निद्रा के साथ पाँच का नहीं । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ पंचसंग्रह : १० इस प्रकार से दर्शनावरणकर्म के उदयस्थानों का निर्देश करने के बाद अब बन्ध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध का कथन करते हैं। दर्शनावरणकर्म का संवेध- . चउ पण उदओ बंधेसु तिसुवि अब्बंधगेवि उवसंते। नव संतं अट्ठवं उइण्ण संताई चउ खीणे ॥१३।। खबगे सुहुमंमि चउ बंधगंमि अबंधगमि खोणम्मि। छस्संतं चउरुदओ पंचण्हवि केइ इच्छंति ॥१४॥ शब्दार्थ-चउ पण उदओ-चार और पाँच का उदय, बंधेसु तिसुवितीनों ही बन्धस्थानों में, अब्बंधगेवि-अबंधक में भी, उवसंते-उपशांतमोह गुणस्थान में, नव-नौ, संतं-सत्ता, अद्वैवं-इस प्रकार आठ भंग, उइण्ण संताई-उदय और सत्ता, चउ-चार की, खीणे-क्षीणमोहगुणस्थान में । ___ खवगे-क्षपक श्रेणि में, सुहुमंमि--सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में भी, चउ बंधगंमि-चार के बंध में, अबंधगमि-अबंधक में, खीणम्मि-क्षीणमोह में, छस्संतं-छह की सत्ता, चउरुदओ-चार का उदय, पंचण्हवि-पाँच का भी, केइ --कोई, इच्छंति-मानते हैं । गाथार्थ-तीनों ही बंधस्थानों में तथा अबंधक उपशांतमोह गुणस्थान में भी चार और पाँच का उदय तथा नौ की सत्ता होती है, जिससे आठ संवेध भंग होते हैं। चार का उदय और चार की सत्ता क्षीणमोहगुणस्थान में होती है । क्षपकश्रेणि में चार के बंधक, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तथा अबंधक क्षीणमोहगुणस्थान में छह की सत्ता एवं चार का उदय होता है । कोई आचार्य पाँच का भी उदय मानते हैं। विशेषार्थ--उक्त दो गाथाओं में दर्शनावरणकर्म के संवेध भंगों का निर्देश किया है Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३,१४ दर्शनावरणकर्म की नौ, छह और चार प्रकृतियों का जहाँ तक बंध होता है, वहाँ तक चक्षदर्शनावरण आदि चार या निद्रा के साथ पाँच का उदय और नौ की सत्ता होती है। जिससे छह भंग हो जाते हैं तथा दर्शनावरण कर्म के अबन्धक को उपशांतमोहगुणस्थान में चार या पाँच का उदय एवं नौ की सत्ता होती है। जिससे इन दो विकल्पों को पूर्वोक्त छह में मिलाने से कुल आठ भंग होते हैं । वे इस प्रकार १. नौ का बंध, चार का उदय और नौ की सत्ता, यह विकल्प निद्रा का उदय न होने की स्थिति में होता है। २. नौ का बंध, पाँच का उदय और नौ की सत्ता, यह विकल्प निद्रा के उदय में होता है। यह दोनों विकल्प मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में होते हैं। ३. छह का बंध, चार का उदय और नौ की सत्ता, अथवा ४. छह का बंध, पाँच का उदय और नौ की सत्ता । यह दोनों विकल्प तीसरे गुणस्थान से लेकर आठवें गुणस्थान के पहले संख्यातवें भाग पर्यन्त होते हैं। ५. चार का बंध, चार का उदय और नौ की सत्ता, अथवा ६. चार का बंध, पाँच का उदय और नौ की सत्ता । यह दो विकल्प उपशमश्रेणि में अपूर्वकरण के दूसरे भाग से लेकर दसवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होते हैं तथा उपशांतमोहगुणस्थान में बंध नहीं होने से-- ७. चार का उदय, नौ की सत्ता, अथवा ८. पाँच का उदय, नौ की सत्ता, यह दो विकल्प होते हैं। इस प्रकार आठ विकल्प हुए और क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० ६. चार का उदय, चार की सत्ता यह एक विकल्प होता है। यह नौवाँ भंग है। क्षपकश्रेणि में दर्शनावरणकर्म की चार प्रकृतियों के बंधक को अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में स्त्यानद्धित्रिक का क्षय होने के बाद और सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में छह की सत्ता और चार का उदय होता है, एवं दर्शनावरणकर्म के अबंधक क्षीणमोही के भी छह की सत्ता और चार का उदय होता है। जिससे यह दो विकल्प होते १०. चार का बंध, चार का उदय, छह की सत्ता । यह विकल्प स्त्याद्धित्रिक का सत्ता में से क्षय होने के बाद सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होता है तथा ११. चार का उदय, छह की सत्ता । यह विकल्प क्षीणमोहगुणस्थान में द्विचरम समय पर्यन्त होता है । इस प्रकार ग्रन्थकार के मतानुसार दर्शनावरणकर्म के ग्यारह भंग जानना चाहिये। _ अब एक मतान्तर का उल्लेख करते हैं कि कर्मस्तवकार आदि कितने ही आचार्य क्षपकणि के नौवें गुणस्थान में और द्विचरम समय पर्यन्त बारहवें गुणस्थान में निंद्रा के साथ पाँच का उदय भी मानते हैं। जिससे उनके मतानुसार और भी दो विकल्प इस प्रकार होते हैं १२. चार का बंध, पांच का उदय, छह की सत्ता । यह विकल्प स्त्याद्धित्रिक का क्षय होने के बाद सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त होता है। १३. बंधविच्छेद के बाद पाँच का उदय, छह की सत्ता क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होती है। इस तरह उनके मत से तेरह विकल्प होते हैं। उक्त समग्र कथन का दर्शक प्रारूप इस प्रकार है Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३,१४ क्रम बंध प्र० उ० प्र० स० प्र० गुणस्थान १,२ awr १,२ ३, ४, ५, ६, ७, तया ८वें के पहले संख्यात भाग ३, ४, ५, ६, ७ तथा ८वें के पहले संख्यात भाग उपशम श्रेणि में ८वें के दूसरे भाग से लेकर १०वें के चरम समय पर्यन्त दोनों विकल्प उपशांतमोह गुणस्थान XXX क्षीणमोह के चरम समय में क्षपक श्रेणि के नौवें दसवें गुणस्थान में क्षीणमोह के द्विचरम समय पर्यन्त X मतान्तर » क्षपकवेणि में स्त्यानद्वित्रिक के क्षय बाद अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान पर्यन्त क्षपक|णि में क्षीणमोह के द्विचरम समय पर्यन्त Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - पंचसंग्रह : १० ___ इस प्रकार से दर्शनावरणकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध जानना चाहिये । अब गोत्रकर्म के संवेध विकल्पों का कथन करते हैं। गोत्रकर्म के संवेध भंग बंधो आदुग दसमं उदओ पण चोद्दसं तु जा ठाणं । निच्चुच्चगोत्तकम्माण संतया होइ सव्वेसु ॥१५॥ बंधइ ऊइण्णयं चिय इयरं वा दोवि संत चउ भंगा। नोएसु तिसुवि पढमो अबंधगे दोणि उच्चुदए ॥१६॥ शब्दार्थ-बंधो-बंध, आदुग दसमं-दूसरे और दसवें गुणस्थान तक, उदओ---उदय, पण-पांचवें, चोदृसं-चौदहवें, तु-और, जा ठाणंगुण स्थान तक, निच्चच्चगोत्तकम्माण-नीच और उच्च गोत्र कर्म का, संतया -सत्ता, होइ-होती है, सन्वेसु-सभी गुणस्थानों में । बंधइ- बाँधे, ऊइण्णयं-उदय-प्राप्त, चिय-इसी प्रकार, इयरं-इतर (उदय-अप्राप्त), वा-अथवा, दोवि -दोनों ही, संत-सत्ता, च उभंगा-चार भंग, नोएसु-नीच गोत्र में, तिसुवि-तीनों में, पढमो-पहला, अबंधगेअबंधक के, दोण्णि-दो, उच्चुदए-उच्च गोत्र के उदय में। गाथार्थ-नीच और उच्च गोत्र का बंध अनुक्रम से, दूसरे और दसवें गुणस्थान पर्यन्त और उदय पाँचवें तथा चौदहवें गुणस्थान तक होता है और सत्ता सभी गुणस्थानों में होती है। उदयप्राप्त अथवा इतर गोत्रकर्म बांधे और दोनों गोत्र सत्ता में हों, उसके चार भंग होते हैं। तीन में नीचगोत्र और पहला भंग होता है, और अबंधक के उच्चगोत्र के उदय में दो भंग होते हैं। विशेषार्थ-उक्त दो गाथाओं में गोत्रकर्म के संवेध का निर्देश करने के प्रसंग में पहले बंध, उदय और सत्ता के स्वामियों को गुणस्थानापेक्षा बतलाकर फिर संवेध भंगों को बतलाया है। बंध आदि के स्वामी इस प्रकार हैं - Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५,१६ नीचगोत्र का बंध दूसरे गुणस्थान पर्यन्त एवं उच्चगोत्र का बंध दसवें गुणस्थान पर्यन्त होता है तथा पांचवें गुणस्थान तक नीचगोत्र का और चौदहवें गुणस्थान तक उच्चगोत्र का उदय होता है तथा दोनों गोत्रकर्म की सत्ता चौदह गुणस्थानों में ही होती है । तात्पर्य यह है कि नीचगोत्रकर्म का बंध सासादन गुणस्थान तक और उदय देशविरत गुणस्थान पर्यन्त तथा उच्चगोत्रकर्म का बंध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक और उदय अयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है एवं दोनों गोत्रकर्म की सत्ता सभी चौदह गुणस्थानों में होती है। इसी कारण गोत्रकर्म के संवेध भंग इस प्रकार होते हैं उदयप्राप्त उच्च गोत्र हो या नीचगोत्र और जो उदयप्राप्त हो उसी का बंध हो या इतर उदय-अप्राप्त का बंध हो और इन सब में सत्ता उच्चगोत्र, नीचगोत्र दोनों की हो तो चार भंग होते हैं और वे दूसरे से लेकर पांचवें गुणस्थान तक जानना चाहिये तथा यदि बंध, उदय और सत्ता इन तीनों स्थानों में नीचगोत्र हो तो उसका पहला भंग होता है एवं गोत्रकर्म का बंधविच्छेद होने के बाद उपशांतमोहादि गुणस्थान में उच्चगोत्र के उदय में दो भंग होते हैं। इस तरह कुल मिलाकर सात भंग होते हैं, जो इस प्रकार हैं १. नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, नीचगोत्र की सत्ता । यह विकल्प उच्चगोत्र की उद्वलना करने के बाद तेजस्कायिक-वायुकायिक जीवों में और उस-उस भव में से निकलकर दूसरे भव में उत्पन्न हुए शेष तिर्यंचों में भी अल्पकाल (अन्तर्मुहूर्त काल) होता है । २. नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता । ३. नीचगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता । यह दोनों विकल्प मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में होते हैं, मिश्र आदि गुणस्थानों में नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें नीच गोत्र का बंध नहीं होता है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० ४. उच्चगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता । यह विकल्प मिथ्यादृष्टि से लेकर देशविरतगुणस्थान पर्यन्त होता है । आगे के गुणस्थानों में नीचगोत्र का उदय नहीं होने से यह विकल्प संभव नहीं है। ५. उच्चगोत्र का वंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता । यह विकल्प मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त होता है, आगे के गुणस्थानों में गोत्रकर्म का बंध नहीं होने से संभव नहीं है। ६. उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता । यह विकल्प उपशांतमोहगुणस्थान से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होता है। ७. उच्चगोत्र का उदय और उच्चगोत्र की सत्ता । यह विकल्प अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में होता है। उक्त समग्र कथन का दिग्दर्शक प्रारूप इस प्रकार है - - बंध उदय सत्त्व गुणस्थान नीच नीच नीच-उच्च | १,२ उच्च नीच-उच्च नीच नीच-उच्च उच्च नीच-उच्च १ से १० तक नीच-उच्च ११, १२, १३ में व १४ के द्विचरम समय तक १४वें का अन्तिम समय उच्च Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७,१८ इस प्रकार से गोत्रकर्म के संवेध भंगों को जानना चाहिये । अब वेदनीयकर्म के संवेध का निरूपण करते हैं। वेदनीय कर्म का संवेध तेरसमछट्ठएसु सायासायाण बंधवोच्छेओ। संत उइण्णाइ पुणो सायासायाई सन्वेसु ॥१७॥ बंधई उइण्णयं चिर इयरं वा दोवि संत चउ भंगा। संतमुइण्णमबंधे दो दोणि दुसंत इइ अट्ठ ॥१८॥ शब्दार्थ-तेरसमछट्ठएसु---तेरहवें और छठे गुणस्थान में, सायासायाण -साता और असाता का, बंधवोच्छेओ-बंधविच्छेद, संतउइण्णाइ-सत्ता और उदय में, पुणो-पुनः, सायासायाई-साता और असाता, सव्वेसु-सभी गुणस्थानों में। बंधइ-बांधे, उइण्णयं-उदयप्राप्त को, चिर-इसी प्रकार, इयरंइतर को, वा-अथवा, दोवि—दोनों ही, संत-सता, चउ भंगा-चार भंग, संतमुइण्णमबंधे-बंधाभाव में, सत्ता और उदय में, दो-दो, दोणि-दो, दुसंत—दोनों की सत्ता, इइ-इस प्रकार, अट्ठ-आठ । गाथार्थ-अनुक्रम से छठे और तेरहवें गुणस्थान में असाता और साता का बंधविच्छेद होता है । सत्ता और उदय में साताअसाता वेदनीय कर्म सभी गुणस्थानों में होता है। उदयप्राप्त अथवा इतर-उदय-अप्राप्त का बंध हो और सत्ता में दोनों हों तो उसके चार भंग होते हैं । बंध के अभाव में (अयोगि के चरम समय में) सत्ता और उदय में (एक हो), उसके दो और (उदय में एक और सत्ता में दोनों हों) उसके दो, इस प्रकार कुल आठ भंग होते हैं । विशेषार्थ-वेदनीयकर्म के संवेध भंग बताने के संदर्भ में पहली गाथा में गुणस्थानापेक्षा स्वामित्व का और दूसरी गाथा में संभव विकल्पों का निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० पंचसंग्रह : १० सातावेदनीय का बंधविच्छेद तेरहवें सयोगिकेवलीगुणस्थान में और असातावेदनीय का छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान में होता है । किन्तु इन दोनों की सत्ता एवं उदय सभी-चौदहों गुणस्थान में संभव है। इस अपेक्षा से संवेध विकल्प निम्न प्रकार से जानना चाहिये सातावेदनीय का उदय हो अथवा असातावेदनीय का और जिसका उदय हो उसी का बंध हो अथवा जिसका उदय हो उसका बंध न हो किन्तु इतर--दूसरी प्रकृति का बंध हो और सत्ता में साताअसाता वेदनीय दोनों हों तब उसके चार भंग. होते हैं तथा बंध के अभाव में अयोगि के चरम समय में दोनों वेदनीय में से जिसका उदय हो और उसी की ही सत्ता हो तो उसके दो भंग होते हैं। उसके अलावा शेषकाल में अयोगि के प्रथम समय से लेकर द्विचरम समय पर्यन्त वेदनीयद्विक में से चाहें किसी एक का उदय हो परन्तु सत्ता दोनों की हो तो उसके दो भंग होते हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर वेदनीय कर्म के आठ भंग हैं १. असाता का बंध, असाता का उदय, साता-असाता की सत्ता । २. असाता का बंध, साता का उदय, साता-असाता दोनों की सत्ता। यह दोनों विकल्प मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त होते हैं। इसके बाद असातावेदनीय का बंध नहीं होता है। ३. साता का बंध, असाता का उदय, साता-असाता दोनों की सत्ता । ... ४. साता का बंध, साता का उदय, साता-असाता वेदनीय दोनों की सत्ता। यह दोनों विकल्प मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त संभव हैं। इसके बाद अयोगिकेवलीगुणस्थान में योग का अभाव होने से वेदनीय का बंध ही नहीं होता है । ५. असाता का उदय, साता-असाता की सत्ता । ६. साता का उदय, साता-असाता की सत्ता। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १७,१८ यह दोनों विकल्प अयोगिकेवलीगुणस्थान के प्रथम समय से लेकर द्विचरम समय पर्यन्त होते हैं। ७. असाता का उदय, असाता की सत्ता । ८. साता का उदय, साता की सत्ता । यह दोनों विकल्प अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में होते हैं। इस प्रकार वेदनीयकर्म के संवेध के आठ विकल्प जानना चाहिये। सुगम बोध के लिये जिनका ज्ञापक प्रारूप इस प्रकार है बंध उदय सत्त्व गुणस्थान असाता असाता १ से ६ तक असाता साता १ से ६ तक साता असाता १ से १३ तक साता साता १ से १३ तक असाता १४वें के द्विचरम समय तक साता X XXX असाता असाता १४वें के चरम समय में साता साता इस प्रकार से अभी तक अल्प कथनीय ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, गोत्र और अंतराय इन छह कर्मों के संवेध और उनके भंगों का कथन जानना चाहिये । अब बहुप्रकृतियों वाले शेष रहे मोहनीय और नामकर्म की उत्तरप्रकृतियों के संवेध का विचार करते हैं। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० इसमें भी नामकर्म की अपेक्षा अल्प प्रकृतियां होने से पहले मोहनीयकर्म की संवेध प्ररूपणा प्रारम्भ करते हैं। उसकी भूमिका रूप में अनुक्रम से बंध, उदय और सत्तास्थानों का वर्णन किया जाता है। मोहनीय कर्म के बंधस्थान दुगइगवीसा सत्तरस तेरस नव पंच चउर ति दु एगो। बंधो इगिदुग चउत्थ य पणटुणवमेसु मोहस्स ॥१६॥ शब्दार्थ-दुगइगवीसा-बाईस और इक्कीस, सत्तरस-सत्रह, तेरसतेरह, नव पंच चउर ति दु एगो-नौ, पांच, चार, तीन, दो, एक, बंधोबंधस्थान, इगिदुग चउत्थ-पहले, दूसरे, चौथे, य--और, पणठणवमेसुपांचवें, आठवें, नौवें में, मोहस्स-मोहनीय कर्म के । गाथार्थ-बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति रूप बंधस्थान होते हैं । जो क्रमशः पहले, दूसरे, (तीसरे) चौथे, पांचवें, (छठे, सातवें) आठवें और नौवें गुणस्थान में होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में मोहनीय कर्म के बंधस्थान और गुणस्थानापेक्षा उनके स्वामियों का निर्देश किया है। किन्तु अतिसंक्षेप में होने से उनका सुगमता से बोध नहीं होता है । जिससे उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'दुगइगवीसा......... ति दु एगो' इन पहले और दूसरे पाद के साथ 'बंधो इगिदुग........... मोहस्स' इन तीसरे और चौथे पाद का सम्बन्ध करके इस प्रकार अर्थ समझना चाहिये कि मोहनीयकर्म के दस बंधस्थान हैं। उनमें से पहला बंधस्थान बाईसप्रकृतिक है और वह पहले मिथ्यात्वगुणस्थान में होता है। दूसरा इक्कीस प्रकृति रूप बंधस्थान दूसरे गुणस्थान में, तीसरा सत्रहप्रकृतिक तीसरे और चौथे गुणस्थान में, चौथा तेरह प्रकृति का पांचवें गुणस्थान में, पांचवां नौ प्रकृति का छठे, सातवें और आठवें गुणस्थान में, छठा पांच प्रकृति का, सातवां चारप्रकृतिक, आठवां तीनप्रकृतिक, नौवां दोप्रकृतिक और Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०,२१ दसवां एकप्रकृतिक, इस प्रकार पांच बंधस्थान नौवें गुणस्थान में होते हैं। इस प्रकार से मोहनीयकर्म के बंधस्थान और गुणस्थानापेक्षा उनका स्वामित्व जानना चाहिये । अब प्रकृतिभेद से उन बंधस्थानों के प्रकारों को बतलाते हैं। प्रकृतिभेद से मोहनीय के बंधस्थानों के प्रकार हासरइअरइसोगाण बंधया आणवं दुहा सव्वे । वेयविभज्जंता पुण दुगइगवीसा छहा चउहा ॥२०॥ मिच्छाबंधिगवीसो सत्तर तेरो नवो कसायाणं । अरईदुगं एमत्ते ठाइ चउक्कं नियटिमि ॥२१॥ शब्दार्थ-हासरइअरइसोगाण-हास्य, रति, अरति, शोक के, बंधयाबंध, आणवं-नौ-प्रकृतिक तक, दुहा--दो प्रकार से, सव्वे-सब, वेयविभज्जंता-वेद से विभाजित करने पर, पुण-पुनः, दुगइगवीसा-बाईस और इक्कीस प्रकृतिक, छहा चउहा-छह और चार प्रकार का है। मिच्छाबंधिगवीसो—मिथ्यात्व का बंध न होने पर इक्कीस प्रकृतिक, सत्तर तेरो नवो-सत्रह, तेरह और नौ प्रकृतिक, कसायाणं--कषायों के, अरई दुर्ग--अरतिद्विक, पमत्ते-प्रमत्तसंयत गुणस्थान में, ठाइ-रुक जाता है, चउक्कं-(हास्य) चतुष्क, नियटिमि-अपूर्वकरण में, निवृत्ति में । गाथार्थ-नौ-प्रकृतिक बंध तक सभी बंध हास्य-रति और अरति-शोक क्रम से बंधने के कारण दो प्रकार के होते हैं। वेद के बंध से विभाजित करने पर बाईस और इक्कीस प्रकृतिक बंध क्रमश: छह और चार प्रकार के हैं। मिथ्यात्व के अबंध से इक्कीस, अनुक्रम से कषाय के अबंध से सत्रह, तेरह और नौ का बंध होता है। अरतिद्विक का प्रमत्तसंयत गुणस्थान में और (हास्य) चतुष्क का अपूर्वकरण में बंधविच्छेद होता है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ - मोहनीयकर्म के उक्त बंधस्थानों में से किसके कितने प्रकार संभव हैं, उनको इन दो गाथाओं में स्पष्ट किया है हास्य- रति युगल और शोक अरति युगल क्रम से बंधने के कारण नौ- प्रकृतिक बन्ध तक के सभी बन्धस्थानों के दो प्रकार हैं। किसी समय हास्य-रतियुगल तो किसी समय अरति शोकयुगल का बन्ध होता है, किन्तु किसी भी समय इन चारों प्रकृतियों का एक साथ बन्ध नहीं होता है तथा मिथ्यात्वगुणस्थान में एक साथ एक समय में मोहनीय की बाईस प्रकृतियों का बन्धक अध्यवसायानुसार किसी समय पुरुषवेद को, किसी समय स्त्रीवेद को अथवा किसी समय नपुसंक वेद को बाँधता है, किन्तु कभी भी एक साथ तीनों वेदों का बन्ध नहीं करता है । इसलिये हास्य- रति और शोक -अरति युगल और तीन वेद से विभज्यमान बाईस प्रकृतिक बन्ध छह प्रकार से होता है । वह इस प्रकार ४४ - मिथ्यात्व, सोलह कषाय, तीन वेद में से कोई एक वेद, युगलद्विक में से एक युगल, भय और जुगुप्सा । इस प्रकार मोहनीय की बाईस प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यात्वगुणस्थान में प्रति समय प्रत्येक जीव को होता है | ये बाईस प्रकृतियां किसी को हास्य-रति युक्त तो किसी को शोक- अरतियुक्त होती हैं । इस कारण युगलद्विक की विवक्षा से बाईस - प्रकृतिक स्थान दो प्रकार से होता है । तथा यही हास्य-रतियुक्त बाईस का बन्ध किसी को पुरुषवेद के साथ, किसी को स्त्रीवेद के साथ तो किसी को नपुंसकवेद के साथ होता है । इसी प्रकार शोक - अरति युगल युक्त बाईस का बन्ध भी पुरुष, स्त्री या नपुंसक वेद के साथ होता है । जिससे बाईस का बन्ध एक समय अनेक जीवों की अपेक्षा और अनेक समय एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्वगुणस्थान में छह प्रकार का होता है । उक्त बाईस प्रकृतियों में से मिथ्यात्व को कम करने पर इक्कीसप्रकृतिक बन्धस्थान होता है । परन्तु यहाँ दो वेद में से एक वेद Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २०,२१ ४५ कहना चाहिये । क्योंकि मिथ्यात्वरहित इक्कीस प्रकृति का बन्धक सासादनगुणस्थान वाला होता है और उस गुणस्थान में वर्तमान जीव पुरुष अथवा स्त्रीवेद का बन्ध करता है, किन्तु सासादनगुणस्थान में नपुसकवेद के बन्धहेतु मिथ्यात्व के उदय का अभाव होने से नपुसकवेद का बंध नहीं करता है। जिससे इक्कीस का बन्ध चार प्रकार का है । वह इस तरह कि इक्कीस के बंध को हास्य-रति युगल और शोक-अरति युगल के साथ परावर्तन करने से दो प्रकार होते हैं और इन दोनों प्रकारों को भी पुरुष और स्त्रीवेद के साथ क्रमशः परावर्तन करने से चार प्रकार हो जाते हैं। सत्रह-प्रकृतिक आदि बन्धस्थान के बन्धक तीसरे आदि गुणस्थान वाले जीव सिर्फ पुरुषवेद का ही बन्ध करते हैं। स्त्रीवेद के बन्ध में अनन्तानुबन्धि कषाय का उदय हेतु है, किन्तु तीसरे आदि गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धिकषाय का उदय न होने से स्त्रीवेद का बन्ध नहीं होता है। इक्कीस-प्रकृतिक बन्ध में से अनन्तानुबन्धिकषायचतुष्क के बन्ध के अभाव में सत्रह-प्रकृतिक बन्धस्थान होता है और हास्य-रति अथवा अरति-शोक युगल में से एक समय एक युगल का बन्ध होने से दो प्रकार से बनता है। उक्त सत्रह-प्रकृतिक में से दूसरी अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क के बन्ध के अभाव में तेरह प्रकृतियों का बन्ध होता है। वह स्थान भी सत्रह प्रकृतियों के बन्ध की तरह यगलद्विक के क्रमिक बन्ध के कारण दो प्रकार से बनता है। तेरह-प्रकृतिक स्थान में से प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का बन्ध न होने पर नौ का बन्धस्थान होता है। इसका बन्ध प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में होता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलों का बन्ध Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ पंचसंग्रह : १० होने से नौ के बन्ध के दो प्रकार हैं किन्तु अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में हास्य- रति रूप एक युगल ही बँधता है । जिससे अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में होने वाला नौ का बन्ध एक ही प्रकार वाला है । हास्य- रति और भय, जुगुप्सा रूप हास्यचतुष्क अंपूर्वकरणगुणस्थान तक ही बँधता है, इसलिये अनिवृत्तिबादरसं परायगुणस्थान के प्रथम समय के प्रारम्भ में पाँच का बन्ध होता है और वह पाँच का बन्ध अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के काल के पहले पाँच भाग तक होता है, तत्पश्चात् पुरुषवेद का बन्ध नहीं होने से चार का बन्ध होता है, वह भी नौवें गुणस्थान के दूसरे पाँचवें भाग तक होता है, उसके बाद संज्वलन क्रोध का बन्ध नहीं होने से तीन का बन्ध होता है जो तीसरे पाँचवें भाग तक होता है, तदनन्तर संज्वलन मान का भी बन्ध नहीं होने से माया और लोभ इन दो का ही बन्ध होता है । इन दो का बन्ध भी पाँच भाग में के चौथे भाग तक होता है । इसके बाद संज्वलन माया का भी बन्ध नहीं होने से अनिवृत्तिबादर संप रायगुणस्थान के पाँचवें भाग में मात्र एक संज्वलन लोभ का ही बन्ध होता है और वह बन्ध भी उस गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होता है । इस प्रकार से मोहनीयकर्म के बन्धस्थान जानना चाहिये | अब इन बन्धस्थानों का कालप्रमाण बतलाते हैं । मोहकर्म के बंधस्थानों का कालप्रमाण देसूणपुव्वकोडी नव तेरे सत्तरे उ तेत्तीसा । बावीसे भंगतिगं ठितिसेसेसु मुहुत्तंत्तो ॥२२॥ शब्दार्थ - देसूणपुव्वकोडी - देशोन पूर्वकोटि, नव तेरे-नो और तेरह प्रकृतिक का, सत्तरे - सत्रह, उ- और, तेत्तीसा - तेतीस बावीसे- बाईस के, भंगतिगं—तीन भंग, ठितिसेसेसु --- शेष की स्थिति, मुहत्तंत्तो—अन्तमुहूर्त | , Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२ गाथार्थ- नौ और तेरह प्रकृतिक बंधस्थान की देशोन पूर्वकोटि, सत्रह की तेतीस सागरोपम प्रमाण स्थिति है । बाईस के बंध की तीन भंग रूप और शेष बंधस्थानों की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति है । ४७ विशेषार्थ -- तेरह और नौ प्रकृतिक बंधस्थान की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है यानि तेरह और नौ प्रकृतिक बंधस्थान देशोन पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त बंधता रहता है। क्योंकि तेरह का बंध देशविरत गुणस्थान में और नौ का बंध सर्वविरत गुणस्थान में होता है और उन दोनों गुणस्थानों का काल देशोन' पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण है । सत्रह के बंध का काल उत्कृष्ट से साधिक तेतीस सागरोपम है । क्योंकि अनुत्तर विमानवासी देवों की तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु है और वहाँ सर्वदा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान है, जिससे सदैव सत्रह का बंध होता है । वहाँ से च्यत्रकर मनुष्य में उत्पन्न होने के बाद जब तक उनको देशविरति अथवा सर्वविरति प्राप्त न हो तब तक सत्रह का बंध होता रहता है । इसीलिये कुछ अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण काल सत्रह - प्रकृतिक बंध का कहा है । बाईस - प्रकृतिक बंध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है । जिससे उस बंधस्थान के तीन भंग इस प्रकार हैं १. अभव्य को बाईस का बंध अनादि - अनन्त काल पर्यन्त होता है । क्योंकि अभव्यों के सर्वदा मिथ्यादृष्टिगुणस्थान ही होता है । १ देशोन कहने का कारण यह है कि विरति परिणाम जन्म के बाद आठ वर्ष की उम्र होने के बाद ही होते हैं और वे विरति परिणाम पूर्वकोटि की आयु वाले के ही होते हैं । पूर्वकोटि वर्ष से अधिक आयु वाले असंख्यात वर्ष की आयु वाले कहलाते हैं और उनको विरति परिणाम होते ही नहीं हैं । इसी कारण देशोन पूर्वकोटि वर्ष प्रमाण काल उक्त दो बंधस्थानों का कहा है । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ पंचसंग्रह : १० २. जिन भव्यों ने अभी तक भी सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया है, किन्तु अब प्राप्त करेंगे, उन भव्यों की अपेक्षा बाईस के बंध का अनादि-सांत काल है। ____३. सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में आये हुए जीवों की अपेक्षा सादि-सांत काल है और वह भी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन अपार्ध पुद्गल परावर्तन प्रमाण है ।। ___ पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक इन पाँच बंधस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । क्योंकि ये पाँचों बंधस्थान नौवें गुणस्थान में ही होते हैं और उस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त ही है। इस प्रकार मोहनीयकर्म के बंध स्थानों का उत्कृष्ट बंधकाल जानना चाहिये। अब इनका जघन्य काल बतलाते हैं बाईस, सत्रह, तेरह और नौ प्रकृतिक, इन चार बंधस्थानों का अन्तमुहूर्त बंधकाल है । क्योंकि ये बंधस्थान जिस-जिस गुणस्थान में हैं, वहाँ कम से कम अन्तर्मुहूर्त रहकर ही जीव अन्यत्र जाता है तथा पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक इन पाँच बंधस्थानों का जघन्यकाल तक समय है । वह एक समय इस प्रकार जानना चाहियेउपशमश्रेणि में उक्त पाँच बंधस्थानों को बांधकर दूसरे समय में कोई एक जीव काल करके देवलोक में जाये तो वहाँ अविरति परिणाम होते हैं । वहाँ अविरत (सम्यग्दृष्टिपने) में उसे सत्रह का बंध होता है। इस प्रकार उपशमश्रेणि में एक समय काल संभव है। इसी प्रकार चार-प्रकृतिक आदि बंधस्थानों के लिये भी समझना चाहिये। १ क्योंकि सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में आये जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन अर्ध पुद्गल परावर्तन काल तक मिथ्यात्व में रहते हैं। उसके बाद अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २३ ४६ - इक्कीस-प्रकृतिक बंधस्थान सासादन गुणस्थान में होता है और सासादनगुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका है अतः उतना ही इक्कीस-प्रकृतिक बंधस्थान का भी काल जानना चाहिये। अर्थात् सासादनगुणस्थान के जघन्य और उत्कृष्ट काल के समान इक्कीस-प्रकृतिक का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका प्रमाण काल जानना चाहिये ।। ___ इस प्रकार से मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का समग्र वर्णन करने के बाद अब उदयस्थानों का निरूपण करते हैं। मोहनीयकर्म के उदयस्थान-- इगिद्गचउएगुत्तर आदसगं उदयमाहु मोहस्स । संजलणवेयहासरइभयदुगुछतिकसायदिट्ठी य ॥२३॥ शब्दार्थ-इगिदुगचउ-एक, दो, चार, एगुत्तर-आगे एक-एक अधिक, आदसगं-दस पर्यन्त, उदयमाहु-उदयस्थान कहे हैं, मोहस्स-मोहनीय कर्म के, संजलण-संज्वलन कषाय, वेय--वेद, हासरइभयदुगुछ -हास्य, रति, भय , जुगुप्सा, तिकसायदिट्ठी-तीन कषाय और दृष्टि, य-और। . ___ गाथार्थ-एक, दो, चार और तत्पश्चात् आगे एक-एक अधिक दस पर्यन्त मोहनीय के नौ उदयस्थान कहे हैं । वे संज्वलनकषाय, वेद, हास्य-रति, भय, जुगुप्सा, तीन कषाय और दृष्टि के प्रक्षेप करने पर होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों की संख्या और उनके बनने के कारण को स्पष्ट किया है। मोहनीयकर्म के एक, दो, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ और दस प्रकृतिक ये नौ उदयस्थान हैं। इन उदयस्थानों का प्रतिपादन पश्चानुपूर्वी के अनुसार अनिवृत्तिबादरगुणस्थान से प्रारम्भ करते हैं १ सुगम बोध के लिये मोहनीयकर्म संबन्धी बंधस्थानों का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये। For Private & Personal use only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० संज्वलन कषाय, वेद, हास्य-रति युगल, भय, जुगुप्सा, प्रत्याख्यानावरण आदि तीन कषाय और दृष्टि का प्रक्षेप करने से ये नौ उदयस्थान होते हैं । संज्वलनकषायचतुष्क में से किसी एक के उदय में पहला एक प्रकृतिक उदयस्थान, उसमें वेदत्रिक में से एक वेद का उदय मिलाने पर दो प्रकृति का उदयरूप दूसरा उदयस्थान, हास्यरति युगल के उदय को मिलाने पर चार प्रकृतिक उदय का तीसरा उदयस्थान, भय को मिलाने पर पाँच का चौथा उदयस्थान, जुगुप्सा मिलाने पर छह का पाँचवा, प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क में से किसी एक का उदय होने पर सात का छठा उदयस्थान, अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क में से किसी भी एक का उदय होने पर आठ - प्रकृतिक सातवाँ, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क में से किसी एक का उदय होने पर न प्रकृति का आठवां और उसमें मिथ्यात्व का उदय बढ़ने पर दस प्रकृति का उदयरूप नौवाँ उदयस्थान होता है । ५० ये उदयस्थान प्रकृतियों के फेरफार से अनेक प्रकार के हैं । अतः अब उन प्रकारों को जानने का सूत्र बतलाते हैं । उदयस्थान प्रकारबोधक सूत्र दुगआइ दसंतुदया कसायभेया चउव्विहा ते उ । बारसहा वेयवसा अदुगा पुण जुगलओ दुगुणा ||२४|| शब्दार्थ - दुगआइ — दो से लेकर, दसंतुदया— दस तक के उदय, कसायभेया- कषाय के भेद से, चउव्विहा - चार प्रकार के, ते – वे, उ — और बारसहा -- बारह प्रकार के, वेयवसा-वेद के वश से, अदुगा- दो के सिवाय, पुण-पुनः, जुगलओ -- युगल के कारण, दुगुणा - दुगने । गाथार्थ - दो से लेकर दस तक के उदय कषाय के भेद से चार प्रकार के हैं । वेद के वश से बारह प्रकार के हैं और दो के सिवाय शेष उदय युगल के कारण दुगने होते हैं । विशेषार्थ - गाथा में प्रकृतियों के अंतर से उदयस्थानों के प्रकार हो सकने के कारण को स्पष्ट किया है Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २४ 'दुगआइ दसंतुदया' अर्थात् दो से लेकर दस तक के प्रत्येक उदयस्थान किसी को क्रोध का, किसी को मान का, किसी को माया का और किसी को लोभ का उदय होने से एक समय में अनेक जीवों की अपेक्षा चार प्रकार के होते हैं- 'कसायभेया चउव्विहा'। इन चारों भेद वालों के-क्रोधी, मानी, मायी अथवा लोभी-चाहे किसी भी कषाय के उदय वाले हों-तीन वेदों में से किसी भी वेद का उदय होता है, जैसे कि क्रोध के उदय वाले को पुरुषवेद का उदय हो सकता है, स्त्रीवेद का भी अथवा नपुसकवेद का भी उदय हो सकता है। इसी प्रकार मानी, मायी और लोभी को भी तीन वेदों में से किसी भी वेद का उदय हो सकता है। जिससे तीन वेदों से गुणा करने पर बारह भंग होते हैं—बारसहा वेयवसा । इन बारह प्रकार वालों में से किसी को हास्य-रति का अथवा किसी को शोक-अरति का उदय होता है । जैसे—क्रोधी पुरुषवेद के उदय वाले को हास्य-रति का उदय हो सकता है, वैसे ही उसको शोक-अरति का भी उदय हो सकता है। इसी प्रकार क्रोधी स्त्रीवेद के उदय वाले और क्रोधी नपुसकवेद के उदय वाले के भी दो में से चाहे किसी एक युगल का उदय हो सकता है। इसी तरह मानी, मायी, लोभी पुरुषवेदादि किसी भी वेद के उदय वाले को दोनों में से किसी भी एक युगल का उदय हो सकता है। जिससे चार से लेकर दस तक के सभी उदय युगल की अपेक्षा पूर्व से दुगने होते हैं, यानी चौबीस भंग होते हैं। इसी को चौबीसी कहते है। दो का उदय हो तब युगल का उदय नहीं होने से चार कषाय को २. वेद के साथ गुणित करने पर बारह ही भंग होते हैं तथा चार से दस तक के उदयस्थानों में कषाय, वेद और युगल का उदय होने से चार कषाय का तीन वेद के साथ गुणा करने पर बारह और बारह को युगलद्विक से गुणा करने पर चौबीस भंग होते हैं। अब ये चौबीस भंग एक-एक गुणस्थान में अनेक प्रकार से होने के कारण को स्पष्ट करते हैं Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ पंचसंग्रह : १० अणसम्मभयदुगंछाण णोदओ संभवेवि वा जम्हा । उदया चवीसा aिय एक्केक्कगुणे अओ बहूहा ॥२५॥ शब्दार्थ --- अणसम्मभयदुगंछाण -- अनन्तानुबंधी, सम्यक्त्वमोहनीय, भय, जुगुप्सा का, गोदओ - उदय नहीं होता, संभवेवि - संभव भी है, वा- अथवा, जम्हा - जिससे, उदया - उदय, चउवीसा - चौबीसी, विय- भी और, एक्कगुणे - एक एक गुणस्थान में, अओ-अत, बहहा - अनेक प्रकार से । गाथार्थ - अनन्तानुबंधि, सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा का उदय नहीं होता है और संभव भी है, जिससे उदय और चौबीसयाँ एक-एक गुणस्थान में अनेक प्रकार से होती हैं । विशेषार्थ - अनन्तानुबंधिकषाय, सम्यक्त्वमोहनीय, भय और जुगुप्सा मोहनी का किसी समय उदय होता है और किसी समय नहीं भी होता है । वह इस प्रकार समझना चाहिये क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने के पूर्व अनन्तानुबंधिकषाय की उदवलना करके पारिणामिक हीनता आने पर मिथ्यात्व को प्राप्त हुए मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्व रूप हेतु से बंधे उस अनन्तानुबंधिकषाय का एक आवलिका पर्यन्त उदय नहीं होता है, शेषकाल में उदय होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में वर्तमान औपशमिक अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वमोहनीय का उदय नहीं होता है । शेष के - क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के होता है । भय और जुगुप्सा अध्र,वोदया प्रकृति होने से मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण पर्यन्त सभी गुणस्थानों में किसी समय उनका उदय होता है और किसी समय नहीं होता है । इसी कारण एक-एक गुणस्थान में उदय और उस उदय से संभव भंग - चौबीसियों के अनेक प्रकार हो जाते हैं । यह अनेक प्रकार से होने वाले उदयस्थान और भंग - चौबीसियाँ गुणस्थानों में इस प्रकार जानना चाहिये Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ मिच्छे सगाइ चउरो सासणमीसे सगाइ तिण्णुदया। छप्पंचचउरपुवा चउरो तिअ अविरयाईणं ॥२६॥ शब्दार्थ-मिच्छे-मिथ्यात्व गुणस्थान में, सगाइ-सात से लेकर, चउरो- चार, सासण मीसे-सासादन और मिश्र गुणस्थान में, सगाइ-सात आदि, तिण्णुदया-तीन उदयस्थान, छप्पंचच उर-छह, पांच और चार, अपुवा-अपूर्वकरणगुणस्थान में, चउरो-चार, तिस-तीन, अविरयाईणंअविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में। गाथार्थ-मिथ्यात्व गुणस्थान में सात से लेकर दस तक चार, सासादन और मिश्र गुणस्थान में सात से नौ तक तीन, अविरत से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक छह, पांच और चार आदि चार और अपूर्वकरण गुणस्थान में चार आदि तीन उदयस्थान होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में अपूर्वकरणगुणस्थान पर्यन्त आठ गुणस्थानों में उदयस्थानों का निर्देश किया है मिथ्यात्व गुणस्थान-'मिच्छे सगाई चउरो' अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के सात से दस प्रकृतिक तक के चार उदयस्थान होते हैं। उनमें से सात-प्रकृतिक उदयस्थान में संकलित प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि में से तीन क्रोधादि, आदि शब्द से तीन मान अथवा तीन माया या तीन लोभ समझना चाहिये । क्रोध, मान, माया और लोभ परस्पर विरोधी होने से एक साथ उदय में नहीं होते हैं । परन्तु क्रोध का उदय हो तो जिस क्रोध का उदय हो, उससे नीचे के सभी क्रोध का समान जातीय होने से उदय होता है। जैसे कि अनन्तानुबंधि क्रोध का उदय हो तो उससे नीचे के अप्रत्याख्यानावरणादि तीनों क्रोध का उदय होता है। इसी प्रकार अनन्तानुबंधि क्रोध का उदय न हो और अप्रत्याख्यानावरण क्रोध का उदय हो तो उससे नीचे के प्रत्याख्याना Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० वरण, संज्वलन दोनों प्रकार के क्रोधों का उदय होता है। इसी प्रकार अन्यत्र एवं मान, माया और लोभ के लिये भी समझना चाहिये । तीन वेद में से एक वेद, हास्य-रति युगल या शोक-अरति युगल में से एक युगल इन सात प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि जीव को अवश्य उदय होता है। इस सात-प्रकृतिक उदयस्थान में प्रकृतियों के फेरफार से चौबीस भंग होते हैं । जो इस प्रकार से जानना चाहिये किसी जीव को हास्य-रति का या किसी जीव को शोक-अरति का उदय होने से प्रत्येक युगल का एक-एक भंग होता है, जिससे दो युगल के दो भंग हुए। इन दोनों युगल के उदय वाले जीव तीन वेदों में से भी किसी एक वेद के उदय वाले होने से उन दो को तीन वेद से गुणा करने पर छह भंग हुए। ये छह भंग वाले जीव क्रोधादि चार में से किसी भी कषाय के उदय वाले होते हैं। अतएव छह को चार से गुणा करने पर चौबीस भंग होते हैं। इस प्रकार युगल, वेद और क्रोधादि-क्रोध, मान, माया, लोभ कषाय को बदलने से चौबीस भंग होते हैं। उक्त सात के उदयस्थान में भय, जुगुप्सा या अनन्तानुबंधि के उदय में से किसी एक के मिलाने पर आठ-प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उस प्रत्येक उदय की एक-एक चौबीसी होती है । अर्थात् प्रत्येक उदय में सात के उदय की तरह युगल, वेद और क्रोधादि चार की अदला-बदली करने से चौबीस-चौबीस भंग होते हैं। इस प्रकार आठ-प्रकृतिक उदयस्थान में तीन चौबीसी होती हैं। ___ कदाचित यह कहा जाये कि मिथ्यादृष्टि को तो अनन्तानुबंधि का उदय अवश्य संभव है तो फिर सात का उदय और भय या जुगुप्सा सहित आठ का उदय अनन्तानुबंधि रहित कैसे होता है ? इसका उत्तर यह है कि किसी क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव ने अनन्तानुबंधि आदि दर्शनमोहनीयसप्तक का क्षय करने के पूर्व मात्र अनन्तानुबंधिकषाय की विसंयोजना की और इतना करके ही वह रुक गया, मिथ्यात्व ___ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ ५.५ आदि दर्शनमोहनीयत्रिक के क्षय के लिये तथाप्रकार के विशुद्ध अध्यवसायरूप सामग्री के अभाव से प्रयत्न नहीं कर सका । तत्पश्चात कालान्तर में गिरते परिणामों से मिथ्यात्व में गया और वहाँ मिथ्यात्वरूप हेतु से अनन्तानुबंधिकषाय के बंध की शुरुआत की किन्तु उसकी बंधावलिका जब तक पूर्ण न हुई हो, तब तक उसका उदय नहीं हो सकता है, किन्तु बंधावलिका पूर्ण होने के बाद उदय होता है । इस स्थिति में अनन्तानुबंधि रहित उदयस्थान संभव है । प्रश्न- अनन्तानुबंधिकषाय की मात्र एक बंधावलिका जानेबीतने के बाद ही उसका उदय कैसे हो सकता है ? क्योंकि प्रत्येक प्रकृति का अमुक अबाधाकाल होता है और जब वह पूरा हो तब उदय होता है । अनन्तानुबंधिकषाय का जघन्य अबाधाकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट चार हजार वर्ष प्रमाण है । अतः कम-से-कम भी अन्तर्मुहूर्त जाने के बाद ही अनन्तानुबंधिकषाय का उदय होना चाहिये, मात्र आवलिका बीतने के बाद ही उसका उदय कैसे हो सकता है ? उत्तर- उपर्युक्त दूषण यहाँ संभव नहीं है । क्योंकि बंध समय से लेकर उसकी सत्ता होती है, जब सत्ता हुई तब बंधकाल पर्यन्त वह पतद्ग्रह प्रकृति के रूप में होती है और जब पतद्ग्रह रूप में होती है तब उसमें समान जातीय शेष प्रकृतियों के दलिकों का संक्रम होता है और संक्रमित वह दलिक पतद्ग्रह प्रकृति रूप में परिणमित होता है । संक्रमित दलिक का संक्रमावलिका जाने के बाद उदय होता है । जिससे बंधावलिका बीतने के बाद उदय होना विरुद्ध नहीं है । पूर्वोक्त कथन का सारांश यह है कि जिस समय अनन्तानुबंधि का बंध हुआ, उस समय से लेकर वह पतद्ग्रह हो जाती है । जिससे उसमें जिसका अबाधाकाल बीत गया है, ऐसी अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के दलिक संक्रमित होते हैं-- अनन्तानुबंधि रूप होते हैं और अनन्तानुबंधि रूप हुए वे अप्रत्याख्यानावरणादि के दलिक संक्रम समय से एक Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० आवलिका जाने के बाद उदय में आते हैं । जिस समय अनन्तानुबंधि का बंध हो, उसी समय से अप्रत्याख्यानावरणादि के दलिक संक्रमित होते हैं । यानि बंध समय से एक आवलिका जाने के बाद अथवा संक्रम समय से एक आवलिका जाने के बाद बंधावलिका और संक्रमावलिका के एक ही हो जाने से मिथ्यात्व गुणस्थान की एक आवलिका बीतने पर संक्रात दलिकों का - अनन्तानुबंधि रूप हुए दलिकों का उदय होता है और वद्ध अनन्तानुबंधि का भी बंध समय से एक आवलिका जाने के बाद उदीरणाकरण के द्वारा उदय हो सकता है । इसीलिये कहा है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में मात्र एक आवलिका काल ही अनन्तानुबंधि का उदय नहीं होता है । वह भी जिसने सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान में अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करके गिरकर मिथ्यात्व में आया हो उसी के संभव है । जिस जीव ने अनन्तानुबंधि की विसंयोजना की हो उसे तो उसके सत्ता में होने से जिस समय गिरकर मिथ्यात्व में आता है, उसी समय से ही उदय में आती है । अब नौ प्रकृतिक उदयस्थान का निर्देश करते हैं- पूर्वोक्त सातप्रकृतिक उदयस्थान में भय जुगुप्सा अथवा भय अनन्तानुबंधि अथवा जुगुप्सा - अनन्तानुबंध का उदय बढ़ाने पर नौ- प्रकृतिक उदयस्थान होता है । उसके प्रत्येक विकल्प में पूर्वोक्त क्रमानुसार एक-एक चौबीस चौबीस भंग होते हैं। जिससे तीन चौबीसी होती हैं । दस - प्रकृतिक उदयस्थान के लिये पूर्वोक्त सात के उदय में भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबंधि के उदय का युगपत् प्रक्षेप करने से दस प्रकृति का उदयस्थान होता है । यहाँ भंगों की एक ही चौबीसी होती है । इस प्रकार मिथ्यादृष्टिगुणस्थान के चारों उदयस्थानों की कुल मिलाकर आठ चौवीसी (१६२= एक सौ बानवे भंग) होती हैं । यह भंग - विकल्प भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा घटित होते हैं । क्योंकि एक को सात का उदय किसी एक प्रकार से और दूसरे को दूसरे Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ प्रकार से होता है जिससे उसके चौबीस प्रकार होते हैं । इसी प्रकार किसी को आठ का उदय, किसी को नौ का उदय और किसी को दस का उदय होता है । वे आठ, नौ और दस के उदय भी संख्या वही होने पर भी अनेक प्रकार से होते हैं । जिससे उनके चौबीस - चौबीस विकल्प होते हैं । अन्य प्रकृतियों में विकल्प न होने से वेद, कषाय और युगल के साथ फेर-बदल करने से चौबीस ही विकल्प होते हैं, अधिक नहीं । प्रकृतियों के फेरफार से ही भिन्न-भिन्न विकल्प होते हैं । वे सभी विकल्प एक समय अनेक जीवों की अपेक्षा और कालभेद से एक जीव की अपेक्षा संभव हैं । उक्त सात से दस पर्यन्त के चार उदयस्थानों में भंगों की चौबीसी इस प्रकार हैं- सात- प्रकृतिक उदयस्थान की एक, आठ प्रकृतिक उदयस्थान की तीन, नौ- प्रकृतिक उदयस्थान की तीन और दस - प्रकृतिक उदयस्थान की एक । इस प्रकार एक, तीन, तीन और एक को मिलाने से मिथ्यात्वगुणस्थान में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों की आठ चौबीसी होती हैं । सासादन गुणस्थान- - इस गुणस्थान में सात- प्रकृतिक, आठप्रकृतिक, और नौ- प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं । उनमें से सात प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार जानना चाहिये अनन्तानुबंधि, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि में से क्रोधादि चार, तीन वेद में से एक वेद और युगलद्विक में से एक युगल, इन सात प्रकृतियों का सासादनगुणस्थान में अवश्य उदय होता है । यहाँ पूर्वोक्त क्रमानुसार भंगों की एक चौबीसी होती है तथा इन सात में भय या जुगुप्सा का उदय मिलाने पर दो प्रकार से आठ का उदयस्थान होता है । उसकी दो चौबीसी होती हैं । भय, जुगुप्सा दोनों को एक साथ मिलाने पर नौ का उदयस्थान होता है । यहाँ एक चौबीसी होती है और कुल मिलाकर सासादनगुणस्थान में चार चौबीसी अर्थात् ६६ (छियानवे) भंग जानमा चाहिये । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० मिश्रगुणस्थान-यहाँ भी सात, आठ और नौ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं। उनमें से सात-प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार है-इसमें और यहाँ से आगे किसी भी गुणस्थान में अनन्तानुबंधिकषाय का उदय नहीं होता है। अतः उसको छोड़कर शेष तीन कषाय, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से एक युगल और मिश्रमोहनीय, इन सात प्रकृतियों का प्रत्येक मिश्रगुणस्थानवी जीव को अवश्य उदय होता है। इस उदयस्थान में पूर्वोक्त क्रमानुसार एक चौबीसी होती है। इसी सात में भय अथवा जुगुत्सा के उदय को बढ़ाने पर आठ-प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार से होता है । जिससे भंगों की दो चौबीसी होती हैं । भय और जुगुप्सा को युगपत् मिलाने से नौ का उदयस्थान होता है और भंगों की एक चौबीसी होती है। कुल मिलाकर मिश्रगुणस्थान में चार चौबीसी (छियानवे भंग) होती हैं। ___ अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान--यहाँ छह, सात, आठ और नौ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं । क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के भेद से तीन प्रकार के सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं । उनमें से औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उदय में प्रकृतियाँ समान होती हैं और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के उदय में सम्यक्त्वमोहनीय प्रकृति अधिक होती है। यहाँ भंगों की कुल आठ चौबीसियाँ होती हैं। उनमें सम्यक्त्वमोहनीय वाली चार चौबीसी क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि की और उसके रहित की चार चौबीसी औपशमिक तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि की जानना चाहिये । __ औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्वी अविरतसम्यग्दृष्टि के छह प्रकृतियों का उदय इस प्रकार होता है-अप्रत्याख्यानावरणादि तीन क्रोध, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से एक युगल । इन छह प्रकृतियों का चौथे गुणस्थान में अवश्य उदय होता है । यहाँ भंगों की एक चौबीसी होती है । इन छह प्रकृतियों में भय, जुगुप्सा या सम्यक्त्वमोहनीय में से किसी एक को मिलाने पर सात-प्रकृतिक उदयस्थान होता है । सात का उदयस्थान तीन प्रकार से होने के कारण Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६ ५६ भंगों की तीन चौबीसियाँ होती हैं । पूर्वोक्त छह में भय, जुगुप्सा अथवा भय, वेदक सम्यक्त्व अथवा जुगुप्सा, वेदक सम्यक्त्व को मिलाने पर आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक-एक विकल्प में भंगों की एक-एक चौबीसी होने से तीन चौबीसी होती हैं और भय, जुगुप्सा, वेदक सम्यक्त्व को एक साथ मिलाने से नौ का उदयस्थान होता है | यहाँ भंगों की एक चौबीसी होती है । अविरत - सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में कुल मिलाकर आठ चौबीसी (१६२ भंग ) होती हैं । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि छह के उदय में सम्यक्त्वमोहनीय का उदय मिलाने से सात का उदयस्थान होता है, ऐसा नहीं है । क्योंकि छह का उदय औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि के होता है । उनके सम्यक्त्वमोहनीय का उदय नहीं होता है । तात्पर्य यह हुआ कि औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के छह, सात, आठ प्रकृतिक, यह तीन उदयस्थान और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के सात, आठ, नौ प्रकृतिक यह तीन उदयस्थान होते हैं । क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि को सम्यक्त्वमोहनीय का उदय ध्रुव है। जिससे उसको प्रारम्भ से ही सात का उदयस्थान होता है । देशविरत गुणस्थान- यहाँ पाँच, छह, सात और आठ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं । इनमें से औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशविरत के पाँच, छह और सात प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी देशविरत को छह, सात और आठ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं । औपशमिक या क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशविरत को पाँच प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार हैं- प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन क्रोधादि में से दो क्रोध, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से एक युगल । इन पाँच प्रकृतियों का देशविरतगुणस्थान में अवश्य उदय होता है । यहाँ भंगों की एक चौबीसी होती है । भय, जुगुप्सा अथवा सम्यक्त्व Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० मोहनीय में से किसी एक को मिलाने पर छह के उदय के तीन विकल्प होते हैं । प्रत्येक विकल्प में भंगों की एक-एक चौबीसी होने से तीन चौबीसी होती हैं। पूर्वोक्त पाँच के उदय में भय-जुगुप्सा अथवा भयसम्यक्त्वमोहनीय अथवा जुगुप्सा-सम्यक्त्वमोहनीय को मिलाने से सात का उदयस्थान होता है। यहाँ भी भंगों की तीन चौबीसी होती हैं । भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय इन तीनों को एक साथ मिलाने पर आठ का उदयस्थान होता है। यहाँ भंगों की एक ही चौबीसी होती हैं । कुल मिलाकर देशविरत गुणस्थान में भंगों की आठ चौबीसी (एक सौ वानवै १६२ भंग) होती है। प्रमत्तसंयतगुणस्थान-यहाँ चार, पाँच, छह और सात प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं। इनमें से औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दष्टि के चार, पाँच और छह प्रकृतिक ये तीन तथा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वमोहनीय का उदय अवश्य होने से पाँच, छह और सात प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं। इनमें प्रमत्तसंयत औपशमिक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षायिक सम्यग्दष्टि के संज्वलन क्रोधादि में से कोई भी क्रोधादि एक, तीन वेद में से एक वेद, युगलद्विक में से एक युगल इन चार प्रकृतियों का अवश्य उदय होता है। यहां भंगों की एक चौबीसी होती है। इन चार में भय अथवा जुगुप्सा अथवा सम्यक्त्वमोहनीय को मिलाने से पांच का उदयस्थान होता है । यहाँ प्रत्येक विकल्प में एक-एक चौबीसी होने से भंगों की तीन चौबीसी होती हैं तथा पूर्वोक्त चार में भय-जुगुप्सा अथवा भय-सम्यक्त्वमोहनीय अथवा जुगुप्सा-सम्यक्त्वमोहनीय को मिलाने पर छह का उदयस्थान होता है। यहां भी तीन विकल्प की तीन चौबीसी होती हैं तथा भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय को एक साथ मिलाने पर सात का उदयस्थान होता है और भंगों की एक चौबीसी होती है। कुल मिलाकर आठ चौबीसी (एक सौ बानवें भंग) होती हैं। __ अप्रमत्तसंयतगुणस्थान-यहाँ भी पूर्वोक्त प्रमत्तसंयतगुणस्थान की तरह चार आदि उदयस्थान और आठ चौबीसी जानना चाहिये । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २७ अपूर्वकरणगुणस्थान-यहाँ चार, पांच और छह प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं । इस गुणस्थान में मात्र औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं । क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। जिससे सम्यक्त्वमोहनीय का उदय किसी भी जीव को नहीं होता है । अतएव अपूर्वकरण गुणस्थान युक्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि या औपशमिक सम्यग्दृष्टि के संज्वलन क्रोधादि में से कोई एक क्रोधादि, तीन वेद में से एक वेद और युगलद्विक में से एक युगल, इस प्रकार चार-प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भंगों की एक चौबीसी होती है । इन चार प्रकृतियों में भय या जुगुप्सा के मिलाने पर पांच का. उदयस्थान होता है। यहां भंगों की दो चौबीसी होती हैं तथा भय और जुगुप्सा को युगपत् मिलाने से छह-प्रकृतिक उदयस्थान होता. है । यहां भी भंगों की एक चौबीसी होती है। कुल मिलाकर अपूर्वकरणगुणस्थान में चार चौबीसी (छियानवें भंग) होती हैं । यहाँ प्रमत्त गुणस्थान के उदय की अपेक्षा अप्रमत्त और अपूर्वकरण के उदय मात्र गुणस्थान के भेद से भिन्न हैं । परमार्थतः भिन्न नहीं हैं। क्योंकि सभी उदय और विकल्प एक समान हैं। इसलिये प्रमत्त के उदय के ग्रहण से ही अप्रमत्त और अपूर्वकरण के उदय भी ग्रहण किये हुए ही समझना चाहिये। इस कारण अप्रमत्त और अपूर्वकरण में मात्र गुणस्थान के भेद से होने वाली चौबीसियां प्रमत्त की चौबीसियों से पृथक् नहीं गिनी जायेंगी। ___ अब दस आदि उदयस्थानों में जितनी चौबीसियां होती हैं उनकी संख्या का निर्देश करते हैं। दस आदि स्थानों की चौबीसियां दसगाइसु चउवीसा एक्क छिक्कारदससग चउक्कं । एक्का य नवसयाइं सट्ठाइं एवमुदयाणं ॥२७॥ शब्दार्थ-दसगाइसु-दस-प्रकृतिक आदि उदयस्थानों में, चउवीसाचौबीसी, एक्क-एक, छिक्कारदससग--छह, ग्यारह, दस, सात, चउक्कं ___ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पंचसंग्रह : १० चार, एक्का — एक, य-और, नवसयाई- - नौ सौ सट्ठाई - साठ, एवमुदयाणं - इस प्रकार उदय के (विकल्प) । गाथार्थ — दस - प्रकृतिक आदि उदयस्थानों में अनुक्रम से एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक चौबीसियाँ होती हैं और जिनके कुल मिलाकर नौ सौ साठ भंग होते हैं । , विशेषार्थ - दस के उदय से लेकर चार के उदय पर्यन्त प्रत्येक उदयस्थान में भंगों की चौबीसियाँ अनुक्रम से एक, छह, ग्यारह, दस, सात, चार और एक होती हैं। इनमें से दस के उदय में एक चौबीसी मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में होती है। नौ के उदय में छह चौबीसी होती हैं । उनमें तीन चौबीसी मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में तथा सासादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में एक - एक होती हैं । आठ के उदय में ग्यारह चौबीसी होती हैं । इनमें से तीन मिथ्यात्वगुणस्थान में, दो सासादन गुणस्थान में दो मिश्र में तीन अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में और एक देशविरतगुणस्थान में होती है । सात के उदय में दस चौबीसी होती हैं । जिनमें से मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और प्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में एक-एक, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान में तीन-तीन चौबीसी होती हैं। छह के उदय में सात चौबीसी होती हैं । उनमें से अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में एक, देशविरत और प्रमत्त गुणस्थान में तीन-तीन होती हैं । पाँच के उदय में चार चौबीसी होती हैं । उनमें से देशविरत में एक और प्रमत्तसंयतगुणस्थान में तीन होती हैं । चार के उदय में एक चौबीसी होती है और वह प्रमत्तसंयतगुणस्थान में होती है । इस प्रकार सब मिलाकर भंगों की चालीस चौबीसियाँ होती हैं । जिनको चालीस से गुणा करने पर कुल उदयविकल्प भंग नौ सौ साठ होते हैं । अब पाँच आदि बंधस्थानों के उदयविकल्पों का कथन करते हैं । बारस चउरो ति दु एक्कगाउ पंचाइबंधगे उदया । अब्बंधगे वि एक्को तेसीया नवसया एवं ॥ २८ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २८ शब्दार्थ-बारस-बारह, चउरो ति दु एक्क गाउ-चार, तीन, दो, और एक, पंचाइबंधगे-पाँच आदि के बंधस्थान में, उदया-उदय, अब्बंधगेअबंधक को, वि-भी, एकको-एक, तेसीया-तेरासी, नवसया-नौ सौ, एवं--इस प्रकार। गाथार्थ-पाँच आदि के बंधस्थानों में अनुक्रम से बारह, चार, तीन, दो और एक उदयभंग होते हैं । अबंधक के भी एक भंग होता है । कुल नौ सौ तेरासी भंग होते हैं । विशेषार्थ-पाँच आदि बंधस्थानों में अनुक्रम से बारह, चार, तीन, दो और एक, इस प्रकार उदयविकल्प होते हैं । जो इस प्रकार हैं-- नौवें गुणस्थान में पाँच के बंधकाल में संज्वलन क्रोधादि चार में से कोई एक क्रोधादि और तीन वेद में से कोई एक वेद इस प्रकार दो प्रकृतियों का उदय होता है । अतः चार को तीन से गुणा करने पर बारह भंग होते हैं। चार का जब बंध होता है तब उदय एक प्रकृति का होता है। पुरुषवेद का जब बंधविच्छेद होता है तब चार का बंध होता है तथा पुरुषवेद का बंध एवं उदय दोनों एक साथ होते हैं इसलिये चार के बंधकाल में एक का उदय होता है और वह भी संज्वलनकषायचतुष्क में से किसी एक का । वेद या युगल किसी का उदय नहीं होने से चार ही भंग होते हैं। यहाँ चार भंग होने का कारण यह है कि कोई संज्वलन क्रोध के उदय में श्रेणि प्रारम्भ करता है, कोई मान के उदय में, कोई माया के उदय में अथवा कोई संज्वलन लोभ के उदय में श्रेणि आरम्भ करता है। जिससे चार ही भंग होते हैं । . संज्वलन क्रोध का बंधविच्छेद होने पर तीन का बंध होता है। यहाँ भी उदय एक का ही होता है। क्योंकि क्रोध का बंध और उदय साथ होता है । तीन के उदय के तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार संज्वलन मान का बंधविच्छेद होने पर दो का बंध Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ पंचसंग्रह : १० होता है और उदय माया या लोभ दोनों में से एक का ही होता है । यहाँ दो के उदय के दो भंग होते हैं । संज्वलन माया का बंधविच्छेद हो तब एक संज्वलन लोभ का ही बंध होता है और उदय में भी एक संज्वलन लोभ ही होता है । मान और माया का भी बंध और उदय साथ ही विच्छिन्न होता है । यहाँ एक-एक के उदय का एक ही भंग होता है । यहाँ पाँच आदि बंधस्थानों में यद्यपि संज्वलन के उदयापेक्षा कोई विशेष नहीं है । क्योंकि उदय में वही प्रकृति होती है, तो भी बंधस्थान की अपेक्षा भेद होने से विकल्प पृथक् गिने हैं । प्रमत्त, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में तो बंधस्थान की अपेक्षा भी कोई भेद नहीं है, क्योंकि सभी नौ का बंध करते हैं । उदय में भी कोई भेद नहीं है, जिनसे उनके भंग अलग नहीं गिने हैं तथा मोहनीय की एक भी प्रकृति नहीं बाँधने वाले सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान में एक संज्वलन लोभ का उदय होता है, जिससे उसका एक भंग होता है । इस प्रकार सब मिलाकर पांच आदि के बंधक और अबंधक के उदय के विकल्प तेईस होते हैं । जिन्हें पूर्वोक्त नौ सौ साठ में मिलाने पर नौ सौ तेरासी विकल्प होते हैं । इस विषय में मतान्तर भी है । जिसका यहाँ उल्लेख करते हैंचउबंधगेवि बारस दुगोदया जाण तेहिं छूढेहिं । बंध एवं पंचणसहस्समुदयाणं ॥ २६ ॥ बारस दुगोदएहिं भंगा चउरो य संपराएहि । सेसा तेच्चिय भंगा नवसय छावत्तरा एवं ||३०|| शब्दार्थ - चउबंधगेवि-चार के बंध में भी, बारस - बारह, दुगोदया -दो के उदय के, जाण - जानो, तेहि— उनको, छूढेहि-- मिलाने से, बंधगभेएवं – बंधक के भेद से ही, पंचूणसहस्समुद्रयाणं - उदय के पाँच कम हजार ! Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २६-३० बारस-बारह, दुगोदएहि-दो के उदय में, भंगा-भंग, चउरो--चार, य-और, संपराएहि-कषायों के, सेसा-शेष, तेच्चिय-वे ही, भंगा-भंग, नवसय छावत्तरा–नौ सौ छियत्तर, एवं-इसी प्रकार । गाथार्थ-चार के बंध में भी दो के उदय के बारह भंग जानो। बंधक के भेद के होने वाले उन भंगों को मिलाने से पाँच कम एक हजार उदयविकल्प होते हैं। दो के उदय में बारह भंग और चार कषायों के चार भंग होते हैं । शेष तो जो पूर्व में कहे वे ही भंग होने से नौ सौ छियत्तर भंग होते हैं। विशेषार्थ-कितने ही आचार्य चार का बंध जितने काल होता है, उसके आद्यकाल में वेद का उदय मानते हैं । अतः उनके मत से चार के बंध में भी संज्वलन चार कषाय को तीन वेद के साथ गुणा करने पर दो के उदय के बारह भंग होते हैं । अर्थात् पाँच के बंध और दो के उदय में जो बारह भंग बताये हैं वही बारह भंग चार के बंध और दो के उदय में भी होते हैं। उदयगत प्रकृतियों में कुछ भी अंतर नहीं होने पर भी बंध के भेद से भिन्न हैं। पहले के बारह भंग पाँच के बंध सम्बन्धी हैं और यहाँ कहे बारह भंग चार के बंध सम्बन्धी हैं । इसलिये बंध के भेद से होने वाले उन बारह विकल्पों को पूर्व के उदयगत विकल्पों में मिलाने पर पाँच कम एक हजार यानि नौ सौ पंचानवै विकल्प होते हैं। यदि बंधस्थान के भेद से अन्तर की विवक्षा न करें तो पाँच के बंध एवं चार के बंध तथा दो के उदय में होने वाले भंग एक ही स्वरूप वाले हैं । इसलिये सब मिलाकर दो के उदय के भंग बारह ही होते हैं तथा बंधस्थान के भेद से एक के उदय के भंग भी एक स्वरूप वाले होने से चार ही होते हैं। जिससे सोलह भंग पूर्वोक्त उदय के नौ सौ साठ विकल्पों में मिलाने पर नौ सौ छियत्तर उदयविकल्प होते हैं। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० सारांश यह है कि बंधस्थान के भेद से भेद की विवक्षा न करने पर दो के उदय के बारह विकल्पों और संज्वलन चार कषाय के उदय के चार विकल्पों को पूर्वोक्त नौ सौ साठ विकल्पों में मिलाने पर सब नौ सौ छियत्तर उदयविकल्प होते हैं । अब मोहनीयकर्म के पूर्वोक्त उदयविकल्पों का गुणस्थानों में विचार करते हैं। गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के उदय (उदोरणा) विकल्प मिच्छाइ अप्पमत्तंतयाण अठ्ठठ्ठ होंति उदयाणं । चउवीसाओ सासाण-मीसअपुव्वाण चउ चउरो ॥३१॥ चउवीसगुणा एए बायरसुहमाण सत्तरस अण्णे । सत्वेसुवि मोहुदया पण्णसट्ठा बारससयाओ ॥३२॥ उदयविगप्पा जे जे उदीरणाएवि होति ते ते उ। अंतमुहुत्तिय उदया समयादारब्भ भंगा य ॥३३॥ शब्दार्थ--मिच्छाइ-मिथ्यादृष्टि से लेकर, अप्पमत्तं तयाण-अप्रमत्तसंयत पर्यन्त, अट्ठट्ठ--आठ-आठ, होंति होती हैं, उदयाणं-उदय की, चउवीसाओ-चौबीसी, सासाण-सासादन, मीस-मिश्र, अपुव्वाण-अपूर्वकरण की, चउ चउरो-चार-चार । चउवीसगुणा-चौबीस से गुणा, एए--इनको, बायरसुहुमाण-बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय, सत्तरस-सत्रह, अण्णे-अन्य, सम्वेसुवि-सभी, मोहुदया-मोहनीय के उदयविकल्प, पणसछा-सठ, बारससयाओ-बारह सौ। उदयविगप्पा-उदयविकल्प, जे-जे-जो जो, उदीरणाएवि-उदीरणा में भी, होति-होते हैं, ते ते उ-वे सभी, अंतमुहुत्तिय---अन्तर्मुहूर्त वाले, उदया-उदय, समयादारभ-समय से लेकर, भंगा-भंग, य-और। गाथार्थ-मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक उदय की आठ-आठ चौबीसी और सासादन, मिश्र व अपूर्वकरण की चार-चार चौबीसी होती हैं। इनको चौबीस से Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३१, ३२, २३ ६७ गुणा करके बादरसंपराय एवं सूक्ष्मसंपराय के सत्रह भंगों को मिलाने से सभी गुणस्थानों में मोहनीय के कुल उदयभंग बारह सौ पैंसठ होते हैं । उदय के जो-जो विकल्प होते हैं, वे सभी उदीरणा में भी होते हैं । ये सभी उदयविकल्प एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल वाले हैं । विशेषार्थ - सासादन एवं मिश्र गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त अर्थात् मिथ्यादृष्टि, अविरत - सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन पांच गुणस्थानों में उदयविकल्पों की आठ-आठ नौबीसी होती हैं और सासादन, मिश्र एवं अपूर्वकरण इन तीन गुणस्थानों में से प्रत्येक में चार-चार चौबीसी होती हैं । इस प्रकार गुणस्थान के भेद से भेद करने पर कुल बावन चौबीसी होती हैं । इन बावन को चौबीस से गुणा करने पर (५२ × २४ = १२४८) बारह सौ अड़तालीस भंग होते हैं तथा इनमें नौवें, दसवें गुणस्थान के सत्रह भंगों को मिलाने पर सभी गुणस्थानों के मोहनीयकर्म के सभी उदयविकल्प ( १२४८+१७= १२६५) बारह सौ पैंसठ होते हैं । तथा स्वरूपतः - सामान्य से, बंधस्थान के भेद से अथवा गुणस्थान के भेद से उदय के जो-जो विकल्प पूर्व में कहे गये हैं वे सभी उदीरणा में भी समझना चाहिये । क्योंकि उदय और उदीरणा सहभावी हैं । यद्यपि - १ इन समस्त चौबोसियों का गाथा २६ के प्रसंग में विस्तृत विवेचन किया जा चुका है। इतना विशेष है कि वहां बंधस्थान के भेद से और यहां गुणस्थानापेक्षा चौबीसियों का भेद किया है । २ गाथा ३० के अनुसार पांच आदि के बंध में अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के दो के उदय में बारह और एक के उदय में चार कुल सोलह तथा बंध के अभाव में सूक्ष्मसंपराय का एक के उदय में एक इस प्रकार सत्रह भंग हैं । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पंचसंग्रह : १० तीन वेद और संज्वलनकषाय की पर्यन्तावलिका में उदीरणा नहीं होती है, केवल उदय ही होता है, तो भी उस पर्यन्तावलिका को छोड़कर शेष समय में उदय के साथ उदीरणा होती ही है, जिससे भंगों की संख्या में कोई अन्तर नहीं पड़ता है । अब इन उदयस्थानों और भंगों का काल प्रमाण बतलाते हैं एक के उदय से लेकर दस के उदय तक के सभी उदय उदयस्थान और उनके सभी भंग एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त कालमान वाले हैं । अर्थात् उन सभी उदयस्थानों और उनके सभी भंगों का जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल है । वे उदयस्थान या उन-उन उदयस्थानों के प्रत्येक भंग जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । तत्पश्चात् वह उदयस्थान या भंग बदल जाता है । क्योंकि चार से लेकर दस तक के प्रत्येक उदयस्थान में कोई भी एक वेद और कोई भी एक युगल अवश्य होता है । उस वेद या युगल में से किसी भी वेद या युगल का अन्तमुहूर्त के बाद अवश्य परावर्तन होता है । कोई भी एक ही वेद या एक ही युगल अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल उदय में नहीं रहता है । इसीलिये प्रत्येक उदयस्थान या उसके भंगों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । दो के और एक के उदय का अन्तर्मुहूर्त काल तो प्रसिद्ध है । क्योंकि दो का या एक का उदय नौवें गुणस्थान में और एक का उदय दसवें गुणस्थान में होता है और उन गुणस्थानों का काल ही अन्तर्मुहूर्त है तथा जघन्य से प्रत्येक उदयस्थान या भंग का काल एक समय है । प्रश्न - एक समय का काल किस प्रकार घटित होता है ? उत्तर - किसी भी विवक्षित एक उदयस्थान में या किसी भी एक भंग में एक समय रहकर दूसरे समय में अन्य गुणस्थान में जाये तब बंधस्थान के भेद से, गुणस्थान के भेद से या स्वरूपतः अन्य उदयस्थान में या अन्य भंग में जाता है । इसलिये सभी उदयस्थानों और भंगों का काल जघन्य से एक समय कहा है । उक्त कथन से यह फलितार्थ निकलता है कि एक से दूसरे गुण Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३४ ६६ स्थान में जाने पर तो प्रत्येक उदयस्थान या प्रत्येक भंग का जघन्य - काल एक समय है और यदि एक गुणस्थान में लंबे काल तक रहे तो प्रत्येक उदयस्थान या भंग का अन्तर्मुहूर्त काल होना चाहिये । अब किस गुणस्थान में किस मोह प्रकृति का उदयविच्छेद होता है यह स्पष्ट करते हैं ---- मोहप्रकृतियों के उदयविच्छेदक गुणस्थान मिच्छत्तं अणमीसं चउरो चउरो कसाय वा संमं । ठाइ अपुव्वे छक्कं वेयकसाया तओ लोभं ||३४|| --- शब्दार्थ - मिच्छतं - मिथ्यात्व, अणमीसं - अनन्तानुबंधि, मिश्र मोहनीय, चउरो - चउरो — चार-चार, कसाय - कषाय, वा- ओर, संमं - सम्यक्त्वमोहनीय, ठाइ―― रहते हैं, होते हैं, अपूव्वे - अपूर्वकरण गुणस्थान, छक्कं—- हास्यादि षट्क, वेयकसाया --- वेद और कषाय, तओ - तत्पश्चात्, लोभं संज्वलन लोभ । गाथार्थ - मिथ्यात्व अनन्तानुबंधि, मिश्रमोहनीय और चारचार कषाय अनुक्रम से पहले से पांचवें गुणस्थान तक होते हैं । चौथे से सातवें तक सम्यक्त्वमोहनीय विकल्प से रहती है । हास्यादिषट्क अपूर्वकरणगुणस्थान तक तथा वेद और संज्वलनकषायत्रिक नौवें तक और लोभ दसवें गुणस्थान तक रहते हैं । विशेषार्थ - गाथा में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के उदय होने के गुणस्थानों का संकेत किया है। अनुक्रम से जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मिथ्यात्वमोहनीय का उदय पहले मिथ्यात्वगुणस्थान तक रहता है अर्थात् मिथ्यात्वमोहनीय का उदयविच्छेद पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में होता है । तत्पश्चात् अन्य किसी गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं रहता है । इसी प्रकार अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क का उदयविच्छेद सासादन गुणस्थान में, मिश्रमोहनीय का मिश्रगुणस्थान में, अप्रत्याख्यानावरणकषाय-चतुष्क का अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में और Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० पंचसंग्रह : १० प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का उदयविच्छेद देशविरतगुणस्थान में होता है। उदयापेक्षा सम्यक्त्वमोहनीय का अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त विकल्प से उदयविच्छेद होता है-कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता है। क्योंकि औपशमिक सम्यग्दृष्टि अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के उदय नहीं होता है, किन्तु क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के उदय होता है। हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा रूप हास्यषट्क का उदयविच्छेद अपूर्वकरण गुणस्थान में होता है तथा पुरुषवेदादि वेदत्रिक और संज्वलन क्रोध, मान, माया इन छह प्रकृतियों का उदयविच्छेद अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में तथा संज्वलन लोभ का उदयविच्छेद दसवें सूक्ष्म-संपराय गुणस्थान में होता है । जिस जिस गुणस्थान में जिन प्रकृतियों का उदयविच्छेद बताया है उसका यह आशय है कि उस-उस गुणस्थान तक तो उदय रहता है, किन्तु उसके बाद के गुणस्थानों में उदय नहीं रहता है। इस प्रकार से मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का कथन जानना चाहिये। अब मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का विचार करते हैं। मोहनीयकर्म के सत्तास्थान अट्ठगसत्तगछक्कगचउतिगदुगएक्कगाहिया वीसा । तेरस बारेक्कारस संते पंचाइ जा एवकं ॥३॥ शब्दार्थ-अठ्ठग-आठ, सत्तग-सात, छक्कग-छह, चउतिगदुगएक्कगाहिया-चार, तीन, दो और एक अधिक, बीसा-बीस, तेरस-तेरह, बारेक्कारस-बारह, ग्यारह, संते-सत्तास्थान, पंचाइ-पांच आदि (पांच से लेकर), जा-तक, एक्क-एक । १ मोहनीयकर्म के उदयस्थानों सम्बन्धी समग्र कथन का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६,३७ ७१ गाथार्थ-आठ, सात, छह, चार, तीन, दो और एक अधिक बीस, तेरह, बारह, ग्यारह तथा पांच से लेकर एक तक कुल पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-मोहनीय के पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं। वे इस प्रकार हैं-अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक । इन सत्तास्थानों में गर्भित प्रकृतियों के नाम बंधविधिप्ररूपणाअधिकार में कहे गये हैं । अब इन सत्तास्थानों को गुणस्थानों में घटित करते हैं। गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थान अणमिच्छमीससम्माण अविरया अप्पमत्त जा खवगा। समयं अठुकसाए नपुसइत्थी कमा छक्क ॥३६॥ पुवेयं कोहाई नियट्टि नासेइ सुहुम तणुलोभं। तिण्णेगतिपण चउसु तेक्कारस चउति संताणि ॥३७॥ शब्दार्थ-अणमिच्छमीससम्माण-अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्वमोहनीय, अविरया-अविरत, अप्पमत्त-अप्रमत्तसंयत, जा-तक, खवगा-क्षपक, समयं-एक साथ, अट्ठकसाए-आठ कषाय, नपुसइत्थीनपुसक, स्त्रीवेद, कमा-क्रम से, छक्क-हास्यषट्क को। पुवेयं-पुरुषवेद, कोहाइ-क्रोधादि, नियटि-अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान वाला, नासेइ-क्षय करता है, सुहुम-सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान वाला, तणुलोभं-संज्वलन लोभ को, तिणेगतिपण-तीन, एक, तीन, पांच, चउसुचार में, तेक्कारस-तीन, ग्यारह, चांति -चार, तीन, संताणि-सत्तास्थान । गाथार्थ-अविरत से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीव अनन्तानुबंधि, मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वमोहनीय के क्षपक हैं। अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान वाला आठ कषायों Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० को एक साथ क्षय करता है, तत्पश्चात् नपुसक वेद, स्त्रीवेद, हास्यषट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया को अनुक्रम से क्षय करता है। सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान वाला संज्वलन लोभ का क्षय करता है । तीन, एक, तीन, चार में पांच, तीन, ग्यारह, चार और तीन इस प्रकार मिथ्यात्व से लेकर उपशांतमोहगुणस्थान तक अनुक्रम से सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में मोहनीयकर्म की प्रकृतियों के सत्ताविच्छेद के गुणस्थानों का संकेत करने के साथ प्रत्येक गुणस्थान में संभव सत्तास्थानों को बतलाया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार _ 'अणमिच्छमीससम्माण अविरया अप्पमत्त जा खवगा'-अर्थात् अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, मिथ्यात्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय इन सात प्रकृतियों को चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयतगुणस्थान तक के जीव क्षय करते हैं । अर्थात् उक्त चार गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में वर्तमान जीव इस सप्तक का क्षय करते हैं और उनमें भी पहले अनन्तानुबंधि-कषायचतुष्क का और उसके बाद दर्शनत्रिक का क्षय करते हैं। जिससे अविरत आदि गुणस्थानों में जब तक सप्तक का क्षय न हो तब तक उसकी सत्ता होती है । तत्पश्चात्, सर्वथा सत्ता नहीं होती है। 'समयं अट्ठकसाए नियट्टि नासेइ' अर्थात् क्षपकश्रेणिवर्ती अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क और प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क इन आठ कषायों का एक साथ सत्ताविच्छेद होता है और उसके बाद अनुक्रम से नपुसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यषट्क, पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध, मान, माया का विच्छेद होता है। इस क्रम से क्षपकश्रेणि में वर्तमान जीव नौवें गुणस्थान में मोहनीयकर्म की बीस प्रकृतियों का क्षय करता है- 'नपुसइत्थी कमा छक्क पुवेयं कोहाइ नियट्टि नासेइ' । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६,३७ किट्टीकृत सूक्ष्म लोभ का सूक्ष्मसंपराय-गुणस्थानवर्ती नाश करता है-'नासेइ सुहुम तणुलोभ' । इस प्रकार से गुणस्थानापेक्षा जिस क्रम से मोहनीय की प्रकृतियों का क्षय होता है, उससे चौबीस आदि बारह सत्तास्थानों का विवेचन किया गया जानना चाहिये तथा शेष तीन सत्तास्थान किस तरह बनते हैं, इसका संकेत आगे किया जाने वाला है, तो भी भ्रम न हो जाये, इसलिये संक्षेप में उनका संकेत यहाँ करते हैं। ___मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियां सत्ता में हों तब अट्ठाईस, सम्यक्त्वमोहनीय की उद्वलना हो तब सत्ताईस तथा मिश्रमोहनीय की उद्वलना हो तब छब्बीस अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि के छब्बीस, अट्ठाईस में से अनन्तानुबंधिचतुष्क की विसंयोजना होने पर चौबीस, मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय होने पर तेईस, मिश्र मोहनीय का क्षय होने पर बाईस और सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय होने पर क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इक्कीस प्रकृतियाँ सत्ता में होती हैं। तत्पश्चात् क्षपकश्रेणि में मध्यम आठ कषायों का क्षय होने पर तेरह, नपुसकवेद का क्षय होने पर बारह, स्त्रीवेद का क्षय होने पर ग्यारह, हास्यषट्क का क्षय होने पर पांच, पुरुषवेद का क्षय होने पर चार, उसके बाद संज्वलन क्रोध का क्षय होने पर तीन, संज्वलन मान का क्षय होने पर दो, संज्वलन माया का क्षय होने पर एक संज्वलन लोभ सत्ता में होता है। ___ इस प्रकार मोहनीय कर्म के पन्द्रह सत्तास्थान होते हैं । प्रत्येक गुणस्थान के सत्तास्थान ___अब प्रत्येक गुणस्थान में संभव सत्तास्थानों का निरूपण करते मिथ्यात्व गुणस्थान में अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । सासादन गुणस्थान में एक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० मिश्रदृष्टिगुणस्थान में अट्ठाईस, सत्ताईस, चौबीस प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । ७४ अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं— अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस प्रकृतिक । अपूर्वकरण गुणस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में ये ग्यारह सत्तास्थान होते हैं- अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस, तेरह, बारह, ग्यारह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक । सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, इक्कीस और एक प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । उपशांतमोहगुणस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, और इक्कीस प्रकृति वाले तीन सत्तास्थान होते हैं । इन समस्त सत्तास्थानों का विस्तार से विचार संवेध के प्रसंग में किया जा रहा है । यहाँ तो इनकी सूचना मात्र दी है । जिन छब्बीस आदि सत्तास्थानों का पूर्व में विचार नहीं किया गया है, उनको यहाँ बतलाते हैं छव्वीसणाइमिच्छे उव्वलणाए व सम्ममीसाणं । चवीस अणविजोए भावो भूओ विमिच्छाओ ॥ ३८ ॥ शब्दार्थ - छठवीस -- छब्बीस प्रकृतिक, णाइमिच्छे-अनादि मिथ्यादृष्टि को, उव्वलणाए — उवलना करने पर, ब - - और, सम्ममोसाणं - सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय को, चउवीस - चौबीस प्रकृतिक, अणविजोए - अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने पर, मावो- -सत्ता, भूओ वि- पुनः भी, मिच्छाओमिथ्यात्व के निमित्त से । गाथार्थ - अनादि मिथ्यादृष्टि के छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय को उवलना होने पर Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३८ सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने पर चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। मिथ्यात्व के निमित्त से अनन्तानुबंधि की पुन: भी सत्ता होती है । ७५ विशेषार्थ -- अनादि मिथ्यादृष्टि के मोहनीयकर्म का छब्बीस प्रकृतिक रूप एक ही सत्तास्थान' होता है अथवा अट्ठाईस की सत्ता वाला जब सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय की उवलना करता है तब छब्बीस की सत्ता होती है और अट्ठाईस की सत्ता वाला सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना कर चुका किन्तु अभी मिश्रमोहनीय की उवलना नहीं की है तो जब तक उद्वलना न की हो तब तक उसको सत्ताईस प्रकृतियां सत्ता में होती हैं तथा अनन्तानुबंधि की विसंयोजना' करे तब चौबीस प्रकृति सत्ता में होती हैं । प्रश्न - - - जब अनन्तानुबंधि कषाय की विसंयोजना की यानि सत्ता में से निर्मूल हुई तब असद्भूत हुई उन कषायों की सत्ता का पुनः प्रादुर्भाव किस प्रकार होता है ? क्योंकि जो सत्ता में से ही नष्ट हो गई वह पुनः सत्ता में कैसे प्राप्त होती है ? उत्तर - मिथ्यात्व से अनन्तानुबंधि की क्षपणा करने वाले ने अनन्तानुबंधि को सत्ता में से निर्मूल किया, परन्तु उसकी बीज रूप मिथ्यात्वमोहनीय को नष्ट नहीं किया है । जब तक वह बीज है तब तक अनन्तानुबंध की सत्ता होना संभव है । क्योंकि मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से जब प्रथम गुणस्थान में जाता है तब मिथ्यात्व रूप निमित्त द्वारा अनन्तानुबंध कषाय का बंध करता है और जब बंध करता है तब सत्ता में अवश्य प्राप्त होती है । इस प्रकार से मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का विस्तार से विवेचन जानना चाहिये । इसी प्रसंग में यह भी संकेत किया है कि मोहनीय कर्म प्रकृतियों की उवलना भी होती है । उनके कौन उवलक होते १ एक साथ जितनी प्रकृतियां सत्ता में होती है, उसे सत्तास्थान कहते हैं । २ विसंयोजना का अर्थ क्षपणा है । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० हैं अतः अब मोहनीयकर्म की प्रकृतियों के उद्वलकों का कथन करते हैं। मोहनीयकर्मप्रकृतियों के उद्वलक सम्ममीसाणं मिच्छो सम्मो पढमाण होइ उव्वलगो। बंधावलियाउप्पिं उदओ संकेतदलियस्स ॥३६॥ शब्दार्थ-सम्ममीसाणं-सम्यक्त्व और मिश्रमोहनीय का, मिच्छोमिथ्यादृष्टि, सम्मो-सम्यग्दृष्टि, पढमाण-प्रथम (अनन्तानुबंधि) कषायों का, उठवलगो-उद्वलक, बंधावलियाउप्पिं बंधावलिका के बाद, उदओ-उदय, संकंतदलियस्स-संक्रांत दलिक का। ___ गाथार्थ-सम्यक्त्व और मिश्र मोहनीय का उद्वलक मिथ्यादृष्टि और अनन्तानुबंधि कषाय का सम्यग्दृष्टि है तथा बंधावलिका के जाने के बाद संक्रांत दलिक का उदय होता है । विशेषार्थ-गाथा के पूर्वार्ध में उद्वलक और उत्तरार्ध में अनन्तानुबंधि कषाय के उदय के करण सूत्र का संकेत किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है____ 'सम्ममीसाणं मिच्छो' अर्थात् सम्यक्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय की उद्वलना मिथ्यादृष्टि करता है तथा 'सम्मो पढमाण होइ उव्वलगो' अर्थात् अनन्तानुबंधि की उद्वलना-चौथे से सातवें गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीव करते हैं। उद्वलित अनन्तानुबंधि कषाय का पहले गुणस्थान में इस तरह उदय होता है कि अनन्तानुबंधि की उद्वलना करने वाला मिथ्यात्व के उदय से गिरकर मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है। जिस समय मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है, उसी समय से बीजभूत मिथ्यात्व रूप हेतु द्वारा अनन्तानुबंधि का बंध करना प्रारम्भ करता है और जिस समय से बंध करने की शुरुआत करताह उसी समय से पतद्ग्रह रूप हुई उसी अनन्तानुबंधि में अप्रत्याख्यानावरणादि कषाय प्रकृतियों के दलिक संक्रमित होते हैं और संक्रमावलिका के बीतने के बाद उस संक्रांत Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४० दलिक का उदय होता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद मिथ्यात्वमोहनीय कर्म के उदय से पतन कर जिस समय मिथ्यात्व गुणस्थान में आता है, उस समय से एक आवलिका बाद अवश्य अनन्तानुबंधि कषाय का उदय होता है । पतद् विषयक विस्तृत विचार पूर्व में ( गाथा २६ में) किया जा चुका है। इस प्रकार से मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विचार करने के बाद अब बंधस्थानों आदि के परस्पर संवेध का वर्णन करते हैं । मोहनीयकर्म का संवेध ७७ बावीसं बंधते मिच्छे सत्तोदयंमि अडवीसा । संतं छसत्तवीसा य होंति सेसेसु उदएसु ॥४०॥ शब्दार्थ - बावीस-बाईस, बंधते -- बंध होता है, मिच्छे-- मिथ्यात्व गुणस्थान में, सत्तोदयंमि - सात का उदय होने पर, अडवीसा - अट्ठाईस की, संतं - सत्ता, छसत्तवीसा - छब्बीस, सत्ताईस की य-और, होंति — होती है, सेसेसु - उदए सु- शेष उदयों में । गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में बाईस का बंध होता है और वहां सात का उदय होने पर अट्ठाईस की सत्ता होती है तथा शेष उदयों में छब्बीस और सत्ताईस की भी सत्ता होती है ।. विशेषार्थ - गाथा में गुणस्थानों के क्रम से मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का परस्पर संवेध का विचार प्रारम्भ किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'बावीस बंधते मिच्छे' पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म की बाईस प्रकृतियों का बंध होता है और वहां सात प्रकृतिक उदयस्थान होने पर अट्ठाईस प्रकृति का समुदाय रूप एक ही सत्तास्थान होता है - 'सत्तोदयंमि अडवीसा' । सात का उदयस्थान अनन्तानुबंधि के उदय बिना होता है और Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० यह अनन्तानुबंधि के उदय बिना का सात का उदयस्थान किस तरह और कितने काल होता है, यह यदि समझ में आ जाये तो सात के उदय में अट्ठाईस का एक ही सत्तास्थान हो सकता है, यह समझा जा सकेगा । इसलिये अब उसी को स्पष्ट करते हैं किसी जीव ने सम्यग्दृष्टि होने पर अनन्तानुबंधि की उवलना की - सत्ता में से निर्मूल किया, तत्पश्चात् कालान्तर में तथाप्रकार के परिणामवश मिथ्यात्व में गया। जिस समय मिथ्यादृष्टि हुआ उसी समय से मिथ्यात्व रूप निमित्त के द्वारा अनन्तानुबंधि कषाय का बंध प्रारम्भ किया और बंधती हुई उस अनन्तानुबंधि कषाय में बंध के साथ ही अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों को संक्रमित करना भी आरम्भ किया तो इस प्रकार के मिथ्यादृष्टि को बंधावलिका या संक्रमावलिका रूप एक आवलिका पर्यन्त अनन्तानुबंधि कषाय का उदय नहीं होता है । अनन्तानुबंधि की विसंयोजना किये बिना जो मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है उसे तो अवश्य अनन्तानुबंधि कषाय का उदय होता है । इस प्रकार मिथ्यादृष्टि को एक आवलिका काल पर्यन्त सात के उदय में अट्ठाईस प्रकृति रूप एक ही सत्तास्थान सम्भव है । ७८ इसके अतिरिक्त शेष रहे आठ, नौ और दस प्रकृति रूप तीन उदय स्थानों में छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक इस तरह तीनतीन सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं आठ प्रकृतिक उदयस्थान के दो प्रकार हैं - १. अनन्तानुबंधि उदय रहित और २. अनन्तानुबंधि उदय सहित । इनमें से अनन्तानुबंधि के उदय बिना के आठ के उदय में सात के उदय में कही गई युक्ति के अनुसार अट्ठाईस का एक ही सत्तास्थान होता है और अनन्तानुबंधि के उदय वाले आठ के उदय में पूर्वोक्त तीन (छब्बीस, सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक) सत्तास्थान होते हैं । उनमें से जब तक सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना न हो तब तक अट्ठाईस, सम्यक्त्व मोहनीय की उवलना के बाद सत्ताईस और मिश्रमोहनीय की उवलना के बाद छब्बीस अथवा अनादि मिथ्यादृष्टि के छब्बीस प्रकृतिक सत्ता Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४१ स्थान होता है । इसी तरह नौ के उदय में भी तीन सत्तास्थान होते हैं । दस का उदयस्थान अनन्तानुबंधि सहित ही होता है । वहां भी तीन सत्तास्थान होते हैं । सात, आठ, नौ और दस प्रकृतिक ये चार उदयस्थान किन प्रकृतियों के मिलने से होते हैं, यह पूर्व में कहा जा चुका है । उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि बाईस प्रकृतिक बंधस्थान, सात, नाठ, नौ और दस प्रकृतिक उदयस्थान तथा अट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं । सासादनगुणस्थान में इक्कीस प्रकृति के बंध में सात, आठ और नौ प्रकृतिक इन तीन उदयस्थानों में अट्ठाईस प्रकृति का समुदाय रूप एक ही सत्तास्थान होता है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैसासादनभाव औपशमिक सम्यक्त्व से गिरने पर प्राप्त होता है । उपशमसम्यक्त्व के बल से उस जीव ने मिथ्यात्वमोहनीय को रसभेद से सम्यक्त्व, मिश्र और मिथ्यात्व इस तरह तीन भागों में विभाजित कर दिया है, जिससे दर्शनमोहनीयत्रिक की भी सत्ता होने से सासादनगुणस्थान में तीन उदयस्थानों में अट्ठाईस प्रकृति रूप एक सत्तास्थान होता है । यहाँ सम्यक्त्व, मिश्र मोहनीय की उवलना नहीं होती है । तथा सत्तरसबंधगे छोदयम्मि संतं इगट्ठाचउवीसा । सगतिदुवीसा य सगट्ठगोदये नेयरिगिवीसा ॥ ४१ ॥ शब्दार्थ - सत्तर सबंध - सत्रह के बंध में, छोदयम्म - छह के उदय में, संतं - सत्तास्थान, इगट्ठचउवीसा - इक्कीस, अट्ठाईस और चौबीस की, सगतिदुखीसा - सत्ताईस, तेईस, बाईस य-और, सगट्ठगोदये सात और आठ के उदय में, नेयरिगिवीसा - इतर (नौ) के उदय में इक्कीस का नहीं । , गाथार्थ - सत्रह के बंध और छह के उदय में इक्कीस, अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक इस तरह तीन सत्तास्थान होते हैं । सात और आठ के उदय में सत्ताईस, तेईस, बाईस और इक्कीस, अट्ठाईस Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ב. पंचसंग्रह : १० एवं चौबीस प्रकृतिक यह छह सत्तास्थान होते हैं तथा इतर - नौ के उदय में इक्कीस का सत्तास्थान नहीं होता है । विशेषार्थ - सत्रह के बंध और छह के उदय में इक्कीस, अट्ठाईस और चौबीस प्रकृति रूप यह तीन सत्तास्थान होते हैं तथा सात और आठ के उदय में सत्ताईस, तेईस, बाईस प्रकृतिक एवं 'य च', शब्द से ग्रहण किये गये अट्ठाईस चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक इस तरह कुल मिलाकर छह सत्तास्थान होते हैं । नौ के उदय में इक्कीस के बिना शेष पांच सत्तास्थान होते हैं । उक्त संक्षिप्त कथन का विस्तृत विवेचन इस प्रकार है- सत्रह का बंध तीसरे और चौथे गुणस्थान में होता है । तीसरे गुणस्थान में सात, आठ और नौ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं और अट्ठाईस, सत्ताईस तथा चौबीस प्रकृतिक यह तीन सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये 1 अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाला जो कोई जीव सम्यग्मिथ्यात्व प्राप्त करे उसे अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । मिथ्यादृष्टि होने पर भी जिसने पहले सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना की परन्तु मिश्रमोहनीय की उवलना करना प्रारम्भ नहीं किया और बीच में ही परिणामवश मिथ्यात्व गुणस्थान से मिश्रगुणस्थान में जाये, तो उसे सत्ताईस का सत्तास्थान होता है तथा पूर्व में सम्यग् ष्टि होने पर अनन्तानुबंध की विसंयोजना की और बाद में परिणामों के वश मिश्र गुणस्थान प्राप्त करे तो उसे चौबीस का सत्तास्थान होता है । क्योंकि चारों गति के सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद मिश्र गुणस्थान प्राप्त कर सकते हैं । इसलिए चारों गति में सम्यग् - मिथ्यादृष्टियों को चौबीस का सत्तास्थान होता है । इसी प्रकार से आठ और नौ के उदय में भी अट्ठाईस, सत्ताईस और चौबीस प्रकृतिक ये तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में छह, सात, आठ और नौ प्रकृतिक इस तरह चार उदयस्थान और अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस और Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४१ इक्कीस प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं। तीन प्रकार के सम्यक्त्वी होते हैं। उनमें से औपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों के सम्यक्त्वमोहनीय का उदय नहीं होता है, जिससे उनको उसके उदय रहित के छह, सात और आठ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होने से उसके उदय वाले सात, आठ और नौ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं। सत्तास्थानों में से क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इक्कीस प्रकृतिक, औपशमिक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक तथा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के अपने-अपने उदयस्थान में अट्ठाईस, चौबीस, तेईस और बाईस प्रकृतिक इस तरह चार सत्तास्थान होते हैं । ___अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में सत्रह के बंध में छह का उदय क्षायिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि को होता है तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इक्कीस प्रकृतिक एक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । भय अथवा जुगुप्सा सहित सात का उदय क्षायिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के होता है और सत्तास्थान छह के उदय में जिस प्रकार से बताये हैं उसी प्रकार से क्षायिक सम्यग्दृष्टि के एक इक्कीस प्रकृतिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक यह दो होते हैं। सम्यक्त्वमोहनीय सहित सात का उदय क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के होता है। इसके सर्व प्रकृति की सत्ता में अट्ठाईस प्रकृतिक और अनन्तानुबंधि के विसंयोजक के चौबीस, प्रकृतिक, क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करने पर मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय होने के बाद तेईस और उसे ही मिश्रमोहनीय का क्षय होने के बाद बाईस प्रकृतिक इस प्रकार चार सत्तास्थान होते हैं। तेईस और बाईस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि को क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करते हुए ही होते हैं। कम से कम कुछ अधिक आठ वर्ष की (सात मास गर्भ के और आठ वर्ष प्रसव होने के बाद के, कुल कम से कम आठ वर्ष और सात मास की) अवस्था Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ पंचसंग्रह : १. वाले किसी मनुष्य ने क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होते दर्शनमोहसप्तक का क्षय करना प्रारम्भ किया, उसे अनन्तानुबंधि और मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय होने के बाद तेईस का सत्तास्थान और मिश्रमोहनीय का क्षय होने के बाद बाईस प्रकृति का सत्तास्थान होता है। इसी बाईस की सत्ता वाला सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करते चरम ग्रास में वर्तमान पूर्वबद्धायुष्क कोई जीव अपनी आयु पूर्ण हो तो काल भी करता है और काल करके चारों में से किसी भी गति में उत्पन्न होता है और वह अन्तमुहर्त प्रमाण सत्ता में रही हुई सम्यक्त्वमोहनीय की स्थिति को क्षय करके क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है। शास्त्र में कहा है-'पटुवगो य मणुस्सो निट्ठवगो चउसु वि गईसु' अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने के लिये मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय करने की शुरुआत प्रथम संहनन वाला जिनकालिक मनुष्य ही करता है परन्तु सम्यक्त्व-मोहनीय की अंतिम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति क्षय करके चारों गति के जीव क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं। यानि क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करने का प्रारम्भक मनुष्य है और पूर्णता करने वाले चारों गति के जीव होते हैं। इसलिये मोहनीय कर्म की बाईस प्रकृति की सत्ता चारों गति में होती है । भय और जुगुप्सा सहित आठ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि को होता है और भय, सम्यक्त्व-मोहनीय अथवा जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय के साथ आठ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के होते हैं। सत्तास्थान की भावना सात के उदयस्थान के अनुरूप जानना चाहिये तथा भय, जुगुप्सा और सम्यक्त्वमोहनीय सहित नौ प्रकृतिक उदयस्थान क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है। उस नौ प्रकृतिक उदयस्थान में आठ के उदय वाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के जो चार सत्तास्थान कहे हैं वे ही चार सत्तास्थान होते हैं। तथा - १ अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थिति । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४२ देसाइसु चरिमुदए इगिवीसा वज्जियाइ संताई। सेसेसु होति पंचवि तिसुवि अपुवंमि संततिगं ॥४२॥ शब्दार्थ-देसाइसु-देशविरत आदि गुणस्थानों में, चरिमुदए–अंतिम उदय में, इगिवीसा-इक्कीस, वज्जियाइ-छोड़कर, संताई-सत्तास्थान, सेसेसु-शेष उदयस्थानों में, होति-होते हैं, पंचवि-पांचों, तिसुवि-तीन में भी, अपुवंमि-अपूर्वकरण गुणस्थान में, संततिगं-तीन सत्तास्थान । गाथार्थ-देशविरत आदि गुणस्थानों में अंतिम उदय में इक्कीस को छोड़कर चार सत्तास्थान होते हैं और पहले के बिना शेष उदयस्थानों में पांचों सत्तास्थान होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान के तीनों उदयस्थान में तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-'देसाइसु............' देशविरत आदि-देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत इन तीन गुणस्थानों में अपने-अपने अंतिम उदयस्थान में इक्कीस के सिवाय पूर्व में कहे गये चार-चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि अंतिम उदयस्थान सम्यक्त्वमोहनीय सहित होने से क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है तथा अपना-अपना पहला उदयस्थान छोड़कर शेष उदयस्थानों में पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं। पहला उदयस्थान क्षायिक अथवा औपशमिक सम्यग्दृष्टि के ही होता है और उस उदयस्थान में तो तीन सत्तास्थान ही होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में अपने तीन उदयस्थान में तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं । पूर्वोक्त संक्षेप का विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है--- मोहनीयकर्म की तेरह प्रकृतियों के बंधक देशविरत के पांच, छह, सात और आठ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं। देशविरत मनुष्य और तिर्यंच के भेद से दो प्रकार के हैं। उनमें से तिर्यंचों के चारों उदयस्थानों में अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । अट्ठाईस का सत्तास्थान तो औपशमिक सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के होता है। तिर्यंचों में औपशमिक सम्यक्त्व प्रथम सम्यक्त्व उत्पन्न करते पहले गुणस्थान में तीन करण करके जो प्राप्त Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ पंचस ग्रह : १० होता है वही होता है और उसे उस समय अट्ठाईस का सत्तास्थान होता है। संख्यात वर्षायुष्क तिर्यंच के औपशमिक सम्यक्त्व रहते देशविरत गुणस्थान इस तरह प्राप्त होता है-अंतरकरण में वर्तमान कोई औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव देशविरति भी प्राप्त करता है। कोई मनुष्य हो तो सर्वविरति भी प्राप्त करता है। क्योंकि पहले गुणस्थान में तीन करण करके कोई चौथे गुणस्थान में, कोई देशविरतगुणस्थान में और कोई सर्वविरतगुणस्थान में जाता है। इस प्रकार से कोई विशिष्ट परिणाम वाला तिर्यंच औपशमिक सम्यक्त्व के साथ देशविरति प्राप्त करे तो उसे देशविरत गुणस्थान में औपशमिक सम्यक्त्व होता है और मात्र एक अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । शतक वृहच्चूर्णि में कहा है-- उवसमसम्मदिट्ठी अन्तरकरणे ठिओ कोइ देसविरईपि लहइ, कोइ पमत्तापमत्तभावं पि, सासायणो पुण न किंपि लहइन्ति । ___ अर्थात् अन्तरकरण में स्थित कोई औपशमिक सम्यग्दृष्टि देशविरति को, कोई प्रमत्त और अप्रमत्त भाव को भी प्राप्त करता है, परन्तु कोई सासादन भाव को प्राप्त नहीं करता है तथा वेदक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। उनमें से चौवीस का सत्तास्थान अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद होता है । क्योंकि चारों गति के संज्ञी पंचेन्द्रिय क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबंधि की विसंयोजना कर सकते हैं। शेष रहे तेईस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान तिर्यंचों के नहीं होते हैं। क्योंकि तेईस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करते समय संभव हैं और क्षायिक सम्यक्त्व मनुष्य ही उत्पन्न करते हैं, तिथंच नहीं। ___ यदि कोई यहां शंका करे कि कोई मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करके तिर्यंच गति में उत्पन्न हो तो उस समय तिर्यंच को भी इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान संभव हो सकता है तो फिर ऐसा क्यों कहते हो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४२ कि शेष सभी सत्तास्थान तिर्यंचगति में संभव नहीं हैं। इसका उत्तर यह है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों में उत्पन्न होते नहीं है परन्तु असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते हैं और असंख्यात वर्ष की आयु वाले युगलिक होने से उनको देशविरत गुणस्थान होता ही नहीं है और यहाँ तो देशविरत के सत्तास्थानों का विचार किया जा रहा है। इसलिये देशविरत तिर्यंचों में तेईस प्रकृतिक आदि कोई सत्तास्थान नहीं होते हैं, यह कहा है। सप्ततिकाचूर्णि में कहा है-'एगवीसा तिरिक्खेसु संजयासंजएसु न उन्वज्जइ, कहं ? भन्नइ-संखेज्जवासाउएसु तिरिवखेसु खाइग सम्मदिट्ठी न उव्वज्जइ, असंखिज्जवासाउएसु उववज्जेज्जा तस्स देसविरई नस्थित्ति' मोहनीय की इक्कीस प्रकृति की सत्तावाला क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशविरत तिर्यंच में उत्पन्न नहीं होता है । क्योंकि क्षायिक सम्यग्दृष्टि संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होता है, असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों में उत्पन्न होता है और उन्हें देशविरतगुणस्थान नहीं होता है तथा जो देशविरत मनुष्य है उनको पाँच के उदय में इक्कीस, चौबीस और अट्ठाईस प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं। छह और सात के प्रत्येक उदय में पांच सत्तास्थान होते हैं । आठ के उदय में इक्कीस का सत्तास्थान छोड़कर शेष चार सत्तास्थान होते हैं। ये सभी सत्तास्थान अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में किये गये वर्णन के अनुसार समझ लेना चाहिये। इसी प्रकार प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में नौ के बंध, चार के उदय में अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक इस तरह तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं। पाँच और छह के उदय में अट्ठाईस, चौबीस, तेईस, बाईस, इक्कीस प्रकृतिक इस तरह पाँच-पाँच सत्तास्थान होते हैं और सात के उदय में इक्कीस को छोड़कर शेष चार सत्तास्थान होते हैं जो ऊपर किये वर्णन के अनुसार समझ लेना चाहिए। अपूर्वकरणगुणस्थान में नौ के बंध में चार, पाँच और छह प्रकृतिक इस तरह तीन उदयस्थान होते हैं । इन प्रत्येक उदयस्थान में Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ पंचसंग्रह : १० अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक ये तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान क्षायिक और औपशमिक मनुष्य के ही होता है, क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि के नहीं होता है। जिससे क्षायिक सम्यग्दृष्टि को अपने प्रत्येक उदयस्थान में इक्कीस का एक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि को अपने प्रत्येक उदयस्थान में अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं तथा दोनों सम्यग्दृष्टियों के चार, पाँच और छह प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं । तथापंचाइबंध गेसु इगट्ठच उवी सम्बंधगेगं च । तेरस बारेक्कारस य होंति पणबंधि खवगस्स ॥४३॥ एगाहियाय बंधा चउबंधगमाइयाण संतंसा । बंधोदयाण विरमे जं संतं छुभइ अण्णत्थ ॥ ४४ ॥ शब्दार्थ - पंचाइबंधगेसु — पांच आदि के बंधक को, इगट्ठचवीसइक्कीस, अट्ठाईस, चौबीस प्रकृतिक, अबंधगेगं - अबंधक के एक, च-ओर, तेरस बारेक्कारस- तेरह, बारह, ग्यारह, य - और, होंति — होते हैं, पणबंधिपाँच के बंधक, खवगस्स - क्षपक के । एगाहियाय - एक प्रकृतिक से अधिक, बंधा - बंध की अपेक्षा, चउबंधगमाइयाण -- चार आदि प्रकृति के बंधक के, संतंसा - सत्तास्थान, बंधोदाण विरमे- - बंध और उदय के रुकने के बाद, जं- जो, संतं - सत्तागत, छ्भइसंक्रमित होता है, अण्णत्थ - अन्यत्र | गाथार्थ - पाँच आदि प्रकृति के बंधक के इक्कीस, अट्ठाईस एवं चोबीस ये तीन और अबंधक के एक तथा चकार से इक्कीस, अट्ठाईस और चौबीस ये तीन कुल चार सत्तास्थान होते हैं । पाँच के बंधक क्षपक के तेरह, बारह और ग्यारह प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान तथा चार आदि प्रकृति के बंधक के बंध की अपेक्षा एक प्रकृति से अधिक सत्तास्थान होता है। क्योंकि बंध और उदय के रुकने के बाद सत्तागत कर्म अन्यत्र संक्रमित होता है । विशेषार्थ- पाँच, चार, तीन, दो और एक प्रकृति के बंधक को अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में और अबंधक को सूक्ष्म संपराय एवं - Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३, ४४ , उपशांत मोहगुणस्थान में इक्कीस, चौबीस और अट्ठाईस प्रकृतिक इस तरह तीन-तीन सत्तास्थान होते हैं । उनमें से इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान क्षायिक सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबंधि के विसंयोजक औपशमिक सम्यग्दृष्टि के चौबीस और सप्तक के उपशमक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । उपर्युक्त समस्त सत्तास्थान यथासंभव दो के उदय में, एक के उदय में और अनुदय में उपशम श्रेणि में होते हैं । उनमें से उपशम श्रेणि में नौवें गुणस्थान में पाँच के बंध दो के उदय में, चार के बंध एक के उदय में, तीन के बंध एक के उदय में, दो के बंध एक के उदय में, और एक के बंध एक के उदय में क्षायिक सम्यग्दृष्टि को इक्कीस प्रकृतिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि को अट्ठाईस तथा चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है तथा अबंधक सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में एक के उदय में क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इक्कीस और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस तथा चौबीस प्रकृतिक इस तरह दो सत्तास्थान होते हैं । ८७ उपशांत मोहगुणस्थान में मोहनीयकर्म की किसी भी प्रकृति का बंध या उदय नहीं होता है, परन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि के इक्कीस और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतिक इस तरह तीन सत्तास्थान होते हैं । सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में उपशम श्रेणि में उपर्युक्त तीन सत्तास्थानों के उपरान्त क्षपकश्रेणि का एक प्रकृत्यात्मक चौथा सत्तास्थान भी होता है । क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ हुए के अनिवृत्तिबादरसं परायगुणस्थान में पाँच के बंध और दो के उदय में आठ कषाय का क्षय न किया हो वहाँ तक इक्कीस प्रकृति रूप सत्तास्थान होता है । आठ कषाय का क्षय करने के बाद तेरह प्रकृतिक तत्पश्वात् नपुंसकवेद का क्षय होने पर बारह प्रकृतिक और स्त्रीवेद का क्षय होने पर ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० पुरुषवेद से क्षपकश्रेणि मांडने वाले के उपर्युक्त क्रमानुसार प्रकृतियों का क्षय होता है, यानि उसे उपर्युक्त सत्तास्थान होते हैं। नपुसकवेद से श्रेणि आरम्भ करने वाला स्त्रीवेद और नपुसकवेद का युगपत् क्षय करता है। उन दो का जिस समय क्षय होता है उसी समय पुरुषवेद के बंध का विच्छेद होता है। उसके बाद पुरुषवेद और हास्यादिषट्क का एक साथ ही क्षय करता है। जिससे उसे पाँच के बंध और दो के उदय में आठ कषाय का जब तक क्षय न किया हो तब तक इक्कीस प्रकृतिक और आठ कषाय का क्षय करे तब तेरह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है तथा चार के बंध और एक के उदय में ग्यारह प्रकृतिक तथा हास्यषट्क तथा पुरुषवेद का क्षय होने पर चार प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तत्पश्चात् पुरुषवेद से श्रेणि आरम्भ करने वाले की तरह उदयस्थान होते हैं। स्त्रीवेद से क्षपकश्रेणि आरंभ करने वाला पहले नपुसकवेद का क्षय करता है, उसके बाद अन्तर्मुहूर्त में स्त्रीवेद का क्षय करता है । जिस समय स्त्रीवेद का क्षय हुआ उसी समय पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है और तत्पश्चात् पुरुषवेद और हास्यादिषट्क को एक साथ क्षय करता है। जिससे उसे पांच के बंध और दो के उदय में आठ कषाय का जब तक क्षय न हुआ हो तब तक इक्कीस का, आठ कषाय का क्षय होने के बाद तेरह का और नपुसकवेद का क्षय होने पर बारह प्रकृति रूप सत्तास्थान होता है । तथा___ चार के बंध और एक के उदय के स्त्रीवेद का क्षय होने पर ग्यारह का और हास्यषट्क तथा पुरुषवेद का क्षय होने पर चार का सत्तास्थान होता है । तत्पश्चात् पुरुषवेद से श्रोणि आरम्भ करने वाले की तरह उदयस्थान तथा सत्तास्थान होते हैं। वे इस प्रकार-जब तक नपुसकवेद या स्त्रीवेद से श्रेणि आरम्भ करने वाला हास्यादिषट्क और पुरुषवेद का क्षय न करे तब तक वेदोदयरहित किसी भी एक कषाय के उदय में वर्तमान चार के बंधक को ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। पुरुषवेद और हास्यषट्क का युगपत् क्षय हो Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३,४४ तब चार प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इस तरह स्त्रीवेद और नपुसकवेद से क्षपकणि स्वीकार करने वाले के पांच प्रकृति का समूह रूप सत्तास्थान सम्भव नहीं है। जो पुरुषवेद से क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होता है, उसे जिस समय छह नोकषाय का क्षय होता है, उसी समय पुरुषवेद का बंधविच्छेद होता है । जिससे उसे चार के बंधकाल में ग्यारह प्रकृति का समूह रूप सत्तास्थान नहीं होता है परन्तु पाँच प्रकृति का समूह रूप सत्तास्थान होता है। जिससे क्षपकवेणि में चार के बंध और एक के उदय में चार, पांच और ग्यारह प्रकृति के समूहरूप तीन सत्तास्थान और उपशमश्रेणि की अपेक्षा अट्ठाईस, चौबीस और इक्कीस प्रकृतिक इस तरह तीन सत्तास्थान होते हैं तथा सब मिलाकर चार के बंध, एक के उदय में छह सत्तास्थान होते हैं। तथा___ संज्वलन क्रोध की प्रथम स्थिति आवलिका मात्र बाकी रहे तब उसके बंध, उदय और उदीरणा का एक साथ विच्छेद होता है। क्रोध का बंधादि विच्छेद होने के बाद मान, माया और लोभ, इन तीन का बंध होता है। बंधविच्छेद के प्रथम समय में संज्वलन क्रोध का आवलिका मात्र प्रथम स्थिति सम्बन्धी और दो समयन्यून दो आवलिका काल में बंधा हुआ दलिक सत्ता में होता है। उसके सिवाय अन्य दल का क्षय हुआ होने से सत्ता में नहीं रहता है। __ वह सत्तागत दल भी दो समयन्यून दो आवलिका काल में क्षय होता है। जब तक उसका क्षय हुआ होता नहीं है तब तक तीन के बंध और एक के उदय में चार प्रकृति की सत्ता होती है और क्षय होने के बाद तीन प्रकृति को सत्ता होती है। इस प्रकार क्षपकश्रेणि की अपेक्षा दो सत्तास्थान और उपशमश्रेणि की अपेक्षा पूर्वोक्त तीन, सब मिलाकर तीन के बंध और एक के उदय में पांच सत्तास्थान होते हैं। तथा-- . संज्वलन मान की प्रथम स्थिति आवलिका मात्र शेष रहे तब उसके बंध, उदय और उदीरणा का युगपत् विच्छेद होता है । बंधादि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० पंचसंग्रह : १० का विच्छेद होने के बाद संज्वलन माया और लोभ इन दो का ही बंध होता है । बंधविच्छेद के प्रथम समय में संज्वलन मान का प्रथम स्थिति संबंधी एक (उदय) आवलिका काल में भोगने योग्य बलिक और दो समय न्यून दो आवलिका जितने काल में बंधा हुआ दलिक इतना ही मात्र सत्ता में होता है। शेष सर्व का क्षय हुआ होता है । वह सत्तागत दलिक भी दो समयन्यून दो आवलिका काल में क्षय होगा । जब तक उसका क्षय न हुआ हो तब तक दो के बंध और एक के उदय में तीन की सत्ता और क्षय होने के बाद दो प्रकृति की सत्ता होती है । इस प्रकार दो के बंधक को दो सत्तास्थान और पूर्व में कहे गये उपशमश्रेणि आश्रयी तीन को मिलाकर पाँच सत्तास्थान होते हैं । तथा संज्वलन माया की प्रथम स्थिति आवलिका मात्र बाकी रहे तब उसके बंध, उदय और उदीरणा का एक साथ नाश होता है । उसका क्षय होने के बाद एक संज्वलन लोभ का ही बंध अवशेष रहता है । संज्वलन लोभ के बंध के प्रथम समय में संज्वलन माया का प्रथम स्थिति का आवलिका मात्र दलिक और दो समयन्यून दो आवलिका जितने काल में बंधा हुआ दलिक सत्ता में शेष रहता है, उसके सिवाय अन्य सब क्षय हो गया है । वह अवशिष्ट सत्तागत दलिक भी दो समयन्यून दो आवलिका काल में क्षय होता है । जब तक क्षय नहीं हुआ होता है, तब तक दो की सत्ता और क्षय होने के बाद मात्र एक लोभ की सत्ता होती है । इस प्रकार एक के बंध और एक के उदय में दो और एक प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं और उपशमश्रेणि आश्रयी तीन सत्तास्थान होते हैं। कुल मिलाकर पाँच सत्तास्थान होते हैं । इसी बात का गाथा में संकेत किया गया है-चार, तीन, दो और एक के बंधक के अनुक्रम में चार, तीन, दो और एक का सत्तास्थान तो होता ही है परन्तु बंध की अपेक्षा एक प्रकृति में अधिक सत्ता रूप अंश होते हैं - 'एगाहियाय बंधा चउबंधगमाइयाण संतंसा । ' Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४३,४४ वे इस प्रकार जानना चाहिये कि चार के बंधक को पाँच प्रकृति रूप, तीन के बंधक को चार प्रकृति रूप, दो के बंधक को तीन प्रकृति रूप और एक के बंधक को दो प्रकृति रूफ सत्तास्थान अधिक होता है। बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता का कर्म के अंश रूप में व्यवहार होने से गाथा से संतंसा यह पद दिया है । इस प्रकार होने से.चार के बंधक को पांच और चार प्रकृतिक का, तीन के बंधक को चार और तीन प्रकृतिक का तथा इसी प्रकार दो और एक के बंधक को भी दो-दो सत्तास्थान होते हैं। बंध की अपेक्षा सत्ता अधिक होने का कारण यह है कि बंध और उदय का विच्छेद होने के बाद जिसके बंध और उदय का विच्छेद हुआ है, उसकी सत्ता रहती है और वह सत्तागत दलिक को अन्यत्र संक्रमित करता है— 'बंधोदयाण विरमे जं संतं छुभइ अण्णत्थ ।' जैसे कि पुरुषवेद के बंधादि का विच्छेद होने के बाद चार का बंधक सत्तागत पुरुषवेद का दलिक संज्वलन क्रोध में संक्रमित करता है और बंधादिक का विच्छेद होने के बाद सत्ता में शेष रहे दलिक का ऊपर संकेत किया जा चुका है। इस प्रकार संज्वलन क्रोध के बंधादि का विच्छेद होने के बाद उसकी जो सत्ता होती है उसको तीन का बंधक संज्वलनमान में संक्रमित करता है। जब तक पूर्णरूपेण संक्रमित होकर निःसत्ताक नहीं होता है, तब तक उसकी सत्ता होती है। इसलिये चार आदि के बंध से एक-एक अधिक प्रकृति की सत्ता सम्भव है। क्षपकश्रेणि आश्रयी चार के बंधक को पांच का और चार का ये दो सत्तास्थान और स्त्रीवेद अथवा नपुसकवेद से क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले चार के बंधक को पूर्व में कही गई युक्ति से ग्यारह प्रकृतिक सत्तास्थान तथा उपशमश्रेणि आश्रयी सभी के पूर्व में कहे गये तीन-तीन सत्तास्थान और सब मिलाकर चार के बंध और एक के उदय में छह सत्तास्थान होते हैं तथा शेष तीन आदि के बंधक प्रत्येक को पांच-पांच सत्तास्थान होते हैं। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पंचसंग्रह : १० अब पूर्वोक्त मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों के अवस्थान काल का कथन करते हैं। मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का अवस्थान काल सत्तावीसे पल्लासंखेसो पोग्गलद्ध छन्वीसे । बे छावट्ठी अडचउवीसिगिवीसे उ तेत्तीसा ॥४॥ अंतमुहुत्ता उठिई तमेव दुहओ वि सेससंताणं । होइ अणाइ अणंतं अणाइ संतं च छन्वोसा ॥४६॥ शब्दार्थ-सत्तावीसे–सत्ताईस का, पल्लासंखंसो-पल्योपम का, असंख्यातवां भाग, पोग्गलद्ध-अर्धपुद्गल परावर्तन, छव्वीसे-छब्बीस का, बे छावट्ठी-दो छियासठ सागरोपम, अडचउवीस-अट्ठाईस और चौवीस का, इगिवीसे-इक्कीस का, उ-और, तेत्तीसा-तेतीस सागरोपम । अंतमुहत्ता-अन्तर्मुहूर्त, उ-और, ठिई-स्थिति, तमेव-वैसे ही, दुहओ-दोनों, वि-ही, सेससंताणं-शेष सत्तास्थानों का, होइ-होता है, अणाइ-अनादि, अणतं--अनन्त, अणाइसंतं-अनादि-सांत, च-और, छन्वीसा-छब्बीस का। गाथार्थ-सत्ताईस के सत्तास्थान का पल्योपम का असंख्यातवां भाग काल है, छब्बीस का कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन,अट्ठाईस और चौबीस इन दो सत्तास्थानों का दो छियासठ सागरोपम, इक्कीस का कुछ अधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट काल है। प्रत्येक का अन्तर्मुहूर्त जघन्य काल है तथा शेष सत्तास्थानों का दोनों (जघन्य उत्कृष्ट) काल अन्तमुहूर्त प्रमाण है। छब्बीस के सत्तास्थान का अनादि-अनन्त और अनादि-सांत भी काल है। विशेषार्थ-मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों की संख्या पूर्व में कही जा चुकी है। उन सबका जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थान काल इन दो गाथाओं द्वारा कहा है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'सतावीसे पल्लासंखंसो' अर्थात् सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४५,४६ ६३ अजघन्योत्कृष्ट अवस्थान काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग है । वह इस प्रकार - अट्ठाईस की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्वमोहनीय की उवलना करे तब सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है । तत्पश्चात् इसी सत्ताईस की सत्ता वाले के मिश्रमोहनीय की उवलना प्रारंभ करने के पहले मिश्रमोहनीय का उदय भी होता है और उस मिश्रमोहनीय का उदय अन्तमुहूर्त तक ही होता है । इस तरह मिश्रदृष्टि को भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । यह सत्ताईस की सत्तावाला मिश्रदृष्टि अन्तर्मुहूर्त के बाद अवश्य मिथ्यात्व को प्राप्त करता है और मिथ्यात्व में जाकर मिश्रमोहनीय की उवलना करना प्रारम्भ करता है और पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने काल में पूर्णरूप से उसकी उवलना कर देता है। जब तक पूरी तरह से उवलना न कर दी हो तब तक उसकी सत्ता होती है । जिससे सत्ताईस प्रकृतिक सत्तास्थान का अजघन्योत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें जितना होता है । मिश्रमोहनीय की उवलना हो जाने के बाद छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धं पुद्गल परावर्तन प्रमाण है— 'पोग्गलद्ध छव्वीसे ।' अधिक-से-अधिक उतना काल व्यतीत होने के बाद तीन करण करके अवश्य औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है और जिससे पुनः अट्ठाईस की सत्ता वाला होता है और छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । क्योंकि मिश्रमोहनीय की उवलना करके छब्बीस की सत्ता वाला होकर अन्तर्मुहूर्त के बाद ही तीन करण करके उपशमसम्यक्त्व कर अट्ठाईस की सत्ता वाला हो सकता है । तथा प्राप्त अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट अवस्थान काल कुछ अधिक दो छियासठ सागरोपम है । वह इस प्रकार जानना चाहियेक्षायोपशमिक सम्यक्त्व का छियासठ सागरोपम काल है । जिससे Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० अट्ठाईस प्रकृतिक सत्ता वाला वेदक सम्यक्त्वी जीव एक छियासठ सागरोपम और उसके बाद अन्तर्मुहूर्त मिश्रगुणस्थान में जाकर पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करे, उसे दूसरी बार के छियासठ सागरोपम । इस प्रकार बीच में अन्तर्मुहूर्त मिश्र गुणस्थान प्राप्त कर दो बार उत्कृष्ट स्थिति वाला क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करने वाले को अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का एक सौ बत्तीस सागरोपम काल घटित होता है । तत्पश्चात् क्षपक श्रेणि अथवा मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । अब यदि क्षपक श्रेणि प्राप्त करे तो उसे मिथ्यात्वादि का क्षय होने से अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं रहता है । इस प्रकार क्षपकश्रेणि प्राप्त करने वाले की अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का अवस्थान काल दो छियासठ सागरोपम होता है और जो जीव दो छियासठ सागरोपम का काल पूर्ण कर मिथ्यात्व प्राप्त करे, वह पत्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र काल में सम्यक्त्वमोहनीय की पूर्ण रूप से उद्बलना करता है । जब तक उद्बलना न करे तब तक उसकी सत्ता होती है । जिससे वैसे मिथ्यादृष्टि को अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का पल्योपम का असंख्यातवां भाग अधिक दो छियासठ सागरोपम का अवस्थान काल होता है । इसी प्रकार चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान का भी अवस्थान काल समझना चाहिये - 'बे छावट्ठी अडचउवीस' । परन्तु इतना विशेष है ४ एक सौ बत्तीस सागरोपम का काल पूर्ण करके जो जीव मिथ्यात्व प्राप्त करता है, उसे मिथ्यात्व के पहले समय से ही अनन्तानुबंधि कषाय का बंध होने से उसकी सत्ता सम्भव है । जिससे उसके चौबीस १ यहाँ बीच के मिश्रगुणस्थान सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त सहित एक सौ बत्तीस सागरोपम काल अट्ठाईस प्रकृतिक सत्तास्थान का कहना चाहिये था, परन्तु वैसा न कहकर गाथा में एक सौ बत्तीस सागरोपम काल कहा है । क्योंकि अन्तर्मुहूर्त काल अत्यल्प होने से उसकी विवक्षा नहीं की है । इसी तरह बीच के होने वाले मनुष्य भव की भी विवक्षा नहीं की है । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४५,४६ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं रहता है । इसलिए चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान का अवस्थान काल परिपूर्ण दो छियासठ सागरोपम है और दोनों सत्तास्थानों का जघन्य अवस्थान काल अन्तर्मुहूर्त है। जो इस प्रकार जाना चाहिये छब्बीस प्रकृति की सत्ता वाला मिथ्यादृष्टि तीन करण द्वारा उपशमसम्यक्त्व प्राप्त कर अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाला होता है। अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता वाले उस उपशम सम्यग्दृष्टि को जिस क्षण सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होता है, उसी क्षण दर्शनसप्तक का क्षय करना प्रारम्भ करता है । दर्शनसप्तक का क्षय करते पहले अनन्तानुबंधिकषाय का क्षय करता है। जब तक उसका क्षय न करे तब तक अट्ठाईस प्रकृतिक और क्षय करने के बाद चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। वह चौबीस प्रकृतिक सत्तास्थान भी मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय न करे तब तक और मिथ्यात्व का क्षय करे तब तेईस का सत्तास्थान होता है। जिससे अट्ठाईस और चौबीस प्रकृति रूप दोनों सत्तास्थानों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा___ 'इगिवीसे उ तेत्तीसा' अर्थात् इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागरोपम है। जो इस प्रकार जानना चाहियेमनुष्य भव में दर्शनसप्तक का क्षय करके सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देव हो, वहाँ की तेतीस सागरोपम प्रमाण आयु का अनुभव कर मनुष्य भव को प्राप्त करे और जब तक उस मनुष्य भव में क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ न हो तब तक उसे इक्कीस प्रकृति का सत्तास्थान होता है। इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक सत्तास्थान का उत्कृष्ट अवस्थान काल साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण होता है तथा जघन्य काल अन्तमुहर्त है और वह दर्शनसप्तक का क्षय करने के बाद तत्काल चारित्रमोहनीय की क्षपणा प्रारम्भ करने वाले की अपेक्षा जानना चाहिये। तथा पूर्वोक्त के अतिरिक्त शेष रहे सत्तास्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थान काल अन्तर्मुहूर्त जानना चाहिये । जैसे कि मिथ्यात्व Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० मोहनीय का क्षय करने के बाद तेईस प्रकृतिक और मिश्रमोहनीय का क्षय करने के बाद बाईस प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । उन दोनों का अवस्थान काल अन्तमुहूर्त से अधिक नहीं होता है। इसका कारण यह है कि मिथ्यात्वमोहनीय का क्षय करने के बाद अवश्य ही अन्तमुहूर्त के बाद मिश्रमोहनीय का और उसके बाद सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करता है। जिससे तेईस और बाईस प्रकृति की सत्ता अन्तमुहूर्त से अधिक काल होती ही नहीं है। उनके अतिरिक्त शेष रहे नौवें गुणस्थान के तेरह से लेकर एक प्रकृतिक सत्तास्थानों में से प्रत्येक का भी अन्तमुहूर्त से अधिक काल होता ही नहीं है। क्योंकि नौवें गुणस्थान का काल ही अन्तर्मुहूर्त है । एक प्रकृतिक सत्तास्थान वाले दसवें गुणस्थान का काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। जिससे तेरह से लेकर एक प्रकृतिक तक के सभी सत्तास्थानों का काल अन्तर्मुहुर्त जानना चाहिये। तथा छब्बीस प्रकृतिक सत्तास्थान का अभव्य जीवापेक्षा अनादि-अनन्त और अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवापेक्षा अनादि-सान्त अवस्थान काल है। इस प्रकार सत्तास्थानों की काल प्ररूपणा जानना चाहिये और इसके पूर्ण होने से मोहनीय की वक्तव्यता भी पूर्ण हुई समझना चाहिये। नामकर्म की संवेध प्ररूपणा अब क्रमप्राप्त नामकर्म के बंधादिस्थानों के विचार करने का अवसर है। लेकिन उससे पूर्व बंधादिस्थानों का सरलता से बोध करने के लिये जिन प्रकृतियों के साथ नामकर्म की बहुत-सी प्रकृतियां बंध अथवा उदय में प्राप्त होती है, उनका निर्देश करने के लिये गाथा सूत्र कहते हैं• अपज्जत्तगजाई पज्जत्तगईहि पेरिया बहुसो। बंधं उदयं च उति सेसपगइउ नामस्त ॥४७॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४७,४८ ६७ उदयप्पत्ताणुदओ पएसओ अणुवसंतपगईणं । अणुभागओ उ निच्चोदयाण सेसाण भइयव्वो ॥४८॥ शब्दार्थ-अपज्जत्तगजाई -अपर्याप्त और जाति नाम, पज्जत्तगईहिपर्याप्त और गति नामकर्म द्वारा, पेरिया---प्रेरित, बहुसो-बहुत सी, बंधंबंध को, उदयं-उदय को, च-और, उति-प्राप्त होती हैं, सेसपगइउशेष प्रकृतियां, नामस्स-नामकर्म की । ___उदयप्पत्ताणुदओ-उदयप्राप्त का उदय होता है, पएसओ-प्रदेश से, अणुवसंतपगईणं--अनुपशांत प्रकृतियों का, अणुभागओ-अणुभाग से, उऔर, निच्चोदयाण-नित्योदयी प्रकृतियों का, सेसाण-शेष प्रकृतियों का, भइयव्वो-भजनीय। ___ गाथार्थ-अपर्याप्तनाम, जातिनाम, पर्याप्त और गति नामकर्म द्वारा प्रेरित हुई नामकर्म की शेष बहुत सी प्रकृतियां बंध और उदय को प्राप्त होती हैं। उदयप्राप्त कर्म का उदय होता है । अनुपशांत प्रकृतियों का ही प्रदेशोदय होता है (उपशांत का नहीं होता है)। नित्योदया प्रकृतियों का ही अनुभागोदय होता है और शेष प्रकृतियों का उदय भजनीय है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में कारण सहित नामकर्म की बंधोदयसहचारिणी प्रकृतियों का निर्देश किया है। जो इस प्रकार है अपर्याप्तनाम. जातिनाम, पर्याप्तनाम और गति नामकर्म द्वारा प्रेरित अर्थात् अपर्याप्तनामकर्म आदि का जब बंध या उदय हो तब नामकर्म की बहुत सी प्रकृतियां बंध या उदय में प्राप्त होती हैं अथवा अनेक बार बंध और उदय में प्राप्त होती हैं-'अपज्जत्तगजाई पज्जत्तगईहि पेरिया बहुसो बंधं उदयं च उति ।' जैसे कि अपर्याप्त नामकर्म बंधता हो अथवा उदय में हो तब मनुष्यगतियोग्य या तियंचगतियोग्य नामकर्म की बहुत सी प्रकृतियां बंध और उदय में प्राप्त होती हैं । एकेन्द्रियादि जातिनाम बंधता हो या उदयप्राप्त हो Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ पंचसंग्रह : १ तब बादर अथवा सूक्ष्म नामकर्म का बांध अथवा उदय होता है । इसी तरह पर्याप्त नामकर्म बंध या उदय में हो तब यशःकीर्ति आदि और देवादि गतिनामकर्म बंध या उदय में हो तब वैक्रियद्विक आदि प्रकृतियां बंध और उदय में प्राप्त होती हैं । तथा अबाधाकाल बीतने पर उदय समय को प्राप्त हुई कर्म प्रकृतियों का उदय होता है और उस उदय के दो प्रकार हैं-प्रदेश से और अनुभाग से । अर्थात् अबाधाकाल का क्षय होने से उदय समय को प्राप्त हुई कर्म प्रकृतियां प्रदेशोदय द्वारा और अनुभागोदय (रसोदय) द्वारा, इस तरह दो प्रकार से उदय में आती हैं। उनमें से अनुदयवती स्वस्वरूप से फल प्रदान करने में असमर्थ-कर्मप्रकृतियों का अबाधाकाल क्षय होने के बाद उनके दलिक का उदयवतीस्वरूप-में फल देने में समर्थ-प्रकृति में प्रतिसमय स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित करके अनुभव करना उसे प्रदेशोदय कहते हैं और वह अनुपशांत प्रकृतियों का ही होता है-'पएसओअणुवसंत पगईणं ।' किन्तु उपशान्त प्रकृतियों का नहीं होता है । तथा 'अणुभागओ उ निच्चोदयाण' अर्थात् अनुभागोदय का विपाकोदय-स्वस्वरूप में अनुभव करना, यह अर्थ है और वह सदैव ध्र वोदया प्रकृतियों का ही होता है। शेष अध्र वोदया प्रकृतियों का विपाकोदय भजनीय है अर्थात् विपाकोदय कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता है---'सेसाण भइयव्वो' और प्रदेशोदय जिसका अपरनाम उदीरणा है, वह विपाकोदय हो तभी प्रवर्तित होता है अन्यथा प्रवर्तित नहीं होता है। इसलिये इसके लिये पृथक् से विचार नहीं किया है। ___अब देवगति के बंध अथवा उदय के साथ संभव बंध अथवा उदय प्रकृतियों का निर्देश करते हैं। देवगति-बंध-उदय-सहचारी प्रकृतियां अथिरासुभचउरंसं परघायदुगं तसाइ धुवबंधी। अजसपणिदि विउव्वाहारग सुभखगह सुरगइया ॥४६॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४६,५० शब्दार्थ-अथिरासुमच उरसं-अस्थिर, अशुभ, समचतुरस्र, परघायदुर्गपराघातद्विक, तसाइ -त्रसदशक, धुवांधी-ध्र वबंधिनी, अजसपणिदिअयशःकोति, पंचेन्द्रियजाति, विउव्वाहारग-वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, सुभखगइ-शुभ विहायोगति, सुरगइया-देवगतिक-देवगति सहचारी। गाथार्थ-अस्थिर, अशुभ, समचतुरस्रसंस्थान, पराघातद्विक, त्रसदशक, ध्र वबंधिनी प्रकृतियां, अयशःकीर्ति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति ये प्रकृतियां देवगति सहचारी हैं। विशेषार्थ --गाथा में देवगति बंध-उदय सहचारी प्रकृतियों के नाम बताये हैं। उनको देवगति-बंध-उदयसहचारी होने के कारण का स्पष्टीकरण इस प्रकार है अस्थिर, अशुभ, समचतुरस्रसंस्थान, पराघातद्विक-पराघात और उच्छ्वास, त्रसदशक तथा वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात रूप ध्रुवबंधिनी नामनवक, अयश:कीति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, शुभ विहायोगति तथा गाथा में अनुक्त किन्तु देवगतिसहचारी होने से देवानुपूर्वी नाम ये बत्तीस प्रकृतियां देवगति के बंध के साथ बंध में और देवगति के उदय के साथ उदय में आती हैं। जब तीर्थंकरनामकर्म का बंध होता है तब तीर्थकरनामकर्म के बंध के साथ देवगति योग्य ये तेतीस प्रकृतियां बंध में समझना चाहिये। क्योंकि तीर्थकरनामकर्म के बंधकाल में मनुष्य अवश्य हो देवगतिप्रायोग्य और देव तथा नारक अवश्य मनुष्यगतियोग्य प्रकृतियों का बंध करते हैं। ___अब देवगति में तीर्थंकरनामकर्म को बांधने पर उसके साथ बंधने वाली प्रकृतियों को बतलाते हैं। तीर्थंकरनाम को बंधसहभावी प्रकृतियां बंधइ तित्थनिमित्ता मणुउरलदुरिसभदेवजोगाओ। नो सुहुमतिगेग जसं नो अजसथिराऽसुभाहारे ॥५०॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० शब्दार्थ -- बंधइ --- बंध होता है, तित्थनिमित्ता- तीर्थंकर कर्म के निमित्त से, मणुउरलदुरिसमदेदजोगाओ - मनुष्यगतिद्विक, औदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन, देवगतियोग्य प्रकृतियों का, नो-नहीं, सुहुमतिगेण - सूक्ष्मत्रिक के साथ, जसं — यगः कीर्ति, नो- -नहीं, अजसऽथिराऽसुभाहारे - अयशः कीर्ति, अस्थिर, अशुभ का आहारक का बध होने पर । १०० गाथार्थ - तीर्थंकरकर्म के निमित्त से मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन और देवगतियोग्य प्रकृतियों का गंध होता है, सूक्ष्मत्रिक के साथ यशः कीर्ति का तथा आहारक का बंध होने पर अयशः कीर्ति, अस्थिर और अशुभ का बंध नहीं होता है । विशेषार्थ - गाथा में बताया है कि देवगति में तीर्थंकरनाम का बंध करने पर तत्सहचारी कितनी प्रकृतियों का बंध होता है तथा बंध की अपेक्षा कौन सी प्रकृतियां सहचारी हैं । तीर्थंकरनाम के साथ बंधने वाली प्रकृतियां इस प्रकार हैं देवगति में वर्तमान जब तीर्थंकरनाम का बंध करता है तब उस तीर्थंकरनाम के साथ - मणुउरलदुरिसभदेवजोगाओ' मनुष्यद्विकमनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग रूप औदारिकद्विक, वज्रऋषभनाराचसंहनन इन पांच प्रकृतियों तथा देवद्विक, वैक्रियद्विक और आहारकद्विक के सिवाय पूर्व गाथा में कही गई अस्थिर, अशुभ आदि सत्ताईस प्रकृति कुल बत्तीस प्रकृतियों का बंध होता है । 1 तथा सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त नामकर्म के साथ यशः कीर्ति का १ इसी प्रकार नरकगति में तीर्थंकरनामकर्म को बांधे तत्र भी उक्त बत्तीस प्रकृतियों का बंध होता है । क्योंकि देव और नारकों के तीर्थंकर नाम का बंध चौथे गुणस्थान में ही होता है और वहाँ उपर्युक्त प्रकृतियों का बंध होता है । - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५१ बंध नहीं होता है-'नो सुहमतिगेण जसं' और जब आहारकद्विक का बंध होता हो अथवा उदय हो तब अयशःकीर्ति, अस्थिर और अशुभ रूप तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है-'नो अजसऽथिराऽसुभाहारे' एवं उनका उदय भी नहीं होता है। ____ अब बंधाश्रयी नरकगति सहचारिणी प्रकृतियों का उल्लेख करते हैं। नरकगति बंध सहचारिणी प्रकृतियां अपज्जत्तगबन्धं दूसरपरघायसास पज्जत्तं । तसअपसत्थाखगई वेउव्वं नरयगइहेऊ ॥५१॥ शब्दार्थ-अपज्जतगबन्धं-- अपर्याप्त बंध, दूसर-दुःस्वर, परघायपराघात, सास-उच्छ्वास, पज्जत्तं--पर्याप्तनाम, तस-त्रस, अपसत्थाखगईअप्रशस्त विहायोगति, वेउव्वं-क्रियद्विक, नरयगइहेऊ-नरकगति की हेतुभूत । गाथार्थ-अपर्याप्त-बंध, दुःस्वर, पराघात, उच्छ्वास, पर्याप्त नाम, त्रस, अप्रशस्त विहायोगति और वैक्रियद्विक ये नरकगति की हेतुभूत प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-गाथा में नरकगति सहचारिणी प्रकृतियां बतलाई हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं अपर्याप्त योग्य बंध करते बंधने वाली प्रकृतियों की अपर्याप्त-बंध यह संज्ञा है । ऐसी प्रकृतियां बाईस हैं जिनका स्वयं ग्रन्थकार ने आगे उल्लेख किया है। ये अपर्याप्त के बंधयोग्य प्रकृतियां नरकगति योग्य बंध करते बंधती हैं तथा दुःस्वर, पराघात, उच्छ्वास, पर्याप्तनाम, वसनाम, अप्रशस्तविहायोगति और वैक्रियद्विक इस तरह कुल मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतियां बंध की अपेक्षा नरकगति-सहचारिणी हैं, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ यानि नरकगति योग्य बंध करते बंधती हैं ।" अब अपर्याप्त बंधयोग्य बाईस प्रकृतियों को बतलाते हैं । अपर्याप्त बंधयोग्य प्रकृतियां हुण्डोरालं धुवबंधिणी गइ आणुपुव्वि जाई शब्दार्थ- हुण्डोरालं- हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर, धुवबंधिणी उ-ध्रुवबंधिनी नामनवक, अथिराइदूसरविणा — दुःस्वर से रहित अस्थिरषट्क, गइ - गति, आणुपुव्वि - आनुपूर्वी, जाई- जाति, बायरपत्तेयऽपज्जत्ते - बादर, प्रत्येक और अपर्याप्त नाम । पंचसंग्रह : १० उ १ अथिराइदूसरविणा । बारपत्तेयsपज्जत्ते ॥ ५२ ॥ गाथार्थ - हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर, ध्रुवबंधिनी नामनवक, दुःस्वरहीन अस्थिरषट्क, गति आनुपूर्वी, जाति, बादर, प्रत्येक और अपर्याप्त नाम ये बाईस प्रकृतियां अपर्याप्तयोग्य बंध करते बंधती हैं । विशेषार्थ - गाथा में अपर्याप्त बंधयोग्य बाईस प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर, नामकर्म की ध्रुवबंधिनी वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, तैजस, कार्मण, उपघात और निर्माण रूप नौ प्रकृतियां तथा दुःस्वररहित अस्थिरषट्क यानि अस्थिर, अशुभ, दुभंग, अनादेय और अयशःकीर्ति रूप पांच प्रकृति, मनुष्यद्विक और तियंचद्विक में से एक द्विक, अन्यतर जाति, बादर, प्रत्येक और अपर्याप्त नाम गाथा में वैक्रिय और पर्याप्त का ग्रहण किये जाने से अपर्याप्त के बंधयोग्य बाईस प्रकृतियों में जो औदारिक और अपर्याप्त नाम का ग्रहण किया है, वह यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये तथा बाईस में तिर्यंचद्विक या मनुष्यद्विक दो में से एक का ग्रहण किया है, उसके बदले यहाँ नरकद्विक का ग्रहण करना चाहिये । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५२, ५३, ५४ १०३ बाईस प्रकृतियां अपर्याप्तयोग्य बंध करते बंधती हैं । जिससे ये अपर्याप्तक-बंध संज्ञा वाली हैं ।" इस प्रकार से अपर्याप्तबंधयोग्य प्रकृतियों का निर्देश करने के बाद अब त्रस तथा पर्याप्त एकेन्द्रियादियोग्य बंध प्रकृतियों का निरूपण करते हैं । त्रस तथा पर्याप्त एकेन्द्रियादि योग्य बंध प्रकृतियां बंधइ सुमं साहारणं च थावरतसंगछेवट्ठ । पज्जत्ते उ सथिरसुभजससासुज्जोवपरघायं ॥ ५३ ॥ आयावं एगिदियअप सत्यविहदूसरं व विगलेसु । पंचिदिएसु सुसराइखगइ संघयणसंठाणा ॥ ५४ ॥ शब्दार्थ - बंधइ -- बंधती हैं, सुहुमं - सूक्ष्म, साहारणं -- साधारण, च और, थावर- -स्थावर नाम, तसंगछेवट्ठ- त्रस, अंगोपांग और सेवार्त संहनन, पज्ज -पर्याप्त योग्य, उ और, सथिर सुभजस - स्थिर, कीर्ति सहित, सासुज्जोवपरघायं -- उच्छ्वास, उद्योत पराघात । शुभ, यश: } आयावं - आतप, एगिंदिय – एकेन्द्रिय, अपसत्य विहदू सरं- अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर, व -- और, विगलेसु - विकलेन्द्रिय में, पंचिदिए— पंचेन्द्रिय के बंध में, सुसराइ - - सुस्वरादि, खगइ - - विहायोगति, संघयण संठाणा-संहनन और संस्थान | गाथार्थ - एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर सूक्ष्म, साधारण और स्थावर, सयोग्यबंध में त्रसनाम, ( औदारिक) अंगोपांग, सेवार्त संहनन तथा पर्याप्त योग्य बंध करने पर स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति, उच्छ्वास, उद्योत पराघात सहित बंध होता है, पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बांधने पर आतप बंधता है, विकलेन्द्रिययोग्य बंध करने पर अप्रशस्त विहायोगति और दु:स्वर बंधता है | पंचेन्द्रिययोग्य 3 १ पर्याप्त नाम के साथ ये प्रकृतियां बंध और उदय में असम्भव हैं । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पंचसंग्रह : १० बांधने पर सुस्वरादि, खगति (विहायोगति) संहनन और संस्थान नामकर्म का भी बंध होता है। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सहचारिणी बंधयोग्य प्रकृतियों का कथन किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है अपर्याप्तबंध संज्ञावाली प्रकृतियों का ऊपर निर्देश किया है । अब यदि उन प्रकृतियों को बांते हुए जब एकेन्द्रिय योग्य बंध करे तब स्थावर, सूक्ष्म और साधारण नाम रूप तीन प्रकृतियां भी बंधयोग्य होती हैं- "बंधइ सुहुमं साहारणं च थावर।" तथा-सयोग्य बंध हो तब त्रसनाम, औदारिक-अंगोपांग, और सेवार्त संहनन ये तीन प्रकृतियां बंधयोग्य समझना चाहिये"तसंगछेवळं।" इस प्रकार पच्चीस-पच्चीस प्रकृतियां बंधती हैं। तथा पर्याप्त नाम का बंत्र करे तब पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्तनाम कम करके स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति, उच्छ्वास, उद्योत और पराघात मिलाने पर जितनी होती हैं, उतने का बंध होता है'पज्जत्ते उ सथिरसुभजससासुज्जोवपरघायं ।' तात्पर्य यह हुआ कि जब पर्याप्त नाम के बंध का विचार करें तब पूर्वोक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्त को कम करके पर्याप्त नाम को मिलाना चाहिये और उसके बाद स्थिर आदि छह प्रकृतियों को मिलाने से इकत्तीस होती हैं। इन इकत्तीस प्रकृतियों का पर्याप्त स्थावर एकेन्द्रिययोग्य बंध हो तब या पर्याप्त त्रसयोग्य बंध हो तब यथासंभव समझना चाहिये, तथा जब खरबादर पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध हो तब बत्तीसवां आतपनाम भी बंधयोग्य समझना चाहिये-'आयावं एगिदिय' । तथा जब पर्याप्त विकलेन्द्रिययोग्य बंध हो तब अप्रशस्त विहायोगति और दुःस्वर नाम का बंध होता है-'अपसत्थविहदूसरं व विमलेसु।' For Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५ १०५ इसलिये पर्याप्त विकलेन्द्रिययोग्य तेतीस प्रकृतियां बंधयोग्य होती हैं । तथा जब पर्याप्त तिर्यंचपंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य प्रकृतियों का बंध हो तब सुस्वर, सुभग, आदेय, प्रशस्तविहायोगति और अंतिम संस्थान तथा संहनन का ग्रहण पूर्व में कर लिये जाने से उसके सिवाय पांच संहनन और पांच संस्थान इस तरह चौदह अन्य प्रकृतियों का बंध संभव है । जिससे सैंतालीस प्रकृतियां बंधयोग्य समझना चाहिये | 1 इस प्रकार पर्याप्त, अपर्याप्त, स्थावर और त्रसयोग्य बंध करते जितनी प्रकृतियां हो सकती हैं, उतनी जानना चाहिये अब नामकर्म के बंधस्थानों का निरूपण करते हैं । नामकर्म के बंधस्थान तेवीस पणुवीसा छव्वीसा अट्ठवीस वीसेगतीस एगो बंधठाणाइ शब्दार्थ - तेवीसा-तेईस, पणुवीसा - पच्चीस, छथ्वीसा - छब्बीस, अट्ठावीस अट्ठाईस गुणतीसा- उनतीस, तोसेगतीस-तीस, इकत्तीस एगो - एक प्रकृतिक, बंधट्ठाणाइ – बंधस्थान, नामेऽट्ठ- नामकर्म के आठ । गुणतीसा । नामेऽट्ठ ॥५५॥ गाथार्थ - तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक, इस प्रकार नामकर्म के आठ बंधस्थान हैं । विशेषार्थ - गाथा में नामकर्म के बंधस्थानों की संख्या और प्रत्येक बंधस्थान कितनी प्रकृति संख्या वाला है, इसका निर्देश किया है । जो इस प्रकार समझना चाहिये १ यद्यपि तिर्यंचगतियोग्य अधिक से अधिक तीस प्रकृतियां बंध में हैं । परन्तु यहां परस्पर विरुद्ध प्रकृतियों को भी गिनने से संख्या अधिक ज्ञान होती है । यदि उनको कम कर दिया जाये तो संख्या बराबर होगी । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० एक साथ जितनी प्रकृतियों का बंध हो, उसको बंधस्थान कहते हैं और गाथा में जिस क्रम से कहे हैं, वे कुल मिलाकर आठ होते हैं। जो इस प्रकार जानना चाहिये-तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक । इनमें से किस गति योग्य बंध करते कितने बंधते हैं और किस गति में कौन-कौन बंधते हैं, इसको विस्तारपूर्वक आगे स्पष्ट किया जा रहा है । ____अब उपर्युक्त बंधस्थानों में से मनुष्य आदि गति में वर्तमान जीव जितने बंधस्थानों का बंध करते हैं इसको स्पष्ट करते हैं। मनुष्यादि गतियों में बंधयोग्य बंधस्थान मणुयगईए सव्वे तिरियगईए य छ आइमा बंधा । नरए गुणतीस तीसा पंचछवीसा य देवेसु ॥५६॥ शब्दार्थ--मणुयगईए-मनुष्यगति में, सम्वे--सभी, तिरियगईए ---तिर्यंचगति में, य-और, छ-छह, आइमा--आदि के, बंधा-बंधस्थान, नरएनरकगति में, गुणतीस-उनतीस, तीसा--तीस, पंचछवीसाय--पच्चीस, छब्बीस तथा पूर्वोक, देवेसु-देवगति में । ___ गाथार्थ-मनुष्यगति में समस्त बंधस्थान होते हैं । तिर्यचगति में आदि के छह, नरकगति में उनतीस और तीस प्रकृतिक तथा देवगति में पच्चीस, छब्बीस तथा पूर्वोक्त उनतीस, तीस प्रकृतिक इस प्रकार बंधस्थान होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में चारों गति में नामकर्म के संभव बंधस्थानों का निर्देश किया है 'मणुयगईए सव्वे' अर्थात् मनुष्य के सभी गतियों में उत्पन्न हो सकने से मनुष्यगति में वर्तमान जीव यथायोग्य रीति से नामकर्म के सभी तेईस प्रकृतिक से लेकर एक प्रकृतिक तक के आठों बंधस्थान बांधता है। उनमें से एकेन्द्रिययोग्य तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक इस तरह तीन और विकलेन्द्रिययोग्य पच्चीस, उनतीस, तीस Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६ प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान बांधता है । नरक में उत्पन्न होता तद्योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक स्थान का बंध करता है । देवगति में उत्पन्न होने वाला अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस तरह चार बंधस्थानों को बांधता है । क्षपक और उपशम श्रेणि में वर्तमान एक प्रकृतिक बंधस्थान को बांधता है तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य पच्चीस, उनतीस, तीस प्रकृतिक तथा मनुष्यगतियोग्य पच्चीस, उनतीस प्रकृतिक, इस प्रकार प्रकृतियों का बंध करता है। इस प्रकार मनुष्यगति में वर्तमान यथायोग्य सभी बंधस्थानों को बांधता है। ____ अब तिर्यंचगति में बंधयोग्य बंधस्थानों को बतलाते हैं-'तिरियगईए य छ आइमा बंधा' अर्थात् तिर्यंचगति में वर्तमान आदि के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इस प्रकार यथासंभव छह बंधस्थानों को बांधता है । क्योंकि तिर्यंच भी चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। जिससे चारों गतियोग्य उक्त बंधस्थानों का बंध होता है । मात्र तीर्थंकर और आहारकद्विक के साथ देवगति योग्य इकत्तीस प्रकृतिक और श्रेणियोग्य एक प्रकृतिक बंधस्थान इन दो बंधस्थानों का बंध तिर्यंचों के संभव नहीं है। क्योंकि उनमें चारित्र और श्रेणि का अभाव है। नरकगति में बंधयोग्य स्थान इस प्रकार हैं-'नरए गुणतीस तीसा' अर्थात् नरकगति में उनतीस और तीस प्रकृतिक, इन मनुष्य और तिर्यंचगति योग्य दो बंधस्थानों का बंध होता है। क्योंकि 'नारक अवश्य पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच और मनुष्य में ही उत्पन्न होते हैं। उन दोनों के योग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान है तथा जो नारक मरकर श्रेणिक की तरह तीर्थकर होंगे वे तीर्थकर नाम सहित मनुष्यगति योग्य तीस प्रकृतिक रूप बंधस्थान का बंध करते हैं। देवगति में बंधयोग्य बंधस्थान इस प्रकार हैं-'पंचछव्वीसा य देवेसु" अर्थात् देवगति में वर्तमान जीव बादर पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य १. उद्योत के साथ तिर्यंचगतियोग्य भी तीस प्रकृतियों को बांधते हैं । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पंचसंग्रह : १० I पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक तथा 'य-च' कार से पूर्वोक्त मनुष्यतिर्यंचगति योग्य उनतीस और तीस प्रकृतिक इस प्रकार चार बंधस्थान बांधते हैं । उनमें से बादर पर्याप्त पृथ्वी अप् और प्रत्येक. वनस्पति में उत्पन्न होने वाले पच्चीस प्रकृतियों को बांधते हैं तथा आतप के साथ बांधने पर वही पच्चीस प्रकृतिक छब्बीस प्रकृतिक होता है । उस छब्बीस प्रकृति रूप बंधस्थान को खर पर्याप्त बादर पृथ्वीकाययोग्य बंध करते बांधते हैं। उनतीस और तीस प्रकृति रूप दोनों बंधस्थानों का विचार नारकों की तरह समझना चाहिये । क्योंकि देव भी गर्भंज पर्याप्त तियंच और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं । उनमें से तियंच में उत्पन्न होते उनतीस प्रकृतिक और उद्योत के साथ तीस प्रकृतिक तथा मनुष्य में उत्पन्न होते उनतीस प्रकृतिक एवं तीर्थंकर नाम के साथ तीस प्रकृतिक बंधस्थान को बांधते हैं । इस प्रकार अमुक अमुक गति में वर्तमान जीवों के बंधस्थानों के बंध को जानना चाहिये । अब यह स्पष्ट करते हैं कि अमुक किसी गति योग्य बंध करते नामकर्म के कितने और कौन से बंधस्थान बंधते हैं । प्रत्येक गतियोग्य नामकर्म के बंधस्थान अडवीस नरयजोग्गा अडवीसाई सुराण चत्तारि । तिगपण छब्बीसेगिदियाण तिरिमणुय बंधतिगं ॥ ५७ ॥ T शब्दार्थ - अडबीस - अट्ठाईस प्रकृतिक, नरयजोग्गा - नरकप्रायोग्य, अडवीसाई - अट्ठाईस प्रकृतिक आदि, सुराण - देव प्रायोग्य, चत्तारि - चार, तिगपणछब्बीस-तीन, पांच और छह अधिक बीस, एगिंदियाण - एकेन्द्रिय -तीन बंधस्थान योग्य, तिरिमण्य - तिर्यंच और मनुष्य योग्य, बंधतिगं गाथार्थ - अट्ठाईस प्रकृतिक नरकगति प्रायोग्य तथा अट्ठाईस प्रकृतिक आदि चार देवगति प्रायोग्य, तीन, पांच और छह अधिक बीस ( तेईस, पच्चीस, छब्बीस) प्रकृतिक एकेन्द्रिय योग्य और मनुष्य, तिर्यंच के योग्य ( पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक) तीन बंधस्थान हैं | Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७,५८ १०६ विशेषार्थ - यहां चतुर्गति योग्य नामकर्म के बंधस्थानों का निरूपण किया है । इसका प्रारंभ किया है नरकगति से कि अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान नरकगतियोग्य है- 'अडवीस नरयजोग्गा ।' यानि नरकगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृति रूप नामकर्म का बंधस्थान है । तथा देवगतियोग्य बंध करने पर 'अडवीसाई सुराण चत्तारि - 'अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस प्रकार चार बंधस्थान बंधते हैं । तथा— एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान बंधते हैं - 'तिगपणछ्व्वीसेगिंदियाण' और द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यगति योग्य बंध करने पर पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इस तरह तीनतीन बंधस्थान बंधते हैं । 1 इन बंधस्थानों में गर्भित प्रकृतियों के नाम आगे कहे जा रहे हैं । यहां तो बंधस्थानों की सूचना मात्र दी है । अब गुणस्थानों में बंधस्थानों का विचार करते हैं । गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थान मिच्छम्मि सासणासु तिअट्ठवोसाइ नामबंधाओ । छत्तिष्णि दोति दोदो चउपण सेसेसु जसबंधी ॥ ५८ ॥ शब्दार्थ -- मिच्छम्मि सासणासु - मिथ्यात्व और सासादन आदि में, तिअवीसाइ - तेईस और अट्ठाईस प्रकृतिक आदि नामबंधाओ - नामकर्म के बंधस्थान, छत्तिणि- छह, तीन, दोति दो, तीन, बोदोटो, दो, चउपण चार, पांच, सेसेसु - शेष गुणस्थानों में, जसबंधो - यशःकीर्ति का बंध | गाथार्थ - मिथ्यात्व और सासादन आदि में अनुक्रम से तेईस आदि और अट्ठाईस आदि छह, तीन, दो, तीन, दो, दो, चार और पांच बंधस्थान होते हैं और शेष गुणस्थानों में यशः कीर्ति का ही बंध होता है | J Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ - गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों का निर्देश किया है । जिसका यथाक्रम से स्पष्टीकरण इस प्रकार है ११० 1 मिथ्यात्व गुणस्थान में तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृति रूप नामकर्म के छह बन्धस्थान होते हैं । इसका कारण यह है कि मिथ्यादृष्टि चारों गति वाले सभी जीव होते हैं और चारों गतियोग्य बंध करते हैं, जिससे उपर्युक्त बंधस्थान संभव हैं । इकत्तीस और एक प्रकृतिक बंधस्थान इस गुणस्थान में में इसलिये संभव नहीं है कि इकत्तीस प्रकृतियों का बंध सातवें और आठवें तथा एक प्रकृति का बंध आठवें गुणस्थान में होता है । ऐसा होने से मिथ्यात्व गुणस्थान में इन दो के सिवाय शेष बंधस्थान माने हैं । सासादन गुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं । उनमें से सासादन गुणस्थान में रहते पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच अथवा मनुष्य को देवगतियोग्य प्रकृतियों का बंध होने पर अट्ठाईस प्रकृतिक तथा देव अथवा नारक को तिर्यंच अथवा मनुष्यगति योग्य बंध होने पर उनतीस प्रकृतिक और उद्योतनाम के साथ तिर्यंचगतियोग्य बंध करने पर तीस प्रकृतिक इस प्रकार तीन बंधस्थान होते हैं । 2 ''' सम्यग्मथ्यादृष्टि गुणस्थान में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं । उनमें से पर्याप्त संज्ञी तिर्यंच अथवा मनुष्य को देवगतियोग्य बंध करते अट्ठाईस प्रकृतिक और देव अथवा नारक को मनुष्यगति योग्य बंध करने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । तीसरा गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में और संज्ञी को ही होता है । १. अपर्याप्त अवस्था में पहले दूसरे गुणस्थान में नरक या देवगति योग्य बंध नहीं होता है । २ दूसरे गुणस्थान में मनुष्य या तिर्यंच को भी मनुष्य या तियंचगति योग्य बंध हो सकता है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८ १११ देव और नारक मनुष्यगतियोग्य और मनुष्य तथा तिथंच देवगति योग्य ही बंध करते हैं। ___ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं। यह गुणस्थान चारों गति के संज्ञी जीवों के कारण अपर्याप्त और पर्याप्त अवस्था में होता है । जिससे यथायोग्य उक्त बंधस्थान संभव हैं। उनमें से तिर्यंच अथवा मनुष्य को देवगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृतिक और मात्र मनुष्यों को तीर्थकर नाम के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर उनतीस प्रकृतिक, देव व नारकों के मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर उनतीस प्रकृतिक और तीर्थंकर नाम के साथ बांधने पर उनको तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। देशविरत और प्रमत्तसंयत इन दो गुणस्थानों में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो-दो बंधस्थान होते हैं। उनमें देवगतियोग्य बंध करने पर देशविरत मनुष्य और तिर्यंचों के अट्ठाईस प्रकृतिक तथा तीर्थकर नाम के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर मनुष्य को उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। __ प्रमत्त गुणस्थान में भी यही दो बंधस्थान होते हैं परन्तु मनुष्यों के ही । क्योंकि प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान मनुष्यगति में ही होते हैं। साथ ही यह भी समझना चाहिये कि संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों के ही प्रथम पाँच गुणस्थान होते हैं । भोगभूमिजों के तो आदि के चार गुणस्थान होते हैं तथा तीर्थंकर नाम का बंध तिर्यंच करते नहीं हैं। जिससे तीर्थंकर नाम के साथ के किसी भी बंधस्थान का तिर्यंचगति में बंध नहीं होता है। इसीलिये पाँचवें गुणस्थान में तिर्यंच को अट्ठाईस प्रकृतिक रूप एक बंधस्थान बताया है। १ अपर्याप्त अवस्था में नया सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, परन्तु पूर्वजन्म का लाया हुआ हो सकता है । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ पंचसंग्रह : १० कदाचित् यह कहा जाये कि आहारकद्विक का बंध संयम निमित्तक है और संयम-सर्वविरत चारित्र प्रमत्तसंयत को भी है, तो फिर प्रमत्तसंयत को आहारकद्विक का बंध संभव होने से देवगतिप्रायोग्य आहारद्विक सहित तीस प्रकृतिक बंधस्थान क्यों नहीं बताया है ? तो इसका उत्तर यह है कि अप्रमत्तसंयत से प्रमत्तसंयत का संयम मंद होने से प्रमत्तसंयत का चारित्र आहारकद्विक के बंध में हेतु नहीं है । क्योंकि अत्यन्त विशुद्ध अप्रमत्तभाव का चारित्र ही आहारकद्विक के बंध में हेतु है। प्रमत्तसंयत को वैसे विशिष्ट चारित्र का अभाव होने से उसे आहारकद्विक के साथ देवगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान का अभाव है। ___ अप्रमत्तसंयत को अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये चार बंधस्थान होते हैं। उनमें आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम बिना देवगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृतिक, तीर्थंकरनाम के साथ बांधने पर उनतीस प्रकृतिक, आहारद्विक के साथ बाँधने पर तीस प्रकृतिक और आहारकद्विक व तीर्थकरनाम के साथ अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करने पर इकतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। अपूर्वकरण गुणस्थान से अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक ये पाँच बांधस्थान होते हैं। उनमें अट्ठाईस आदि चार बंधस्थान तो अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की तरह समझना चाहिये और पाँचवाँ बंधस्थान आठवें गुणस्थान के छठे भाग में नामकर्म की तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद एक यशःकीर्ति नाम के बंध रूप है। __ शेष रहे अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में एक यशःकीति नाम का बंध होता है । यहाँ अतिविशुद्ध परिणाम होने के कारण नामकर्म की अन्य कोई भी प्रकृति नहीं बंधती है। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि नौवें, दसवें गुणस्थान में अतिविशुद्ध अध्यवसाय होने के कारण तीर्थंकरनाम, आहारकद्विक आदि जैसी पुण्य प्रकृतियों का बंध क्यों नहीं होता है ? अतिविशुद्ध परिणाम Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५८ ११३ सके बाद नहीं पूण्य और पाप प्रमुक से बंध के अध्यवसायलष्ट परिणाम द्वारा उसकी अपेक्षा * का बंधामा के विशुद्ध प्रकृति नहीं हष्ट चाहिये, अपेक्षा होने के कारण अल्पस्थिति वाली और उत्कृष्ट रस वाली उपर्युक्त प्रकृतियां बंधना चाहिये । फिर वे सभी प्रकृतियां आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक ही बंधती हैं, उसके बाद नहीं बंधती हैं, ऐसा क्यों कहा है ? तो इसका उत्तर यह है कि प्रत्येक पुण्य और पाप प्रकृतियों के बंध के अध्यवसाय की अमुक मर्यादा होती है। जैसे कि अमुक से अमुक मर्यादा तक के संक्लिष्ट परिणाम द्वारा अमुक-अमुक पाप प्रकृति बंधती है। जितनी मर्यादा का जघन्य चाहिये, उसकी अपेक्षा और जघन्य हो और जितनी सीमा का उत्कृष्ट चाहिये, उसकी अपेक्षा प्रवर्धमान हो तो वह पाप प्रकृति नहीं बंधती है । इसी तरह अमुक से अमुक सीमा के विशुद्ध परिणाम द्वारा अमुक-अमुक पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है और कम से कम जितनी सीमा के विशुद्ध परिणाम चाहिये उससे कम हों तथा अधिक से अधिक जितनी सीमा के विशुद्ध परिणाम चाहिये उससे अधिक हों तो वह पुण्यप्रकृति भी नहीं बांधती है। यदि इस प्रकार की व्यवस्था न हो तो पाप प्रकृति अथवा पुण्य प्रकृति के बंध की कोई मर्यादा ही नहीं रहे । जैसे कि अमुक प्रकार के क्लिष्ट परिणाम के योग से तिर्यंचगति का बंध होता है, और वह भी वहाँ तक, जहाँ तक उसके योग्य परिणाम हों। लेकिन उससे भी प्रवर्वमान क्लिष्ट परिणाम हो तब नरकगतियोग्य बंध होता है, परन्तु तिर्यंचगति योग्य नहीं होता है। इसी प्रकार कम से कम अमुक सीमा तक विशुद्ध परिणामों से और अधिक से अधिक अमुक सीमा तक के विशुद्ध परिणामों द्वारा ही तीर्थकरनाम या आहारकद्विक का बंध होता है। कम से कम जितनी सीमा तक के चाहिये, उससे कम हों या अधिक से अधिक जितनी सीमा के चाहिये उससे अधिक हों तब तीर्थंकरादि पुण्य प्रकृतियां भी नहीं बंधती हैं । यदि ऐसा न हो तो आठवें गुणस्थान से नौवें, दसवें गुणस्थान में अधिक विशुद्ध परिणामी आत्मा होती है और उन-उन परिणामों द्वारा यदि बांध होता ही रहे तो उसका विच्छेद कब होगा? और मोक्ष कैसे होगा? इसलिये प्रत्येक प्रकृति के बंधयोग्य Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पंचसंग्रह : १० अध्यवसायों की मर्यादा होती है जिनको गुणस्थानों में उस उस प्रकृति के बंधविच्छेद द्वारा बताया है । इस प्रकार से गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों को जानना चाहिये | अब पूर्व में जो एकेन्द्रियादि योग्य तेईस प्रकृतिक आदि बंधस्थान कहे हैं उन सबका विचार करते हैं । उनमें से पहले एकेन्द्रिय प्रायोग्य बंधस्थानों का विवेचन करते हैं । एकेन्द्रिय-योग्य बंधस्थान तग्यणुपुव्विजाई थावरमाईय दूसरविणा । ध्रुवबंधि हुण्डविग्गह तेवीसावज्जथावरए ॥ ५६ ॥ पगईणं वच्चासो होइ गइइंदियाइ आसज्ज । सपराघाऊसासा पणवीस छवीस सायावा ||६०|| शब्दार्थ -- तग्गयणपुग्विजाई - वह गति, आनुपूर्वी और जाति ( तियंचगति, तिचानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति), थावरमाईय - स्थावर आदि, दूसरविहूणा - दु:स्वर हीन, ध्रुवबंधि - ध्रुवबंधिनी नवक, हुण्डविग्गह- हुण्ड संस्थान, औदारिक शरीर, तेवीसा— तेईस, अपज्जथावरए — अपर्याप्त, स्थावर - एकेन्द्रिय योग्य | -- पगईणं - प्रकृतियों का, वच्चासो – फेरफार- परिवर्तन, होइ — होता है, गडइंदियाइ - गति, इन्द्रिय आदि के, आसज्ज - अपेक्षा, सपराधाऊसासापराघात और उच्छ्वास के साथ, पणवीस- -पच्चीस, छवीस - छब्बीस, सायावा - आतप के साथ | ―――― ―――――― गाथार्थ - वह गति आदि अर्थात् तियंचगति, तियंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति दुःस्वरहीन स्थावरादि नौ, ध्रुवबंधिनी नामनवक, हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर ये तेईस प्रकृतियां अपर्याप्त स्थावर - एकेन्द्रिय के बंधयोग्य जानना चाहिये । गति और इन्द्रियों की अपेक्षा प्रकृतियों में फेरफार होता है । पराघात और उच्छ्वास के साथ पच्चीस और आतप या उद्योत को मिलाने से छब्बीस प्रकृतियां होती हैं । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६, ६० ११५ विशेषार्थ इन दो गाथाओं से नामकर्म के बंधस्थानों का गति आदि भेदों की अपेक्षा विचार प्रारंभ किया है कि किस गति और इन्द्रिय वाले जीव के कितने बंधस्थान संभव हैं । जिसका कथन प्रारम्भ किया है एकेन्द्रिय जीव से कि एकेन्द्रिय जीव की अपेक्षा तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये 'तग्गयणुपुविजाई अर्थात् इस संकेत का यह अर्थ समझना चाहिये कि गाथा में जो स्थावर शब्द आया है उसके सान्निध्य से तत् शब्द द्वारा तियंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति का ग्रहण किया गया है । इसका यह आशय हुआ कि तिर्यंचगति, तियंचानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, दुःस्वर नामकर्म बिना स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, अनादेय, अयशः कीर्ति ये स्थावरादि नौ, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात ये ध्रुवबंधिनी नाम - नवक, हुण्डसंस्थान और औदारिक शरीर ये तेईस प्रकृतियां अपर्याप्त स्थावर - अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य जानना चाहिये । यानि अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करते तिथंच और मनुष्य उक्त तेईस प्रकृतियां बांधते हैं । ...... पूर्व में अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियां मात्र संभावना से ग्रहण की हैं । इन पच्चीस में परस्पर विरोधिनी प्रकृतियां भी ली हैं । क्योंकि उनमें सामान्यतः सूक्ष्म, बादर के विभाग के सिवाय अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करते कितनी प्रकृति बंधती है, यह कहा है । जबकि यहाँ विभागपूर्वक साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करते एवं प्रत्येक, बादर, अपर्याप्त, एकेन्द्रिययोग्य बंध करते कितनी बंधती हैं, यह कहा । जिससे पूर्व में कही पच्चीस प्रकृतियों में से परस्पर विरुद्ध प्रकृतियों को अलग कर दिया जाये तब तेईस प्रकृतियां शेष रहती हैं, जिनका यहाँ उल्लेख किया है । ऐसा होने से तेईस प्रकृतिक बंध के यह चार प्रकार होते हैं१. बादर और साधारण के साथ तेईस प्रकृतियों के बांधने पर पहला, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० २. बादर और प्रत्येक के साथ तेईस प्रकृतियों को बांधने पर दूसरा, ३. सूक्ष्म और साधारण के साथ तेईस प्रकृतियों को बांधने पर तीसरा और ४. सूक्ष्म व प्रत्येक के साथ तेईस प्रकृतियों को बांधने पर चौथा भंग होता है । अर्थात् परस्पर विरोधी प्रकृतियों के होने के कारण एक ही बंधस्थान चार प्रकार से बनता है। इस प्रकार से अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध प्रकृतियां जानना चाहिये । अब पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य प्रकृतियों का कथन करते हैं कि पूर्वोक्त बंधस्थानों में से कोई प्रकृति निकालकर उसके स्थान पर अन्य का प्रक्षेप करना चाहिये। इसी प्रकार अन्य बंधस्थानों में भी समझना चाहिये। ऐसा होने से सामान्यतः प्रकृतियों का व्यत्यास-फेरफार करने की यह दृष्टि है_ 'गइइंदियाइ आसज्ज वच्चासो होइ' अर्थात् गति, इन्द्रिय और आदि शब्द से वैक्रियादि शरीर की अपेक्षा पूर्व में कहे गए बंधस्थान की प्रकृतियों में व्यत्यास-फेरफार करना चाहिये । तात्पर्य यह हुआ कि तिर्यंचगति और द्वीन्द्रियादि इन्द्रिय की अपेक्षा पूर्वोक्त प्रकृतियों में से कितनी ही प्रकृतियों को तो स्वयमेव दूर करना चाहिये और कितनी ही प्रकृतियों का प्रक्षेप करना चाहिये । जैसे कि देवगति अथवा नरकगति आश्रयी बंधस्थानों का विचार करने के लिये उपर्युक्त बंधस्थान में से स्थावरादि चतुष्क कम करके उसके स्थान पर प्रसादि चतुष्क जोड़ना चाहिये तथा द्वीन्द्रियादि के बंधस्थानों का विचार करना हो तब स्थावर, सूक्ष्म और साधारण इन तीन प्रकृतियों को हटाकर उनके स्थान पर त्रस, बादर और प्रत्येक का प्रक्षेप करना चाहिये। वैक्रिय और आहारक का बंध सम्बन्धी विचार करें तब औदारिक के स्थान पर वैक्रिय और आहारक लेना चाहिये । क्योंकि देवगतिप्रायोग्य तीस या इकत्तीस प्रकृतिक बंध हो तब आहारक और उसके साथ वैक्रिय नाम का बंध होता है। उस समय औदारिकनाम का बंध नहीं होता है। इस प्रकार जिस-जिस के योग्य बंध Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६, ६० स्थान का विचार करना हो, उस-उस के योग्य जो-जो प्रकृतियां हों उनको मिलाकर अन्य प्रकृतियों को कम करना चाहिये । इस प्रकार से व्यत्यास करने की पद्धति का संकेत करने के बाद अब पर्याप्त एकेन्द्रियप्रायोग्य बंधस्थानों को बतलाते हैं पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंधस्थान का विचार करने पर अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंधस्थान में जो प्रकृतियां कही हैं उनमें से अपर्याप्तनाम को कम करके पर्याप्तनाम का प्रक्षेप करना चाहिये और शेष प्रकृतियां वही रखना चाहिये । इस प्रकार से संभव तेईस प्रकृतिक स्थान को पराघात और उच्छ्वास सहित करने पर पच्चीस प्रकृतियां होती हैं । ये पच्चीस प्रकृतियां पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करते मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंच और ईशान स्वर्ग तक के देवों को बंधयोग्य जानना चाहिये । ये पच्चीस प्रकृतियां इस प्रकार हैं - पूर्व में चक्ररचना के लिये कही गई गाथा ५२ से ५४ में संभावना की अपेक्षा आतप के साथ बत्तीस प्रकृतियां पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य कही हैं । उनमें आतप और उद्योत तो पच्चीस प्रकृतियों के बंध में संभवित नहीं है, उच्छ्वास और पराघात इन दो प्रकृतियों को ग्रन्थकार ने स्वयं ग्रहण किया है और स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, यश:कीर्ति - अयश: कीर्ति, प्रत्येक - साधारण तथा सूक्ष्म- बादर ये परस्पर विरुद्ध प्रकृतियां हैं । जिससे इन दस में से यथायोग्य पाँच प्रकृतियां ही एक साथ बंधने वाली होने से उनको परावर्तन के साथ ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार करने पर पच्चीस प्रकृतियां बंधयोग्य होती हैं और वे इस प्रकार हैं तिर्यंचगति, तिर्यचानुपूर्वी, एकेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस, कार्मण ये तीन शरीर, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, स्थावर, बादर-सूक्ष्म में से एक, पर्याप्त, प्रत्येकसाधारण में से एक, स्थिर अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक, दुभंग, अनादेय और निर्माण | Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पंचसंग्रह : १० इन पच्चीस प्रकृतियों में परस्पर विरुद्ध प्रकृतियों को परावर्तन क्रम से ग्रहण करने पर बीस भंग इस प्रकार होते हैं- बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ और स्थिर के साथ यशः कीर्ति का बंध करने पर एक भंग और अयश: कीर्ति का बंध करने पर दूसरा भंग होता है । ये दो भंग तो शुभ नाम के बंध के साथ हुए और इसी प्रकार शुभनाम के बदले अशुभ नाम को ग्रहण करने पर उसके साथ भी दो भंग होते हैं । इस प्रकार कुल चार भंग हुए । यह चार स्थिर नामकर्म के साथ हुए । इसी प्रकार स्थिर नाम के बदले अस्थिर नाम का ग्रहण करने पर उसके साथ भी पूर्वोक्त विधि से चालना करने पर चार भंग होते हैं । ये आठ भंग हुए और वे बादर - पर्याप्त के साथ होते हैं । उन आठ भंगों के नाम इस प्रकार हैं १. स्थिर, शुभ, यशः कीर्ति, २. स्थिर शुभ अयशः कीर्ति, ३. स्थिर, अशुभ, यश कीर्ति, ४. स्थिर, अशुभ, अयश: कीर्ति, ५. अस्थिर, शुभ, यशः कीर्ति, ६. अस्थिर, शुभ, अयशःकीर्ति, ७. अस्थिर, अशुभ, यशःकीर्ति, ८. अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति । प्रत्येक प्रकार से होने वाले पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान में बादर और प्रत्येक को नहीं बदलने से और स्थिरादि प्रकृतियों को बदलने से उसके आठ भंग होते हैं । इसी प्रकार अन्यत्र भी भंग रचना समझ लेना चाहिये । अब यदि प्रत्येक नामकर्म के स्थान पर साधारण नामकर्म को ग्रहण करे तब स्थिर - अस्थिर, शुभ-अशुभ की अयशःकीर्ति के साथ चालना करने से चार भंग होते हैं। क्योंकि साधारणनामकर्म के बंध के साथ यशःकीर्ति नामकर्म नहीं बंधता है । इसलिये उस सम्बन्धी चार भंग नहीं होते हैं, किन्तु अयशःकीर्ति से सम्बन्धित चार भंग होते हैं तथा सूक्ष्म, पर्याप्त और प्रत्येक नामकर्म का बंध होने पर स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और अयशः कीर्ति के साथ चार भंग एवं सूक्ष्म, पर्याप्त और साधारण नाम का बंध होने पर भी स्थिर अस्थिर, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५६, ६० ११६ शुभ-अशुभ और अयश: : कीर्ति के साथ चार भंग होते हैं । सूक्ष्म और साधारण नाम के बंध के साथ भी यशःकीर्ति नामकर्म का बंध नहीं होता है । इस प्रकार बादर, पर्याप्त, प्रत्येक का बंध करने पर स्थिरास्थिर, शुभाशुभ और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति के आठ भंग, बादर, पर्याप्त, साधारण का बंध करने पर स्थिरास्थिर, शुभाशुभ और अयशः कीर्ति के साथ भी चार भंग, इसी प्रकार सूक्ष्म, पर्याप्त, प्रत्येक तथा सूक्ष्म, पर्याप्त और साधारण के साथ भी चार-चार भंग होते हैं । इस प्रकार पच्चीस प्रकृतिक बंध के बीस भंग होते हैं । अर्थात् पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान बीस प्रकार से होता है । इनमें से ईशान स्वर्ग तक के देव तो आदि के आठ भंगों से पच्चीस प्रकृतिक बंध करते हैं । क्योंकि वे साधारण या सूक्ष्म एकेन्द्रिययोग्य बंध नहीं करते हैं और संख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य, तिर्यंच बीसों भंग द्वारा पच्चीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । उन्हीं पच्चीस प्रकृतियों को आतप के साथ करने पर छब्बीस प्रकृतिक बंध होता है । मात्र यहाँ आतप के स्थान पर विकल्प से उद्योत नाम का भी प्रक्षेप करना चाहिये । क्योंकि पर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य बंध कहने पर उद्योत का भी बंध होता है। इसके सोलह भंग होते हैं । यानि छब्बीस प्रकृतियों का बंध सोलह प्रकार से होता है और वह आतप के साथ स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्तिअयशः कीर्ति की चालना करने से होता है । आतप और उद्योत के गंध के साथ सूक्ष्म और साधारण का बंध नहीं होता है, जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इन सोलह भंगों से छब्बीस प्रकृतियों का बंध मनुष्य, तियंच और ईशान स्वर्ग तक के देव करते हैं । असंख्यात वर्ष की आयुवाले युगलिक देवगति में ही जाने वाले होने से यहाँ संख्यातवर्ष की आयुवाले मनुष्य- तिर्यंच का ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार एकेन्द्रिययोग्य तीन बंधस्थान और उनके कुल चालीस भंग जानना चाहिये। अब द्वीन्द्रिययोग्य बंधस्थानों का प्रतिपादन करते हैं । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पंचसंग्रह : १० द्वीन्द्रियादि योग्य बंधस्थान तग्गइयाइदुवीसा संघयणतसंग तिरियपणुवीसा। दूसर परघाउस्सासखगइ गुणतीस तीसमुज्जोवा ॥१॥ शब्दार्थ-तग्गइयाइदुवीसा- वह गति आदि बाईस, संघयणतसंगसंहनन, श्रस और अंगोपांग, तिरियपणुवीसा-तिर्यंचयोग्य पच्चीस, दूसरदुःस्वर, परघाउस्सासखगइ-पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति, गुणतीसउनतीस, तीसमुज्जोवा-उद्योत के साथ तीस । __ गाथार्थ-तद्गति--तियंचगति आदि बाईस, संहनन, त्रस और अंगोपांग के साथ तिर्यंचयोग्य पच्चीस प्रकृतियां होती हैं। दुःस्वर, पराघात, उच्छ्वास और विहायोगति के साथ उनतीस एवं उद्योत के साथ तीस होती हैं। विशेषार्थ-गाथा में द्वीन्द्रियादि के बंधस्थानों को बतलाया है। जो इस प्रकार हैं तिर्यंचगति आदि पूर्व में कही गई बाईस प्रकृतियों को यहाँ भी ग्रहण करना चाहिये । इसके लिये ग्रन्थकार आचार्य ने 'तग्गइयाई दुवीसा' पद दिया है । अतएव 'तग्गयणुपुग्विजाइ थावरमाईय' इत्यादि गाथा द्वारा जो अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियां कही हैं, वे ही स्थावरनाम के सिवाय बाईस यहाँ ग्रहण करना चाहिये तथा जब स्थावरनाम कम किया तो उसके सहचारी सूक्ष्म और साधारण नाम भी दूर करके उसके स्थान पर बादर और प्रत्येक नाम को जोड़ना चाहिये । तत्पश्चात् उनमें सेवार्तसंहनन, त्रस नाम एवं औदारिक अंगोपांग ये तीन प्रकृतियां और जोड़ना चाहिये। तब द्वीन्द्रिय तिर्यंच योग्य पच्चीस प्रकृतियां होती हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुण्ड-संस्थान, सेवार्तसंहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, त्रस, बादर, अपर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ १२१ इन पच्चीस प्रकृतियों का बंध अपर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करते हुए मिथ्यादृष्टि मनुष्य-तियंचों को समझना चाहिये । इन पच्चीस प्रकृतियों में प्रतिपक्ष रूप परावर्तमान एक भी प्रकृति बंधने वाली न होने से एक ही भंग होता है । उक्त पच्चीस प्रकृतियों में से अपर्याप्तनाम को कम करके पर्याप्त नाम मिलाकर दुःस्वर नाम, पराघात, उच्छ्वास और अशुभविहायोगति का प्रक्षेप करने पर उनतीस प्रकृतियों का बंधस्थान होता है । यह उनतीस प्रकृतियों का बंधस्थान पर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करते मिथ्यादृष्टि मनुष्य तिर्यंचों का होता है । पर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करने पर स्थिर, शुभ और यशः कीर्ति का भी बंध होता है । इसलिये अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति के स्थान पर विकल्प से उनका भी प्रक्षेप करना चाहिये । जिससे उनतीस प्रकृतियों का बंध इस प्रकार कहना चाहिये तिर्यंचद्विक, द्वीन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस, कार्मण शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुण्ड संस्थान, सेवार्त संहनन, वर्णचतुष्क, अशुभ विहायोगति, अगुरुलघु, पराघात, उपघात, उच्छ्वास, निर्माण, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक । यहां स्थिर अस्थिर, शुभ -अशुभ और यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति की चालना करने से तीन पद के आठ भंग होते हैं । उक्त उनतीस प्रकृतियों में उद्योत नाम को मिलाने पर तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । इसके भी पूर्वोक्त प्रकार से आठ भंग होते हैं । सब मिलाकर तीनों बंधस्थानों के सत्रह भंग होते हैं । उनके बंधक संख्यात वर्ष की आयु वाले मिथ्यादृष्टि मनुष्य- तिर्यच जानना चाहिये । इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय योग्य बंध करते मिथ्यादृष्टि मनुष्य- तिर्यचों के भी पूर्व में कहे गये भंगों के साथ तीनों बंधस्थान Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पंचसंग्रह : १० कहना चाहिये । लेकिन त्रीन्द्रिय के सम्बन्ध में कहने पर त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय के सम्बन्ध में कहने पर चतुरिन्द्रियजाति कहना चाहिये। भंग प्रत्येक के सत्रह, सत्रह जानना चाहिये । इस प्रकार विकलेन्द्रियों के इक्यावन भंग होते हैं। __तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य भी पच्चीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान हैं। उनमें से अपर्याप्त द्वीन्द्रिययोग्य बंध करने पर जो पच्चीस प्रकृतियां कही हैं वही पच्चीस प्रकृतियां अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोग्य बंध करने पर भी जानना चाहिये। मात्र द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर पंचेन्द्रियजाति कहना चाहिये। परावर्तमान सभी अशुभ प्रकृतियों के ही बंधने से यहाँ भी एक ही भंग होता है। इन अपर्याप्तयोग्य पच्चीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यच हैं। पराघात, उच्छ्वास, दुःस्वर और अप्रशस्त विहायोगति इन चार प्रकृतियों को पूर्वोक्त पच्चीस में मिलाने पर उनतीस प्रकृतियाँ होती हैं और वे पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बंध करते मनुष्य, तिथंच, देव और नारकों को जानना चाहिये। इतना विशेष है कि देव और नारक गर्भज तिर्यंचयोग्य ही उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं, परन्तु संमूर्छिम योग्य बांध नहीं करते हैं। ___ अब यहाँ पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बंध की शुरुआत करते पूर्व में जो 'पंचेन्दिए सुसराई' यानि पंचेन्द्रिययोग्य बंध करने पर सुस्वरदि का भी बंध होता है, कहा था, तदनुसार सुस्वर, सुभग, आदेय, प्रशस्त-विहायोगति, आदि के पाँच संस्थान, आदि के पाँच संहनन इस तरह चौदह अन्य प्रकृतियां भी बंधाश्रयी संभव है और वे दुःस्वरादि की प्रतिपक्ष रूप हैं। जिससे दुःस्वर, दुर्भग और अनादेय के स्थान पर सुस्वर, सुभग और आदेय का, अप्रशस्त विहायोगति के स्थान पर प्रशस्त-विहायोगति का, हुण्ड संस्थान के स्थान पर क्रमशः पाँच संस्थान का और सेवार्त संहनन के स्थान पर क्रमशः पाँच संहनन का विकल्प से प्रक्षेप करना चाहिये । इस प्रकार करने पर उनतीस प्रकृतियां इस तरह कहना चाहिए Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१ १२३ तिर्यंचगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकद्विक, तैजस, कार्मण, शरीर नाम, छह संस्थान में से एक संस्थान, छह संहनन में से एक संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तअप्रशस्त विहायोगति में से एक, बस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिरअस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग-दुर्भग में से एक, सुस्वर - दुःस्वर में से एक, आदेय - अनादेय में से एक, यशः कीर्ति-अयश:कीर्ति में से एक और निर्माण । संस्थान, संहनन आदि विकल्प से मिलने वाली प्रकृतियों की चालना करने पर चार हजार छह सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं । वे इस प्रकार - 3 छह संस्थान को छह संहनन का गुणा करने पर छत्तीस (३६), उनको प्रशस्त अप्रशस्त विहायोगति के साथ गुणा करने पर बहत्तर (७२), स्थिर - अस्थिर के साथ बहत्तर को गुणा करने पर एक सौ चवालीस (१४४), इनको शुभ-अशुभ युग्म से गुणा करने पर दो सौ अठासी (२८८), सुभग- दुभंग से इनको गुणा करने पर पांच सौ छियत्तर (५७६), सुस्वर- दुःस्वर से इन पाँच सौ छियत्तर को गुणा करने पर ग्यारह सौ बावन (१९५२), आदेय - अनादेय से गुणा करने पर (११५२४२= २३०४) तेईस सौ चार और यशःकीर्तिअयशः कीर्ति से इन तेईस सौ चार को गुणा करने पर (२३०४x२= ४६०८), छियालीस सौ आठ भंग होते हैं । यानि भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा कोई किसी रीति से उनतीस प्रकृतियों को बांधता है और कोई किसी रीति से बांधता है । जिससे उनतीस प्रकृतिक बंध ४६०८ प्रकार से होता है । इन्हीं उनतीस प्रकृतियों में उद्योत को मिलाने पर तीस प्रकृतियाँ होती हैं और वे तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बांधने पर बंधती हैं । उनके गंधक भी उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान की तरह चारों गति वाले जीव होते हैं । तीस प्रकृतिक बंधस्थान भी पूर्व की तरह छियालीस सौ आठ प्रकार से होता है । सब मिलाकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय के तीन बंधस्थानों के भंग नौ हजार दो सौ सत्रह (६२१७) होते हैं और उनमें एकेन्द्रिय के चालीस Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पंचसंग्रह : १० (४०), और विकलेन्द्रियों के इक्यावन (१७+ १७+१७=५१) मिलाने पर सम्पूर्ण तिर्यंचगति के नौ हजार तीन सौ आठ (६३०८) भंग होते इस प्रकार तियंचगतियोग्य बंधस्थानों का वर्णन जानना चाहिये। अब मनुष्य गति एवं नरक गति योग्य बांधस्थानों का निरूपण करते हैं । मनुष्य-नरकगति योग्य बंधस्थान तिरिबंधा मणुयाणं तित्थगरं तीसमंति इह भेओ। संघयणूणिगुतीसा अडवीसा नारए एक्का ॥६२॥ शब्दार्थ-तिरिबंधा-तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य बंधस्थान, मणुयाणंमनुष्यों के भी, तित्थगरं-तीर्थंकर, तीसमंति-तीस प्रकृतिक स्थान में, इह-यहाँ, भेओ-अंतर, संघयणूणिगुतीसा-संहनन से न्यून उनतीस प्रकृतिक, अडवीसा-- अट्ठाईस प्रकृतिक, नारए--नारक योग्य, एक्का-एक । __ गाथार्थ-तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य जो बंधस्थान हैं, वे सभी मनुष्ययोग्य भी हैं । मात्र यहाँ तीस प्रकृतिक बंधस्थान में तीर्थंकरनाम कहना चाहिये, यह अन्तर है। उनतीस प्रकृतिक संहनन नाम से हीन अट्ठाईस प्रकृतिक होता है और वह एक ही बंधस्थान नारकयोग्य होता है। विशेषार्थ-गाथा में मनुष्य और नरकगति योग्य बंधस्थानों को बतलाया है। उनमें से मनुष्यगतियोग्य बंधस्थान इस प्रकार जानना चाहिये तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य पच्चीस, उनतीस, तीस प्रकृतिक रूप जो बंधस्थान पूर्व में कहे हैं वे सभी मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर भी होते हैं-'तिरिबंधा मणुयाणं' । यद्यपि एकेन्द्रियादि को भी सामान्यतः तिर्यंच कहा है तो भी मनुष्यों के पंचेन्द्रिय होने से गाथोक्त तिरिबंधा पद से पंचेन्द्रिय तिर्यंच सम्बन्धी बंधस्थान जानना चाहिये, किन्तु Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६२ १२५ एकेन्द्रिययोग्य नहीं तथा तियंचगति, तियंचानुपूर्वी के स्थान पर मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी कहना चाहिये । शेष सभी प्रकृतियां जैसी की तैसी हैं तथा तियंचगतियोग्य बंधस्थानों में जो, तीस प्रकृतिक बंधस्थान उद्योत नाम के साथ कहा है, उसे यहाँ तीर्थंकरनाम के साथ कहना चाहिए । अर्थात् उद्योत के बजाय तीर्थंकरनाम ग्रहण करना चाहिये । अन्य बंधस्थान में पूर्वोक्त के सिवाय अन्य कोई अन्तर नहीं है । अब इन बंधस्थानों के भंगों का निरूपण करते हैंअपर्याप्त मनुष्ययोग्य पच्चीस प्रकृतियों को बांधने पर पूर्व की तरह एक ही भंग होता है । इन पच्चीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य, तिर्यच ही होते हैं, देव और नारक नहीं। क्योंकि वे पर्याप्त, गर्भज मनुष्य योग्य बंध करते हैं । संमूच्छिम मनुष्ययोग्य बंध करने पर भी एक पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान ही होता है । उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर पूर्व की तरह संहनन, संस्थान आदि का परावर्तन करने पर छियालीस सौ आठ (४६०८) भंग होते हैं । इन उनतीस प्रकृतियों के बंधक चारों गति के जीव होते हैं । तीर्थकरनाम को मिलाने पर वे उनतीस प्रकृतियां तीस प्रकृति हो जाती हैं । इस तीस प्रकृतिक बंधस्थान में संस्थान समचतुरस्र, संहनन वज्रऋषभनाराच, प्रशस्त - विहायोगति, सुभग, आदेय और सुस्वर रूप पुण्य प्रकृतियां ही होती हैं किन्तु उनकी प्रतिपक्षी प्रकृतियां नहीं होती हैं । क्योंकि यह बंधस्थान सम्यग्दृष्टि देव नारकों के होता है और सम्यक्त्व होने पर अशुभ संहनन आदि उपर्युक्त प्रकृतियां नहीं बंधती हैं । उन तीस प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं-. मनुष्यगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकद्विक, तैजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराच संहनन, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, सुभग, Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ पंचसंग्रह : १० सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक, निर्माण और तीर्थ करनाम । इन तीस प्रकृतियों को अविरतसम्यग्दृष्टि देव अथवा नारक मनुष्यगतियोग्य प्रकृतियों का बंध करने पर बांधते हैं । यहाँ स्थिरअस्थिर, शुभ -अशुभ और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने से आठ भंग होते हैं । सब मिलाकर मनुष्यगतियोग्य तीनों बंधस्थानों के छियालीस सौ सत्रह (४६१७) भंग होते हैं । इस प्रकार से मनुष्यगतियोग्य बंधस्थानों का निर्देश करने के बाद अब नरकगतियोग्य बंधस्थानों का निरूपण करते हैं । नरकगतियोग्य बंधस्थान 'अडवीसा नारए एक्का' अर्थात् नरकगतियोग्य एक अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है । यानि नरकगतियोग्य बंध करने पर पर्याप्त गर्भज तियंच अट्ठाईस प्रकृतियां ही बांधते हैं। जिससे नरकगतियोग्य एक ही बंधस्थान है । द्वीन्द्रिययोग्य जो उनतीस प्रकृतियां कही गई हैं उनमें से संहनन नामकर्म कम करके शेष अट्ठाईस प्रकृतियां यहां ग्रहण करना चाहिये । मात्र तियंचगति और तिर्यचानुपूर्वी के स्थान पर नरकगति और नरकानुपूर्वी तथा द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर पंचेन्द्रियजाति और औदारिकद्विक के स्थान पर वैक्रियद्विक कहना चाहिये । ये अट्ठाईस प्रकृतियां इस प्रकार हैं-नरकद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, तैजस शरीर, कार्मण, हुण्डसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, अस्थिर, अशुभ, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति और निर्माण । ये सभी पाप प्रकृतियां होने से इनका एक ही भंग होता है । इस प्रकार से नरकगतियोग्य बंधस्थान जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त देवगतियोग्य बंधस्थानों का निरूपण करते हैं । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३ देवगतियोग्य बंधस्थान तित्थयराहारगदोतिसंजुओ बंधो नारयसुराणं । अनियट्टीसुहमाणं जसकित्ती एस इगिबंधो ॥६३॥ शब्दार्थ-तित्थय राहारगदो-तीर्थंकरनाम, आहारकद्विक, तिसंजुओतीन को मिलाने पर, बंधो-बंध, नारयसुराणं-नारकों के योग्य देवयोग्य, अनियट्टीसहमाणं-अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्म संपराय गुणस्थान मे, जसकित्तीयशःकीर्ति, एस-यही, इगिबंधो-एक का बंध।। __गाथार्थ-नारकों के योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान को शुभ प्रकृतियों से युक्त करने पर देवयोग्य होता है। तथा उसमें तीर्थकरनाम, आहारकद्विक इन तीन को मिलाने पर तीन (उनतीस, तीस, इकत्तीस प्रकृतिक) बंधस्थान होते हैं । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में यशःकीर्ति रूप एक ही बांधस्थान होता है । विशेषार्थ-गाथा में देवगतियोग्य बंधस्थानों एवं गुणस्थानापेक्षा यशःकीति के बंध होने के स्थान का संकेत किया है। उनमें से देवगतियोग्य बंधस्थान इस प्रकार है नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतिक जो बंधस्थान पूर्व में कहा जा चुका है, उसी को शुभ प्रकृति युक्त करने पर देवगतियोग्य होता है । क्योंकि देवगतियोग्य बंध करते मनुष्य, तिथंच अपने प्रशस्त परिणाम होने के कारण परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों का बंध करते हैं । मात्र अस्थिर, अशुभ और अयश:कीर्ति रूप प्रकृतियां अशुभ होने पर भी देवगतियोग्य बांध करने पर बांधती हैं। क्योंकि उन प्रकृतियों के बंध योग्य परिणाम छठे गुणस्थान तक होते हैं । ___ अस्थिर, अशुभ और अयशःकीर्ति ये स्थिर, शुभ और यश:कीर्ति की प्रतिपक्षभूत हैं। जिससे उनका विकल्प से प्रक्षेप करना चाहिये और उनको इस प्रकार कहना चाहिये-देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्र-संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० - पराघात, उपघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर - अस्थिर में से एक, शुभ-अशुभ में से एक, यश:कीर्ति अयशः कीर्ति में से एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और वैक्रियद्विक । १२८ इन अट्ठाईस प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक में वर्तमान मनुष्य, तिर्यच यथायोग्य रीति से बांधते हैं । यहाँ स्थिर अस्थिर, शुभ -अशुभ और यश : कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने पर आठ भंग होते हैं । अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक भी देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियां बंध सकती हैं, परन्तु वहाँ परावर्तमान पुण्य प्रकृतियों का बंध होने से आठ भंग नहीं होते हैं, किन्तु एक ही भंग होता है । इन अट्ठाईस प्रकृतियों में तीर्थंकरनाम को मिलाने पर उनतीस प्रकृतियां होती हैं । इन उनतीस प्रकृतियों को अविरत सम्यग्दृष्टि आदि बांधते हैं । यहाँ भो छठे गुणस्थान तक आठ भंग और आगे एक ही भंग होता है । -- आहारकद्विक सहित करने पर देवगतियोग्य तीस प्रकृतियां इस प्रकार होती हैं – देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, शुभ, स्थिर, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति और निर्माण । इन तीस प्रकृतियों को अप्रमत्त और अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग तक में वर्तमान संयत ही बांधते हैं । इन तीस में परावर्तमान समस्त प्रशस्त प्रकृतियों का ही बंध होने से, एक ही भंग होता है । देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों में आहारकद्विक और तीर्थंकर नाम इस प्रकार तीन प्रकृतियों को मिलाने से इकत्तीस प्रकृतियां होती हैं । इन इकत्तीस प्रकृतियों का बंध भी अप्रमत्त और अपूर्वकरण के छठे भाग तक में वर्तमान संयत ही करते हैं । यहां भी परावर्तमान Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६४ १२६ समस्त प्रशस्त प्रकृतियों का ही बंध होने से एक ही भंग होता है और देवगतियोग्य चार बंधस्थानों के सब मिलाकर अठारह भंग होते हैं। अब एक विशेष निर्देश करते हैं आठवें गुणस्थान में नामकर्म की तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद से लेकर दसवें गुणस्थान के चरम समय तक एक यश:कीर्तिनाम ही अपने बंधयोग्य परिणाम होने के कारण बंधता है, अन्य किसी भी नामकर्म की प्रकृति का बंध नहीं होता है-'अनियट्टीसुहुमाणं जसकित्ती एस इगि बंधो।' इसका कारण यह है कि किसी भी गतियोग्य बंध आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक ही होता है। लेकिन यशःकीर्तिनाम ही एक ऐसी प्रकृति है कि उसके सिवाय अन्य प्रकृतियां तो किसी भी गतियोग्य बंध करने पर ही बंधती है और यशःकीर्तिनाम किसी भी गतियोग्य कर्म-बंध करने पर एवं सभी गतियोग्य प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद भी बंधती है। इस प्रकार से चारों गतियोग्य नामकर्म के बंधस्थानों और उनके भंगों को बतलाने एवं विशेष आवश्यक निर्देश करने के बाद अब यह बतलाते हैं कि नामकर्म की कौन प्रकृति किस गुणस्थान तक बंधती है और किस गुणस्थान में किन प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। इसको गुणस्थान के क्रम से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की प्रकृतियों को बतलाते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में नामकर्म की बंध एवं विच्छेद योग्य प्रकृतियां साहारणाइ मिच्छो सुहुमायवथावरं सनरयदुगं । इगिविलिदियजाई हुण्डमपज्जत्तछेवढें ॥६४॥ शब्दार्थ-साहारणाइ-साधारण आदि, मिच्छो-मिथ्यादृष्टि, सुहुमायवथावर--सूक्ष्म, आतप, स्थावर, सनरयदुर्ग-नरकद्विक सहित, इगिविगलिंदियजाई-एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जाति, हुण्डमपज्जत-हुण्डसंस्थान, अपर्याप्त, छेवढें-सेवार्तसंहनन । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० पंचसंग्रह : १० गाथार्थ-साधारण, सूक्ष्म, आतप, स्थावर, नरकद्विक, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, अपर्याप्त और सेवार्तसंहनन रूप साधारणादि तेरह प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि जीव ही बांधते हैं। विशेषार्थ-गाथा में नामकर्म की मिथ्यात्व गुणस्थान तक बंधने वाली प्रकृतियों का नाम निर्देश किया है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है बंधयोग्य मानी गई नामकर्म की सड़सठ प्रकृतियों में से तीर्थंकर नाम और आहारकद्विक इन तीन प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि बांधते ही नहीं हैं। क्योंकि इनके बंध में अनुक्रम से सम्यक्त्व और चारित्र हेतु हैं। इसलिये ये तो मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं हैं, जिससे इन तीन प्रकृतियों को कम करने पर शेष चौंसठ प्रकृतियां मिथ्यादृष्टि जीव बांधते हैं। इनमें से भी साधारण, सूक्ष्म, आतप, स्थावर, नरकद्विक, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियजातित्रिक, हुण्डसंस्थान, अपर्याप्त नाम और सेवार्त संहनन ये तेरह प्रकृतियां तो मिथ्यादृष्टि ही बांधते हैं, अन्य सासादन आदि गुणस्थानवर्ती जीव नहीं। क्योंकि इन तेरह के बंध में मिथ्यात्वमोह का उदय कारण है। मिथ्यात्व का उदय पहले गुणस्थान तक होने से साधारण आदि तेरह प्रकृतियों का बंधविच्छेद मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही होता है। जिससे पूर्वोक्त तीर्थंकरनाम आहारकद्विक के साथ इन तेरह प्रकृतियों को सड़सठ में से कम करने पर शेष इक्यावन प्रकृतियां सासादन गुणस्थान में बंधती हैं । इस प्रकार से मिथ्यात्व गुणस्थान में बांधयोग्य नामकर्म की प्रकृतियों को बतलाने के बाद अब सासादन गुणस्थान में बंधयोग्य नामकर्म का प्रकृतियों को बतलाते हैं। सासादन गुणस्थान में बंधयोग्य नामकर्म की प्रकृतियां सासायणेऽपसत्थाविहगगई दूसरदुभगुज्जोवं । अणाएज्जं तिरियदुर्ग मज्झिमसंघयणसंठाणा ॥६५॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५ १३१ शब्दार्थ-सासायणे-सासादन गुणस्थान में, अपसत्याविहगगईअप्रशस्त विहायोगति, दूसरदुभगुज्जोवं-दुःस्वर, दुर्भग, उद्योत, अणाएज्जअनादेय, तिरियदुर्ग-तिर्यंचद्विक, मज्झिमसंघयणसंठाणा-मध्यम संहनन संस्थान । गाथार्थ-अप्रशस्त विहायोगति, दुःस्वर, दुर्भग, उद्योत, अनादेय, तिर्यंचद्विक, मध्यमसंस्थानचतुष्क और मध्यम संहननचतुष्क ये प्रकृतियां सासादन गुणस्थान तक ही बंधती हैं। विशेषार्थ-यहाँ दूसरे सासादन गुणस्थान में बंधविच्छेद को प्राप्त होने वाली नामकर्म की प्रकृतियों का निर्देश किया है। कारण सहित उनके नाम इस प्रकार हैं--- अप्रशस्तविहायोगति, दुःस्वर, दुर्भाग, उद्योत, अनादेय, तिर्यंचद्विक, ऋषभनाराच आदि मध्यम चार संहनन और न्यग्रोधपरिमण्डल आदि मध्यम चार संस्थान, इन पन्द्रह प्रकृतियों को सासादनगुणस्थानवी जीव ही बांधते हैं। मिश्रदृष्टि आदि नहीं बांधते हैं। जिसका कारण यह है इन प्रकृतियों के बंध में अनन्तानुबंधि कषाय के उदयजन्य परिणाम कारण हैं। मिश्रदृष्टि आदि को अनन्तानुबंधि का उदय नहीं होने से वे उक्त पन्द्रह प्रकृतियां को बांधते ही नहीं हैं। जिससे सासादन गुणस्थान में बंधने वाली इक्यावन प्रकृतियों में से पन्द्रह प्रकृतियों को कम करने पर नामकर्म की छत्तीस प्रकृतियां मिश्रदृष्टि जीव बांधते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भी इन्हीं प्रकृतियों को बांधते हैं, किन्तु इतना विशेष है कि इस गुणस्थान में तीर्थंकरनाम के बंधहेतु सम्यक्त्व के होने से तीर्थंकर नामकर्म का भी बंध हो सकता है। जिससे छत्तीस में तीर्थंकरनाम को मिलाने से सैंतीस प्रकृतियां जानना चाहिये। अब मिश्र आदि गुणस्थानों में कारण सहित नामकर्म की बंधविच्छेदयोग्य प्रकृतियों का निरूपण करते हैं। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ मिश्र आदि गुणस्थानों में बंधयोग्य नामकर्म की प्रकृति मोसो सम्मोराल मणुयदुगयाइ आइसंघयणं । बंधइ देसो विरओ अथिरासुभअजसपुव्वाणि ॥ ६६ ॥ अपमतो सनियट्टि सुरदुगवेउव्यजुयलधुवबंधी । तसाइचउरंस पंचेंदि ॥६७॥ परघाउसासखगई विरए आहारुदओ बंधो पुण जा नियट्टि अपमत्ता | तित्थस्स अविरयाओ जा सुमो ताव कित्तीए ॥ ६८ ॥ पंचसंग्रह : १० शब्दार्थ -- मोसो मिश्र, सम्म -- अविरत सम्यग्दृष्टि, ओरालमणुयदुगयाई - ओदारिकद्विक, मनुष्यद्विक, आइसंघयणं - - प्रथम संहनन, बंधइबांधते हैं, देसो- देशविरत, विरओ-प्रमत्तविरत, अथिरासुभअजसपुरवाणिअस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति । अपमतो - अप्रमत्त, सनियरिट-अपूर्वकरण सहित सुरदुग— देवद्विक, वेब्वजुयल - वैक्रियद्विक, ध्रुवबंधी - ध्रुवबंधिनी, परघाउसासखगई- पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति तसाई - त्रसादि दशक, चउरंस- समचतुरस्रसंस्थान, पंचेंदि-पंचेन्द्रिय जाति । J विरए - विरत गुणस्थान में, आहारुदओ - आहारक का उदय, बंधोबंध, पुज - पुन:, और, जा-तक, नियट्टि - अपूर्वकरण, अपमत्त - -अप्रमत्त, तित्थस्स - तीर्थंकर नाम का अविश्याओ - अविरत सम्यग्दृष्टि से, जा— तक, सुहुमो- सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान, ताव - - तक, कित्तीए - यशः कीर्ति का । 1 गाथार्थ - मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि औदारिकद्विक, मनुष्यद्विक और प्रथम संहनन को बांधते हैं। देशविरत और प्रमत्तविरत अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति को बांधते हैं । 1 देवद्विक, वैक्रियद्विक, ध्रुवबंधिनी प्रकृति, पराघात, उच्छ्वास, विहायोगति त्रसदशक, समचतुरस्रसंस्थान, पंचेन्द्रियजाति को अप्रमत्त व अपूर्वकरण तक बांधते हैं । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,६७,६८ १३३ आहारक का उदय विरत गुणस्थान में होता है और बंध अप्रमत्त से अपूर्वकरण तक होता है । तीर्थंकरनाम का बंध अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान से होता है और सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तक यशः कीर्ति का बंध होता है । विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में जहाँ तक नामकर्म की प्रकृतियों का बंध हो सकता है उन मिश्रगुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान तक जो-जो प्रकृतियां जिस गुणस्थान तक बंधती हैं और उसके बाद बंधविच्छेद हो जाता है, इसका निर्देश किया है । यथाक्रम से जिसका विवरण इस प्रकार है मिश्रदृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि इन तीसरे और चौथे गुणस्थान तक वर्तमान जीव ही औदारिकद्विक, मनुष्यद्विक और प्रथम - वज्रऋषभनाराचसंहनन नामकर्म को बांधते हैं - 'मीसो सम्मोरालमणुयदुगयाइ आइसंघयणं ।' देशविरत आदि गुणस्थानवर्ती जीव इन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं क्योंकि देशविरत गुणस्थानवर्ती मनुष्यतिर्यंच और प्रमत्तविरतादि गुणस्थान वाले मनुष्य प्रतिसमय मात्र देवगति योग्य प्रकृतियों का ही बंध करते हैं । पहले गुणस्थान में चारों गतियोग्य, दूसरे गुणस्थान में नरकगति के सिवाय तीन गति योग्य, तीसरे और चौथे गुणस्थान में मनुष्य और तिर्यच देवगतियोग्य तथा देव और नारक मनुष्यगतियोग्य तथा पांचवें गुणस्थान से मात्र देवगतियोग्य प्रकृतियों का ही बंध होता है । मनुष्यद्विक आदि पांच प्रकृतियां मनुष्यगतियोग्य होने से पांचवें गुणस्थान से उनका बंध नहीं होता है । देशविरत और प्रमत्तसंयत अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति का बंध करते हैं, अप्रमत्तसंयत आदि नहीं बांधते हैं - 'बंधइ देसो विरओ अथिरासुभअज सपुव्वाणि' । इसका तात्पर्य यह है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक में वर्तमान जीव ही अस्थिर आदि इन तीन प्रकृतियों को बांधते हैं किन्तु अप्रमत्तसंयत आदि नहीं बांधते Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पंचसंग्रह : १० हैं। क्योंकि उनके बंध में प्रमत्तदशा के परिणाम कारण हैं और आगे के अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में प्रमाद का अभाव है, जिससे इन तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। ___ चौथे गुणस्थान में बंधती नामकर्म की सैंतीस प्रकृतियों में से मनुष्यद्विक आदि पाँच प्रकृतियों को कम करने पर नामकर्म की बत्तीस प्रकृतियां देशविरत और प्रमत्तसंयत जीव बांधते हैं और उनमें से अस्थिर, अशुभ तथा अयशःकीर्ति को कम कर तथा आहारक द्विक को मिलाने पर इकत्तीस प्रकृतियां अप्रमत्तसंयत जीव बांधते हैं। क्योंकि आहारकद्विक का बंधहेतु विशिष्ट चारित्र यहां पर है । तथा देवद्विक, वैक्रियद्विक, नामकर्म की ध्रुवबंधिनी-तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात और निर्माण नाम तथा पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, सदशक, समचतुरस्रसंस्थान और पंचेन्द्रियजाति, इन अट्ठाईस प्रकृतियों को मिथ्यादृष्टि से लेकर अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान (के छठे भाग) तक में वर्तमान जीव बांधते हैं और उसके बाद तद्योग्य परिणामों का अभाव होने से अनिवृत्तिबादरसंपराय आदि आगे के गुणस्थानों में इनका बंध नहीं होता है। देवगतियोग्य एवं तीर्थकरनाम तथा आहारकद्विक के बंधयोग्य परिणाम भी आठवें गुणस्थान तक ही होते हैं। तत्पश्चात् जितने विशुद्ध परिणाम चाहिये उनकी अपेक्षा भी विशुद्धतर हो जाने से उपर्युक्त (यशःकीर्ति के सिवाय) कोई भी प्रकृति नहीं बंधती है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में देवगतियोग्य जो इकत्तीस प्रकृतियां बंध में कही हैं, वही अपूर्वकरण गुणस्थान में भी बंधती हैं । अपूर्वकरण के छठे भाग में यश:कीर्ति के सिवाय तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है, जिससे अपूर्वकरण गुणस्थान के सातवें भाग से लेकर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय पर्यन्त मात्र एक यशःकीर्तिनाम का ही बंध होता है । तथा-- 'विरए आहारुदओ' अर्थात् प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में आहारकद्विक का उदय होता है और बंध अप्रमत्तसंयत से लेकर Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,७०,७१,७२ १३५ अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त होता है । अन्य किन्हीं गुणस्थानों में तद्योग्य परिणामों का अभाव होने से बंध और उदय नहीं होता है । तीर्थंकरनाम का बंध अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान से लेकर अपूर्वकरणगुणस्थान के छठे भाग तक होता है और उदय सयोगिकेवली एवं अयोगिकेवली गुणस्थानों में ही होता है । यशःकीर्तिनाम का बंध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंप रायगुणस्थान पर्यन्त होता है । उसके बाद नामकर्म की कोई भी प्रकृति नहीं बंधती है । इस प्रकार से नामकर्म के बंध, बंधस्थान आदि से संबंधित प्ररूपणा जानना चाहिये | अब उदय संबंधी विशेष कथनीय का निरूपण करते हैं । नामकर्म संबंधी उदय विषयक विशेष कथनीय उज्जोवआथवाणं उदओपुव्विपि होइ पच्छावि । ऊसाससहितो सुमतिगुज्जोय नायाव ॥६६॥ उज्जोवेनायावं सुहमतिगेण न बज्झए उभयं । उज्जोवजसाणुदए जायइ साहारणसुदओ ॥७०॥ दुभगाईणं उदए बायरपज्जो विउव्वए पवणो । देवगईए उदओ दुभगअणाएज्ज उदएवि ॥ ७१ ॥ सूसरउदओ विगलाण होइ विरयाण देसविरयाणं । उज्जोवुदओ जायइ वेउव्वाहारगद्धाए ॥७२॥ शब्दार्थ - उज्जोवआयवाणं-उद्योत और आतप का उदओ -- उदय, पुव्विपि - पहले भी, होइ— होता है, पच्छावि-पीछे भी, ऊसाससरे हितो १ नामकर्म के बंधस्थानों सम्बन्धी वक्तव्यता का प्रारूप परिशिष्ट में देखिये | Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ उच्छ्वास और स्वर का, सुहुम तिगुज्जोय - सूक्ष्मत्रिक और उद्योत का, आतप का नहीं । T उज्जीवेनायावं - उद्योत के साथ आतप, सुहुमतिगेण — सूक्ष्मत्रिक के साथ, न- - नहीं, बज्झए - बंधते हैं, उभयं -- दोनों, उज्जोवजसाणुदए— उद्योत और यशः कीर्ति के उदय में, जायइ साहारणस्सुदओ - साधारण का - होता है, उदय । --- पंचसंग्रह : १० नायावं दुमगाईणं - दुभंग आदि के, उदए - उदय में, बायरपज्जो - बादर पर्याप्त, विजत्वए - विकुर्वणा करता है, पवणो- वायु का, उदओ - उदय, दुभगअणाज्ज-- दुभंग, भी । (कायिक), देवगईए – देवगति अनादेय के, उबएवि -- उदय में सुसर उदओ - सुस्वर का उदय, विगलाण - विकलत्रिक को, होइ — होता है, विरयाण – सर्वविरतों, देसविरयाणं - देशविरतों के, उज्जोबुदओ - उद्योत का उदय, जायइ — होता है, वेउव्वाहारगद्वाए - वैक्रिय और आहारक को ( करने के ) समय में । गाथार्थ - उद्योत और आतप का उदय उच्छ्वास और स्वर का उदय होने के पूर्व भी होता है और पीछे भी होता है तथा सूक्ष्मत्रिक और उद्योत के उदय के साथ आतप का उदय नहीं होता है । उद्योत के साथ आतप का बंध नहीं होता है और सूक्ष्मत्रिक के साथ दोनों का ही बंध नहीं होता है । उद्योत और यशः कीर्ति का उदय होने पर साधारण का भी उदय होता है । दुर्भग आदि के उदय में बादर पर्याप्त वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करते हैं । दुर्भग और अनादेय के उदय में भी देवगति का उदय होता है । सुस्वर का उदय विकलेन्द्रियों के भी होता है । देशविरतों और सर्वविरतों के वैक्रिय और आहारक शरीर को करने के समय में उद्योत का उदय होता है । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,७०,७१,७२ १३७ विशेषार्थ - इन चार गाथाओं में विधि - निषेधमुखेन नामकर्म की कुछ प्रकृतियों के सहचारी उदय की संभवासंभवता का विचार किया है । यथाक्रम से जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है एकेन्द्रिय जीवों के उच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त होने के पूर्व या पीछे तथा द्वीन्द्रियादि जीवों के उच्छ्वास और भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होने के पहले या पीछे यथायोग्य रीति से उद्योत और आतप का उदय होता है, तथा सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण रूप सूक्ष्मत्रिक और उद्योत नाम के साथ आतप नामकर्म का उदय नहीं होता है । उद्योत के बंध के साथ आतप नाम का बंध नहीं होता है । तथा सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण नाम के बंध के साथ आतप या उद्योत दोनों में से किसी एक का भी बंध नहीं होता है । उक्त बंधविषयक अपवाद का उल्लेख करने के बाद अब उदय विषयक अपवाद का कथन करते हैं कि उद्योत और यशः कीर्ति के उदय के साथ साधारणनाम का उदय हो सकता है, ' अर्थात् साधारणनामकर्म के उदय वाले के उद्योत और यशः कीर्ति का उदय संभव है 'उज्जोवजसा " .."साहारणस्सुदओ ।' - दुभंग, अनादेय और अयशः कीर्ति का उदय होने पर भी पर्याप्त बादर वायुकायिक जीव वैक्रिय शरीर को प्रारम्भ करते हैं । अर्थात् वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करने वाले पर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों के दुर्भगत्रिक का उदय होता है । यहाँ पर्याप्त बादर विशेषण को ग्रहण करने से यह आशय समझना चाहिये कि पर्याप्त अपर्याप्त सूक्ष्म और अपर्याप्त बादर वायुकायिक जीवों का निषेध किया गया १ यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि सूक्ष्मनाम के साथ उद्योत का उदय नहीं होता है । परन्तु बादरनाम के उदय के साथ होता है । यानि बादर साधारण को उद्योत का उदय संभव है, सूक्ष्म - साधारण को नहीं । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ पंचसंग्रह : १० है। क्योंकि उनमें वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करने की शक्ति होती ही नहीं है । तथा दुर्भग और अनादेय का उदय होने पर भी देवगति का उदय होता है । अर्थात् दुर्भग और अनादेय के उदय के साथ देवगति नामकर्म का उदय विरोधी नहीं है और 'दुभगअणाएज्ज उदएवि' पद में उदय के अनन्तर आगत 'वि-अपि' शब्द बहुल अर्थ वाला होने से यह अर्थ हुआ कि दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति के उदय के साथ आहारकद्विक का उदय नहीं होता है किन्तु अस्थिर और अशुभ के उदय के साथ आहारकनाम का उदय होता है, क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां ध्र वोदयी हैं । तथा__ 'सूसरउदओ विगलाण होइ' अर्थात् विकलेन्द्रियों के सुस्वर का उदय होता है, उनके सुस्वर का उदय विरोधी नहीं है तथा देशविरत अथवा सर्वविरत मनुष्यों के यथायोग्य रूप से वैक्रिय एवं आहारक शरीर की जब विकुर्वणा करें तब उद्योत का उदय होता है किन्तु अन्य सामान्य मनुष्य के उद्योत का उदय नहीं होता है ।। __इस प्रकार से जिसका उदय रहते जिसका उदय संभव है या नहीं है, का विचार करके अब नामकर्म के उदयस्थानों को बतलाते हैं। नामकर्म के उदयस्थान अडनववीसिगवीसा चउवीसेगहिय जाव इगितीसा। चउगइएसु बारस उदयट्ठाणाइं नामस्स ॥७३॥ १ मनुष्यगति में वैक्रिय और आहारक शरीरी यति को उद्योत का उदय होता है, अन्य किसी मनुष्य को नहीं होता है। प्रथमकर्मग्रन्थ में 'जइदेवुत्तर विक्किय' पद से यति और देव उत्तर वैक्रिय करें तब उनको उद्योत का उदय होता है, कहा है तथा कर्मप्रकृति उदीरणाकरण गाथा १३ में तथा उसकी टीका में भी इसी प्रकार कहा है। छठे कर्मग्रन्थ में भी ऐसा ही संकेत किया है परन्तु यहाँ वैक्रिय शरीर में वर्तमान देविरत मनुष्य को भी उद्योत का उदय होता है, यह कहा है । विज्ञजन समाधान करने की कृपा करें। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७३,७४ शब्दार्थ---अडनववीसिगवीसा-आठ, नौ, बीस, इक्कीस, चउवीसेगहिय-चौबीस और उसके बाद एक-एक अधिक, जाव-तक, इगितीसाइकत्तीस, चउगइएसु-चारों गतियों में, बारस-बारह, उदयट्ठाणाईउदयस्थान, नामस्स-नामकर्म के । गाथार्थ-चारों गति के जीवों में आठ, नौ, बीस, इक्कीस, चौबीस और उसके बाद एक-एक अधिक इकत्तीस तक नामकर्म के बारह उदयस्थान होते हैं। विशेषार्थ--'चउगइएसुबारस' अर्थात् चारों गति के जीवों की अपेक्षा सब मिलाकर नामकर्म के बारह उदयस्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं आठ, नौ, बीस, इक्कीस, चौबीस प्रकृतिक और उसके बाद चौबीस में एक-एक बढ़ाते यावत् इकतीस अर्थात् पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक । ___ इन बारह उदयस्थानों में से चतुर्गति के जीवों के यथायोग्य संभव उदयस्थानों का आगे विचार किया जा रहा है । चारों गति में नामकर्म के उदयस्थान मणुएसु अचउवीसा वीसडनववज्जियाउ तिरिएसु । इगपण सगट्टनववीस नारए सुरे सतीसा ते ॥७४॥ शब्दार्थ-मणुएसु-~-मनुष्यों में, अचउवीसा-चौबीस प्रकृतिक के सिवाय, वीसडनववज्जियाउ-बीस, आठ, नो प्रकृतिक के सिवाय, तिरिएसुतिर्यंचों में, इगपण सगट्ठनववीस-एक, पांच, सात, आठ, नौ अधिक बीस, नारए-नारकों में, सुरे–देवों में, सतीसा-तीस प्रकृतिक सहित, तेनरकगति में कहे गए वे पांच । गाथार्थ-मनुष्यों में चौबीस के सिवाय सब, तिर्यंचों में बीस, आठ और नौ प्रकृतिक के सिवाय शेष सब, एक, पांच, सात, आठ और नौ अधिक बीस प्रकृतिक नारकों में तथा तीस सहित नरकोक्त पांचों उदयस्थान देवगति में होते हैं । | Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ - नामकर्म के बारह उदयस्थानों का उल्लेख पूर्व में किया है। उनमें से चतुर्गति में प्राप्त उदयस्थानों का संकेत यहां किया है १४० 'मणुसु अचउवीसा' अर्थात् चौबीस प्रकृतिक को छोड़कर शेष ग्यारह उदयस्थान मनुष्यगति में होते हैं । चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान मनुष्यों में नहीं पाये जाने का कारण यह है कि यह उदयस्थान मात्र एकन्द्रियों में ही होता है । इसीलिये उसका निषेध किया है । तथा बीस, आठ और नौ प्रकृतिक इन तीन उदयस्थानों को छोड़कर शेष नौ उदयस्थान तिर्यंचगति में होते हैं - 'वीसडनववज्जियाउ तिरिए ।' इन बीस, आठ और नौ प्रकृतिक उदयस्थानों का तिर्यंचगति में नहीं होने के कारण यह है कि बीस प्रकृतिक उदयस्थान केवलिसमुद्घात अवस्था में और आठ, नौ प्रकृतिक उदयस्थान अयोगिकेवली गुणस्थान में होते हैं। तथा इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान नरकगति में होते हैं तथा इन पांच में तीस प्रकृतिक उदयस्थान को और मिलाने से कुल मिलाकर छह उदयस्थान देवगति में होते हैं । 1 इस प्रकार चारों गतियों में सामान्य से नामकर्म के उदयस्थान जानना चाहिये। जिनका विस्तार से विशेष वर्णन आगे किया जा रहा है। लेकिन उसके पूर्व गुणस्थानों में नामकर्म के उदयस्थानों को बतलाते हैं । गुणस्थानों में नामकर्म के उदयस्थान इगवीसाई मिच्छे सगट्टवीसा य सासणे होणा । चवीसूणा सम्मे सपंचवीसाए पणवीसाए देसे छव्वीणा पमत्ति पुण पंच | गुणतीसाई मीसे तीसिगुतीसा य जोगिम्मि ॥७५॥ अपमत्ते ||७६ || Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७५,६६,७७ १४१ अट्ठो नवो अजोगिस्स वीसओ केवलीसमुग्घाए। इगिवीसो पुण उदओ भवंतरे सव्वजीवाणं ॥७७॥ शब्दार्थ-इगवीसाई-- इक्कीस प्रकृतिक आदि, मिच्छे---मिथ्यात्व गुणस्थान में, सगट्ठवीसा-सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक, य--और, सासणे-सासादन में, होणा-छोड़कर, चउवीसूणा-चौबीस प्रकृतिक रहित, सम्मे- अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, सपंचवीसाए-पच्चीस प्रकृतिक सहित, जोगिम्मि--सयोगिकेवली गुणस्थान में । पणवीसाए-पच्चीस प्रकृतिक आदि, देसे-देशविरत गुणस्थान में, छव्वीसूणा-छब्बीस प्रकृतिक को छोड़कर, पमत्ति-प्रमत्तसंयत में, पुणपुन: और, पंच-पांच, गुणतीसाई-उनतीस प्रकृतिक आदि, मीसे-मिश्र गुणस्थान में, तीसिगुतीसा-तीस और इकत्तीस प्रकृतिक, य-और, अपमतेअप्रमत्तसंयत गुणस्थान में । ___अट्ठो नवो-आठ और नौ प्रकृतिक, अजोगिस्स-अयोगिकेवली गुणस्थान में, वीसाओ-बीस प्रकृतिक, केवलीसमग्घाए-केवलिस मृद्घात में इगिबीसो-- इक्कीस प्रकृतिक, पुण-और, पुनः, उदओ-उदय, भवंतरे-भवांतर में जाते, सव्वजीवाणं-सभी जीवों के ।। गाथार्थ-मिथ्यात्वगुणस्थान में इक्कीस आदि नौ उदयस्थान होते हैं। उनमें से सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक को छोड़कर शेष सात सासादन गुणस्थान में तथा चौबीस प्रकृतिक को छोड़कर शेष आठ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, और चौबीस के साथ पच्चीस प्रकृतिक को छोड़कर शेष सात सयोगिकेवली गुणस्थान में होते हैं। छब्बीस प्रकृतिक रहित पच्चीस प्रकृतिक आदि छह उदयस्थान देशविरतगुणस्थान में, छब्बीस प्रकृतिक रहित पच्चीस प्रकृतिक आदि पांच प्रमत्तसंयत में, उनतीस प्रकृतिक आदि तीन मिश्रगुणस्थान में तथा तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होते हैं। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० आठ और नौ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान अयोगिकेवली गुणस्थान में होते हैं तथा बीस प्रकृतिक उदयस्थान मात्र केवलि समुद्घात अवस्था में ही होता है और इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान भवांतर में जाते सभी जीवों के होता है । १४२ विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में नामकर्म के बारह उदयस्थानों को गुणस्थानों में घटित किया है कि प्रत्येक गुणस्थान में कितने और कितनी प्रकृतियों वाले उदयस्थान होते हैं। जिनका विवरण इस प्रकार है 'मिच्छे इगवीसाई' अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में इक्कीस प्रकृतिक आदि नौ उदयस्थान होते हैं, यानि इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये नौ उदयस्थान मिथ्यात्वगुणस्थान में होते हैं । क्योंकि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान एकेन्द्रियादि चारों गति के जीवों में होने से, उक्त सभी नौ उदयस्थान संभव हैं । इनके अतिरिक्त बीस, नौ और आठ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान न होने का कारण यह है कि बीस प्रकृतिक उदयस्थान केवलि समुद्घात अवस्था में और नौ एवं आठ प्रकृतिक ये दो उदयस्थान चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान में होते हैं । इसी कारण इन तीन उदयस्थानों का मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में निषेध किया है । 1 सासादनगुणस्थान में 'सगट्ठवीसा हीणा' सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक के बिना शेष मिथ्यात्वगुणस्थान में बताये गये उदयस्थान होते हैं । इसका आशय यह है कि पहले जो मिथ्यात्वगुणस्थान में इक्कीस से लेकर इकत्तीस प्रकृतिक तक नौ उदयस्थान बतलाये हैं उनमें से सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक इन दो उदयस्थानों को कम कर देने पर शेष सात उदयस्थान सासादन गुणस्थान में होते हैं और इन सात उदयस्थानों को मानने में हेतु इस प्रकार है इक्कीस प्रकृतिक उदय एक भव से भवान्तर में जाते होता है, चौबीस प्रकृतिक उदय पर्याप्त प्रत्येक बादर एकेन्द्रिय को जन्म - उत्पत्ति के प्रथम समय में होता है, छब्बीस प्रकृतिक उदय द्वीन्द्रियादि को Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७५,७६,७७ १४३. 1 उत्पत्ति के प्रथम समय में होता है, पच्चीस प्रकृतिक उदय उत्तर वैक्रियशरीर की विकुर्वणा करते समय प्रारम्भ में होता है । उनतीस प्रकृतिक उदय पर्याप्त नारक के होता है। तीस प्रकृतिक उदय पर्याप्त मनुष्य और देवों के होता है, और इकत्तीस प्रकृतिक उदय उद्योत के उदय वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के होता है । इस प्रकार से विचार करने पर यहाँ सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान घटित न होने से शेष सात उदयस्थान सासादन गुणस्थान में बताये हैं और सत्ताईस एवं अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान न होने का कारण यह है कि वे न्यून अपर्याप्तावस्था में होते हैं कि जिस समय सासादनत्व नहीं होता है । " १ उद्योत का उदय होने के पहले तिर्यंचों को भी तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । २ सासादनगुणस्थान करण-अपर्याप्तावस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले होता है, उसके बाद नहीं होता है और पर्याप्तावस्था में तो हो ही सकता है | शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले होने का कारण यह है कि सासादान में आने वाला उपशम सम्यक्त्व से गिरकर आता है और उपशम सम्यक्त्व किसी को भी अपर्याप्त अवस्था में उत्पन्न होता ही नहीं है । पूर्वजन्म में अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर अनन्तानुबंधिकषाय का उदय होने से सम्यक्त्व का वमन कर सासादान भाव को प्राप्त कर मरकर यथायोग्य गर्भज मनुष्य, तिर्यंच, देव, बादर पर्याप्त पृथ्वी, अप्, प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो सकता है । पूर्वजन्म का लाया हुआ वह सासादन सम्यक्त्व शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले चला जाता है । जिससे सासादान गुणस्थान में उपर्युक्त जीवों के शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले जो उदयस्थान होते हैं, वे हो सकते हैं और पर्याप्तावस्था में तो चारों गति के संज्ञी पर्याप्त जीव उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते हैं और उन्हें अनन्तानुबंधि के उदय से सासादनत्व भी प्राप्त हो सकता है । जिससे Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ पंचसंग्रह : १० अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक, ये आठ उदयस्थान होते हैं। यह चौथा गुणस्थान चारों गति के जीवों में करण-अपर्याप्त और पर्याप्त दोनों अवस्थाओं में होता है। यद्यपि अपर्याप्त-अवस्था में कोई भी नया सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, परन्तु पूर्वभव से लाया हुआ हो सकता है। मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में प्राप्त नौ उदयस्थानों में से मात्र चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान यहाँ नहीं होता है। इसका कारण यह है कि वह चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान एकेन्दियों में ही होता है और एकेन्द्रियों में चौथा गुणस्थान नहीं होता है। पूर्वोक्त अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती आठ उदयस्थानों में से पच्चीस प्रकृतिक को छोड़कर शेष सात तथा आठवां 'वीसओ केवली समुग्धाए' पद द्वारा जिसका संकेत किया है वह बीस प्रकृतिक कुल मिलाकर आठ उदयस्थान सयोगिकेवली गुणस्थान में होते हैं । जो इस प्रकार हैं-२०, २१, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक । इनमें से २०, २१, २६, २७ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान समुद्घात अवस्था में, २८, २६ प्रकृतिक योगनिरोध अवस्था में, ३० प्रकृतिक स्वभावस्थ सामान्य केवली को अथवा वचनयोग का निरोध करने के बाद तीर्थंकर केवली को होता है और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ तीर्थकर भगवान को होता है । तथा "पणवीसाए देसे छन्वीसूणा" अर्थात् छब्बीस प्रकृतिक न्यून पच्चीस प्रकृतिक से लेकर इकत्तीस प्रकृतिक के छह उदयस्थान देशविरत गुणस्थान में होते हैं । वे इस प्रकार हैं-२५, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक। उनमें से पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस चारों गति के जीवों में पर्याप्तावस्था में संभव उदयस्थान होते हैं। इस प्रकार अपर्याप्तावस्था के २१, २४, २५, २६ प्रकृतिक ये चार और पर्याप्तावस्था के २६, ३०, ३१ प्रकृतिक इस तरह तीन, सब मिलकर सात उदयस्थान यहां संभव हैं । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७७ १४५ प्रकृतिक ये चार उदयस्थान उत्तर वैक्रियशरीर करते मनुष्य, तिर्यचों के होते हैं और तीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ पर्याप्त तिर्यंचमनुष्यों के तथा उद्योत के वेदक उत्तर वैक्रियशरीरी तिर्यंच के होता है। इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान उद्योत के वेदक स्वभावस्थ तिर्यच को होता है । देशविरत गुणस्थान संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज, पर्याप्त तिर्यंच तथा मनुष्यों के होता है, जिससे पर्याप्तावस्था में हो सकता है तथा वैक्रियशरीर करने पर जो उदयस्थान हो सकते हैं वे यहां होते हैं। __ प्रमत्तसंयत गुणस्थान में छब्बीस प्रकृतिक के सिवाय पच्चीस से तीस प्रकृतिक तक के पाँच उदयस्थान होते हैं-"छव्वीसूणा पमत्ति पुण पंच।" इनमें से पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये चार उदयस्थान उत्तर वैक्रियशरीर और आहारकशरीर करते संयत को होते हैं और स्वभावस्थ संयत को तीस प्रकृतियों का उदय होने से तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । किन्तु इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान उद्योत के उदय वाले तिर्यंचों ही के होता है, जिससे वह संयत को होता नहीं है और प्रमत्तसंयतगुणस्थान मात्र संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज, पर्याप्त मनुष्य को ही होता है। जिससे पर्याप्तावस्था सम्बन्धी एवं वैक्रिय व आहारक शरीर करने पर जो उदयस्थान हो सकते हैं, वही होते हैं और वे हैं, छब्बीस प्रकृतिक रहित पच्चीस से लेकर तीस प्रकृतिक तक के पाँच । इसीलिये छठे गुणस्थान में पाँच उदयस्थान संभव हैं। तथा_ 'गुणतीसाई मीसे' अर्थात् तीसरे सम्यमिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) गुणस्थान में उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक उदय रूप तीन उदयस्थान होते हैं । यह गुणस्थान चारों गति के जीवों के पर्याप्तावस्था में ही होता है। जिससे पर्याप्तावस्था में संभव उदयस्थान ही यहाँ होते हैं । इन उदयस्थानों में से उनतीस प्रकृतिक उदय नारकों के, तीस प्रकृतिक उदय देव, मनुष्य और तिर्यंचों को तथा इकत्तीस प्रकृतिक उदय तिर्यचों के होता है। तथा----- Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पंचसंग्रह : १० ___अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उनतीस एवं तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं। उनमें से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान वैक्रिय और आहारक शरीरी को होता है। जिसका आशय यह है कि वैक्रिय और आहारक शरीर करने की शुरुआत तो छठे गुणस्थान में करता है, परन्तु उन दोनों शरीर के योग्य सभी पर्याप्तियां पूर्ण होने के बाद अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में जा सकता है । वैक्रिय या आहारक शरीर की अपर्याप्तावस्था में कोई जीव अप्रमत्तावस्था प्राप्त नहीं कर सकता है, मात्र उद्योत का उदय शेष रह सकता है। यानि कोई उद्योत का उदय होने के पहले जाता है और कोई उद्योत का उदय होने के बाद भी जाता है । जिससे वैक्रिय या आहारक शरीरी को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उद्योत के उदय बिना का उनतीस प्रकृतिक और उद्योत का उदयवाला तीस प्रकृतिक इस प्रकार दोनों उदस्थान होते हैं। और स्वभावस्थ संयत को तो एक तीस प्रकृतिक ही उदयस्थान होता है। तथा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशांतमोह और क्षीणमोह इन पाँच गुणस्थानों में तीस प्रकृति का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है । यद्यपि गाथा में इसका उल्लेख नहीं किया है किन्तु प्रसंगानुसार स्वयमेव इसका ग्रहण कर लेना चाहिए। अयोगि केवली भगवान को आठ और नौ प्रकृति के उदय रूप दो उदयस्थान होते हैं। उनमें से सामान्य केवली के आठ प्रकृतियों और तीर्थंकर केवली के नौ प्रकृतियों का उदय होता है-'अट्ठो नवो अजोगिस्स ।' बीस प्रकृतियों का उदय केवलिसमुद्घात में तीसरे, चौथे और पांचवें समय में सामान्य केवली को और उसी अवस्था अर्थात् केवलिसमुद्घात अवस्था और उन्हीं समयों में यानि तीसरे, चौथे और पांचवें समयों में तीर्थंकर केवली को तीर्थंकरनाम के साथ इक्कीस प्रकृतियों का उदय होता है तथा भव से भवान्तर जाते सभी संसारी Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७८ १४७ जीवों के इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है-'इगवीसो पुण उदओ .........."सव्वजीवाणं ।' इस प्रकार से गुणस्थानों में नामकर्म के उदयस्थानों की संभवता को जानना चाहिये । अब तिर्यचगति आदि में उनका विचार करते हैं। तिर्यंच और मनुष्यों में नामकर्म के उदयस्थान चउवीसाई चउरो उदया एंगिदिएसु तिरिमणुए। अडवीसाइ छव्वीसा एक्केक्कूणा विउव्वति ॥७॥ शब्दार्थ-चउवीसाई-चौबीस प्रकृतिक आदि, चउरो-चार, उदयाउदयस्थान, एगिदिएसु-एकेन्द्रियों में, तिरिमणुए-तिर्यंच और मनुष्यों में, अडवीसाइ-अट्ठाईस प्रकृतिक आदि, छन्वीसा-छब्बीस प्रकृतिक, एक्केक्कूणा-एक-एक प्रकृति द्वारा न्यून, विउव्वंति-वैक्रिय शरीर करते । गाथार्थ-एकेन्द्रियों में चौबीस प्रकृतिक आदि चार उदयस्थान होते हैं । तिर्यच और मनुष्यों में अट्ठाईस प्रकृतिक आदि चार एवं छब्बीस प्रकृतिक कुल पांच उदयस्थान होते हैं तथा वैक्रिय शरीर करते उनमें एक-एक प्रकृति द्वारा न्यून पांच उदयस्थान होते हैं। विशेषार्थ-तिर्यंच गति में नाम कर्म के उदयस्थानों का निरूपण एकेन्द्रिय जीवों से प्रारंभ किया है। क्योंकि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव तिर्यंच गति वाले होते हैं। एकेन्द्रियों में चौबीस, पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृति रूप चार उदयस्थान होते हैं तथा पूर्व में यह कहा गया है कि भवान्तर में जाते सभी जीवों के इक्कीस प्रकृतियों का उदय होता है । इसलिये इन चार उदयस्थानों के साथ उस अनुक्त इक्कीस प्रकृति रूप उदयस्थान को मिलाने पर पांच उदयस्थान एकेन्द्रिय जीवों में जानना चाहिये। इसी प्रकार से द्वीन्द्रिय आदि अन्य जीवों के लिये भी इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान का ग्रहण समझना चाहिये। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ पंचसंग्रह : १० द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये छह उदयस्थान होते हैं और इन छह में से इकत्तीस प्रकृतिक के सिवाय पांच उदयस्थान प्राकृत (सामान्य) मनुष्यों को जानना चाहिये। क्योंकि इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान उद्योत नाम सहित है और प्राकृत मनुष्यों के उद्योत का उदय नहीं होता है। वैक्रिय और आहारक शरीर की विकुर्वणा करते मनुष्य, तिर्यचों के पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतियों के उदय रूप पांच उदयस्थान होते हैं। मात्र मनुष्यों में उद्योत का उदय वाला उदयस्थान वैक्रिय या आहारक शरीरी यति को होता है। वैक्रिय शरीर करते वायुकायिक को चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृति रूप तीन उदयस्थान होते हैं और तेज-वायुकायिक जीवों में उद्योत का उदय न होने से उनको सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं बताया है। अब एकेन्द्रियों के उक्त उदयस्थानों का विचार करते हैं। एकेन्द्रियों के उदयस्थान गइआणुपुविजाई थावरदुभगाइतिणि धुवउदया। एगिदियइगिवीसा सेसाण व पगइ वच्चासो ॥७९॥ शब्दार्थ-गइआणुपुध्विजाई-गति, आनुपूर्वी, (एकेन्द्रिय) जाति, थावरदुभगाइतिण्णि-स्थावरत्रिक दुर्भगत्रिक, ध्रुव उदया-ध्र वोदया बारह प्रकृति, एगिदिय-एकेन्द्रिय को, इगिवीसा-इक्कीस प्रकृति, सेसाण- शेष जीवों के लिये, व-और, पगइ-प्रकृतियों का, वच्चासो---परिवर्तन । गाथार्थ-गति, आनुपूर्वी, (एकेन्द्रिय) जाति, स्थावरत्रिक, दुर्भगत्रिक और ध्र वोदया बारह प्रकृति कुल मिलाकर इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय भवान्तर में जाने पर एकेन्द्रियों को होता है । शेष जीवों के लिये प्रकृतियों का व्यत्यास करना चाहिये। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ७६,८० १४६ विशेषार्थ - यहाँ एकेन्द्रिय के उदयस्थानों का विचार किये जाने से गति - तियंचगति, आनुपूर्वी तियंचानुपूर्वी, जाति--एकेन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त रूप स्थावरत्रिक, दुर्भग, अनादेय और अयश:कीर्ति रूप दुर्भगत्रिक, एवं नामकर्म की ध्रुवोदया-तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ रूपबारह प्रकृति, इस तरह सब मिलाकर इक्कीस प्रकृतियों का उदय भव से भवान्तर में जाते एकेन्द्रिय को होता है । एक भव से भवान्तर में जाते एकेन्द्रियों को बादर, पर्याप्त और यशः कीर्ति का भी उदय संभव है । जिससे उन प्रकृतियों को भी परावर्तन के क्रम से इक्कीस में मिलाने से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के पांच भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं- १. बादर - अपर्याप्त-अयशः - कीर्ति, २ बादर - पर्याप्त अयशः कीर्ति, ३. सूक्ष्म अपर्याप्त अयशः कीर्ति, ४. सूक्ष्म - पर्याप्त - अयशः कीर्ति और ५. बादर पर्याप्त यशः कीर्ति । यशः कीर्ति का उदय बादर और पर्याप्त नाम के उदय के साथ हो सकता है, किन्तु सूक्ष्म या अपर्याप्त नाम के उदय के साथ नहीं होता है । इसीलिये जहाँ-जहाँ सूक्ष्म या अपर्याप्त नाम का उदय हो वहाँ मात्र अयशः कीर्ति के उदय के ही भंग लेना चाहिये । इस प्रकार इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के पांच भंग - विकल्प होते हैं । शेष द्वीन्द्रियादि जीवों के भी एक भव से दूसरे भव में जाने पर इक्कीस प्रकृतियों का उदय होता है । इसलिये उस-उस गति और द्वीन्द्रियादित्व का विचार करके गति, जाति आदि प्रकृतियों का व्यत्यास विपर्यास - परावर्तन स्वयमेव करके उन-उनके उदयस्थानों का विचार करना चाहिये । जिसका स्पष्टीकरण द्वीन्द्रियादि के उदयस्थानों का विचार करते समय हो जायेगा तथा सा आणुपुव्विहीणा अपज्जगदितिरियमणुयाणं । पत्तउवधायसरीरहुण्डसहिया उ चवीसा ॥८०॥ शब्दार्थ -सा- पूर्वोक्त वे प्रकृति, आणुपुविहीणा - आनुपूर्वी के बिना, अपज्जगदितिरियमणुयाणं- अपर्याप्त, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियादि तियंचों और Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० पचसंग्रह : १० मनुष्यों के, पत्त-प्रत्येकनाम, उवघाय-उपघात, सरीर--(औदारिक) शरीर, हुण्डसहिया-हुण्डसंस्थान सहित, उ-और, चउवीसा-चौबीस । गाथार्थ-पूर्वोक्त वे (इक्कीस) प्रकृति आनुपूर्वी के बिना बीस होती हैं और उनका उदय अपर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियादि तिर्यंचों और मनुष्यों के होता है । उनमें प्रत्येक, उपघात, औदारिक शरीर और हुण्डसंस्थान को मिलाने पर चौबीस प्रकृति होती हैं । (जिनका उदय शरीरस्थ को होता है।) विशेषार्थ-एक भव से भवान्तर में जाने पर जो इक्कीस प्रकृतियों का उदय बताया है, उनमें से आनुपूर्वी को कम करने पर बीस प्रकृतियों का उदय अपर्याप्त (पर्याप्त) एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियादि तिर्यचों और मनुष्यों को अवश्य होता है । बीस में से एक भी प्रकृति कम नहीं होती है और आनुपूर्वी नाम को कम करने का कारण यह है कि उसका उदय भवान्तर में जाने पर विग्रहगति में ही होता है एवं भवान्तर में जाने पर इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान पहले कहा जा चुका है। अब उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न होने पर जितनी प्रकृतियों का उदय होता है, उसको बतलाते हैं-इक्कीस प्रकृतियों में से आनुपूर्वी को कम करके उनमें प्रत्येक, उपघात, औदारिक शरीरनाम और हुण्डसंस्थान इन चार प्रकृतियों को मिलाने से चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उसका उदय शरीरस्थ को-उत्पत्ति स्थान में उत्पन्न हुए को-होता है। इन चौबीस में साधारणनाम का भी उदय संभव है। जिससे प्रत्येकनाम के स्थान पर उसे विकल्प से मिलाने पर दस भंग होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये १. बादर-पर्याप्त-प्रत्येक-यशःकीति, २. बादर-पर्याप्त-प्रत्येक-अयशः कीति, ३. बादर-पर्याप्त-साधारण-यश:कीति, ४. बादर-पर्याप्त-साधारण-अयशःकीर्ति, ५. बादर-अपर्याप्त-प्रत्येक-अयशःकीति, ६. बादरअपर्याप्त-साधारण-अयशःकीर्ति, ७. सूक्ष्म-पर्याप्त-प्रत्येक-अयश:कीर्ति, Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - -प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८० १५१ ८. सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक - अयशः कीर्ति, ६. सूक्ष्म-पर्याप्त साधारणअयशः कीर्ति और १० सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण - अयशः कीर्ति । बादर वायुकायिक के लिये वैक्रिय शरीर करने पर औदारिक के स्थान पर वैक्रिय का उदय कहना चाहिये । उसे भी उपर्युक्त चौबीस प्रकृतियों का उदय होता है । मात्र यहाँ बादर-पर्याप्त प्रत्येक और अयशः कीर्ति के साथ एक ही भंग होता है। तेज तथा वायुकाय के जीवों के यशःकीर्ति और साधारण नाम का उदय होता ही नहीं है । जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इस प्रकार चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह भंग होते हैं । तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त उस एकेन्द्रिय को पूर्वोक्त चौबीस प्रकृतियों के उदय में पराघात के उदय को मिलाने पर पच्चीस प्रकृतियों का उदयरूप स्थान होता है । यह पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त-नामकर्म के उदय वाले को ही होता है, जिससे अपर्याप्तनामकर्म के विकल्प के भंग नहीं होते हैं । अपर्याप्तनाम के उदय वाले किसी भी जीव को अपने-अपने उदयस्थानों में से आदि के दो उदयस्थान ही होते हैं । यहाँ छह भंग इस प्रकार होते हैं - १. बादर - प्रत्येकयश: कीर्ति, २ . बादर- प्रत्येक - अयशः कीर्ति, ३. बादर - साधारण-यश:कीर्ति, ४. बादर - साधारण - अयशः कीर्ति, ५. सूक्ष्म - प्रत्येक - अयशः कीर्ति और ६. सूक्ष्म - साधारण - अयशः कीर्ति । बादर वायुकायिक को वैक्रिय शरीर करने पर उसको शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के बाद पराघात का उदय मिलाने पर भी पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ बादर - पर्याप्त प्रत्येकअयशः कीर्ति यह एक ही भंग होता है । सब मिलाकर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान के सात विकल्प होते हैं । तत्पश्चात् प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पच्चीस प्रकृतियों के उदय में कहे गये अनुसार छह भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पहले किसी को Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० आतप का, किसी को उद्योत का उदय हो सकता है । यहाँ उद्योत के उदय युक्त छब्बीस प्रकृतियों के उदय के चार और आतप के उदय युक्त छब्बीस प्रकृतियों के उदय के दो भंग, कुल मिलाकर छह विकल्प होते हैं । जो इस प्रकार १. बादर-प्रत्येक-उद्योत-यश:कीति, २. बादर-प्रत्येक-उद्योत-अयश: कीर्ति ३. बादर-साधारण-उद्योत-यशःकीर्ति, ४. बादर-साधारणउद्योत-अयशःकीर्ति, ५. बादर-प्रत्येक-आतप-यश:कीर्ति और ६. बादर-प्रत्येक-आतप-अयशःकीर्ति । उद्योत का उदय बादर प्रत्येक या साधारण को होता है, सूक्ष्म को नहीं होता है और आतप का उदय बादर-प्रत्येक को ही होता है। जिससे अनुक्रम से चार और दो ही विकल्प हो सकते हैं। बादर वायुकायिक को वैक्रिय शरीर करने पर प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को पच्चीस प्रकृतियों के उदय में उच्छ्वास का उदय मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ पूर्ववत् एक ही भंग होता है । तेज और वायुकायिक जीवों के आतप, उद्योत और यशःकीर्ति का उदय नहीं होता है जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं। सब मिलाकर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान के तेरह विकल्प होते हैं । तथा प्राणापानपर्याप्ति से उच्छ्वास के उदय सहित छब्बीस प्रकृति के उदय में आतप या उद्योत का उदय मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ उद्योत या आतप के उदययुक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में जैसे पहले छह भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहाँ भी छह भंग होते हैं। इस प्रकार से एकेन्द्रिय के पाँच उदयस्थान जानना चाहिये और उन उदयस्थानों के कुल मिलाकर बयालीस भंग होते हैं । तथा परघायसासआयबजुत्ता पणछक्कसत्तवीसा सा। संघयणअंगजुत्ता चउवीस छवीस मणुतिरिए ॥१॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८१ शब्दार्थ-परघायसासआयवजुत्ता-पराघात, उच्छ्वास और आतप से युक्त करने पर, पणछक्कसत्तवीसा-पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस, सा-वे प्रकृतियाँ, संघयणअंगजुत्ता–संहनन और अंगोपांग युक्त, चउवीस-चौबीस, छवीस-छब्बीस, मणुतिरिए-मनुष्य तियंचों में होती हैं। गाथार्थ-पूर्वोक्त चौबीस प्रकृतियों को अनुक्रम से पराघात, उच्छ्वास और आतपयुक्त करने पर पच्चीस, छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतियाँ होती हैं। पूर्वोक्त चौबीस प्रकृतियों को संहनन और अंगोपांगयुक्त करने पर छब्बीस होती हैं और उनका उदय मनुष्य तथा तियचों को होता है। विशेषार्थ-चौबीस के उदय में पराघात का उदय मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और पच्चीस के उदय में उच्छवास का उदय मिलाने पर छब्बीस का और उसमें आतप का उदय मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है । यहाँ आतप का उदय उपलक्षण हैं। उससे उद्योत का भी ग्रहण कहना चाहिये। जिससे यह अर्थ हुआ कि उद्योत का उदय मिलाने पर भी सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । आतप और उद्योत का उदय एक साथ एक जीव को नहीं होता है। जिसको उद्योत का उदय हो उसको आतप का और जिसको आतप का उदय हो उसको उद्योत का उदय नहीं होता है। भवांतर में जाने से लेकर स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करे तब तक जिस क्रम से प्रकृतियों का उदय होता है, उसको यहाँ बताया है । इस प्रकार एकेन्द्रिय के उदयस्थान और उनमें होने वाले विकल्प जानना चाहिये। विकलत्रिकों के उदयस्थान अब क्रम-प्राप्त विकलत्रिकों के उदयस्थानों को बतलाते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय इन तीन जाति के जीवों की विकलत्रिक यह संज्ञा है। उनमें से पहले द्वीन्द्रिय के उदयस्थानों का निरूपण करते हैं। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १ द्वीन्द्रियों के २१, २६, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक ये छह उदयस्थान होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है पूर्वोक्त एकेन्द्रिययोग्य इक्कीस प्रकृतियों में से कुछ प्रकृतियों में फेरफार करके द्वीन्द्रिय के लिये भी जानना चाहिये । वे इस प्रकार - तियंचगति, तियंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, त्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्त - अपर्याप्त में से एक, दुभंग, अनादेय, यशःकीर्ति अयशः कीर्ति में से एक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और निर्माण नाम । इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय भवान्तर में जाते द्वीन्द्रिय को होता है । यहाँ तीन भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं १५४ १. अपर्याप्त नाम के उदय वाले द्वीन्द्रिय को अयशः कीर्ति के साथ एक भंग और २- ३. पर्याप्त नाम के उदय वाले द्वीन्द्रिय को यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति के साथ एक-एक भंग। इस प्रकार दो भंग होते हैं । जो कुल मिलाकर तीन भंग हो जाते हैं । तत्पश्चात् शरीरस्थ - उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न हुए द्वीन्द्रिय को पूर्वोक्त इक्कीस के उदयस्थान में से आनुपूर्वीनाम को कम करके उसमें प्रत्येक, उपघात, औदारिक- शरीर, औदारिक अंगोपांग, हुण्डसंस्थान और सेवार्त संहनन इन छह प्रकृतियों को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके भी इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान की तरह तीन विकल्प होते हैं । एकेन्द्रिय को अंगोपांग और संहनन का उदय नहीं होता है, किन्तु द्वीन्द्रिय को होता है, जिससे शरीरस्थ एकेन्द्रिय के चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान में इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । तथा परघायखगइजुत्ता अडवीसा गुणतीस सासेणं । तीसा सरेण सुज्जोव तित्थ तिरिमणुय इगतीसा ॥८२॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २२ १५५ शब्दार्थ-परघायखगइजुत्ता-पराघात और विहायोगति सहित, अडवीसा-अट्ठाईस प्रकृतिक, गुणतीस-उनतीस प्रकृतिक, सासेणं-उच्छ्वास सहित, तीसा-तीस प्रकृतिक, सरेण- स्वरयुक्त करने पर, सुज्जोव-उद्योत सहित, तित्थ-तीर्थकर, तिरिमणुय-तिर्यंचों और मनुष्यों में, इगतीसाइकत्तीस प्रकृतिक। ___गाथार्थ-पराघात और स्वगतियुक्त अट्ठाईस का उदय होता है। उच्छवास युक्त उनतीस, स्वरयूक्त तीस, और उद्योतयक्त इकत्तीस का उदय होता है । तिर्यंचों में उद्योत के उदययुक्त इकत्तीस का और मनुष्यों में तीर्थकरनाम का उदययुक्त इकत्तीस का उदय होता है। विशेषार्थ-पूर्वोक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और अशुभ विहायोगति को मिलाने द्वीन्द्रियादि सभी तिर्यंचों और मनुष्यों को अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में द्वीन्द्रिय के उदयस्थान में यशःकीर्ति और अयशःकीर्ति का परावर्तन करने से दो भंग होते हैं। यहाँ से समस्त उदयस्थान पर्याप्त नाम के उदय वाले को ही होते हैं। जिससे अपर्याप्त नाम के उदय के भंग नहीं होते हैं। तत्पश्चात् प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् यश:कीर्ति-अयशःकीति इन दो पदों के दो भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पहले किसी को उद्योत का उदय होता है, जिससे अट्ठाईस प्रकृतियों में उद्योत का उदय मिलाने पर भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् दो भंग होते हैं और कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के चार भंग होते हैं। १ यहाँ द्वीन्द्रिय के उदयस्थानों का कथन करने के प्रसंग मेंस मान्य से तिर्यंच और मनुष्यों के उदयस्थान ग्रंथलाघव की दृष्टि से कहे हैं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ पंचसंग्रह : १० तत्पश्चात् भाषापर्याप्ति से पर्याप्त के उच्छ्वास युक्त उनतीस प्रकृतियों के उदय में सुस्वर या दुःस्वर में से किसी एक के उदय को मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ चार भंग इस प्रकार होते हैं १. सुस्वर-यशःकीर्ति, २. सुस्वर-अयशःकीर्ति, ३. दुःस्वर-यश:कीर्ति और ४. दुःस्वर-अयशःकीर्ति । अथवा स्वर का उदय होने के पहले उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त के उद्योत का उदय होता है। अत: उससे भी तीस प्रकृतियों का उदय होता है। यहां यशःकीर्ति-अयश:कीर्ति के साथ दो भंग होते हैं। कुल मिलाकर तीस प्रकृतिक उदयस्थान के छह भंग होते हैं। तदनन्तर भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर सहित तीस प्रकृतियों के उदय में उद्योत का उदय मिलाने पर इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां सुस्वर-दुःस्वर, यश:कीर्ति-अयशःकीर्ति के साथ चार भंग इस प्रकार होते हैं १. सुस्वर-यशःकीर्ति, २. सुस्वर-अयशःकीर्ति, ३. दुःस्वरयश:कीति, ४. दुःस्वर-अयशःकीर्ति । प्रत्येक तिर्यंच में इकत्तीस प्रकृतियों का उदय उद्योत के साथ और मनुष्यों में इकत्तीस प्रकृतियों का उदय तीर्थंकर नाम के साथ होता है। द्वीन्द्रिय के समस्त उदयस्थानों के कुल मिलाकर बाईस भंग होते हैं। ___ इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के भी छह-छह उदयस्थान और उनके बाईस-बाईस भंग जानना चाहिये। इतना विशेष है कि द्वीन्द्रियजाति के स्थान पर त्रीन्द्रिय के लिये त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रिय के लिये चतुरिन्द्रियजाति शब्द का प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार विकलेन्द्रियों के कुल छियासठ भंग होते हैं। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८२ १५७ अब सामान्य पंचेन्द्रियों के उदयस्थानों का विचार करते हैं । सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच के उदयस्थान सामान्य-प्राकृत तिर्यंच पंचेन्द्रिय के यह प्रकृति संख्या वाले छह उदयस्थान हैं-२१, २६, २८, २९, ३०, और ३१ प्रकृतिक । इनका विवरण इस प्रकार है तिर्यंचगति, तिल्चानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वसनाम, बादरनाम, पर्याप्त-अपर्याप्त में से एक, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेय-अनादेय में से एक, यशःकीर्ति-अयश:कीति में से एक, तैजस-कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, निर्माण और वर्णचतुष्क । कुल मिलाकर ये इक्कीस प्रकृतियां हैं। ____ इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय भवान्तर में जाते तिर्यंच पंचेन्द्रिय को होता है । यहाँ नौ भंग होते हैं। उनमें पर्याप्त नाम के उदय वाले को सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति के साथ आठ तथा अपर्याप्त नाम के उदय वाले को दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति के साथ एक भंग होता है। क्योंकि अपर्याप्त नाम के उदय वाले को परावर्तमान अप्रशस्त प्रकृतियों का ही उदय होता है, जिससे विकल्प का अभाव होने से एक ही भंग होता है। कितने ही आचार्यों का मंतव्य इस प्रकार है-सुभगनाम के उदय वाले को आदेय और दुर्भगनाम के उदय वाले को अनादेय का उदय अवश्य होता है। जिससे सुभग-आदेय और दुर्भग-अनादेय का साथ ही उदय होता है । इसलिये पर्याप्त का सुभग-आदेय युगल और दुर्भगअनादेय युगल का यशःकीर्ति और अयश:कीर्ति के साथ व्यत्यास करने से चार भंग होते हैं और अपर्याप्त का एक भंग होता है। इस प्रकार मतान्तर से कुल पाँच भंग होते हैं। इसी प्रकार से आगे के उदयस्थानों में भी मतान्तर से भंगों की विषमता का विचार स्वयमेव कर लेना चाहिये। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ पंचसंग्रह : १० ___ इसके बाद शरीरस्थ को आनुपूर्वी के उदय बिना के बीस प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिकद्विक, छह संस्थानों में से कोई एक संस्थान, छह संहनन में से कोई एक संहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पर दो सौ नवासी (२८६) भंग होते हैं। उनमें पर्याप्त के छह संहनन, छह संस्थान, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति का परावर्तन करने पर दो सौ अठासी भंग होते हैं और अपर्याप्त को परावर्तमान हुण्डसंस्थान आदि सभी अशुभ प्रकृतियों का उदय होने से एक ही भंग होता है। मतान्तर से एक सौ पैंतालीस (१४५) भंग होते हैं। ___इन्हों छब्बीस प्रकृतियों के उदय में शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त होने के बाद पराघात और विहायोगतिद्विक में से एक को मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी जो पर्याप्त के छब्बीस प्रकृतिक उदय के दो सौ अठासी भंग कहे हैं, उनको विहायोगतिद्विक से गुणा करने पर पाँच सौ छियत्तर (५७६) भंग होते हैं। अपर्याप्त को अट्ठाईस प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । जिससे इस उदयस्थान से तत्संबन्धी भंग नहीं होते हैं । मतान्तर से दो सौ अठासी भंग होते हैं। इसके बाद प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त के उच्छ्वास के उदय को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पूर्व की तरह पाँच सौ छियत्तर भंग होते हैं। अथवा शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पहले किसी को उद्योत का उदय होने से भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पाँच सौ छियत्तर (५७६) भंग होते हैं। सब मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह सौ बावन (११५२) भंग और मतान्तर से पाँच सौ छियत्तर भंग होते हैं। तत्पश्चात् भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को सुस्वर-दुःस्वर में से एक का उदय मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ उच्छ् Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३ १५६ वास के साथ उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के जो पाँच सौ छियत्तर भंग कहे हैं उनको दोनों स्वरों से गुणा करने पर ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं। अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होता है। जिससे उसको मिलाने पर भी तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके पाँच सौ छियत्तर भंग होते हैं और कुल मिलाकर तीस प्रकृतिक उदयस्थान के सत्रह सौ अट्ठाईस (१७२८) भंग होते हैं तथा मतान्तर से आठ सौ चौसठ (८६४) भंग होते हैं। तत्पश्चात् स्वर सहित तीस प्रकृतियों के उदय में उद्योत का उदय मिलाने पर इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। उसमें स्वर सहित तीस प्रकृतिक उदयस्थान में जिस प्रकार से ग्यारह सौ बावन भंग कहे हैं, वही यहाँ भी जानना चाहिये और मतान्तर से पाँच सौ छियत्तर होते हैं। इस प्रकार से प्राकृत-सामान्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय के भंग जानना चाहिये । अब वैक्रिय शरीर करते तिर्यंच पंचेन्द्रियों के उदयस्थान कहने का अवसर प्राप्त है परन्तु सामान्यत: समान संख्या होने से वैक्रिय शरीर करते तिर्यंचों और मनुष्यों के तथा आहारक शरीर करते यति के उदयस्थानों का निरूपण करते हैं। वैक्रिय और आहारक शरीर सम्बन्धी उदयस्थान तिरिउदय छन्वीसाइ संघयणविवज्जियाउ ते चेव । उदया नरतिरियाणं विउव्वगाहारगजईणं ॥३॥ शब्दार्थ-तिरिउदय-तियंचों के उदयस्थान, छठवीसाई-छब्बीस प्रकृ. तिक आदि, संघयणविवज्जियाउ-संहनन के बिना, ते चेव-वही, उदयाउदयस्थान, नरतिरियाण-मनुष्यों और तिर्यंचों के, विउवगाहारगजईणंवैक्रिय और आहारक शरीर करते यति को । __ गाथार्थ-तिर्यंचों के जो छब्बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान __ कहे हैं, संहनन बिना के वे ही उदयस्थान वैक्रिय शरीर करने पर Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पंचसंग्रह : १० तिर्यंचों और मनुष्यों को तथा आहारक शरीर करने पर यति को होते हैं। विशेषार्थ-गाथा में कतिपय विशिष्ट स्थितियोंगत, मनुष्यों, तिर्यचों के उदयस्थानों का निरूपण किया है-- 'तिरिउदय छन्वीसाइ' अर्थात् सामान्य तिर्यंचों के पूर्व में छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस प्रकृति रूप जो उदयस्थान कहे हैं वे सभी "संघयणविवज्जियाउ" संहनननामकर्म के बिना उत्तर वैक्रिय शरीरी तिरूचों और मनुष्यों तथा आहारक शरीरी यति-संयत को होते हैं। इस सामान्य कथन का तिर्यंचों और मनुष्यों के क्रम से विवरण इस प्रकार है उत्तर वैक्रिय शरीर करते तिर्यंचों के पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान होते हैं । वैक्रिय और आहारक शरीर की विकुर्वणा पर्याप्तावस्था में ही होती है, जिससे भवान्तर में जाने पर संभव इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान यहाँ नहीं होता है तथा वैक्रिय और आहारक शरीर में हड्डियां नहीं होने से अस्थिबंध रूप संहनन भी नहीं होता है। जिससे सामान्य तिर्यंचों के जो छब्बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान पूर्व में कहे हैं, उन प्रत्येक में से संहनन नामकर्म को कम करने पर ये पच्चीस प्रकृतिक आदि पाँच उदयस्थान होते हैं। पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान की प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं___ वैक्रियद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, प्रत्येक, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेयअनादेय में से एक, यशःकीति-अयशःकीर्ति में से एक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क और निर्माणनाम । यहाँ सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति के साथ आठ भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं १. सुभग-आदेय-यशःकीति, २. सुभग-आदेय-अयशःकीर्ति, ३. सुभग-अनादेय-यशःकोति, ४. सुभग-अनादेय-अयशःकीर्ति, ५. दुर्भग Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३ १६१ आदेय-यशःकीति, ६. दुर्भग-आदेय-अयशःकीर्ति, ७. दुर्भग-अनादेययशःकीर्ति, ८. दुर्भग-अनादेय-अयशःकीर्ति । तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को पराघात और प्रशस्त विहायोगति का उदय मिलने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं। ____ इसके बाद उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त को श्वासोच्छ्वास का उदय मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पूर्ववत् आठ भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पूर्व किसी को उद्योत का भी उदय होने से अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इसके भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं और कुल मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भंग होते हैं। तदनन्तर भाषापर्याप्ति से पर्याप्त के उच्छ्वास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में सुस्वर का उदय मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं। अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होता है और उसके उदय में भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं और कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भंग होते हैं। इसके बाद सुस्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत के उदय को मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्व की तरह आठ भंग जानना चाहिये। सब मिलाकर वैक्रिय तिर्यंचों के पाँच उदयस्थानों के छप्पन (५६) भंग होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यचों के उनचास सौ बासठ (४६६२) भंग १ उच्छ्वास का उदय होने के पूर्व किसी को भी स्वर का उदय नहीं . होता है। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पंचसंग्रह : १० जानना चाहिये तथा एकेन्द्रियादि समस्त तिर्यंचों के कुल मिलाकर पाँच हजार सत्तर (५०७०) भंग होते हैं । इस प्रकार से तिर्यंचगति संबन्धी समस्त उदयस्थानों का वर्णन जानना चाहिये | अब मनुष्यों के उदयस्थानों का विचार करते हैं । यद्यपि तिर्यंच पंचेन्द्रियों के उदयस्थानों के साथ मनुष्यों के भी उदयस्थानों का सामान्य से उल्लेख किया है । परन्तु उनका अलग से भी उल्लेख किया जाना आवश्यक होने से पृथक् निर्देश करते हैं । सामान्य मनुष्यों में यह पाँच उदयस्थान होते हैं - इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक । इनमें से इक्कीस, छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान जैसे तियंच पंचेन्द्रियों के लिये कहे हैं, वैसे यहां भी समझना चाहिये । मात्र तिर्यंचगति आनुपूर्वी के स्थान पर मनुष्यगति-आनुपूर्वी कहना चाहिये और भंग भी पूर्ववत् ( तियंच पंचेन्द्रियों के समान) संख्या प्रमाण कहना चाहिये । उनतीस और तीस प्रकृतिक उदयस्थान भी तियंचों की तरह हैं । मात्र उद्योत नाम के उदयरहित कहना चाहिये । क्योंकि मनुष्यों में उद्योत का उदय वैक्रिय और आहारक शरीरी संयत के सिवाय अन्य किसी को नहीं होता है । इसलिये तिर्यच संबन्धी उनतीस और तीस प्रकृतिक उदयस्थानों के भंगों में से उद्योत के उदय से होने वाले भंगों को कम करने पर मनुष्यों के उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में पाँच सौ छियत्तर और तीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं । सब मिलाकर सामान्य मनुष्य के छब्बीस सौ दो (२६०२ ) भंग होते हैं । वैक्रिय मनुष्यों के पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान होते हैं । उनमें मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, त्रस, वादर, पर्याप्त, प्रत्येक, सुभग दुर्भग में से एक, आदेय - अनादेय में से एक, यशः कीर्ति - अयशः कीर्ति में से एक, तैजस- कार्मण, वर्णचतुष्क, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८३ स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु और निर्माणनाम इस प्रकार पच्चीस प्रकृतियां होती हैं । यहां सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यश:कीर्ति-अयशःकीर्ति का विपर्यास करने पर आठ भंग होते हैं । देशविरत श्रावकों और सर्वविरत मुनियों को दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति का गुणप्रत्यय से ही उदय नहीं होता है । जिससे वैक्रिय शरीर करने पर उन्हें सुभग, आदेय और यशःकीर्ति का ही उदय होने से सर्वप्रशस्त एक ही भंग होता है। ___शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को पराघात और प्रशस्त विहायोगति का उदय होता है, जिससे इन दो प्रकृतियों को मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं। प्राणापानपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद उच्छ्वास नाम का उदय होता है। जिससे उसका उदय मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं । अथवा संयत को उत्तर वैक्रिय शरीर करने पर शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होता है। जिससे उसके उदय को मिलाने पर भी अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां एक ही भंग होता है। क्योंकि संयत को अप्रशस्त प्रकृतिदुर्भग, अनादेय और अयशःकीति का उदय नहीं होता है। कुल मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान के नौ भंग होते हैं। तत्पश्चात् भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास सहित अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में सुस्वर के उदय को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी पूर्ववत् आठ भंग होते हैं। अथवा संयत को स्वर का उदय होने के पहले उद्योत का उदय होने पर भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पूर्ववत् एक ही भंग होता है और कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के नौ भंग होते हैं। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पंचसंग्रह : १० स्वरसहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में संयत को उद्योत का उदय मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस तीस के उदयस्थान में संयत को समस्त प्रशस्त प्रकृतियों का ही उदय होने से एक ही भंग होता है और सब मिलाकर वैक्रिय मनुष्य के पांच उदयस्थान के पैंतीस भंग होते हैं। ___ आहारक संयत के पांच उदयस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैंपच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक। इनमें से पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में निम्नलिखित प्रकृतियों का समावेश आहारकद्विक, समचतुरस्रसंस्थान, उपघात, प्रत्येक, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यश:कीर्ति, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और निर्माण । यहाँ सभी प्रकृतियां प्रशस्त होने से एक ही भंग होता है। क्योंकि आहारक संयत को दुर्भग, अनादेय और अयश:कीति का उदय नहीं होता है। शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को पराघात और प्रशस्त विहायोगति का उदय बढ़ाने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी एक ही भंग होता है। प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त के उच्छ्वास का उदय मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी एक ही भंग होता है । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त के उच्छ्वास का उदय होने से पहले किसी को उद्योत का उदय होता है। जिससे उसको मिलाने पर भी अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी एक ही भंग होता है और सब मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान के दो भंग होते हैं। भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास के उदययुक्त अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान में स्वर के उदय को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४ १६५ उदयस्थान होता है। यहां भंग एक ही होता है । अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर का उदय होने के पहले किसी को उद्योत का उदय होने से भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी एक ही भंग होता है और सब मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के दो विकल्प होते हैं। - इसके बाद भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर सहित उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योत का उदय मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और भंग एक ही होता है। तथा सब मिलाकर आहारक शरीरी के पाँच उदयस्थान के सात भंग होते हैं। इस प्रकार से मनुष्ययोग्य नामकर्म के उदयस्थान जानना चाहिये। अब देव और नारक योग्य उदयस्थानों का निरूपण करते हैं। देव और नारक प्रायोग्य उदयस्थान देवाणं सवेवि हु ते एव विगलोदया असंघयणा । संघयणुज्जोयविवज्जिया उ ते नारएसु पुणो ॥४॥ शब्दार्थ-देवाणं-देवों के, सव्वेवि-सभी, हु-अवधारणात्मक अव्यय, ते वि-वही, विगलोदया-विकलेन्द्रियों में उदय होने वाले, असंघयणासंहनन रहित, संघयणुज्जोयविवज्जिया–संहनन और उद्योत से रहित, उऔर, ते-वे, नारएसु-नारकों में, पुणो–पुनः । __गाथार्थ-संहनन बिना के विकलेन्द्रियों के सभी उदयस्थान देवों के भी होते हैं तथा संहनन और उद्योत उदय बिना के वे ही सब नारकों में होते हैं। १ संमूच्छिम मनुष्यों में इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक ये दो ही उदयस्थान होते हैं। उनमें परावर्तमान सभी अशुभ प्रकृति होती हैं । विकल्प नहीं होने से एक-एक भंग होता है । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ-गाथा में अनुक्रम से देव और नारकों के उदयस्थान बतलाये हैं। इन दोनों के उदयस्थान तो वही हैं जो पूर्व में विकलेन्द्रियों को बतलाये हैं। लेकिन वे संहनन और उद्योत नाम से रहित जानना चाहिये । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है विकलेन्द्रियों में इक्कीस प्रकृतिक आदि जो छह उदयस्थान पूर्व में कहे हैं, वे सभी उदयस्थान संहनन के उदय बिना के देवों में होते हैं। इसका कारण यह है कि देवों के वैक्रिय शरीर होता है और वैक्रिय शरीर में हड्डियां नहीं होने से संहनन का उदय नहीं होता है। मात्र देवगति आश्रयी विकलेन्द्रिय के उदयस्थान कहने पर कितनीक प्रकृतियों का फेरफार स्वयमेव कर लेना चाहिये। ऐसा करने पर इक्कीस प्रकृतियां इस प्रकार हैं देवगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग-दुर्भग में से एक, आदेय-अनादेय में से एक, यशःकीर्ति-अयशःकीति में से एक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क और निर्माण नाम। इस इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के सुभग-दुर्भाग, आदेय-अनादेय और यशःकीति-अयश:कीर्ति पद के आठ विकल्प होते है। दुर्भग, अनादेय और अयशःकीति का उदय पिशाचादि को होता शरीरस्थ देव के देवानुपूर्वी कम करके वैक्रिय शरीर वैक्रिय-अंगोपांग, उपघात, प्रत्येक, और समचतुरस्रसंस्थान का उदय मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी पूर्वोक्त आठ भंग होते हैं। तत्पश्चात् शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त के पराघात और प्रशस्त विहायोगति का उदय मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहां भी वही आठ भंग होते हैं। देवों के अप्रेशस्त विहायोगति का उदय नहीं होने से तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इसके बाद उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त को श्वासोच्छ्वास के उदय को मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८४ १६७ भी वही आठ भंग होते हैं । अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पहले किसी को उद्योत का उदय' होता है । जिससे उसको मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी आठ भंग होते हैं और सब मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भंग होते हैं । तत्पश्चात् भाषापर्याप्ति से पर्याप्त के सुस्वर का उदय मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी आठ भंग होते हैं । अथवा प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को स्वर का उदय होने के पूर्व उद्योत का उदय होने से भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहां भी वही आठ भंग होते हैं और सब मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह भंग होते हैं । तदनन्तर भाषापर्याप्ति से पर्याप्त के सुस्वरयुक्त उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में उद्योतनाम का उदय मिलाने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ पर भी वही आठ भंग होते हैं और सब मिलाकर देवों के छह उदयस्थानों के चौंसठ (६४) भंग होते हैं । इस प्रकार देव सम्बन्धी उदयस्थानों का कथन जानना चाहिए । अब नारकों के उदयस्थानों का निरूपण करते हैं पूर्व में जो विकलेन्द्रियों के इक्कीस प्रकृतिक आदि छह उदयस्थान कहे हैं, वही सब संहनन और उद्योत के उदय बिना के नारकों के होते हैं । नारकों में हड्डियों का अभाव होने से संहनन नामकर्म का उदय नहीं होता है एवं अत्यन्त पाप के उदयवाले होने से उद्योत का भी १ यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि देवों के अपर्याप्तावस्था में उद्योत का उदय नहीं होता है । किन्तु पर्याप्तावस्था में उत्तरवैक्रिय शरीर करने पर शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद उद्योत का उदय हो सकता है । २ देवों के दुःस्वर का उदय नहीं होता है, जिससे तत्सम्बन्धी विकल्प नहीं होते हैं । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पंचसंग्रह : १० उदय नहीं होता है । अतएव विकलेन्द्रियों के उदयस्थानों में से इन दो प्रकृतियों को कम करना चाहिये तथा नारकों के उदयस्थानों का कथन करने के प्रसंग में नरकगति का अनुसरण करने वाली प्रकृतियों में फेर-बदल कर लेना चाहिये और ऐसा करने पर इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान की प्रकृतियों के नाम इस प्रकार होंगे नरकगतिद्विक, पंचेन्द्रियजाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण और निर्माण नाम । नरकगति सम्बन्धी उदयस्थानों में प्रायः सभी प्रकृतियां अशुभ होने से इस इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान का एवं आगे कहे जाने वाले उदयस्थानों का एक-एक ही भंग होता है । तत्पश्चात् शरीरस्थ के इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में से नरकानुपूर्वी को कम करके वैक्रियद्विक, प्रत्येक, उपघात, हुण्डसंस्थान इन पाँच प्रकृतियों के उदय को मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके बाद शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त के पराघात और अशुभ विहायोगति के उदय को मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । तत्पश्चात् उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त होने के बाद श्वासोच्छ्वास का उदय मिलाने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इसके बाद भाषापर्याप्ति से पर्याप्त को दुःस्वर का उदय मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है तथा सब मिलाकर नारकों के पाँच उदयस्थानों के पाँच ही भंग होते हैं । इस प्रकार से नरकगति सम्बन्धी नामकर्म के उदयस्थान जानना चाहिए | अब मनुष्यों में विशिष्ट ज्ञान के धारक केवली भगवन्तों के उदयस्थानों का विचार करते हैं । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५,८६,८७ केवली भगवन्तों के उदयस्थान तसबायरपज्जत्तं सुभगा एज्जं पंचिदिमणुयगई । जसकीत्तितित्थयरं अजोगिजिण अट्टगं नवगं ॥ ८५ ॥ निच्चोदयपगइजुआ चरिमुदया केवलीसमुग्धाए । संठाणेसु सव्वेसु होंति दुसरावि केवलिणो ॥ ८६ ॥ पत्तेउवधायउरालदु छ य संठाण पढमसंघयणा । छूढे छसत्तवीसा पुव्वत्ता सेसया उदया ॥८७॥ १६६ शब्दार्थ - तसबायर पज्जत्तं - त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभगाएज्जं - सुभग, आदेय, पंचिदिमणुयगई— पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगति, जसकीत्तितित्थयरंयशः कीर्ति, तीर्थंकर नाम, अजोगिजिण - अयोगि जिन, ( केवली ) अट्ठगं - आठ प्रकृतिक, नवगं - नौ प्रकृतिक | निच्चोदय पगइजुआ - ध्रुवोदया प्रकृतियों सहित, चरिमुदया— चरमोदय वाले, केवलीस मुग्धा — केवलि समुद्घात् में, संठाणेसु सव्र्व्वसु- सभी संस्थानों में, होंति — होते हैं, दुसरावि - दुःस्वर भी, केवलिणी - केवली भगवान को । पत्ते - प्रत्येक, उवघाय - उपघात, उरालदु — औदारिकद्विक, छ— छह, य— और, संठाण - संस्थान, पढमसंघयणा -- प्रथम संहनन, छूढ - मिलाने पर, छसत्तवीसा - छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक, पुव्वत्ता - पूर्व में कहे गये अनुसार, सेसया - शेष, उदया - उदयस्थान | गाथार्थ - त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यगति, यशः कीर्ति, इन आठ प्रकृतियों का उदय सामान्य अयोगिकेवली को और तीर्थंकर नाम सहित नौ प्रकृतियों उदय तीर्थंकर केवली को होता है । ध्रुवोदया प्रकृतियोंयुक्त पूर्वोक्त चरमोदया प्रकृतियों सहित उदयस्थान केवली समुद्घात में होते हैं । केवली भगवान को सभी संस्थान होते हैं एवं दुःस्वर का भी उदय होता है । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० पंचसंग्रह : १० (पूर्वोक्त दो उदयस्थानों में) प्रत्येक, उपघात, औदारिकद्विक, छह संस्थानों में से एक संस्थान और प्रथम संहनन का प्रक्षेप करने पर छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं और शेष उदय पूर्व में कहे अनुसार जानना चाहिये। विशेषार्थ-यद्यपि मनुष्यों में पाये जाने वाले उदयस्थान केवली भगवन्तों में भी होते हैं। फिर भी इनमें मनुष्यसामान्य की अपेक्षा विशेषता है । अतः इनके उदयस्थानों का पृथक् से निर्देश किया है। जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैं केवली भगवान में आठ, नौ, बीस, इक्कीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये दस उदयस्थान होते हैं। उनमें से आठ और नौ प्रकृतिक उदयस्थानगत प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, पंचेन्द्रियजाति और मनुष्यगति, इन आठ प्रकृतियों का उदय अयोगिकेवली गुणस्थान में सामन्य केवली के होता है । इस आठ प्रकृतिक उदयस्थान का एक ही भंग होता है तथा तीर्थंकर भगवन्तों के तीर्थंकर नाम का भी उदय होता है । अतएव पूर्वोक्त आठ प्रकृतियों में उसको मिलाने पर नौ का उदयस्थान होता है । इसका भी एक ही भंग है। इस प्रकार आठ और नौ प्रकृतिक उदयस्थान अयोगिकेवली गुणस्थान के अनुक्रम से सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली को होते हैं। तथा पूर्वोक्त आठ और नौ प्रकृतिक उदयस्थान में ध्र वोदया, तेजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु और निर्माणनाम रूप बारह प्रकृतियों को मिलाने पर बीस और इक्कीस प्रकृतिक यह दो उदयस्थान इस प्रकार होते हैं--पूर्वोक्त आठ प्रकृतियों में ध्र वोदया बारह प्रकृतियों को मिलाने से बीस प्रकृतिक एवं नौ प्रकृतियों में मिलाने पर इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । जो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५,८६,८७ १७१ क्रमशः सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली को जानना चाहिए। ये दोनों उदयस्थान केवलिसमुद्घात में कार्मणकाययोग में रहते तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में होते हैं। इन दोनों उदयस्थानों का एक-एक भंग होता है। इस प्रकार से अभी तक केवली के आठ, नौ, बीस, और इक्कीस प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों का कथन करने के बाद अब जो उदयस्थान कहे जाने वाले हैं उनमें होने वाले भंगों के जानने के लिये सामान्य केवली को जितने संस्थान और स्वर का उदय संभव है उनका निर्देश करते हैं:___'संठाणेसु सव्वेसु होंति दुसरावि केवलिणो' अर्थात् सामान्य केवली के सभी संस्थान संभव हैं तथा वे दुःस्वर वाले भी होते हैं तथा -'वि-अपि' शब्द से सुस्वर वाले भी होते हैं । अर्थात् उनको दुस्वर का भी और सुस्वर का भी उदय होता है । किन्तु तीर्थंकर केवली के तो एक समचतुरस्र संस्थान और सुस्वर का ही उदय होता है । अतएव पूर्वोक्त बीसप्रकृतिक उदयस्थान में प्रत्येक, उपधात, औदारिकद्विक, छह संस्थान में से एक संस्थान और प्रथम संहनन-वज्रऋषभनाराचसंहनन इन छह प्रकृतियों का प्रक्षेप करने से छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और यह उदयस्थान केवली समुद्घात में दूसरे, छठे और सातवें समय में वर्तमान औदारिकमिश्रयोगी सामान्य केवली को होता है । यहाँ छह संस्थान के छह भंग होते हैं । ___ तीर्थंकर केवली के पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में प्रत्येक आदि छह प्रकृतियों का प्रक्षेप करने से सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इन सत्ताईस प्रकृतियों का उदय समुद्रघात के दूसरे, छठे और सातवें समय में वर्तमान औदारिकमिश्रयोगी तीर्थंकर भगवान को होता है। तीर्थंकर भगवान को समचतुरस्रसंस्थान का ही उदय होने से यहाँ एक भंग होता है । शेष अट्ठाईस प्रकृतिक आदि उदयस्थान पहले 'पराघायखगइजुत्ता अडवीसे' इत्यादि गाथा द्वारा कहे गये हैं, वही यहाँ भी समझ लेना Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पंचसंग्रह : १० चाहिये । जो इस प्रकार हैं अनन्तरोक्त छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में पराघात और अन्यतर विहायोगति का प्रक्षेप करने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यह अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान जिसने स्वर और उच्छ्वास का रोध किया है, ऐसे सामान्य केवली को होता है। यहाँ छह संस्थान और विहायोगतिद्विक का व्यत्यास करने से बारह भंग होते हैं। इस अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान को तीर्थकरनाम युक्त करने पर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान का उदय ऐसे तीर्थकर केवली को होता है जिनने स्वर और उच्छवास का रोध किया है। तीर्थंकर केवली के अशुभ संस्थान और अशुभ विहायोगति का उदय नहीं होने से एक ही भंग होता है । ___अनन्तरोक्त सामान्यकेवली संवन्धी अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में उच्छ्वास को मिलाने पर उनतीस प्रकृतिक एवं तीर्थकर संबन्धी उनतीस प्रकृतियों के उदय में उच्छ्वास का प्रक्षेप करने पर तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यह दोनों उदयस्थान ऐसे सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली को अनुक्रम से होते हैं जिन्होंने स्वर का रोध किया है । इनमें से सामान्य केवली संबन्धी उनतीस प्रकृतिक १ यहां सामान्य केवली को अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान में छह सस्थान और विहायोगतिद्विक के साथ बारह-बारह भंग बतलाये हैं । परन्तु सित्तरिचूर्णि और सप्ततिका भाष्य गाथा ११८,१६ को टीका में स्वर के रोध के बाद उनतीस और उच्छ्वास के रोध के बाद अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होने से उस समय काययोग के निरोध करने का भी समय होने से अत्यन्त नीरस ईख के समान विहायोगतिद्विक के रस विहीन दलिकों का ही उदय होता है । किन्तु गति की चेष्टा नहीं होती हैं । जिससे अट्ठाईस और उनत स के उदयस्थान में सामान्य केवली को बारह के बदले छह संहननों के छह भंग ही बताये हैं। विज्ञजन स्पष्ट करने की कृपा करें। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८५,८६,८७ १७३ उदयस्थान के छह संस्थान और विहायोगति द्विक के विकल्प होने से बारह भंग होते हैं और तीर्थंकर केवली संबन्धी तीस प्रकृतिक उदयस्थान का पूर्ववत् एक ही भंग होता है। सामान्य केवली सम्बन्धी उनतीस प्रकृतियों को स्वर युक्त होने पर तीस प्रकृतिक और तीर्थकर संबन्धी तीस प्रकृतिक को स्वर युक्त करने पर इकतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। दोनों उदयस्थान अनुक्रम से जिन्होंने न तो समुद्घात करना हो और न योग का रोध करना प्रारंभ किया है ऐसे सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली को होते हैं। इनमें से तीस प्रकृतिक उदयस्थान में छह संस्थान, विहायोगतिद्विक और स्वरद्विक का परावर्तन करने पर चौबीस भंग होते हैं और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान का पूर्ववत् मात्र एक ही भंग होता है। क्योंकि तीर्थंकर केवली के प्रथम संस्थान, शुभ विहायोगति और सुस्वर रूप प्रशस्त प्रकृतियों का ही उदय होता है। सब मिलाकर सामान्य सयोगिकेवली और तीर्थकर सयोगिकेवली के बासठ (६२) भंग होते हैं । परन्तु उनमें से सामान्य केवली के छब्बीस प्रकृति के उदय के छह, अट्ठाईस प्रकृति के उदय के बारह, उनतीस प्रकृति के उदय के बारह और तीस प्रकृति के उदय के चौबीस, कुल चौवन भंग सामान्य मनुष्य के उदयस्थानों में भी होने से उनको अलग नहीं गिना है। शेष आठ प्रकृति के उदय का एक, नौ प्रकृति के उदय का एक, बीस प्रकृति के उदय का एक, इक्कीस प्रकृति के उदय का एक, सत्ताईस प्रकृति के उदय का एक, उनतीस प्रकृति के उदय का एक तथा तीस और इकत्तीस प्रकृतियों के उदय का एकएक भंग, कुल आठ भंग जो सामान्य मनुष्यों के उदयस्थानों में नहीं गिने हैं, परमार्थतः उन्हीं को विशेष भंग के रूप में जानना चाहिये। इन विशेष आठ भंगों में के बीस और आठ इन दो उदयस्थानों के दो भंग सामान्य केवली के और शेष छह भंग तीर्थंकर केवली के हैं। इस प्रकार से केवली भगवन्तों में संभव उदयस्थान और उनके Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ पंचसंग्रह : १० भंगविकल्प जानना चाहिये । अब ऊपर जो अट्ठाईस से लेकर इकत्तीस प्रकृतिक तक के चार उदयस्थान केवली में कहे हैं उनके लिये आचार्य कुछ विशेष बतलाते हैं तित्थयरे इगतीसा तोसा सामण्णकेवलीणं तु 1 खीणसरे गुणतीसा खीणुस्सासम्मि अडवीसा ॥८८॥ शब्दार्थ - तित्थयरे - तीर्थंकर को, इगतीसा - इकत्तीस प्रकृतिक, तीसातीस प्रकृतिक, सामण्णकेवलीणं - सामान्य केवली को, तु— और, खोणसरेस्वर का उदय क्षीण होने पर, गुणतोसा -- उनतीस प्रकृति, argare उच्छ्वास का उदय क्षीण होने पर, अडवीसा - अट्ठाईस प्रकृतिक । गाथार्थ - तीर्थंकर को इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान और सामान्य केवली को तीस प्रकृतिक होता है । स्वर का उदय क्षीण होने पर उनतीस और उच्छ्वास का उदय क्षीण होने पर अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । विशेषार्थ - औदारिककाययोग में वर्तमान तीर्थंकर केवली को इकत्तीस प्रकृतियों का उदय होता है और जब वे वचनयोग का रोध करते हैं तब सुस्वर नामकर्म का उदयविच्छेद होता है, जिससे तीस प्रकृतियों का उदय होता है । तत्पश्चात् उच्छ्वास का रोध करने पर श्वासोच्छ्वास नामकर्म का उदयविच्छेद होता है, जिससे उनतीस प्रकृतियों का उदय होता है । तथा औदारिककाययोग में वर्तमान सामान्य केवली के तीस प्रकृतियों का उदय होता है और जब वे वचनयोग का रोध करते हैं तब सुस्वर या दु:स्वर का उदय न होने पर उनतीस प्रकृतियों का उदय होता है और उसके बाद जब उच्छ्वास का रोध करते है तब श्वासोच्छ्वास नाम का उदय कम होने पर अट्ठाईस प्रकृतियों का उदय होता है । समस्त उदयस्थानों के भंगों की संख्या सात हजार सात सौ इक्यानवे ( ७७६१) होती है । जो इस प्रकार जानना चाहियेएकेन्द्रियों के ४२, विकलेन्द्रियों के ६६, सामान्य तिर्यच पंचेन्द्रिय के Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८६ १७५ ४६०६, वैक्रिय तियंच पंचेन्द्रिय के ५६, सामान्य मनुष्य के २६०२, केवली के ८, वैक्रिय मनुष्य के ३५, आहारक संयत के ७, देवों के ६४ और नारकों के ५ । इस प्रकार चारों गति के जीवों के सभी उदयस्थानों के कुल भंगों की संख्या सात हजार सात सौ इक्यानवें होती है । इस प्रकार से चारों गति में संभव नामकर्म के उदयस्थानों को जानना चाहिये | अब नामकर्म की जो प्रकृतियां जिस गुणस्थान तक उदय और जिस गुणस्थान में जिनका उदयविच्छेद होता है, उसको स्पष्ट करते हैं । नामकर्म की प्रकृतियों के उदययोग्य गुणस्थान साहारणाउ मिच्छे सुहुमअपज्जत्तआयवाणुदओ । थावर एगि दिविगलजाईणं ॥ ८६ ॥ सासायणमि - शब्दार्थ -साहारणाउ- - साधारण का, मिच्छे- मिथ्यात्व गुणस्थान में, सुहमअपज्जत्तआयवाणुदओ -- सूक्ष्म अपर्याप्त, आतप का उदय, सासायमिसासादन गुणस्थान में, थावरए गिदिविगलजाईणं - स्थावर, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जाति का । गाथार्थ - साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्त और आतप का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में और स्थावर, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जाति का सासादन गुणस्थान में उदय होता है । विशेषार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में भिन्न भिन्न जीवों की अपेक्षा तीर्थंकर और आहारकद्विक' के बिना नामकर्म की चौसठ प्रकृतियों का उदय होता है । इनमें से साधारण, सूक्ष्म, अपर्याप्त और आतप नाम १. तीर्थंकर नाम का उदय तेरहवें चौदहवें गुणस्थान में और आहारकद्विक का उदय छठे सातवें गुणस्थान में होने से यहाँ उनका निषेध किया है । यहाँ रसोदय की विवक्षा है, प्रदेशोदय की नहीं । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पंचसंग्रह : १० का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उदयविच्छेद होता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि जिस प्रकृति का जिस गुणस्थान में उदयविच्छेद होता है, उसी गुणस्थान तक ही उस प्रकृति का उदय होता है, उसके बाद के गुणस्थान में उदय नहीं होता है । अतएव इस नियम के अनुसार साधारणनाम आदि प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही उदय होता है । सासादन आदि गुणस्थानों में उदय नहीं होता है । उक्त चौंसठ प्रकृतियों में से चार प्रकृतियों के कम हो जाने से सासादन गुणस्थान में साठ प्रकृतियों का उदय होता है और यहाँ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति और स्थावरनाम इन पांच प्रकृतियों का उदयविच्छेद होने से मिश्रदृष्टि आदि आगे के गुणस्थानों में इनका उदय नहीं होता है । अर्थात् एकेन्द्रियजाति आदि पांच प्रकृतियों का उदय सासादन गुणस्थान तक ही होता है । अतएव साठ प्रकृतियों में से इन पांच प्रकृतियों को कम करने से मिश्र गुणस्थान की उदययोग्य पचपन प्रकृतियां हैं । किन्तु मिश्र गुणस्थान की इतनी विशेषता है कि मिश्रदृष्टि काल नहीं करता है । जिससे चारों आनुपूर्वियों का उदय संभव नहीं है । अतः एकेन्द्रियजाति आदि पांच प्रकृतियों के साथ चार आनुपूर्वी को भी कम करने से इक्यावन प्रकृतियों का उदय मिश्रदृष्टि गुणस्थान में होता है । इस प्रकार से आदि के तीन गुणस्थानों में नामकर्म की उदययोग्य प्रकृतियों को बतलाने के बाद चौथे आदि गुणस्थानों में उदययोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं सम्मे विविछक्कस दुभंगणा एज्जअजसपुव्वीणं । विरयाविरए उदओ तिरिगइउज्जोयपुव्वाणं ॥ ६०॥ शब्दार्थ - सम्मे – अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, विउठिवछक्कस्सवैकियषट्क का, दुमगणा एज्ज अजसपुब्बीणं- दुभंग, अनादेय, अयशः कीर्ति, आनुपूर्वी का, विरयाविरए - विरताविरत ( देशविरत ) में, उवओ उदय, तिरिगइ उज्जोयपुव्वाणं तिर्यंचगति और उद्योत नाम सहित । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६० १७७ गाथार्थ - वैक्रियषट्क, दुर्भग, अनादेय, अयश कीर्ति और आनुपूर्वी का उदय अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होता है तथा तिर्यंचगति और उद्योत नाम सहित उदय देशविरत गुणस्थान होता है । विशेषार्थ - यहाँ चौथे और पाँचवें गुणस्थान तक नामकर्म की उदयोग्य प्रकृतियों के नाम बताये हैं । वे इस प्रकार हैं I अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान, अपान्तरालगति-विग्रहगति में भी होता है, जिससे चारों आनुपूर्वियों का उदय संभव है । अतएव उन चार का उदय पूर्वोक्त इक्यावन के उदय में बढ़ाने पर पचपन प्रकृतियों का उदय अविरतसम्यग्दृष्टि को होता है । उनमें से वैक्रियषट्क - देवगतिद्विक, नरकगतिद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति, तिर्यंचानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी इन ग्यारह प्रकृतियों का उदयविच्छेद होता है । यानि इन ग्यारह प्रकृतियों का उदय चौथे गुणस्थान तक होता है। पांचवें आदि गुणस्थानों में नहीं होता है । जिससे पचपन में से ग्यारह प्रकृतियों को कम करने पर पाँचवें गुणस्थान में चवालीस प्रकृतियों का उदय होता है । विरताविरत - देशविरत गुणस्थान में तिर्यंचगति और उद्योत १ यहाँ पांचवें गुणस्थान में जो वैक्रियशरीर और वैक्रियअंगोपांगनाम के उदय का निषेध किया है वह कर्मस्तव के अभिप्रायानुसार किया है । पंचसंग्रहकार ने तो देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्तगुणस्थान में भी उनका उदय स्वीकार किया है । क्योंकि अपनी स्वोपज्ञ वृत्ति में उनसे होने वाले भंगों का गाथा १२६ में विचार किया है । 1 यहाँ भवधारणीय वैक्रियशरीर की विवक्षा है क्योंकि भवधारणीय वैक्रियशरीर चौथे गुणस्थान तक ही होता है । कृत्रिम क्रियशरीर पांचवें, छठे और सातवें गुणस्थान तक भी होता है । उसकी विवक्षा से सातवें गुणस्थान तक वैकिय शरीर के उदय को ग्रहण किया जा सकता है । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ पंचसंग्रह : १० नाम का उदयविच्छेद होता है यानि देशविरत गुणस्थान तक ही उनका उदय होता है और प्रमत्तसंयत आदि आगे के गुणस्थानों में उदय नहीं होता है । जिससे चवालीस प्रकृतियों में से उनको कम करने तथा विरयापमत्तएसु अंततिसंघयणपुव्वगाणुदओ। अपुव्वकरणमादिसु दुइयतइज्जाण खीणाओ॥१॥ नामधुनोदय सूसरखगईओरालदुव च पत्तेयं । उदघायति संठाणा उसभ जोगम्मि पुवुत्ता ॥२॥ शब्दार्थ-विरयापमत्तएसु-प्रमत्त और अप्रमत्त विरत में, अंततिसंघयणपुव्वगाणुदओ-अन्तिम तीन संहनन प्रकृतियों का उदय, अपव्वकरणमादिसुअपूर्वकरण आदि में, दुइयतइज्जाण-दूसरे और तीसरे संहनन का, खीणाओ -क्षीणमोह गुणस्थान आदि में । ___ नावधुवोदय-नामध्र वोदयी, सूसरखगईओरालदुव-सुस्वरद्विक, खगतिद्विक, औदारिकद्विक, पत्रोयं-प्रत्येक, उवधायति --- उपधातत्रिक, संठाणासंस्थान, उसभ -वज्र ऋषभनाराचसंहनन, जोगम्मि–सयोगिकेवली के, पुवत्ता-(अयोगि) के पूर्वोक्त (आठ या नौ)। गाथार्थ-प्रमत्त और अप्रमत्त विरत गुणस्थान में अंतिम तीन संहननादि का तथा अपूर्वकरणादि में दूसरे-तीसरे संहनन आदि का उदय होता है । क्षीणमोह आदि गुणस्थानों में- नामध्र वोदयी, सुस्वरद्विक, खगतिद्विक और औदारिकद्विक, प्रत्येक, उपघातत्रिक, संस्थान और प्रथम संहनन का सयोगिकेवलीगुणस्थान में उदय होता है और अयोगि में पूर्वोक्त (आठ या नौ) का उदय होता है। विशेषार्थ-प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में अंतिम तीन संहनन-अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त संहनन आदि बयालीस तथा यहाँ आहारकद्विक का भी उदय संभव होने से उन दो को भी बयालीस में मिलाने पर कुल चवालीस प्रकृतियों का उदय होता है। ___ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६१,६२ अंतिम तीन संहननों का अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उदयविच्छेद होता है और आहारकद्विक का उदय भी श्रेणि में नहीं होने से अपूर्वकरण से उपशांत मोहगुणस्थान तक में उनतालीस प्रकृतियों का उदय होता है । ऋषभनाराच और नाराच संहनन का उदय अपूर्वकरण से उपशांतमोह गुणस्थान तक ही होता है । क्षीणमोहादि गुणस्थानों में नहीं होता है | जिससे उन्हें कम करने पर क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानों में सैंतीस प्रकृतियों का उदय होता है तथा तीर्थंकरनाम के उदय वाले सयोगिकेवली के तीर्थंकरनामकर्म के साथ अडतीस प्रकृतियों का उदय होता है । तथा नामकर्म की ध्रुवोदया - स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु और निर्माण रूप बारह प्रकृति, सुस्वरद्विक, विहायोगतिद्विक, औदारिकद्विक, प्रत्येक, उपघातत्रिक उपघात, पराघात और उच्छ्वास, छह संस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, इन पुद्गलविपाकी उनतीस प्रकृतियों का सयोगिकेवलीगुणस्थान में उदयविच्छेद होता है । यानि इन उनतीस प्रकृतियों का उदय सयोगिकेवल गुणस्थान तक ही होता है, अयोगिकेवली गुणस्थान में नहीं होता है । अयोगिकेवली गुणस्थान में मात्र जीवविपाकी - त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशः कीर्ति, पंचेन्द्रियजाति और मनुष्यगति रूप आठ प्रकृतियों का सामान्यकेवली के और तीर्थंकर भगवान को तीर्थंकरनाम सहित नौ प्रकृतियों का उदय है तथा उनका भी अयोगि के चरम समय में उदयविच्छेद होता है । इस प्रकार गुणस्थानों में नामकर्म का प्रकृतियों का उदय और उदयविच्छेद जानना चाहिये और इस वर्णन के साथ नामकर्म की प्रकृतियों के उदयाधिकार का वर्णन पूर्ण हुआ । अब नामकर्म के १ नामकर्म के उदयस्थानों सम्बन्धी वर्णन के प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० पंचसंग्रह : १० सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं। नामकर्म के सत्तास्थान पिंडे तित्थगरुणे आहारुणे तहोभयविहूण । पढमचउक्कं तस्सउ तेरसगखए भवे बीयं ॥३॥ सुरदुगवेउव्वियगइदुगे य उव्वट्टिए चउत्थाओ। मणुदुगेय नवठ्ठय दुहा भवे संतयं एक्कं ॥१४॥ शब्दार्थ-पिंडे-सभी प्रकृतियों का पिंड रूप, तित्थगरुणे-तीर्थकर नाम से न्यून, आहारुगे-आहारकचतुष्क न्यून, तहोभयविहूणे-तथा दोनों से न्यून, पढमचउक्कं—प्रथम चतुष्क, तस्सउ-उसमें से, तेरसगखए-तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर, भवे-होता है, बीयं-दूसरा चतुष्क, सुरदुग--देवगतिद्विक, वेउध्वियगइदुगे-क्रियद्विक, गतिद्विक, य-और, उध्वट्टिएउद्वलना करने पर, चउत्थाओ-चौथे स्थान में से, मणुदुगेय--और मनुष्यद्विक, नवठ्ठय -नौ और आठ प्रकृतिक, दुहा-दो प्रकार से, भवे-होता है, संतयं-सत्ता, एक्कं-एक ।। गाथार्थ-नामकर्म की सभी तेरानवै प्रकृतियों का पिंड रूप पहला सत्तास्थान, उसमें से तीर्थंकरनाम न्यून होने पर, आहारकचतुष्क न्यून होने पर और उभय न्यून होने पर बानवै, नवासी, और अठासी प्रकृतिक इस तरह कुल चार सत्तास्थान होते हैं। इनकी प्रथम सत्ताचतुष्क यह संज्ञा है। इनमें से तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर दूसरा सत्ताचतुष्क होता है। प्रथम सत्ताचतुष्क के चौथे सत्तास्थान में से देवद्विक, वैक्रिय द्विक (चतुष्क) की, तत्पश्चात् (नरक) गतिद्विक और उसके बाद मनुष्यद्विक की उद्वलना होने पर तीन सत्तास्थान होते हैं तथा नौ और आठ प्रकृतिक कुल तेरह सत्तास्थान होते हैं। इनमें से अस्सी की सत्ता दो प्रकार से होती है, उसे एक प्रकार से गिनने पर नामकर्म के बारह सत्तास्थान होते हैं। विशेषार्थ-नामकर्म की सभी प्रकृतियाँ तेरान हैं। उन सब Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६३,६४ १८१ प्रकृतियों के समुदाय की पिंड यह संज्ञा है । यहाँ बंधन के पाँच भेदों की विवक्षा होने से तेरानवै प्रकृतियाँ कही हैं । इन तेरानवै प्रकृतियों का समूह रूप पहला सत्तास्थान है । किसी जीव को एक साथ तेरा - नव प्रकृतियां भी सत्ता में होती हैं । उक्त तेरानवै प्रकृतियों में से तीर्थंकरनाम को कम करने पर बानवै प्रकृति प्रमाण दूसरा सत्तास्थान होता है तथा उक्त तेरानवै प्रकृतियों में से आहारकशरीर, आहारक अंगोपांग, आहारकबंधन और आहारकसंघात रूप आहारकचतुष्क को न्यून करने पर नवासी प्रकृति प्रमाण तीसरा सत्तास्थान होता है और तेरानवै में से तीर्थंकरनाम व आहारकचतुष्क दोनों को कम करने पर अठासी प्रकृतिक चौथा सत्तास्थान होता है । इन चार सत्तास्थानों को प्रथम सत्तास्थानचतुष्क कहते हैं । - पूर्वोक्त प्रथम चतुष्क में से क्षपकश्रेणि में नौवें गुणस्थान में नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होने पर अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक इस तरह चार सत्तास्थान होते हैं । इनकी द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क यह संज्ञा है । I पहले सत्तास्थानचतुष्क के चौथे अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से देवगति, देवानुपूर्वी की ( अथवा नरकगति, नरकानुपूर्वी की) उद्वलना होने पर छियासी प्रकृति प्रमाण पहला अध्रुव संज्ञा वाला सत्तास्थान होता है । उसमें से यदि पहले नरकद्विक की उवलना हुई हो तो देवद्विक और वैक्रियचतुष्क की उवलना होने पर अथवा यदि पहले देवद्विक की उवलना हुई हो तो नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क की उद्बलना होने पर अस्सी प्रकृति का समूह रूप अध्रुवसंज्ञा वाला दूसरा सत्तास्थान होता है । उसमें से मनुष्यद्विक की उवलना होने पर अठहत्तर प्रकृति का समुदाय रूप अध्रुव संज्ञा वाला तीसरा सत्तास्थान होता है तथा नौ प्रकृति प्रमाण और आठ प्रकृति प्रमाण कुल मिलाकर नामकर्म के बारह सत्तास्थान होते हैं । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ पंचसंग्रह : १० ___ कदाचित यह कहा जाये कि ऊपर जो सत्तास्थान कहे हैं उनका जोड़ करने पर तेरह सत्तास्थान इस प्रकार होते हैं-प्रथम सत्तास्थानचतुष्क, द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क, अध्र वसंज्ञावालात्रिक और आठ, नौ प्रकृतिक । इनका कुल जोड़े तेरह होता है तो फिर बारह सत्तास्थान कैसे हुए ? तो इसका उत्तर यह है कि अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान दो प्रकार से होता है एक तो तेरानव में से नामकर्म की तेरह प्रकृतियां क्षय होने पर होता है और दूसरा अठासी प्रकृतियों में से देवद्विक, नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क की उद्वलना होने पर। परन्तु संख्या तुल्य होने से एक की ही विवक्षा की है । इसीलिये नामकर्म के बारह सत्तास्थान कहे हैं। इस प्रकार से सप्ततिका के अभिप्रायानुसार नामकर्म के बारह सत्तास्थान जानना चाहिये । किन्तु कर्मप्रकृति आदि के अभिप्रायानुसार इसी प्रकार से एक सौ तीन आदि समझना चाहिये। वे इस प्रकार हैं-कर्मप्रकृतिकारादि बन्धन पन्द्रह मानते हैं। जिससे एक सौ तीन प्रकृतियों का पिंड पहला सत्तास्थान, उसमें से तीर्थंकरनाम को कम करने पर एक सौ दो प्रकृति प्रमाण दूसरा सत्तास्थान, एक सौ तीन में से आहारकसप्तक को कम करने पर छियनावै प्रकृति प्रमाण तीसरा सत्तास्थान और एक सौ तीन में से तीर्थकरनाम एवं आहारक सप्तक को न्यून करने पर पंचानवै प्रकृति प्रमाण चौथा सत्तास्थान होता है। इन चार सत्तास्थानों को प्रथम सत्तास्थानचतुष्क के नाम से कहा जाता है। इस प्रथम सत्तास्थानचतुष्क में से तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद नव्वै, नवासी, तिरासी, और बयासी प्रकृति रूप चार सत्तास्थान होते हैं । इनकी द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क यह संज्ञा है । प्रथम सत्तास्थानचतुष्क के चौथे पंचानवै प्रकृति रूप सत्तास्थान में से देवद्विक (अथवा नरकद्विक की उद्वलना करे तब तेरानवै प्रकृतिक, उसमें से देवद्विक अथवा नरकद्विक जो अनुद्वलित हो उसकी तथा वैक्रियसप्तक की उद्वलना हो तब चौरासी और उसमें से मनुष्य Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५ १८३ , द्विक की उद्वलना होने पर बयासी प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं। इन तीन सत्तास्थानों की अध्र व यह संज्ञा है तथा नौ और आठ प्रकृति रूप, सब मिलाकर नामकर्म के बारह सत्तास्थान होते हैं। ___इनमें से बयासी प्रकृति का समूह रूप सत्तास्थान दो प्रकार से होता है। एक तो क्षपकश्रेणि में और दूसरा संसारी जीवों के । ये दोनों सत्तास्थान समसंख्या वाले होने से यहां एक की ही विवक्षा की है। जिससे बारह सत्तास्थान कहे हैं । अब नौवें गुणस्थान में सत्ता-विच्छिन्न होने वाली नामकर्म की तेरह प्रकृतियों के नाम बतलाते हैं । नौवें गुणस्थान में सत्ताविच्छिन्न नामकर्म की तेरह प्रकृति थावरतिरिगइदोदो आयावेगेंदि विगलसाहारं । नरयदुगुज्जोवाणि य दसाइमेगंततिरिजोगा ॥६५॥ शब्दार्थ-थावरतिरिगइदोदो-स्थावरद्विक, तिर्यंच गति द्विक, आयावेगेंदि-आतप, एकेन्द्रिय, विगलसाहारं-विकले न्द्रियत्रिक जाति, साधारण, नरयदुग-नरकद्विक, उज्जोवाणि-उद्योत नाम, य-और, दसाइमेगंततिरिजोगा-आदि की दस एकान्त रूप से तिर्यच प्रायोग्य हैं। गाथार्थ-स्थावरद्विक, तिर्यंचद्विक, आतप, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रियजातित्रिक, साधारण, नरकद्विक और उद्योत ये नाम त्रयोदशक कहलाती हैं। इनमें से आदि की दस प्रकृतियां एकान्त रूप से तिर्यंचगतिप्रायोग्य हैं। विशेषार्थ-गाथा में नौवें गुणस्थान में विच्छिन्न होने वाली तेरह प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। जिनमें से दस प्रकृतियों का उदय तिर्यंचगति में ही होने से तिर्यंचगतिप्रायोग्यदशक कहलाती हैं। विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'थावरतिरिगइदोदो' अर्थात् स्थावरद्विक-स्थावर और सूक्ष्म नाम, तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी रूप तिर्यंचगतिद्विक, आतप, एकेन्द्रिय जाति, विकलेन्द्रियजातित्रिक-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ पंचसंग्रह : १० साधारण, नरकगति, नरकानुपूर्वी और उद्योत ये प्रकृतियां नामत्रयोदश कहलाती हैं । क्षपकश्रेणि के नौवें गुणस्थान के संख्यात भाग जाने के बाद इन तेरह प्रकृतियों का सत्ता में से नाश होता है और इन तेरह में से भी आदि की स्थावर से लेकर साधारण नाम तक दस प्रकृतियों का उदय और उदीरणा मात्र तिर्यंचगति में ही होती हैं । यद्यपि गाथा में इन दस प्रकृतियों के लिये उदय, उदीरणा की अपेक्षा ऐसा कुछ भी नहीं कहा है । परन्तु गाथा में आगत 'य–च’ शब्द अनेक अर्थ वाला होने से एवं युक्ति से 'उदय - उदीरणा आश्रयी' इस पद का ग्रहण किया हुआ समझना चाहिए | क्योंकि आदि की उक्त दस प्रकृति बंध और सत्ता की अपेक्षा तो अन्य जीवों के भी योग्य हैं। जिससे स्थावरादि दस प्रकृतियों का बंध और सत्ता मनुष्यादि अन्य जीवों को भी होती हैं किन्तु मात्र तियंचों को ही उनका बंध और सत्ता होती है यह नहीं समझना चाहिये । लेकिन इन दसों प्रकृतियों की उदय उदीरणा मात्र तियंचगति में ही होती है । इसीलिये उदय - उदीरणा की अपेक्षा ये दस प्रकृतियां मात्र तियंचगतियोग्य हैं । ऐसा कहने का प्रयोजन है कि पूर्व में यथायोग्य उन उन स्थानों पर एकान्त तिर्यंचयोग्य प्रकृतियां का संकेत तो किया, लेकिन उनके नाम नहीं बताये थे । इसलिये जब प्रसंगानुसार नामत्रयोदशक कहने का अवसर आया तो उन नामों को बताते हुए एकान्त तिर्यंचप्रायोग्य दस प्रकृतियों के नामों का भी उल्लेख कर दिया, जिनका नौवें गुणस्थान में सत्ताविच्छेद होता है । अब पूर्वोक्त अध्रुव संज्ञा वाले नामकर्म के तीन सत्तास्थान के स्वामियों का निर्देश करते हैं । अध्रुव सत्तास्थानों के स्वामी एगिदिए पढमदुगं वाऊतेऊसु तइयगमणिच्चं । अहवा पणतिरिए तस्संतेगिदियाइ 1 ॥६६॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६७ १८५ शब्दार्थ-एगिदिएसु-एकेन्द्रियों में, पढमदुर्ग-आदि के दो, वाऊतेऊसुवायुकायिक और तेजस्कायिक जीवों में, तइयगमणिच्च-तीसरा अध्र व सत्तास्थान, अहवा-अथवा, पणतिरिएसु-पंचेन्द्रिय तियंचों में, तस्संतेगिदियाइसु-एके न्द्रियादि से लेकर होता है । गाथार्थ-एकेन्द्रियों में आदि के दो और वायुकायिक, तेजस्कायिक में तीसरा अध्रुव सत्तास्थान होता है । अथवा एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यंचों तक होता है। विशेषार्थ- 'एगिदिएसु पढमदुगं' अर्थात् पृथ्वी, अप् और वनस्पति रूप एकेन्द्रियों में छियासी और अस्सी प्रकृति रूप ये दो अध्र व संज्ञा वाले सत्तास्थान होते हैं तथा तीसरा अठहत्तर प्रकृति रूप अध्र व संज्ञा वाला सत्तास्थान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों में होता है। अन्य जीवों में नहीं होता है । अथवा तेज और वायुकाय में मनुष्यद्विक की उद्वलना कर वहां से निकलकर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो तो वहाँ भी जब तक मनुष्यद्विक का बंध न करे तब तक अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। अथवा तेज और वायुकाय के जीव अपने भव से निकलकर तिर्यंच में ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्य आदि में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसीलिये एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यंच पंचेन्द्रिय तक में उत्पन्न हुओं को अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होने का संकेत किया है। इस प्रकार से अध्र व संज्ञा वाले सत्तास्थानों के स्वामियों को जानना चाहिये । अब चारों गति में सम्भव सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं। चतुर्गति में प्राप्त नामकर्म के सत्तास्थान पढमं पढमगहीणं नरए मिच्छंमि अधुवतियजुत्तं । देवेसाइचउक्कं तिरिएसु अतिथमिच्छसंताणि ॥७॥ शब्दार्थ--पढमं--प्रथम सत्तास्थान चतुष्क, पढमगहीणं-प्रथम सत्तास्थान हीन, नरए-नरकगति में, मिच्छमि-मिथ्यात्व गुणस्थान में, अधुवति Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ पंचसंग्रह : १० जुतं - अध्रुवत्रिक सहित देवेसाइच क — देवों में आद्य चतुष्क, तिरिएसुतिर्यंचों में, अतित्थमिच्छसंताणि— तीर्थंकरनाम के बिना, मिथ्यात्व संबन्धी सत्तास्थान | गाथार्थ - प्रथम सत्तास्थान हीन प्रथम सत्तास्थान चतुष्क नरकगति में होता है । अध्रुवत्रिक युक्त उक्त तीन स्थान मिथ्यात्व में होते हैं । देवों में आद्यचतुष्क और तिर्यंचों में तीर्थकरनाम के बिना मिथ्यात्व संबन्धी सत्तास्थान होते हैं । विशेषार्थ- पूर्वोक्त नामकर्म के सत्तास्थानों में से कौन-कौन किस गति में पाये जाते हैं, इसका संकेत गाथा में किया है 'पढमं पढमगहीणं नरए' अर्थात् नरकगति में प्रथम सत्ताचतुष्क में से पहला तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान के बिना बानवे, नवासी और अठासी प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान न होने का कारण यह है कि वह तीर्थकरनाम और आहारकचतुष्क सहित होता है और इन दोनों की सत्ता वाला कोई भी जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होता है । जिससे तेरानवे का सत्तास्थान नरकगति में होता ही नहीं है । तथा मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में प्रथम सत्तास्थानचतुष्क में से तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थानहीन तीन और अध्रुव संज्ञा वाले तीन इस प्रकार कुल छह सत्तास्थान होते हैं - 'मिच्छमि अधुवतियजुत्तं ।' इसका तात्पर्य यह हुआ कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में ह२, ८६,८८,८६,८० और ७८ प्रकृतिक इस तरह छह सत्तास्थान अनेक जीवों की अपेक्षा होते हैं । किन्तु ९३ प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । क्योंकि आहारकचतुष्क और तीर्थंकरनाम इन दोनों की संयुक्त सत्तावाला कोई भी जीव मिथ्यात्वगुणस्थान में जाता नहीं है । इनके सिवाय शेष सत्तास्थान क्षपकश्रेणि में होते हैं । किन्तु मिथ्यादृष्टि के नहीं होने से उनका निषेध किया है । तथा देवगति में प्रथम सत्तास्थानचतुष्क (६३, ९२,८६,८८ प्रकृतिक) Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६८ होते हैं। क्योंकि इनके अतिरिक्त शेष सत्तास्थान एकेन्द्रिय अथवा क्षपकक्षेणि में सम्भव है । तथा__तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जो सत्तास्थान कहे हैं, उनमें से नवासी प्रकृतिक को छोड़कर शेष ६२, ८८, ८६, ८० और ७८ प्रकृतिक इस प्रकार पाँच सत्तास्थान होते हैं और नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान न होने का कारण यह है कि निकाचित तीर्थकरनाम की सत्तावाला कोई भी जीव तिर्यंचगति में उत्पन्न नहीं होता है । तथा उपर्युक्त कथन का यह आशय हुआ कि मनुष्यगति में सभी सत्तास्थान होते हैं । लेकिन इसका अपवाद है कि अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान के सिवाय शेष सभी (११ सत्तास्थान) मनुष्यगति में होते हैं। क्योंकि अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान मनुष्यद्विक की उद्वलना करने के बाद होता है और मनुष्यद्विक की सत्ता बिना का कोई भी मनुष्य होता ही नहीं है । जिससे मनुष्यगति में अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है। इस प्रकार से चतुर्गति में नामकर्म के सत्तास्थानों को जानना चाहिये । अब गुणस्थानों में उनका निर्देश करते हैं । गुणस्थानों में नामकर्म के सत्तास्थान पढमचउक्कं सम्मा बीयं खीणाउ बार सुहमे अ। सासणमीसि वितित्थं पढममजोगंमि अट्ट नव ॥८॥ शब्दार्थ-पढमच उक्कं-प्रथम सत्तास्थानचतुष्क, सम्मा-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, बीयं-द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क, खोणाउ-क्षीणमोह से, बार-बादर, सुहुमे—सूक्ष्मसंपराय, अ-और, सासणमोसि-सासादन और मिश्रगुणस्थान में, वितित्थं-तीर्थकरनाम रहित, पढम-प्रथम सत्तास्थानचतुष्क, अजोगमि-अयोगिकेवली गुणस्थान में, अट्ट नव-आठ और नौ प्रकृतिक। गाथार्थ-अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रथम सत्तास्थानचतुष्क होता है तथा क्षीणमोह और बादरसंपराय एवं Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० सूक्ष्मसंपराय क्षपक को द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क होता है। तीर्थकरनाम की सत्ता बिना के प्रथम चतुष्क में के सत्तास्थान सासादन और मिश्रगुणस्थान में होते हैं और अयोगिकेवली गुणस्थान में आठ व नौ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । १८८ विशेषार्थ - मिथ्यात्वगुणस्थान में प्राप्त नामकर्म के सत्तास्थानों का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है । अतः अब दूसरे से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक पाये जाने वाले सत्तास्थानों को बतलाते हैं 'पढमचउक्कं सम्मा' अर्थात् चौथे अविरत सम्यग्दृष्टिगुणस्थान से लेकर उपशांतमोह गुणस्थान पर्यन्त प्रथम सत्ताचतुष्क (६३, ६२, ८६, प्रकृतिक सत्तास्थान) होते हैं तथा सासादन और मिश्र इन दो गुणस्थानों में प्रथम सत्ताचतुष्क में के तीर्थंकरनाम की सत्ता बिना के सत्तास्थान होते हैं । अर्थात् तेरानव और नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान के सिवाय बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । क्षीणमोहगुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त तथा क्षपक को अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुंणस्थान में द्वितीय सत्तास्थानचतुष्क यानि ८०, ७६, ७६ और ७५ प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं और अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में आठ और नौ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । उक्त संक्षिप्त कथन का स्पष्टीकरण इस प्रकार है मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में ६२,८६,८८,८६ ८० और ७८ प्रकृतिक ये छह सत्तास्थान होते हैं । इनके होने के कारण को पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है तथा सासादन और सम्यक्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) इन दो गुणस्थानों में ह२ और ८८ प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । क्योंकि तीर्थंकरनाम की सत्तावाला इन दो गुणस्थानों को प्राप्त ही नहीं करता है । जिससे तीर्थंकरनाम की सत्तासहित तिरानवे और नवासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते नहीं हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत और Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० १८६ अपूर्वकरण इन पाँच गुणस्थानों में ह३, ६२, ८६ और ८८ प्रकृतिक ये चार-चार सत्तास्थान होते हैं । अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में उपशमश्रेणि की अपेक्षा ह३, २, ८६,८८ प्रकृतिक ये चार और क्षपकश्रेणि में तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद ८०, ७६, ७६, ७५ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । उपशान्तमोह गुणस्थान में ३,६२,८६,८८ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । क्षीणमोह और सयोगिकेवली गुणस्थानों में ८०, ७६, ७६, ७५ प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । अयोगिकेवली गुणस्थान में ८०, ७६, ७६, ७५, ६, ८, प्रकृतिक ये छह सत्तास्थान होते हैं । इनमें से आदि के चार भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा द्विचरम समय पर्यन्त और चरम समय में तीर्थंकर केवली को नौ प्रकृतिक और सामान्यकेवली को आठ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । अमुक-अमुक गुणस्थान की अपेक्षा अनेक सत्तास्थान होते हैं, परन्तु एक जीव को एक समय में कोई भी एक ही सत्तास्थान होता है, एक साथ अनेक सत्तास्थान नहीं होते हैं और एक गुणस्थान में भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा अनेक सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से गुणस्थानों में नामकर्म के सत्तास्थानों का वर्णन जानना चाहिए | अब बंध, उदय और सत्तास्थानों का परस्पर संवेध का कथन करते हैं । नामकर्म के बंधादि स्थानों का संवेध नवपंचोदयसत्ता तेवीसे पण्णवीस छब्बीसे । अठ चउरट्ठवीसे नवसत्तिगुणतीस तीसे य ॥ ६६ ॥ rahah इगती एक्के एक्कुदय अट्ठ संतसा । उवरयबंधे दस दस नामोदय संतठाणाणि ॥ १०० ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० शब्दार्थ -- नवपंचोदयसत्ता-नौ उदयस्थान और पाँच सत्तास्थान, तेवीसे पण्णवीस छब्बीसे-तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थान में, अट्ठ चउरट्ठवीसे- अट्ठाईस प्रकृतियों के बंध में आठ उदयस्थान और चार सत्तास्थान, नवसत्ति - नो उदयस्थान, सात सत्तास्थान, गुणतोसतीसे— उनतीस और तीस प्रकृतियों के बंध में, य-ओर । १६० , एक्क्के एक-एक उदय व सत्तास्थान, इगतोसे - इकत्तीस के बंध में, एक्के – एक के बंध में एवकुदय - एक का उदय, अट्ठ-आठ, संतंसासत्तास्थान, उवरयबंधे - उपरतबंध होने पर, दस-दस -- - दस, दस, नामोदयसंतठाणाणि - नामकर्म के उदय और सत्तास्थान होते हैं । गाथार्थ - तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के बंध में नौ उदयस्थान और पांच सत्तास्थान होते हैं । अट्ठाईस के बंध में आठ उदयस्थान और चार सत्तास्थान होते हैं। उनतीस और तीस प्रकृतियों के बंध में नौ उदयस्थान और सात सत्तास्थान होते हैं । इकत्तीस के बंध में एक उदयस्थान और एक सत्तास्थान होता है। एक के बंध में एक उदयस्थान और आठ सत्तास्थान होते हैं तथा उपरतबंध होने पर नामकर्म के दस उदयस्थान और दस सत्तास्थान होते हैं । विशेषार्थ - नामकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का विस्तार से वर्णन पूर्व में किया जा चुका है । अतएव अब इन दो गाथाओं में नामकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का परस्पर संवेध बताया है कि किस बंधस्थान में कितने और कौन-कौन से उदय व सत्तास्थान अविरोधि रूप से होते हैं । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है तेईस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के बंध में नौ-नौ उदयस्थान और पाँच-पाँच सत्तास्थान होते हैं- 'नवपंचोदयसत्ता ।' इनमें से तेईस प्रकृतियों का बंध अपर्याप्त एकेन्द्रिय के योग्य है । जिससे अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर तेईस प्रकृतियों का बंध होता Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० ११ है और उसके बंधक पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य हैं । अपर्याप्त और पर्याप्त एकेन्द्रियादि सभी तिर्यंच और मनुष्य तेईस प्रकृतियों के बंधक हो सकने से अपर्याप्त और पर्याप्त अवस्था में मनुष्य और तिर्यंचों के सम्भव सभी उदयस्थान तेईस प्रकृतियों का बंध करने पर सम्भव हैं । वे उदयस्थान नौ हैं, जो इस प्रकार प्रकृतिसंख्या वाले हैं–२१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्रकृतिक । अब इन उदयस्थानों के होने का विस्तृत विवेचन करते हैं 1 उपर्युक्त इक्कीस प्रकृतिक आदि नौ उदयस्थानों में से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान विग्रहगति में वर्तमान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी - संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों के होता है, ये सभी इक्कीस प्रकृतियों के उदय वाले जीव अपर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य तेईस प्रकृतियों को बांध सकते हैं । चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान मात्र अपर्याप्त पर्याप्त एकेन्द्रियों के ही होता है, अन्यत्र नहीं होता है । पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त ( पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले) एकेन्द्रिय और उत्तर वैक्रियशरीर करने वाले मिथ्यादृष्टि मनुष्य, तिर्यंचों के होता है । जो तद्योग्य क्लिष्ट परिणाम के योग में अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों का बंध कर सकते हैं । छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त एकेन्द्रियों को, पर्याप्त अपर्याप्त यानि पर्याप्त नामकर्म के उदयवाले या अपर्याप्त नामकर्म के उदयवाले मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रियों को, तिथंच पंचेन्द्रियों को और मनुष्यों को होता है । सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान पर्याप्त एकेन्द्रिय और मिथ्यादृष्टि वैक्रिय शरीर करने वाले तिर्यंच - मनुष्यों के होता है । अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि पर्याप्त विकलेन्द्रिय ( सामान्य या वैक्रिय शरीरी) तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य को होता है । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पंचसंग्रह : १० इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रियों और तिर्यंच पंचेन्द्रियों को होता है। इनके सिवाय अन्य देव, नारक या युगलिक तेईस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। तेईस प्रकृतियों का बंध मिथ्यादृष्टि को ही होने से सर्वत्र मिथ्यादृष्टि विशेषण दिया है। यह विवेचन तो हुआ तेईस प्रकृति के बंधक के नौ उदयस्थानों का, अब उसी के सत्तास्थानों को बतलाते हैं तेईस के बंधक उपयुक्त समस्त जीवों को सामान्य से बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं। इनमें इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में वर्तमान समस्त जीवों के पांच में से कोई भी सत्तास्थान हो सकता है। मात्र इक्कीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान तेईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य को अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी की उद्वलना होने के बाद होता है। मनुष्य को उनकी उद्वलना सम्भव नहीं है, इसलिये मनुष्य को अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है। चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान में भी उक्त पांच सत्तास्थान सम्भव हैं। मात्र चौबीस प्रकृतियों के उदय वाले वैक्रियशरीर करते वायुकार्य को अस्सी और अठहत्तर के बिना बानवै, अठासी और छियासी प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि वैक्रियषट्क और मनुष्यद्विक की तो उसको अवश्य सत्ता है और इसका कारण यह है कि वैक्रियशरीरी को तो साक्षात् अनुभव होता है, अनुभव उदय बिना होता नहीं, जिससे वह उसकी उद्वलना नहीं करता है और उसकी उद्वलना हुए बिना देवद्विक या नरकद्विक की भी उद्वलना नहीं करता है। क्योंकि तथास्वभाव से वैक्रियषट्क की समकाल में उद्वलना होती है और वैक्रियषट्क की उद्वलना होने के बाद ही मनुष्यद्विक की उद्वलना करता है, इससे पूर्व नहीं । इसलिए अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान वैक्रिय वायुकायिक जीव को नहीं होते हैं। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,१०० पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में भी पूर्वोक्त पांचों स्थान होते हैं। उनमें पच्चीस प्रकृतियों के उदय में अठत्तर का सत्तास्थान वैक्रिय शरीरी के सिवाय अन्य वायुकाय तेजस्काय जीवों के होता है, उनके अतिरिक्त पृथ्वीकायादि को नहीं होता है । क्योंकि तेज और वायुकाय जीवों के अलावा अन्य समस्त पर्याप्त जीव मनुष्यगति और मनुष्यानपूर्वी को अवश्य बांधते हैं। जिससे अठत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान अन्यत्र संभावित नहीं है। छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में भी पांच सत्तास्थान होते हैं। यहां भी अठत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान अवैक्रिय वायु और तेजस्काय जीवों के होता है (पृथ्वी, अप् और वनस्पति में नहीं होता है।) अथवा तेज और वायु में से मनुष्यद्विक की उद्वलना कर पर्याप्तअपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी-संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यच में आये हुए को होता है। क्योंकि वे सभी जब तक मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी को नहीं बांधते तब तक उनको अठत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, उसके बाद नहीं होता। - सत्ताईस प्रकृति रूप उदयस्थान में अठत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान के सिवाय चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि सत्ताईस प्रकृतियों का उदय तेज और वायुकाय के जीवों को छोड़कर पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय और वैक्रिय तिर्यंच, मनुष्यों को होता है । उनको अवश्य मनुष्यद्विक का बंध सम्भव होने से अठत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान घटित नहीं होता है। ___ तेज और वायुकाय के जीवों में सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान न होने का कारण यह है कि छब्बीस प्रकृतियों के उदयवाले एकेन्द्रिय के आतप या उद्योत के उदय में सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। किन्तु तेज और वायुकायिक जीवों के उद्योत या आतप का उदय होता ही नहीं है। जिससे तेज और वायुकाय के जीवों में सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान संभव न होने से उसका निषेध किया है । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पंचसंग्रह : १० अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतियों के उदय रूप चार उदयस्थानों में भी अठत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार-चार सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि अट्ठाईस आदि प्रकृतियों का उदय पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले विकलेन्द्रिय तिर्यंचपंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होता है । मात्र इकत्तीस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय को होता है। क्योंकि इकत्तीस प्रकृतियों का उदय उद्योतनाम युक्त है और उद्योत का उदय तिर्यंचों में होता है। वे अट्ठाईस आदि सभी प्रकृतियों के उदय वाले जीव अवश्य मनुष्यगति और मनुष्यानुपूर्वी की सत्ता वाले होते हैं। इस प्रकार तेईस प्रकृतियों के बंधक जीवों के नौ उदयस्थानाश्रयी चालीस सत्तास्थान होते हैं। जिस प्रकार से तेईस प्रकृतियों के बंधक के उदयस्थानों और सत्तास्थानों का कथन किया है, उसी प्रकार पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के बंधकों के लिये भी समझ लेना चाहिये। ये दोनों-पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थान पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर बंधते हैं और उनके बंधक तिर्यच, मनुष्य और ईशान स्वर्ग तक देव हैं तथा पच्चीस प्रकृतियों का बंधस्थान अपर्याप्त विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य बंध करने पर भी बंधता है। उसके बंधक मनुष्य और तिर्यंच हैं। उपर्यक्त जीव अपने-अपने सभी उदयों में पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों का बंध करते हैं। उस समय तेईस प्रकृतियों के बंध में जो और जिस प्रकार से पाँच सत्तास्थानों का कथन किया है, वही पाँच सत्तास्थान होते हैं। मात्र पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों का बंध करते देवों के अपने इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस,. उनतीस और तीस प्रकृतिक इन छहों उदयस्थानों में बानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। देव, अपर्याप्त विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय या अपर्याप्त मनुष्यगति योग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध करते ही नहीं हैं। क्योंकि वे अपर्याप्त विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० होते हैं। सामान्य से पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के बंध में नौ उदयस्थानाश्रयी चालीस-चालीस सत्तास्थान होते हैं। अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में आठ उदयस्थान इस प्रकार हैं२१, २५, २६, २७, २८, २९, ३० और ३१ प्रकृतिक । जिनका विवरण इस प्रकार है____ अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध देवगति और नरकगति योग्य इस प्रकार दो तरह का है और उसके बंधक सामान्य से मनुष्य और तिर्यंच हैं। उनमें देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का जब बंध होता है तब भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उपर्युक्त आठ उदयस्थान संभव है और नरकगति योग्य जब अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध हो तब तीस और इकत्तीस प्रकृतिक यही दो उदयस्थान होते हैं। नरकगतियोग्य दो उदयस्थान कहने का कारण यह है कि नरकगतियोग्य बंध पहले गुणस्थान में ही होता है और वह भी संपूर्ण पर्याप्त अवस्था में होता है और पर्याप्त अवस्था में उक्त दो ही उदयस्थान होते हैं । मिथ्यादृष्टि जीव अपर्याप्त अवस्था में नरक या देवगति योग्य बंध करते नहीं हैं। जिससे मिथ्यादृष्टि के देवगतियोग्य बंध करने पर भी उक्त दो ही उदयस्थान होते हैं। अपर्याप्त अवस्था में देवगति का बंध सम्यग्दृष्टि को होता है। जिससे अपर्याप्तावस्था में संभव इक्कीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान चौथे गुणस्थान में होते हैं। पांचवें आदि गुणस्थान तो पर्याप्त अवस्था में ही होते हैं जिससे वहाँ पर्याप्तावस्था में संभव उदयस्थान होते हैं। देव-नरकगति के बंधक पर्याप्त संमूच्छिम तिर्यंच, गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य हैं। देवगति के योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को इक्कीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक 'सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य को होता है। यहाँ युगलिक तिर्यंचों का ग्रहण करना चाहिये। क्योंकि संख्यातवर्ष की आयुवाले तिर्यंच के क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है एवं क्षायिक सम्य Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.६६ पंचसंग्रह : १० क्त्व लेकर उनमें कोई उत्पन्न भी नहीं होता है। पूर्व में असंख्यात वर्ष प्रमाण तिर्यच युगलिक की आयु बांधकर कोई मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न करे, आयु पूर्ण कर युगलिक में जाये, वहाँ जाने पर विग्रहगति में उनको इक्कीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करता है । कोई भी देव या नारक उपशम सम्यक्त्व लेकर मनुष्य या तिर्यंच में उत्पन्न होता नहीं है । इसीलिये दो सम्यक्त्व ग्रहण किये हैं । पच्चीस प्रकृतियों का उदय आहारक संयत और सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि वैक्रिय तिर्यंचों या मनुष्यों के होता है । छब्बीस प्रकृतियों का उदय क्षायिक सम्यक्त्वी अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी शरीरस्थ पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों के होता है । सत्ताईस प्रकृतियों का उदय आहारक संयत को एवं सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादष्टि वैक्रिय तिर्यंच मनुष्यों के होता है । अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान अनुक्रम से शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त और उच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त क्षायिक सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रिय तियंचों और मनुष्यों तथा आहारक संयत को और सम्यक्त्वी अथवा मिथ्यात्वी वैक्रिय तिर्यंच अथवा मनुष्यों के होता है । तीस प्रकृतियों का उदय सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अथवा मिश्रदृष्टि तिथंच और मनुष्यों तथा उद्योत के उदय वाले आहारक संयत और वैक्रिय संयत को होता है जो देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । इकत्तीस प्रकृतियों का उदय सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि उद्योत के उदय वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच को होता है । उपर्युक्त उदय में रहते ऊपर कहे गये वे जीव देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि सातवें गुणस्थान में वर्तमान आहारकशरीरी देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का ही बंध करते हैं । क्योंकि जिनको आहारकद्विक की सत्ता है, वे उसकी बंधयोग्य स्थिति में आहारकद्विकका अवश्य बंध करते हैं । प्रमत्त गुणस्थान में आहा Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६९, १०० रकद्विक का बंध नहीं होने से वहाँ आहारकशरीरी देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं। इसी तरह वैक्रियशरीरी यति छठे गुणस्थान में अट्ठाईस प्रकृतियों को ही बांधता है । सातवें गुणस्थान में यदि आहारक की सत्ता है तो देवगति-योग्य आहारकद्विक सहित तीस प्रकृतियों को ही बांधता है अन्यथा अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधता है। ___ नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते मिथ्याष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यच और मनुष्यों को तीस प्रकृतियों का उदय होता है और इकत्तीस प्रकृतियों का उदय मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय तिर्यचों को होता है, जो अशुभ परिणामों के योग से अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । नरकगतियोग्य बंध करने वाले पर्याप्त संमूच्छिम तिर्यच, मिथ्यादृष्टि संख्यात वर्ष की आयु वाले गर्भज तिर्यंच और मनुष्य होते अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को सामान्य से बानवे, नवासी, अठासी और छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं। उनमें इक्कीस के उदय में वर्तमान देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को बानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। पच्चीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक आहार कसंयत, वैक्रिय तिर्यंच और वैक्रिय मनुष्यों को बानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान सामान्य से होते हैं। उनमें आहारकसंयत तो अवश्य आहारकद्विक की सत्तावाला होता है, जिससे उसे बानवै प्रकृति रूप ही सत्तास्थान होता है। उसके सिवाय अन्य तिर्यंच अथवा मनुष्य आहारक की सत्ता वाले भी होते हैं और उसकी सत्ता बिना के भी होते हैं। इसलिये उनको दोनों सत्तास्थान होते हैं। यदि आहारकचतुष्क की सत्ता हो तो बानवै प्रकृतिक अन्यथा अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियों का उदय - होने पर भी बान और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान यथायोग्य Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ पंचसंग्रह : १० रीति से होते हैं । तीस प्रकृतियों के उदय में देवगति या नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को सामान्य से बानव और अठासी प्रकृतियों की सत्ता जैसे पूर्व में कही है, उस प्रकार यहां भी समझना चाहिये। नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान इस प्रकार होता है कोई मिथ्यादृष्टि मनुष्य नारक की आयु बांध क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उपाजित करे और इसके बाद तथाप्रकार के विशिष्ट परिणाम के योग में तीर्थंकर नाम का निकाचित बंध करे तो वह मनुष्य नरक में जाने के सन्मुख होते अपनी अन्तर्मुहूर्त आयु शेष हो तब सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जाये, वहां उस समय उस जीव को तीर्थकर नाम का बंध नहीं होने से नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर नवासी प्रकृतियों सत्ता होती है। छियासी प्रकृतियों की सत्ता इस प्रकार है तीर्थकरनाम, आहारकचतुष्क, देवद्विक, नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क की सत्ता जब न हो तब अस्सी प्रकृतियों की सत्ता होती है। अस्सी प्रकृतियों की सत्ता वाला कोई (एकेन्द्रिय) जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंच या मनुष्य में उत्पन्न हो सभी स्वयोग्य पर्याप्तियों से पर्याप्त हो, पर्याप्तावस्था में यदि विशुद्ध परिणाम वाला हो तो देवगतिप्रायोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधे और उनके बंध से देवद्विक एवं वैक्रियचतुष्क की सत्ता प्राप्त हो जिससे उसे छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान प्राप्त होता है। अथवा यदि सर्व संक्लिष्ट परिणाम वाला हो तो नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करे और उनके बंध से नरकद्विक एवं वैक्रियचतुष्क की सत्ता प्राप्त होती है । इस प्रकार भी छियासी प्रकृतियों का सत्तास्थान प्राप्त होता है। इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में बानवै, अठासी और छियासी इस इस प्रकार तीन सत्तास्थान होते हैं। इसका उदय होने पर भी नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । क्योंकि इकत्तीस प्रकृतियों का उदय उद्योतनाम के उदय वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय में होता है । तिर्यचों में Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६, १०० १६६ तीर्थंकर नाम की ( निकाचित) सत्ता होती ही नहीं है । क्योंकि ( निकाचित) तीर्थंकर नाम की सत्ता वाला कोई भी जीव तिर्यंचगति में उत्पन्न नहीं होता है और छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान का विचार ऊपर कहे अनुसार यहां भी समझ लेना चाहिये । इस प्रकार अठाईस प्रकृतियों के बंधक के आठ उदयस्थानाश्रयी उन्नीस सत्तास्थान होते हैं । उनतीस और तीस प्रकृतियों के बंध में नौ-नौ उदयस्थान और सात-सात सत्तास्थान होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तिर्यंचगति और मनुष्य गति योग्य बंध करने पर बंधता है । उसके बंधक चारों गति के जीव हैं । तीर्थकरनामकर्म के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर भी उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है । उसके बंधक अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक में वर्तमान हैं । तीस प्रकृतिक बंधस्थान उद्योतनाम सहित तियंचयोग्य बंध करने पर बंधता है, उसके बंधक चारों गति के जीव हैं । तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर भी तीस प्रकृतिक बंधस्थान बंधता है । उसके बंधक चतुर्थ गुणस्थान में वर्तमान देव और नारक हैं, एवं आहारकद्विक के साथ देवगतियोग्य बंध करने पर भी तीस प्रकृतियों का बंध होता है । उसके बंधक सातवें और आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक में वर्तमान यति हैं । उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंध के नौ उदयस्थान इस प्रकार हैं- इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक । जिनका विवरण इस प्रकार है— इक्कीस प्रकृतियों का उदय तिर्यंच और मनुष्य गति योग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकों को विग्रहगति में होता है । चौबीस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रिय को होता है । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पंचसंग्रह : १० पच्चीस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त एकेन्द्रिय, देव, नारक और वैक्रिय शरीर की जिन्होंने विकुर्वणा की है ऐसे मिथ्यादृष्टि मनुष्य और तिर्यंचों को होता है। छब्बीस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त एकेन्द्रिय, पर्याप्त-अपर्याप्त विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होता है । सत्ताईस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त एकेन्द्रिय, देव, नारक और मिथ्यादृष्टि वैक्रिय तिर्यंच-मनुष्य को होता है। अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव, नारक और मिथ्यादृष्टि वैक्रिय तिर्यंचों, मनुष्यों को होता है। तीस प्रकृतियों का उदय विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और उद्योत के वेदक देवों के होता है। इकत्तीस प्रकृतियों का उदय उद्योत के उदय वाले पर्याप्त विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों को होता है। - तीर्थंकर नाम के साथ देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य को यह सात उदयस्थान होते हैंइक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक। ___ सम्यग्दृष्टि मनुष्य अपर्याप्त या पर्याप्त अवस्था में प्रति समय देवगति योग्य ही बंध करता है और जिसने तीर्थकरनाम को निकाचित किया है वह तीर्थंकरनाम की बंधयोग्य भूमिका में--चौथे गुणस्थान से आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक प्रति समय उसका बंध करता ही रहता है, इसलिये देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध अपर्याप्त या पर्याप्त दोनों अवस्थाओं में होता है। जिससे इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध कर सकता है और पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान वैक्रिय अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य भी ऊपर कहे अनुसार उनतीस प्रकृतियों को बांध सकता है। देशविरतगुणस्थान पर्याप्तावस्था में ही होता है। जिससे तीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान मनुष्य देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,१०० २०१ का बंध कर सकता है और पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों में वर्तमान वैक्रिय देशविरत मनुष्य उनतीस का बंध करता है। वक्रिय मनुष्य को यहाँ तीस प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। क्योंकि तीस प्रकृतियों का उदय उद्योत के साथ होता है और मनुष्य में उद्योत का उदय आहारकशरीरी और वैक्रियशरीरी यति को ही होता है किन्तु संयतासंयत (देशविरत) को नहीं होता है। __ प्रमत्तसंयत को सामान्य से तीस प्रकृतियों का उदय होता है और वक्रिय तथा आहारक संयत को पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृति रूप पांच उदयस्थान होते हैं। प्रत्येक उदयस्थान में वर्तमान देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांध सकता है। तीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान सामान्य अप्रमत्तसंयत उनतोस, तीस प्रकृतिक उदय में रहते वक्रिय शरीरी अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण में वर्तमान जीव भी पहले कहे गये गये अनुसार उनतीस प्रकृतियों का बंध करता है। __ आहारकशरीरी अप्रमत्तसंयत उनतीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि आहारकशरीरनाम का बंध करने के बाद उसकी बंधयोग्य भूमिका में आहारकशरीरनाम का बंध करता ही रहता है। जिससे आहारकशरीरी अत्रमत्तसंयत देवगति योग्य आहारकद्विक के साथ तीस अथवा आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम के साथ इकत्तीस प्रकृतियों का बंध करता है। __सामान्य से उनतीस प्रकृतियों के बंध में सात सत्तास्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं-तेरानवे, बानव, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी और अठत्तर प्रकृतिक । इनमें विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते पर्याप्त-अपर्याप्त एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय को इक्कीस प्रकृतियों के उदय में बानवै, अठासी, छियासी, अस्सी और अठत्तर प्रकृतिक ये पांच सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृति रूप तीन Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० उदयस्थानों में भी पांच सत्तास्थान होते हैं । सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इन पांच उदयस्थानों में अठत्तर के अलावा चार-चार सत्तास्थान होते हैं । इनका विचार पूर्व में किये तेईस प्रकृतिक बंधस्थान के अनुरूप यहाँ भी कर लेना चाहिये । २०२ मनुष्यगति योग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तियंच पंचेन्द्रियों को तथा तियंचगति और मनुष्यगति योग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर मनुष्यों को यथायोग्य रीति से अपने उदय में रहते अठत्तर के सिवाय बानवे, अठासी, छियासी और अस्सी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यगति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर अपने-अपने उदय में वर्तमान देवों और नारकों को बानवे एवं अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । मात्र तीर्थंकरनाम की सत्तावाले मिथ्यादृष्टि नारक को मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर पांचों उदयस्थानों में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । क्योंकि जो तीर्थंकरनाम की सत्तावाला आहारकचतुष्क की सत्ता बिना का हो उसे मिथ्यात्वगुणस्थान में एवं नरक में जाना सम्भव है । इसलिये तेरान में से आहारकचतुष्क की सत्ता को कम करने पर नवासी प्रकृतियां सत्ता में रहती हैं ! तीर्थंकरनाम के साथ उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर इक्कीस प्रकृतिक उदय में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य को तेरानवे और नवासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । इसी तरह पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतियों के उदय में भी यही दो-दो सत्तास्थान होते हैं । मात्र अपने-अपने उदय में वर्तमान आहारकसंयत को तेरानवै प्रकृति रूप एक ही सत्तास्थान होता है । इसी प्रकार सामान्य से उनतीस प्रकृतियों के बंध और इक्कीस प्रकृतियों के उदय में सात सत्तास्थान, चौबीस प्रकृतियों के उदय में पांच, पच्चीस प्रकृतियों के उदय में सात, छब्बीस प्रकृतियों के उदय Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,१०० २०३ में सात, सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में छह, अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में छह, उनतीस प्रकृतियों के उदय में छह, तीस प्रकृतियों के उदय में छह और इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में चार सत्तास्थान होते हैं और कुल मिलाकर चउवन (५४) सत्तास्थान होते हैं। जैसे तिर्यंचगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारक उदय और सत्तास्थानों का विचार किया है, उसी प्रकार तिर्यचगतियोग्य उद्योत नामकर्म के साथ तीस प्रकृतियों को बांधने पर एकेन्द्रियादि को भी उदय और सत्तास्थान कहना चाहिये तथा मनुष्यगतियोग्य तीर्थंकरनाम के साथ तीस प्रकृतियों को बांधने पर अविरतसम्यग्दृष्टि देवों को इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये छह उदयस्थान और नारकों के तीस प्रकृतिक के सिवाय पांच उदयस्थान होते हैं और सत्तास्थान सामान्यतः तेरानवै और नवासी प्रकृतिक ये दो होते हैं। उनमें मनुष्यगतियोग्य तीर्थंकरनाम के साथ तीस प्रकृतियों को बांधने पर देवों को अपने सभी उदयस्थानों में तेरानवै और नवासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। तीर्थकरनाम के साथ मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों को बांधते नारक को अपने चारों उदयस्थानों में मात्र नवासी प्रकृति रूप एक ही सत्तास्थान होता है, तेरानवै प्रकृतिक नहीं होता है। क्योंकि तीर्थकरनाम और आहारकचतुष्क दोनों की युगपत् सत्तावाला जीव नरक में उत्पन्न नहीं होता है तथा उद्योतनाम का उदय नहीं होने से नारकों के तीस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है । इसीलिये चार उदयस्थान बताये हैं। ___ आहारकद्विक और देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते अप्रमत्तसंयत को तीस प्रकृतिक उदयस्थान और बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । अपूर्वकरण में भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इस तरह सामान्य से तीस प्रकृतियों के बंधक को इक्कीस प्रकृतियों के उदय में सात, चौबीस प्रकृतियों के उदय में पांच, पच्चीस प्रकृतियों Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० के उदय में सात, छब्बीस प्रकृतियों के उदय में पांच, सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में छह, अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में छह, उनतीस के उदय में छह, तीस प्रकृतियों के उदय में छह और इकतीस के उदय में चार सत्तास्थान होते हैं और सब मिलाकर बावन सत्तास्थान होते हैं । इकत्तीस प्रकृतियों का बंध करने पर तीस प्रकृति रूप एक ही उदयस्थान होता है । क्योंकि तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक के साथ देवगतियोग्य बांधते अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण को इकत्तीस प्रकृतियों का बंध होता है । वे वैक्रिय या आहारक शरीर की विकुर्वणा नहीं करते हैं । इसलिये पच्चीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान सम्भव नहीं हैं । यहाँ सत्तास्थान मात्र तेरानवे प्रकृतिक ही होता है । क्योंकि तीर्थकरनाम और आहारकचतुष्क इन दोनों की सत्ता यहाँ पर है | २०४ आठवें गुणस्थान के छठे भाग के बाद देवगतियोग्य कर्म के बंध का विच्छेद होने से मात्र एक यशः कीर्तिनाम का जब बंध होता है तब उदयस्थान मात्र तीस प्रकृतिक ही होता है। क्योंकि अपूर्वकरणादि गुणस्थान वाले एक यशःकीर्ति का बंध करते और वे अति विशुद्ध परिणाम वाले होने से वैक्रिय या आहारक लब्धि का प्रयोग नहीं करते हैं । इसलिये पच्चीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान यहाँ नहीं होते हैं । हैं सत्तास्थान आठ होते हैं । जो इस प्रकृतिसंख्या वाले हैं - तेरानवं, बानवे, नवासी, अठासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक । इनमें से आदि के चार उपशमश्रेणि में होते हैं और क्षपकश्रेणि में अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में जब तक नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय नहीं हुआ, वहाँ तक होते हैं और नामकर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद अनेक जीवों की अपेक्षा अस्सी आदि प्रकृतिक अन्त के चार सत्तास्थान होते हैं और वे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होते हैं। क्योंकि यशः कीर्तिनाम का वहाँ तक ही बंध होता है । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६६,१०० २०५ बंधविच्छेद होने के अनन्तर दस उदयस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बीस, इक्कीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस नौ और आठ प्रकृतिक । इनमें से उपशान्तमोहगुणस्थान में तीस प्रकृति रूप एक ही उदयस्थान होता है और प्रारम्भ के तेरानव प्रकृतिक आदि चार सत्तास्थान होते हैं । क्षीणमोह गुणस्थान में भी तीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान होता है और अन्तिम चार सत्तास्थान होते हैं । सयोगिकेवली गुणस्थान में नौ और आठ प्रकृतिक के सिवाय उपर्युक्त बीस आदि प्रकृतिक सभी उदयस्थान होते हैं । उनमें से बीस और इक्कीस प्रकृतियों का उदय अनुक्रम से केवलीसमुद्घात में कार्मणयोग में वर्तमान सामान्यकेवली और तोर्थंकरकेवली को होता है । औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान उनको ही अनुक्रम से छब्बीस और सत्ताईस प्रकृतिक रूप उदय होता है । स्वभावस्थ सामान्य केवली को तीस प्रकृतिक और स्वर का रोध करने पर उन्हीं को उनतीस प्रकृतिक और उच्छ्वास का रोध करें तब अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । स्वभावस्थ तीर्थंकर भगवान को इकत्तीस प्रकृतिक, स्वर का रोध करने पर तीस प्रकृतिक और उच्छ्वास का रोध करें तब उनतीस प्रकृतिक उदय होता है । इस प्रकार तीस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार से प्राप्त होते हैं । अयोगिकेवली तीर्थंकर को नौ प्रकृतियों का और सामान्य केवली को आठ प्रकृतियों का उदय होता है और सत्तास्थान दस होते हैं, जो इस प्रकार हैं- तेरानवं, वानवे, नवासी, अठासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर, पचहत्तर, नौ और आठ प्रकृतिक । जिनका विवरण इस प्रकार है :-- बीस प्रकृतिक उदयस्थान में उन्यासी और पचहत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतियों Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ पंचसंग्रह : १० के उदय में भी उन्यासी और पचहत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। इक्कीस प्रकृतियों के उदय में अस्सी और छियत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। इसी तरह सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में भी दो सत्तास्थान होते हैं। उनतीस प्रकृतियों के उदय में अस्सी, छियत्तर, उन्यासी, पचहत्तर प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । क्योंकि उनतीस प्रकृतियों का उदय तीर्थकर और अतीर्थंकर केवली दोनों को होता है। उनमें से आदि के दो सत्तास्थान तीर्थंकर केवली को होते हैं। ___ यहां यह जानना चाहिये कि सयोगिकेवली गुणस्थान के तीर्थंकर केवली को अपने समस्त उदयस्थानों में अस्सी और छियत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं और सामान्य केवली को अपने सभी उदयस्थानों में उन्यासी और पचहत्तर प्रकृति रूप दो सत्तास्थान होते हैं। सामान्य केवली को बीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान और तीर्थंकर केवली को इक्कीस, सत्ताईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान होते हैं एवं अयोगि के उदयस्थान और सत्तास्थान स्पष्ट हैं। तीस प्रकृतिक उदय में आठ सत्तास्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं-तेरानवै, बानवै, नवासी, अठासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक। इनमें से आदि के चार उपशान्तमोहगुणस्थान में होते हैं। अस्सी प्रकृतिक क्षीणमोह अथवा सयोगिकेवली गुणस्थान में तीर्थंकर और आहारकचतुष्क की सत्तावाले को होते हैं। उन्यासी प्रकृतिक सत्तास्थान क्षीणमोह या सयोगिकेवलीगुणस्थान में तीर्थंकरनाम की सत्ता विहीन को होता है। छियत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान क्षीणमोह अथवा सयोगिकेवलीगुणस्थान में आहारकचतुष्क की सत्ता विहीन को होता है । पचहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान क्षीणमोहगुणस्थान अथवा सयोगिकेवलीगुणस्थान में तीर्थंकर और आहारकचतुष्क दोनों की सत्ता रहित को होता है। इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में तीर्थंकर केवली को अस्सी और Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०१ २०७ छियत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं और सामान्य केवली को इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है | अयोगिकेवली गुणस्थान में नौ प्रकृतियों के उदय में तीर्थंकर भगवान को अयोगिगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त अस्सी और छियत्तर प्रकृतिक तथा चरम समय में नौ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । आठ प्रकृतियों के उदय वाले अयोगि सामान्य केवली को अयोगि गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त उन्यासी और पचहत्तर प्रकृतिक एवं चरम समय में आठ प्रकृतिक उदयस्थान होता है । इस प्रकार अबंधक के दस उदयस्थान संबन्धी तीस सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से नामकर्म का विवेचन जानना चाहिये एवं सभी कर्मों के बंध, उदय और सत्तास्थानों का स्वतन्त्र रूप से और संवेध द्वारा गुणस्थानों में विचार किया । अब सभी कर्मों के बंध, उदय और सत्ता को संवेध द्वारा गुणस्थानों में विचार करने की दृष्टि से पहले ज्ञानावरण और उसके समान संख्या वाले अंतराय कर्म का विचार करते हैं । ज्ञानावरण, अंतराय कर्म का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध बंधोदयसंते पण पण पढमंतिमाण जा संतोइण्णाइं पुण उवसमखोणे परे सुहुमो नत्थि ॥ १०१ ॥ शब्दार्थ - बंधोदयसंतेसु - बंध, उदय और सत्ता में, पण पण - पांच-पांच, पढमंतिमाण- पहले और अंतिम कर्म को, जा— तक, पर्यन्त, सुहुमो - सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान, संतोइण्णाई - सत्ता और उदय, पुण-पुनः, उवसमखीणेउपशांतमोह और क्षीणमोह में, परे-आगे, नत्थि - नहीं है । १ एतद् विषयक प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० गाथार्थ -- सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक पहले और अंतिम कर्म की बंध, उदय और सत्ता में पाँच-पाँच प्रकृतियां होती हैं । उपशांतमोह और क्षीणमोह में सत्ता और उदय में पांच-पांच प्रकृति होती हैं। आगे गुणस्थानों में नहीं होती हैं । २०८ विशेषार्थ - गाथा में ज्ञानावरण और अंतराय कर्म की प्रकृतियों का गुणस्थानापेक्षा बंध, उदय और सत्ता का संवेध बतलाया है । जो इस प्रकार हैं पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक पहले ज्ञानावरण और अंतिम अंतराय कर्म की बंध, उदय एवं सत्ता में सभी पांच-पांच प्रकृति होती हैं । अर्थात् मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक दस गुणस्थानों में ज्ञानावरण एवं अन्तराय कर्म की पांचों प्रकृतियों का बंध, पांचों प्रकृतियों का उदय और पांचों प्रकृतियों की सत्ता होती है। एक भी कम नहीं होती है । क्योंकि ये प्रकृतियां ध्रुवबंधि, ध्रुवोदया और ध्रुवसत्ता वाली हैं । बंधविच्छेद होने के बाद उपशांतमोह और क्षीणमोह इन ग्याहरवें और बारहवें गुणस्थान में पांचों का उदय और पांचों की सत्ता होती है और क्षीणमोह गुणस्थान के आगे सयोगिकेवली, अयोगिकेवली गुणस्थानों में इन दोनों कर्मों की एक भी प्रकृति उदय या सत्ता में नहीं होती है । क्योंकि क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में इन प्रकृतियों का उदय और सत्ता विच्छेद हो जाता है । इस प्रकार से ज्ञानावरण और अंतराय कर्म प्रकृतियों का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध जाना चाहिये । अब दर्शनावरण कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध द्वारा विचार करते हैं । दर्शनावरणकर्म के त्रिक का संवैध मिच्छासासायणेसु नवबंधुवलक्खिया उ दो भंगा । मीसाओ य नियट्टी जा छब्बंधेण दो दो उ ।। १०२ ।। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०२, १०३, १०४ चउबंधे नवसंते दोणि अपुव्वाउ सुहुमरागो जा । अब्बंधे णवसंते उवसंते हृति दो भंगा ॥ १०३ ॥ २०६ चउबंधे छस्संते बायरसुहुमाणमेगुक्खवयाणं । छसु चउसु व संतेसु दोण्णि अबंधंमि खीणस्स ॥ १०४ ॥ शब्दार्थ - मिच्छासासायणेसु - मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में, नवबंधुवलक्खिया - नौ के बंध से उपलक्षित-नो के बंधकाल, उ-और, दो-दो, भंगा-भंग, मीसाओ — मिश्र गुणस्थान में, य-ओर, नियट्टीअपूर्वकरण, जा - तक, छब्बंधेण - छह के बंध वाले, दो-दो - दो-दो, उ-और । www चउबंधे - चार के बंध में, नवसंते नौ की सत्ता में, दोण्णि - दो भंग, अपुष्वाउ - अपूर्वकरण गुणस्थान से, सुहुमरागो— सूक्ष्मसंपराय, जा— तक, अब्बंधे बंध का अभाव होने पर, नवसंते-नो की सत्ता के, उवसंत- -उपशान्तमोहगुणस्थान में, हुति - होते हैं, दो मंगा — दो भंग । → चउबंधे - चार के बंध में, छस्संते - छह की सत्ता में, बायरसुहुमाणंअनिवृत्तिबादरसं पराय और सूक्ष्म संपरायगुणस्थान में एगुक्खवयाणं - - एक क्षपकश्रेणि में, छसु - छह, चउसु — चार में, व - अथवा, संतेसु–सत्ता रहने पर, दोणि- दो, अबंधंमि -- बंध नहीं होने पर, खोणस्स — क्षीणमोही को । - गाथार्थ - मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में नौ के बंध वाले दो भंग होते हैं और मिश्र से अपूर्वकरण पर्यन्त छह के बंध वाले दो-दो भंग होते हैं । अपूर्वकरण से सूक्ष्मसंपराय पर्यन्त चार का बंध और नौ की सत्ता होने पर दो-दो भंग होते हैं । बंध का अभाव होने पर उपशान्तमोहगुणस्थान में नौ की सत्ता होने पर दो भंग होते हैं । चार क्षपक बादर और सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में चार का बंध, का उदय और छह की सत्ता का एक भंग होता है । बंधाभाव में छह अथवा चार की सत्ता होने पर क्षीणमोही के दो भंग होते हैं ! Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ-इन तीन गाथाओं में दर्शनावरणकर्म के संवेध का विचार किया है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मिथ्यादृष्टि और सासादन इन पहले और दूसरे गुणस्थान में दर्शनावरणकर्म के नौ के बंध से उपलक्षित अर्थात् नौ के बंध वाले दो-दो भंग होते हैं-'नवबंधुवलपिखया उ को भंगा।' वे इस प्रकार जानना चाहिये-(१) नौ प्रकृतियों का बंध, चार का उदय और नौ प्रकृतियों की सत्ता । यह भंग जब निद्रा का उदय न हो तब होता है और (२) नौ का बंध, पाँच का उदय, नौ की सत्ता, यह भंग निद्रा का उदय हो तब होता है। मिश्रदृष्टि से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग पर्यन्त छह के बंध वाले दो-दो भंग होते हैं। जो इस प्रकार हैं कि (१) छह का बंध, चार का उदय और नौ की सत्ता, (२) छह का बंध, पांच का उदय और नौ की सत्ता। इन दोनों भंगों में से पहला निद्रा के अनुदयकाल में और दूसरा निद्रा के उदयकाल में होता है। इन गुणस्थानों में स्त्यानद्धित्रिक का बंध नहीं होने से शेष छह प्रकृतियों का बंध बताया है । तथा अपूर्वकरण के संख्यातवें भाग में निद्रा और प्रचला का बंधविच्छेद होने के बाद संख्यातवें भाग से लेकर उपशमश्रेणि में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त चार का बंध और नौ प्रकृतियों की सत्ता रहते दो भंग होते हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) चार प्रकृतियों का बंध, चार का उदय और नौ की सत्ता, (२) चार का बंध, पांच का उदय और नौ की सत्ता। ये दोनों भंग अनुक्रम से निद्रा के अनुदय और उदयकाल में होते हैं। ___ बंधविच्छेद होने के बाद उपशान्तमोहगुणस्थान में नौ प्रकृतियों की सत्ता होते दो भंग होते हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) चार का उदय, नौ की सत्ता, (२) पांच का उदय, नौ की सत्ता । उपशमश्रेणि में निद्रा का उदय हो सकता है, जिससे निद्रा के उदय वाला भंग भी संभव है। यहाँ अति मंद निद्रा का उदय होता है । तथा-... Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०५ २११ क्षपकश्रेणि में वर्तमान अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानों में चार प्रकृतियों का बंध, छह प्रकृतियों की सत्ता का एक भंग होता है। वह इस प्रकार-चार प्रकृतियों का बंध, चार प्रकृतियों का उदय और छह प्रकृतियों की सत्ता। क्षपक आत्मा अत्यन्त विशुद्धि वाली होने से उसे निद्रा का उदय नहीं होता है, जिससे पांच का उदय सम्भव नहीं होने से एक ही भंग होता है। बंधविच्छेद होने के बाद क्षीणमोहगुणस्थान में छह और चार की सत्ता रहते दो भंग इस प्रकार होते हैं-(१) चार का उदय, छह की सत्ता, यह विकल्प क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होता है और चरम समय में, (२) चार का उदय और चार की सत्ता यह भंग होता है। इस प्रकार दर्शनावरणकर्म का गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता का संवेध जानना चाहिये। अब वेदनीयकर्म के संवेध का विचार करते हैं। गुणस्थानों में वेदनीयकर्म का संवेध चत्तारि जा पमत्तो दोण्णि उ जा जोगि सायबंधणं । सेलेसि अबंधे चउ इगि सते चरिमसमए दो ॥१०॥ शब्दार्थ-चत्तारि-चार, जा-तक, पमत्तो-प्रमत्तसंयतगुणस्थान, दोणि-दो, उ-और, जा-तक, जोगि--सयोगिकेवली, सायबंधेणं-साता के बंध से, सेलेसि-अयोगिकेवलीगुणस्थान में, अबंधे-बंधविच्छेद के बाद, चउ-चार, इगि--एक, संते-सत्ता के, चरिमसमए–चरमसमय में, दो-दो। गाथार्थ-प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त वेदनीयकर्म के चार भंग होते हैं। साता के बंध से होने वाले दो भंग सयोगिकेवली पर्यन्त होते हैं। बंधविच्छेद के बाद अयोगिकेवलीगुणस्थान में चार और चरम समय में एक की सत्ता हो तब दो भंग होते हैं। विशेषार्थ-वेदनीयकर्म के दो भेद हैं--साता और असाता। इन Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० दोनों की अपेक्षा गुणस्थानों से संवेध भंग इस प्रकार हैं___ 'चत्तारि जा पमत्तो' अर्थात् पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से लेकर छठे प्रमत्तसंयतगुणस्थान तक कालभेद से अनेक जीवों की अपेक्षा वेदनीयकर्म के चार भंग होते हैं। जो इस प्रकार हैं-(१) असाता का बंध, असाता का उदय, साता-असाता की सत्ता, (२) असाता का बंध, साता का उदय, साता-असाता की सत्ता, (३) साता का बंध, साता का उदय, साता-असाता दोनों की सत्ता, (४) साता का बंध, असाता का उदय, साता-असाता दोनों की सत्ता। किसी को किसी प्रकृति का बंध होता है और किसी को किसी का होता है। इसी प्रकार किसी को किसी प्रकृति का उदय होता है और किसी को किसी का होता है। जिससे भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा कालभेद से उपर्युक्त भंग बनते हैं। अप्रमत्तसंयतगुणस्थाय से लेकर सयोगिकेवलीगुणस्थान पर्यन्त साता के बंध वाले दो भंग होते हैं। क्योंकि असातावेदनीय का बंध तो छठे गुणस्थान तक ही होता है, जिससे सातवें गुणस्थान से असाता के बंध वाले भंग नहीं होते हैं। वे दो भंग इस प्रकार हैं-(१) साता का बंध, साता का उदय, साता-असाता की सत्ता। (२) साता का बंध, असाता का उदय, साता-असाता की सत्ता। बंधविच्छेद होने के बाद शैलेश-अयोगिकेवली गुणस्थान में चार विकल्प होते हैं। उनमें से दो इस प्रकार हैं-(१) साता का उदय, साता-असाता की सत्ता, (२) असाता का उदय, साता-असाता की सत्ता । ये दो विकल्प अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त होते हैं। अयोगिकेवलीगुणस्थान में उसके पहले समय से जिसका उदय हो, वह उसके अंतिम समय तक रहता है। बीच में उदय बदलता नहीं है। किसी आत्मा को यदि प्रथम समय से लेकर असाता का उदय हो तो चरम समय पर्यन्त असाता का ही उदय रहता है और किसी आत्मा को यदि साता का उदय हो तो चरम समय पर्यन्त साता का Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६,१०७,१०८ २१३ उदय रहता है। अयोगिगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त सत्ता तो दोनों की होती है। चरम समय में जिसका उदय हो उसी की ही सत्ता रहती है । यदि साता का उदय हो तो चरम समय में साता की और यदि असाता का उदय हो तो चरम समय में असाता की सत्ता होती है। जिसका उदय होता है उसकी सत्ता रहती है और जिसका उदय न हो उसकी सत्ता का द्विचरम समय में नाश होता है। जिससे अयोगिगुणस्थान के चरम समय में कोई भी एक साता या असाता की सत्ता रहते दो भंग होते हैं-(१) असाता का उदय, असाता की सत्ता, यह विकल्प जिसके प्रथम समय से असाता का उदय हो उसके सम्भव है और (२) साता का उदय और साता की सत्ता यह भंग प्रथम समय से ही जिसको साता का उदय हो उसके सम्भव है। चरम समय में जिसका उदय होता है, उसके सिवाय अन्य प्रकृति का द्विचरम समय में सत्ता में से विच्छेद होता है । जिससे चरम समय में एक ही सत्ता में रहता है । तेरहवें गुणस्थान तक साता-असाता परावर्तमान होने से उसका उदय बदलता रहता है। एक जीव को भी किसी एक का उदय कायम नहीं रहता है। ___ इस प्रकार से वेदनीयकर्म के संवेध भंगों को जानना चाहिये। अब गुणस्थानों में आयुकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध का निरूपण करते हैं । गुणस्थानों में आयुकर्म के संवेध भंग अट्ठछलाहियवीसा सोलह वीसं च बारस छ बोसु। दो चउसु तीसु एक्कं मिच्छाइसु आउए भंगा ॥१०॥ नरतिरिउदए नारयबंधविहूणा उ सासणि छन्वीसा। बंधसमऊण सोलस मीसे चउ बंध जुय सम्मे ॥१०७॥ देसविरयम्मि बारस तिरिमणुभंगा छबंधपरिहीणा। मणुभंगतिबंधूणा दुसु सेसा उभयसेढीसु ॥१०॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ पंचसंग्रह : १० . शब्दार्थ-अछलाहियवीसा-आठ और छह अधिक बीस (अट्ठाईस, छब्बीस), सोलस-सोलह, बीस-बीस, च-और, बारस-बारह, छछह, दोसु-दो में, दो-दो, चउसु-चार में, तीसु-तीन में, एक्कं-एक, मिच्छाइसु-मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में, आउए-आयुकर्म के, भंगा-भंग । नरतिरिउदए-मनुष्य और तिथंच आयु के उदय में, नारयबंधविहूणानरकायु के बंध के बिना, उ-और, सासणि-सासादन में, छन्वीसा-छब्बीस, बंधसमऊण-बंध से संभव भंगों को छोड़कर, सोलस-सोलह, मीसे-मिश्र गुणस्थान में, चउजधजुय-बंध से संभव चार भंगों सहित, सम्मे-अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में। देसविरयम्मि-देशविरत में, बारस-बारह, तिरिमणभंगा-तियंच और मनुष्य से होने वाले भंग, छबंधपरिहोणा-बंध से होने वाले छह भंगों से रहित, मणभंगतिबंघूणा-बंध से होने वाले तीन भंगों से न्यून्य मनुष्य के (छह) भंग, दुसु-दो में (प्रमत्त-अप्रमत्त संयत गुणस्थान में) सेसा-शेष गुणस्थान सम्बन्धी, उभयसेढीसु-दोनों श्रेणियों में कहे अनुसार । गाथार्थ-अट्ठाईस, छब्बीस, सोलह, बीस, बारह, दो में छह और तीन में एक, इस प्रकार मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में आयुकर्म के भंग होते हैं। मनुष्यायु और तिर्यंचायु के उदय में नरकायु के बंध बिना के छब्बीस भंग सासादन गुणस्थान में होते हैं । बंध के समान न्यून (मिश्र गुणस्थान में आयु का बंध नहीं होने से बंध से होने वाले भंगों से न्यून) सोलह भंग मिश्रदृष्टि को होते हैं और बंध से होने वाले भंगों को मिलाने पर बीस भंग अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होते हैं। बंध से होने वाले छह भंगों से रहित तिर्यंच और मनुष्य के ' बारह भंग देशविरत गुणस्थान में होते हैं । बंध से होने वाले तीन भंग रहित मनुष्य के छह भंग दो (प्रमत्त और अप्रमत्त) गुणस्थान में होते हैं। शेष गुणस्थानों के भंग दोनों श्रेणियों में पूर्व में कहे अनुसार यथायोग्य रीति से समझना चाहिये। | Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६,१०७,१०८ २१५ विशेषार्थ -- इन तीन गाथाओं में आयुकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध का गुणस्थानों में विचार किया है । जो इस प्रकार है मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रम से आयुकर्म के अट्ठाईस आदि भंग होते हैं। गुणस्थानों के यथाक्रम से भंगों की संख्या इस प्रकार है कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में आयुकर्म के सभी अट्ठाईस भंग होते हैं। क्योंकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों गति के जीव होते हैं और वे यथायोग्य रीति से चारों आयु का बंध करते हैं । जिससे आयु के बंध से पूर्व के, आयु के बंध काल में होने वाले और उसके बाद के ( उपरत बंधकाल के ) सभी भंग यहां संभव हैं । इसलिये नारकों संबन्धी पांच, तिर्यंचों सम्बन्धी नौ, मनुष्यों सम्बन्धी नौ और देवों सम्बन्धी पांच, इस प्रकार कुल मिलाकर अट्ठाईस भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं । 'सासणि छवीसा' अर्थात् सासादन गुणस्थान में छब्बीस भंग होते हैं । क्योंकि सासादन गुणस्थान में वर्तमान मनुष्य, तिर्यंच नरकायु का बंध नहीं करते हैं । जिससे मनुष्य तिर्यंचों के परभवायु के बंधकाल में होने वाला एक-एक भंग नहीं होता है। इसलिये छब्बीस भंग होते हैं | 1 मिश्रदृष्टिगुणस्थान में सोलह भंग होते हैं । इसका कारण यह है कि मिश्रगुणस्थान में वर्तमान कोई भी जीव परभवायु का बंध नहीं करता है, इसलिये आयु के बंधकाल में होने वाले नारक के दो भंग, तिर्यंच और मनुष्य के चार-चार भंग तथा देवों के दो भंग कुल बारह भंगों को छोड़कर शेष सोलह भंग मिश्रदृष्टि गुणस्थान में होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बीस भंग होते हैं । इस गुणस्थान में वर्तमान देव, नारक मनुष्यायु का और तिर्यंच, मनुष्य देवायु का बंध करते हैं । जिससे देव और नारक को तिर्यंचाय के बंधकाल के दोनों के मिलकर होने वाले दो भंग और मनुष्य, तिर्यंच को नारक और तिर्यच आयु के बंधकाल के दोनों के मिलकर होने वाले 1 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ पंचसंग्रह : १० छह भंग, सब मिलकर आठ भंगों के सिवाय शेष बीस भंग चौथे गुणस्थान में होते हैं । देशविरतगुणस्थान में बारह भंग होते हैं - 'देस विरियम्मि बारस' । क्योंकि यह गुणस्थान देव व नारकों के नहीं किन्तु मात्र मनुष्य व तिर्यंचों के होता है और वे भी मात्र देवायु का ही बंध करते हैं। जिससे देव के पांच भंग, नारक के पांच भंग और मनुष्यों, तिर्यंचों के मनुष्यायु, तिर्यंचा और नरकायु के बंधकाल के दोनों के मिलकर होने वाले छह भंग, कुल सोलह भंग अट्ठाईस में से कम करने पर बारह भंग ही होते हैं । और वे इस प्रकार हैं-- तिर्यंच और मनुष्य को प्रत्येक को बंधकाल से पूर्व का एक-एक भंग, परभवायु बंध काल का भी एक-एक भंग और परभवायु का बंध करने के बाद के चार-चार भंग, इस प्रकार कुल बारह भंग इस गुणस्थान में होते हैं । कितने ही मनुष्य, तिर्यंच मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु का बंध करके भी यह गुणस्थान और इसके बाद के प्रमत्त, अप्रमत्त संयत गुणस्थान भी प्राप्त करते हैं । जिससे परभवायु बंधकाल के बाद के चार भंग सातवें गुणस्थान तक संभव हैं । प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थान में छह भंग होते हैं । इन गुणस्थानों को मात्र मनुष्य ही प्राप्त करता है । जिससे देवाश्रयी पांच, नरकाश्रयी पाँच तथा तिर्यंचाश्रयी नौ कुल उन्नीस भंग तो संभव नहीं हैं किन्तु मनुष्य के नौ भंगों में से भी मनुष्यायु, तिर्यंचायु और नरकायु के बंधकाल के तीन भंग नहीं होते हैं । शेष छह भंग प्रमत्त अप्रमत्त संयत गुणस्थानों में होते हैं । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर संपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशांतमोह गुणस्थान में उपशमश्रेणि आश्रयी ये दो भंग होते हैं - १ मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता । यह परभवायु का बंध करने के पूर्व उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले के होता है । अथवा २ मनुष्यायु का उदय और देव- मनुष्यायु की सत्ता । यह भंग देवायु का बंध करके उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होने वाले को होता है । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६,११० २१७ इन गुणस्थानों में वर्तमान आत्मायें अत्यन्त विशुद्धि वाली होने से किसी भी आयु का बंध नहीं करती हैं और यदि किसी भी आयु का बंध कर उपशमश्रेणि पर आरूढ़ हों तो देवायु का बंध करके ही आरूढ़ होती हैं। अन्य किसी भी आयु का बंध करने के बाद आरूढ़ नहीं होती हैं। आयु का बंध किये बिना भी आरूढ़ हो सकती हैं। इन चार गुणस्थानों में उपशम श्रेणि की अपेक्षा दो-दो भंग होते हैं तथा जिन्होंने परभवायु का बंध किया है, वे क्षपकश्रेणि पर आरूढ़ नहीं हो सकते हैं। इसलिये क्षपकश्रेणि के अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों में मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता यह एक ही भंग होता है। क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानों में एक-एक भंग होता है जो इस प्रकार है-मनुष्यायु का उदय, मनुष्यायु की सत्ता। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक आयुकर्म के भंग समझना चाहिये । अब गुणस्थानों में गोत्रकर्म के संवेध भंगों का निरूपण करते हैं। गुणस्थानों में गोत्रकर्म के संवेध भंग पंचादिमा उ मिच्छे आदिमहीणा उ सासणे चउरो। उच्चबन्धेणं दोणि उ मीसाओ देसविरयं जा ॥१०॥ उच्चेणं बन्धुदए जा सुहुमोऽबंधि छट्टओ भंगो। उवसंता जाऽजोगीदुचरिम चरिमंमि सत्तमओ ॥११०॥ शब्दार्थ-पंचादिमा-आदि के पांच भंग, उ-और, मिच्छे---मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में, आदिमहीणा-आदि (पहले) भंग के बिना, उ-और, सासणे-सासादन गुणस्थान में, चउरो-चार भग, उच्चबन्धेणं-उच्चगोत्र के बंध वाले, दोणि-दो, उ-और, मीसाओ-मिश्र गुणस्थान से, देसविरयं जा-देशविरत गुणस्थान तक । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ पंचसंग्रह : १० उच्चेणं-उच्चगोत्र के, बन्धुदए-बंध और उदय वाला, जा सुहुमोसूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक, छट्ठओ भंगो-छठा भंग, उवसंता-उपशांतमोह गुणस्थान से, जाऽजोगीदुचरिम-अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय तक, चरिमंमि-चरम समय में, सत्तमओ-सातवां भंग। गाथार्थ-(गोत्रकर्म के सात भंगों में से) आदि के पांच भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं और पहले भंग बिना शेष चार भंग सासादन गुणस्थान में होते हैं एवं उच्चगोत्र के बंध वाले दो भंग मिश्रदृष्टि से देशविरत गुणस्थान तक होते हैं। उच्चगोत्र का बंध और उदय वाला एक भंग सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त होता है। बंध के अभाव में उपशांतमोहगुणस्थान से अयोगिकेवलीगुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त छठा । भंग एवं चरम समय में सातवां भंग होता है। विशेषार्थ-गोत्रकर्म के बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा सात भंग होते हैं । जिनको गुणस्थानों में घटित किया गया है 'पंचादिमा उ मिच्छे' अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में गोत्रकर्म के सात भंगों में से आदि के पाँच भंग अनेक जीवों की अपेक्षा होते हैं । वे पाँच भंग इस प्रकार हैं १. नीचगोत्र का बंध, नीच का उदय, नीच की सत्ता। यह विकल्प उच्चगोत्र की उद्वलना करने के बाद तेज और वायुकाय के जीवों में होता है तथा तेज और वायुकाय में से निकलकर तिर्यंच के जिस भव में उत्पन्न हो वहाँ भी उच्चगोत्र न बाँधे, तब तक उक्त भंग संभव है। तेज और वायुकाय के जीव उच्चगोत्र की उद्वलना करते हैं, क्योंकि वे उसका बंध नहीं करते हैं। २. नीच का बंध, नीच का उदय, उच्च-नीच की सत्ता, अथवा ३. नीचगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, नीच-उच्च की सत्ता, अथवा ४. उच्चगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, उच्च-नीच की सत्ता, अथवा ५. उच्चगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १०६,११० २१६ सत्ता । यह क्रम संख्या दो से पाँच तक के चार भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में यथायोग्य रीति से अनेक जीवों की अपेक्षा होते हैं । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि देवगति में नीचगोत्र का तथा नरक, तिर्यंचगति में उच्चगोत्र का उदय नहीं होता है और मनुष्यगति में यथायोग्य रीति से दोनों का उदय होता है, किन्तु दोनों गोत्र का बंध तो चारों गति के जीवों के हो सकता है । उपर्युक्त पाँच भंगों में से पहले भंग को छोड़कर शेष चार भंग सासादन गुणस्थान में होते हैं । पहला भंग तेज और वायुकाय के जीवों में तथा उनके भव से निकलकर जिस तिर्यंचभव में उत्पन्न होकर जब तक न बाँधे तब तक कितनेक काल होता है। तेज और वायुकाय के जीवों के सासादनभाव नहीं होता है तथा तेज और वायुकाय में से निकलकर जहाँ उत्पन्न हुए हैं उसमें भी सासादनभाव नहीं होता है । इसीलिये सासादनगुणस्थान में पहले भंग का निषेध किया है । तीसरे मिश्रगुणस्थान से लेकर देशविरत गुणस्थान पर्यन्त उच्चगोत्र के बंध द्वारा होने वाले दो भंग होते हैं - १. उच्चगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च - नीचगोत्र की सत्ता, २. उच्चगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, उच्च - नीचगोत्र की सत्ता । प्रमत्तसंयतगुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान पर्यन्त उच्चगोत्र का बंध और उच्चगोत्र का उदय होने पर एक भंग इस प्रकार होता है— उच्चगोत्र का बंध, उच्चगोत्र का उदय, उच्च-नीचगोत्र की सत्ता । उच्चगोत्र का बंधविच्छेद होने के बाद उपशांतमोह गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान के द्विचरम समयपर्यन्त छठवाँ - उच्चगोत्र का उदय, उच्चनीचगोत्र की सत्ता यह एक ही भंग होता है तथा द्विचरम समय में नीचगोत्र की सत्ता का नाश होता है, जिससे अयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में 'उच्चगोत्र का उदय, उच्चगोत्र की सत्ता' रूप एक ही अन्तिम - सातवाँ भंग होता है । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पंचसंग्रह : १० किस गति वाले को कौन-कौन गुणस्थान होते हैं और किस गुणस्थान पर्यन्त किस गोत्र का बंध या उदय होता है, इसका विचार उस-उस गति में जो भंग घटित हो सकता हो, उसे स्वयं घटित कर लेना चाहिये। ___गोत्रकर्म के भंगों को गुणस्थानों में घटित करने के बाद अब मोहनीयकमं के बंध, उदय और सत्तास्थानों के संवेध का निरूपण करने के पूर्व तत्संबन्धित विशेष कथनीय का विवेचन करते हैं। गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के पदप्रमाण ओहम्मि मोहणीए बंधोदयसंतयाणि भणियाणि । अहुणाऽवोग्गडगुण उदयपयसमूह पवक्खामि ॥११॥ जा जंमि चउव्वीसा गुणियाओ ताउ तेण उदएणं । मिलिया चउवीसगुणा इयरपएहिं च पयसंखा ॥११२॥ सत्तसहस्सा सट्ठीए वज्जिया अहव ते तिवण्णाए। इगुतीसाए अहवा बंधगभेएण मोहणिए ॥११३॥ शब्दार्थ-ओहम्मि-सामान्य से, मोहणीए-मोहनीय कर्म के विषय में, बंधोदयसंतयाणि-बंध, उदय और सत्तास्थान, भणियाणि-कहे हैं, अहणा-अब, अवोग्गडगुणउदयपयसमूह-अव्याकृतोदय (सामान्य उदय) और गुणस्थानों के उदय के पद समूह को, पवक्खामिकहूंगा। ___ जा–जितनी, अंमि-जिसमें, चउग्वीसा-चोबीसी, गुणियाओ-गुणाकार करना, ताउ-उनका, तेण-उसके, उदएणं-उदय के साथ, मिलिया-जोड़ करना, चउवीसगुणा-चौबीस से गुणा करना, इयरपएहि-इतर पदों से, चऔर, पयसंखा-पद संख्या ।। सत्तसहस्सा-सात हजार, सट्ठीए-साठ से, वज्जिया-रहित, अहवअथवा, ते-वे, तिवण्णाए-त्रेपन, इगुतीसाए-उनतीस, अहवा–अथवा, बंधगभेएण-बंधकों के भेद से, मोहणिए-मोहनीय कर्म के । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १११,११२,११३ २२१ गाथार्थ – मोहनीयकर्म के संबन्ध में सामान्य प्ररूपणा करते समय गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता के स्थानों का विचार किया है। अतः यहाँ पुनः उनका विचार न करके अव्याकृतोदय (सामान्य उदय) और गुणस्थानों में उदय के पदसमूह कहूँगा । जिस गुणस्थान में जितनी चौबीसी होती हैं उनका उस गुणस्थान के साथ गुणा करके जोड़ना और फिर चौबीस से गुणा करके उसमें इतर पदों (नौवें गुणस्थान के पदों) को मिलाने पर पदों की कुल संख्या होती है । ( वह पद संख्या) बंधक जीवों के भेद से ( मोहनीय कर्म के) साठ रहित सात हजार, अथवा त्रेपन रहित सात हजार अथवा उनतीस रहित सात हजार होती है । विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में से प्रथम में मोहनीय कर्म के उदय के पदसमूह कहने की प्रतिज्ञा की है और शेष दो में पदसमूहों का वर्णन किया है । जो इस प्रकार है पूर्व में जब मोहनीय कर्म के संबन्ध में सामान्य वर्णन किया गया था, तब प्रसंगोपात्त गुणस्थानों में बंध, उदय और सत्ता के स्थानों का भी विचार किया जा चुका है । परन्तु वहाँ सामान्य उदय और गुणस्थानों के उदय के पदसमूह - पदप्रमाण' का संकेत नहीं किया था । जिसका यहाँ निर्देश करते हैं दस प्रकृतिक आदि जिन उदयस्थानों में जितनी संख्या वाली चौबीसी होती हों, जैसे कि मिथ्यादृष्टि के दस प्रकृतियों के उदय की १ पद यानी एक उदयस्थान की प्रकृतियां जैसे कि दस के उदय की एक चौबीसी यानी चौबीस भंग होते हैं - दस प्रकृतियों का उदय क्रोधादि के फेरफार से चौबीस प्रकार से होता है । चोबीसों भंगों में दस-दस प्रकृतियाँ होती हैं, जिससे दस को चौबीस से गुणा करने पर दो सौ चालीस पदअलग-अलग प्रकृतियां होती हैं । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ पंचसंग्रह : १० 1 एक, नौ के उदय की छह में से तीन मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में, एक सासादन में एक मिश्र और एक अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होती हैं । आठ के उदय की ग्यारह में से तीन मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में, दो सासादन में दो मिश्र में, तीन अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में और एक देशविरत गुणस्थान में होती हैं । सात के उदय की दस में से मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्रदृष्टि गुणस्थान में एक एक, अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तीन, देशविरत गुणस्थान में तीन और प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान में एक होती है। छह के उदय में सात में की एक अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में, तीन देशविरत, तीन प्रमत्त - अप्रमत्त मैं, अपूर्वकरण सम्बन्धी छह प्रकृतिक आदि उदयस्थान प्रमत्त - अप्रमत्त गुणस्थानों के उदयस्थान से भिन्न नहीं है । मात्र गुणस्थान के भेद से भिन्न हैं । परन्तु यहां गुणस्थान के भेद से भिन्न चौबीसी की विवक्षा नहीं करने से अपूर्वकरणगुणस्थान की चौबीसी अलग से नहीं गिनी है । पांच के उदय में चार में की एक देशविरत और तीन प्रमत्तअप्रमत्तसंयत गुणस्थान में होती है । चार के उदय की एक और वह प्रमत्त- अप्रमत्त संयत गुणस्थान में होती है । इसका अर्थ यह हुआ कि भिन्न-भिन्न गुणस्थानों में दस से चार तक के उदय की इस प्रकार चौबीसी होती हैं-१, ६, ११, १०, ७, ४, १ और इनका जोड़ करने पर चालीस चौबीसियां होती हैं । इनकी पदसंख्या प्राप्त करने का उपाय इस प्रकार है - जिस-जिस उदयस्थान की जितनी - जितनी चौबीसियां होती हैं, उतनी उतनी चौबीसियों को उस उस उदयस्थान के साथ गुणा करके उन सबका जोड़ किया जाये और फिर चौबीस से गुणा करना और उसके बाद उसमें नौवें गुणस्थान के पदों को मिलाया जाये तो कुल पद संख्या होती है । जैसे १ प्रमत्त - अप्रमत्त गुणस्थानों के स्वरूप का भेद नहीं होने से उन दोनों गुणस्थानों के सभी उदयस्थान एक सरीखे होने से एक स्वरूप वाने माने हैं । जिससे उन दोनों की चौबीसी अलग-अलग नहीं है । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १११,११२,११३ २२३ ..दस के उदय की एक चौबीसी होती है जिससे उसे दस से गुणा करने पर दस, नौ के उदय में छह चौबीसी होती हैं, अतः नौ को छह से गुणा करने पर चउवन, आठ के उदय में ग्यारह चौबीसी होती हैं इसलिये आठ को ग्यारह से गुणा करने पर अठासी, सात के उदय में दस चौबीसी होती हैं, अतएव सात को दस से गुणा करने पर सत्तर, छह के उदय में सात चौबीसी होती हैं, इसलिये छह को सात से गुणा करने पर बयालीस, पांच के उदय में चार चौबीसी होती हैं, इसलिये पांच को चार से गुणा करने पर बीस और चार के उदय में एक चौबीसी होती है, अतः चार को एक से गुणा कर करने पर चार हुए। इनकी स्थापना इस प्रकार होगी १०, ५४, ८८, ७०, ४२, २०, ४ । इन सबका जोड़ दो सौ अठासी होता है। अब इनको चौबीस से गुणा करने पर उनहत्तर सौ बारह (६६१२) होते हैं। उनमें नौवें गुणस्थान के जो दो के उदय में भंग बारह और पद चौबीस तथा वेद का उदय न रहने पर एक के उदय में चार भंग हैं, और उसमें पद भी चार ही होते हैं। इस प्रकार कुल अट्ठाईस पद होते हैं। इनको पूर्व की संख्या में मिलाने पर कुल उनहत्तर सौ चालीस पद होते हैं। यहां दसवें गुणस्थान में एक के उदय का जो एक भंग होता है, वह एक के उदय में होने वाले चार भंग में समाविष्ट है अथवा बंधस्थान के भेद से उदयस्थान का भेद मानें तो पाँच के बंध, दो के उदय में चौबीस पद, चार के बंध, एक उदय में चार पद, तीन के बंध एक के उदय में तीन पद, दो के बंध एक के उदय में दो पद, एक के बंध, एक के उदय में एक पद और बंधविच्छेद होने के बाद दसवें गुणस्थान में एक के उदय का एक पद ये सब मिलकर पैंतीस पद होते हैं। उनको पूर्व की संख्या (६६१२) में मिलाने पर उनहत्तर सौ सैंतालीस पद होते हैं। अथवा मतान्तर से चार के बंध, दो के उदय में बारह भंग होते Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ पंचसंग्रह : १० हैं । उनके पद चौबीस होते हैं । इन अधिक चौबीस पदों को उनहत्तर सौ सैंतालीस में मिलाने पर उनहत्तर सौ इकहत्तर (६६७१) पर होते हैं । कितने ही आचार्य वेद के बंध और उदय का साथ ही विच्छेद मानते हैं । उनके मत से पांच के बंध, दो के उदय में चौबीस पद होते हैं और पुरुषवेद के बंध उदय का साथ ही क्षय होने के बाद चार आदि के बंध में एक के उदय में चार आदि पद होते हैं । कितनेक आचार्य पुरुषवेद का बंधविच्छेद होने के बाद भी अत्यल्प समय के लिये उसका उदय मानते हैं । उनके मत से पांच के बंध, दो के उदय में चौबीस पद और चार के बंध दो के उदय में भी चौबीस पद होते हैं । पश्चात् वेद का उदय उपरत होने के बाद चार के बंध में एक के उदय में चार आदि पद तो ऊपर कहे अनुसार ही होते हैं । मतान्तर से इस तरह होने वाले चौबीस पदों को मिलाने से उनहत्तर सौ इकहत्तर पद होते हैं । उक्त कथन का सारांश यह है कि बंधक जीवों के भेद से सामान्यतः मोहनीय कर्म की उनहत्तर सौ चालीस (६६४० ), उनहत्तर सौ सैंतालीस ( ६९४७ ) और उनहत्तर सौ इकहत्तर (६६७१) पद संख्या होती हैं। इस प्रकार सामान्यतः मोहनीयकर्म के उदयस्थानों को पदसंख्या का निरूपण करने के बाद अब गुणस्थानों की अपेक्षा गुणस्थान के भेद से उदय पद की संख्या का निरूपण करते हैं । गुणस्थानापेक्षा मोहनीयकर्म की उदयपद संख्या अट्टी बत्तीसा बत्तीसा सहिमेव बावन्ना । पयधुवगा ||११४ ॥ चउयाला चउयाला वीसा मिच्छाउ तिष्णिसया बावण्णा मिलिया चउवीसताडिया एए । बायरउदयपएहि सहिया उ गुणेसु पयसंखा ॥११५॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११४,११५, ११६ २२५ तेवीसूणा सत्तरस वज्जिया अहव सत्तअहियाइं । पंचासीइसयाई उदयपयाइं तु शब्दार्थ - अट्ठट्ठी- अड़सठ, बत्तीसा - बत्तीस, बत्तीसा - बत्तीस, स-साठ, एव – ओर, बावन्ना – बावन, चउयाला - चवालीस, चडयालाचवालीस, बीसा - बीस, मिच्छाउ – मिथ्यात्व आदि गुणस्थानों में, पयधुवगा - ध्रुवपद । मोहस्स ॥ ११६ ॥ तिष्णिसया बावण्णा - तीन सौ बावन, मिलिया - जोड़ने पर, चउवीसताडिया - चौबीस से गुणा करने पर, एए— ये, बायरउदयपएहि - बादरसंपरायगुणस्थान के उदयपदों, सहिया–सहित, उ ओर, गुणेसु – गुणस्थानों में, पयसंखा - पद संख्या । तेवीसूणा - तेईस कम, सत्तरसवज्जिया - सत्रह रहित, अहव — अथवा, सत्तअहियाइं - सात अधिक, पंचासीइसयाई--पचासी सो, उदयपयाइं - उदयपद, तु — और, मोहस्स — मोहनीय कर्म के । - गाथार्थ - अड़सठ, बत्तीस, बत्तीस, साठ, बावन, चवालीस, चवालीस, एवं बीस अनुक्रम से मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में ध्रुवपद होते हैं । इनका जोड़ करने पर ये तीन सौ बावन होते हैं और उन्हें चौबीस से गुणा कर बादरसंप रायगुणस्थान के उदयपद मिलाने पर गुणस्थानों की पद संख्या होती है । तेईस न्यून पचासी सौ अथवा सत्रह रहित पचासी सौ अथवा सात अधिक पचासी सौ मोहनीय कर्म के उदयपद होते हैं । विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में प्रत्येक गुणस्थान का अपेक्षा मोहनीय कर्म के उदयपद बताकर कुल उदयपदों की संख्या बतलाई है । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है 'अट्ठट्ठी बत्तीसा ..इत्यादि अर्थात् गाथोक्त संख्या को अनुक्रम से मिथ्यात्वादि गुणस्थानों के साथ योजित करने पर उस-उस Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ पंचसंग्रह : १० गुणस्थान के उतने-उतने ध्रुव पद होते हैं। जैसे कि मिथ्यात्व-गुणस्थान में अड़सठ ध्रवपद हैं। वे इस प्रकार जानना चाहिए कि दस के उदय में एक चौबीसी होती है । जिससे एक का दस के साथ गुणा करने पर दस हुए। इसी प्रकार नौ के उदय में तीन चौबीसी होती हैं । अतएव तीन का नौ से गुणा करने पर सत्ताईस, आठ के उदय में तीन चौबीसी होती है, इसलिये तीन को आठ से गुणा करने पर चौबीस, सात के उदय में एक चौबीसी होती है, इसलिये एक को सात से गुणा करने पर सात और इन सबका जोड़ करने पर (१०+ २७-२४+७=६८) अड़सठ ध्रुवपद होते हैं। इसी तरह सासादन में बत्तीस, मिश्र में बत्तीस, अविरत-सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साठ, देशविरत में बावन, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस, अप्रमत्त में भी चवालीस और अपूर्वकरण गुणस्थान में बीस ध्रुवपद होते हैं। ___इस प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक के कुल मिलाकर तीन सौ बावन ध्रवपद होते हैं और उनको चौबीस से गुणा करने पर चौरासी सौ अड़तालीस (८४४८) पद होते हैं। उनमें पूर्व में कहे अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के अट्ठाईस और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का एक इस तरह उनतीस उदयपदों को मिलाने पर कुल पद संख्या तेईस न्यून पचासी सौ अर्थात् चौरासी सौ सतहत्तर (८४७७) होती है। अथवा बंधस्थान के भेद से उदयस्थान का भेद मानने पर पांच के बंध में चौबीस पद, चार के बंध में चार, तीन के बंध में तीन, दो के बंध में दो, एक के बंध में एक और अबंध में सूक्ष्मसंपराय संबन्धी एक, ये सब मिलाकर पैंतीस होते हैं । इनको पूर्वोक्त राशि में जोड़ने पर चौरासी सौ तेरासी (८४८३) होते हैं । अथवा मतान्तर से चार के बंध में भी दो के उदय के भंग बारह और उनके पद चौबीस होते १.. वपद-वानि जिनके साथ बीबीस का गुणा करना हो । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११७ हैं । अतः उस संख्या को और मिलायें तो पचासी सौ (८५०७ ) होते हैं । २२७ सात 1 गुणस्थान के भेद से कुल पदों की संख्या उपर्युक्तानुसार होती है । सामान्य पद की संख्या में गुणस्थानपरक होने वाला भेद नहीं गिना है । जैसे कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस और अप्रमत्तसंयत के चवालीस । यद्यपि गुणस्थान के भेद से भिन्न होते हैं, परन्तु जब सामान्य उदयपद कहे जाते हैं तब दोनों में उदयपदों की समान संख्या होने से भेद नहीं माना जाता है । परन्तु गुणस्थान के भेद से तो संख्या अलग-अलग है । अतः यहाँ अलग-अलग संख्या बताई है । गिनने की रीति पूर्ववत् जानना चाहिये तथा नौवें गुणस्थान के पदों को भी यहाँ ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार से गुणस्थानापेक्षा प्रत्येक गुणस्थान के उदयपदों की संख्या जानना चाहिये। अब गुणस्थानों में योगादि द्वारा होने वाली पद संख्या का निरूपण प्रारंभ करते हैं । जिसकी प्रतिज्ञा रूप गाथा इस प्रकार है एवं जोगुवओगालसाईभेयओ बहूभेया । जा जस्स जमि उ गुणे संखा सा तंमि गुणगारो ॥ ११७ ॥ शब्दार्थ - एवं इसी प्रकार, जोगुवओगालेसाईभेयओ - योग, उपयोग, श्या आदि के भेद से, बहूभेया - बहुत से भेद, जा—जो, जस्स – जिसकी, जंमि - जिसमें, उ-- और, गुणे - गुणस्थान में, संखा - संख्या, सा- वह, तंमि-- उसमें, गुणगारो - गुणाकार करना चाहिये । 1 गाथार्थ - इसी प्रकार योग, उपयोग और लेश्यादि, के भेद से मोहनीय कर्म के भंग और पदों के बहुत से भेद होते हैं । जिस गुणस्थान में जिसकी (योगादि की ) जो संख्या हो उस संख्या के साथ गुणस्थान के भंगों और पदसंख्या को गुणा करने पर जो लब्ध हो उतनी मोहनीय कर्म के पदों की संख्या जानना चाहिये । विशेषार्थ -- पूर्वोक्त गाथानुसार उदयभंगों और उदयपदों के Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ पंचसंग्रह : १० योग - उपयोग और लेश्या के भेद से बहुत से भेद हैं । जिनको प्राप्त करने का उपाय इस प्रकार है जिस किसी भी गुणस्थान में योगादि की जितनी संख्या हो, उस संख्या के साथ उस-उस गुणस्थान में होने वाले भंगों और पदों का गुणा करने से उस उस गुणस्थान के योग आदि के भेद से होने वाले भंगों और पदों की संख्या प्राप्त होती है । अब इस सूत्र के अनुसार योगादि के भेद से मोहनीय कर्म के भंगों को बतलाते हैं । उसमें भी सुगम होने के कारण पहले उपयोग की अपेक्षा वर्णन करते हैं । उपयोगापेक्षा मोहनीय कर्म के उदयभंग उदयाणुवयोगेसु सगसयरिसया तिउत्तरा होंति । पण्णासपय सहस्सा तिष्णिसया चेव पण्णरसा ॥ ११८ ॥ शब्दार्थ - उदयाणुवयोगेसु — उपयोग के भेद से होने वाले उदयभंग, सगसयरिसया तिउत्तरा - सत्तहत्तर सौ तीन, होंति — होते हैं, पण्णासपयसहस्सा- - पचास हजार पद, तिष्णिसया - तीन सौ चैव-ओर इसी प्रकार, पण्णरसा - पन्द्रह | गाथार्थ - उपयोग के भेद से होने वाले उदयभंग सतहत्तर सौ तीन होते हैं और इसी प्रकार उदय पद पचास हजार तीन सौ पन्द्रह हैं । विशेषार्थ - गाथा में योग के संबन्ध में बहुत कहने योग्य होने से उसको छोड़कर पहने उपयोग के भेद से होने वाले मोहनीय कर्म के उदयभंगों का विचार किया है मिथ्यात्व गुणस्थान में आठ चोबीसी हैं । सासादन में चार, मिश्र में चार, अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आठ देशविरत गुणस्थान में आठ, प्रमत्तसंयत में आठ, अप्रमत्तसंयत में आठ और अपूर्वकरण गुणस्थान में चार चौबीसी होती हैं। कुल मिलाकर ये चौबीसीबावन हैं । तथा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११८ मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये छह उपयोग और प्रमत्त-संयत से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक पूर्वोक्त छह में मनपर्याय ज्ञान को मिलाने पर सात उपयोग होते हैं। इस प्रकार जिस गुणस्थान में जितनी चौबीसी होती हैं । उनको उस गुणस्थान में जितने उपयोग हों, उनके साथ गुणा करके फिर उन्हें चौबीस से गुणा करना और उसमें नौवें दसवें गुणस्थान की भंग संख्या को मिलाने पर उपयोग से होने वाली समस्त भंग संख्या का प्रमाण प्राप्त होता है । जैसे कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आठ चौबीसी होती हैं, सासादन में चार और मिश्र में चार चौबीसी होती हैं । इनका कुल जोड़ सोलह है । उन तीनों गुणस्थानों में पांच-पांच उपयोग होने से पांच से गुणा करने पर अस्सी चौबीसी होती है और उन अस्सी चौबीसियों को चौबीस से गुणा करने पर (८०x२४ = १९२०) उन्नीस सौ बीस भंग होते हैं । ___ यदि पृथक्-पृथक् गुणस्थान में गुणा करना हो तो मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में आठ चौबीसी होती हैं और पांच उपयोग होते हैं। जिससे आठ को पांच से गुणा करने पर चालीस चौबीसी हुईं। इसी प्रकार सासादन में चार चौबीसी हैं, उनको पांच उपयोग से गुणा करने पर बीस चौबीसी होती हैं । मिश्र में भी चार चौबीसी हैं। उनको भी पांच से गुणा करने पर बीस चौबीसी हुई और उनका कुल जोड़ (४०+२०+२०=८०) अस्सी हुआ और उनके भंग जानने के लिये अस्सी को चौबीस से गुणा करने पर उन्नीस सौ बीस भंग हुए। इसी प्रकार प्रत्येक गुणस्थान के लिये भी समझना चाहिये। अविरत-सम्यग्दृष्टिगुणस्थान में आठ चौबीसी हैं और देशविरतगुणस्थान में भी आठ चौबीसी हैं । उनको उन गुणस्थानों में संभव Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० पंचसंग्रह : १० छह उपयोगों के साथ गुणा करने पर छियानवे चौबीसी होती हैं और उनको चौवीस से गुणा करने पर तेईस सौ चार भंग होते हैं । प्रमत्त गुणस्थान में आठ, अप्रमत्त गुणस्थान में आठ और अपूर्वकरण गुणस्थान में चार चौबीसी होती है । कुल बीस चौबीसी हुईं । उनको इन गुणस्थानों में संभव सात उपयोग से गुणा करने पर एक सौ चालीस चौबीसियाँ हुई और इनको चौबीस से गुणा करने पर तेतीस सौ साठ भंग होते हैं । इस प्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक की १९२०+२३०४ -- ३३६० इन तीन संख्याओं का जोड़ करने पर उदयभंगों की कुल संख्या (७५८४) पचहत्तर सौ चौरासी है तथा नौवें गुणस्थान के दो के उदय में बारह और एक के उदय के पांच, कुल सत्रह भंग होते हैं । उनको उस गुणस्थान में संभव सात उपयोगों से गुणा करने पर एक सौ उन्नीस भंग होते हैं । इस संख्या को पूर्व राशि में मिलाने पर उपयोग द्वारा कुल भंग संख्या सत्तहत्तर सौ तीन (७७०३) होती है । इस प्रकार उपयोग द्वारा संभव भंग संख्या को बतलाने के बाद अब उपयोग के भेद से होने वाली उदयपद की संख्या बतलाते हैं मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अड़सठ ध्रुवपद हैं । सासादन में बत्तीस, मिश्र में बत्तीस, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साठ देशविरत में बावन, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस और अपूर्वकरण गुणस्थान में बीस ध्रुवपद हैं । इन प्रत्येक गुणस्थान के ध्रुवपदों को उस उस गुणस्थान में संभव उपयोगों के साथ गुणा करने पर उदयपद की संख्या प्राप्त होती है । जैसे कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अड़सठ, सासादन में बत्तीस, और मिश्र में बत्तीस ध्रुवपद हैं। इनको उन उन गुणस्थानों में संभव पांच उपयोगों से गुणा करने पर छह सौ साठ पद होते हैं । १, इन पांच में सूक्ष्म संयगुणस्थान का एक भंग भी गर्भित है । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६ २३१ अविरतसम्यग्दृष्टि के साठ और देशविरत के बावन कुल एक सौ बारह पद होते हैं । इनको उन गुणस्थान सम्बन्धी छह उपयोगों से गुणा करने पर (११२x६ = ६७२) छह सौ बहत्तर ध्रुवपद चौबीसी होती हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस, अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में चवालीस और अपूर्वकरण में बीस, कुल एक सौ आठ ध्रुवपद होते हैं । इनको उन गुणस्थानों में सम्भव सात उपयोगों से गुणा करने पर सात सौ छप्पन ध्रुवपद चौबीसी होती हैं । इन सब ध्रुवपद की चौबीसियों का कुल जोड़ दो हजार अठासी है । इस संख्या को चौबीस से गुणा करने पर आठवें गुणस्थान तक के पचास हजार एक सौ बारह उदयपद होते हैं तथा दो के उदय से होने वाले चौबीस पद और एक के उदय से होने वाले पाँच पद, कुल उनतीस होते हैं । उनको नौवें, दसवें गुणस्थान में संभव सात उपयोगों से गुणा करने पर दो सौ तीन होते हैं। इनको पूर्व राशि में मिलाने पर उपयोग के भेद से होने वाले उदयपदों की कुल संख्या पचास हजार तीन सौ पन्द्रह होती है । इस प्रकार उपयोग भेद की अपेक्षा उदयभंग और उदयपदों को जानना चाहिये | अब लेश्या से गुणा करने पर होने वाले उदयभंग और उदयपदों का विचार करते हैं । लेश्यापेक्षा उदयभंग और उदयपद तिगहीणा तेवन्नसया उ उदयाण होंति लेसाणं । अडतीससहस्साइं पयाण सय दो य सगतीसा ॥ ११६ ॥ शब्दार्थ - तिगहोणा—तीन न्यून, तेवन्नसया - त्रपन सो, उ- और, उदयाण - उदयभंग, होंति होती है, साणं- लेश्याओं के, अडतीस सहस्सा इंअड़तीस हजार, पयाण - उदयपद, सब वो-दो सौ, य― और, सगतीसासैंतीस । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ पंचसंग्रह : १० गाथार्थ-लेश्या के भेद से मोहनीय कर्म के उदयभंग तीन कम त्रेपन सौ (५२६७) और उदयपद अड़तीस हजार दो सौ सैंतीस (३८२३७) होते हैं। विशेषार्थ--गाथा में लेश्याभेद से मोहनीय कर्म के उदयभंगों और उदयपदों की समस्त संख्या बतलाई हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रेकार है मिथ्यादृष्टिगुणस्थान से अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान पर्यन्त प्रत्येक गुणस्थान में कृष्णादि छह-छह लेश्यायें तथा देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तेज, पद्म और शुक्ल ये तीनतीन शुभ लेश्यायें होती हैं । क्योंकि कृष्णादि अशुभ लेश्याओं के होने पर देशविरतादि गुणों की प्राप्ति नहीं होती है तथा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय इन तीन गुणस्थानों में मात्र एक शुक्ललेश्या ही होती है । अतएव-- जिस-जिस गुणस्थान में जितनी लेश्यायें होती हैं उनके साथ उसउस गुणस्थान में उदयभंगों और उदयपदों का गुणाकार करने पर लेश्या के भेद से होने वाले उदयभंगों और उदयपदों की संख्या प्राप्त होती है। जैसे कि मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में उदयभंग की संख्या एक सौ बानवै है। क्योंकि यहां आठ चौबीसी हैं और उनको चौबीस से गुणा करने पर एक सौ बानवं गुणनफल होता है तथा इस गुणस्थान में लेश्या छह हैं। इसलिये एक सौ बानव को छह से गुणा करने पर (१६२४६=११५२) ग्यारह सौ बावन होते हैं । जो मिथ्यात्वगुणस्थान में लेश्या द्वारा होने वाले उदयभंगों की संख्या होती है। इसी प्रकार अन्य गुणस्थानों के उदयभंगों एवं उदयपदों की संख्या भी जान लेना चाहिये। जिसको जानने की विधि यह है मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में आठ चौबीसी हैं। सासादन में चार, मिश्र में चर और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आठ चौबीसी हैं । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११६ २३३ वे सब मिलकर चौबीस चौबीसी होती हैं । उनको छह लेश्याओं से गुणा करने पर एक सौ चवालीस हुए और देशविरत में आठ, प्रमत्तसंयत में आठ और अप्रमत्तसंयत में आठ चौबीसी हैं। इनका कुल योग चौबीस चौबीसी हुआ । इनको तीन लेश्याओं से गुणा करने पर बहत्तर चौबीसी हुईं। अपूर्वकरण गुणस्थान में चार चौबीसी हैं । परन्तु यहाँ लेश्या एक ही होने से एक से गुणा करने पर चार चौबीसी ही होती हैं । इस प्रकार पहले मिथ्यात्वगुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त सब मिलाकर दो सौ बीस चौबीसी हुई । इनको चौबीस से गुणा करने पर बावन सौ अस्सी भंग हुए। उनमें द्विकोदय के बारह और एकोदय के पांच, कुल सत्रह भंगों को जोड़ने पर बावन सौ सत्तानवे (५२६७) उदयभंग होते हैं । ये सब लेश्या के भेद से गुणस्थानों में संभव मोहनीयकर्म के उदयभंग जानना चाहिये । अब लेश्या के भेद से होने वाले उदयपदों का कथन करते हैं मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अड़सठ ध्रुवपद, सासादान में बत्तीस, मिश्र में बत्तीस और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साठ ध्रुवपद हैं । इन सबका जोड़ एक सौ बानव होता है । इन एक सौ बानवे को छह लेश्या से गुणा करने पर ग्यारह सौ बावन गुणनफल होता है । देशविरत में बावन, प्रमत्त में चवालीस, अप्रमत्त में चवालीस ध्रुवपद हैं। जो मिलकर एक सौ चालीस होते हैं । इनको तीन लेश्या के साथ गुणा करने पर चार सौ बीस होते हैं । अपूर्वकरण में बीस ध्रुवपद हैं। यहां एक ही लेश्या होने से एक से गुणा करने पर बीस ही होते हैं । सब मिलाकर पन्द्रह सौ बानवै ध्रुवपद चौबीसी होती हैं । उनको चौबीस से गुणा करने पर अड़तीस हजार दो सौ आठ पद होते हैं । उनमें नौवें, दसवें गुणस्थान के पूर्व में कहे द्विकोदय और एकोदय के उनतीस पदों को जोड़ने पर कुल मिलाकर अड़तीस हजार Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ पंचसंग्रह : १० दो सौ सैंतीस लेश्या के भेद से मोहनीय कर्म के पदों की संख्या होती इस प्रकार लेश्या के भेद से मोहनीय कर्म के उदयभंग और उदयपदों की संख्या जानना चाहिये । अब योग द्वारा होने वाले मोहनीय उदय के भंग और उदयपदों का विचार करते हैं। योग द्वारा संभव उदयभंग और उदयपद चोद्दसउ सहस्साई सयं च गुणहत्तरं उदयमाणं । . सत्तरसा सत्तसया पणनउइ सहस्स पयसंखा ॥१२०॥ शब्दार्थ-चोइसउ सहस्साई-चौदह हजार, सयं-सो, च-और, गुणहत्तर--उनहत्तर, उदयमाणं-उदयभंग, सत्तरसा-सत्रह, सत्तसयासात सो, पणनउइ-पंचानवे, सहस्स-हजार, पयसंखा-पद संख्या । ___ गाथार्थ-चौदह हजार एक सौ उनहत्तर योग गुणित उदयभंग होते हैं और पंचानवै हजार सात सौ सत्रह पदसंख्या है। विशेषार्थ-गाथा में गुणस्थानों में योग से गुणित मोहनीयकर्म के सभी उदयभंगों एवं पदों का प्रमाण बतलाया है कि वे अनुक्रम से चौदह हजार एक सौ उनहत्तर और पंचानवै हजार सात सौ सत्रह होते हैं। विस्तार से जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में आठ चौबीसी होती हैं और आहारकद्विक न्यून तेरह योग होते हैं । अतएव तेरह योगों से आठ को गुणा करने पर एक सौ चार होते हैं। सासादनगुणस्थान में चार चौबीसी होती हैं । यहाँ भी पूर्वोक्त तेरह योग होते हैं। अतएव तेरह को चार से गुणा करने पर बावन होते हैं। मिश्रगुणस्थान में भी चार चौबीसी होती हैं। परन्तु मिश्र गुणस्थानवी जीव काल नहीं करने से यहाँ अपर्याप्तावस्था भावीवैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग भी नहीं होते हैं। इसलिये पूर्वोक्त आहारकद्विक और वैक्रियमिश्र आदि तीन योगों सहित पांच Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२० २३५ योगों को कम करने पर दस योग ही होते हैं । इसलिये दस के साथ चार को गुणा करने पर चालीस होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में आठ चौबीसी होती हैं। इस गुणस्थान में मरण संभव होने से अपर्याप्तावस्थाभावी पूर्वोक्त तीन योग होते हैं । अतएव यहां तेरह योग संभव होने से तेरह के साथ आठ का गुणा करने पर एक सौ चार होते हैं । देशविरतगुणस्थान में आठ चौबीसी होती हैं । अपर्याप्तावस्था में देशविरत गुणस्थान संभव नहीं होने से यहां औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग यह दो योग एवं आहारकद्विक योग भी नहीं होते हैं, कुल ग्यारह योग होते हैं । इन ग्यारह योगों को आठ से गुणा करने पर अठासी होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारकद्विक योग होने से तेरह योग होते हैं । यहाँ आठ चौबीसी होती हैं । इसलिये तेरह को आठ से गुणा करने पर एक सौ चार होते हैं । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारकमिश्र और वैक्रियमिश्र योग नहीं होते हैं एवं अपर्याप्तावस्था भावीऔदारिक मिश्र तथा कार्मण काययोग भी नहीं होने से ग्यारह योग होते हैं । यहाँ चौबीसी आठ होती हैं । जिससे ग्यारह को आठ से गुणा करने पर अठासी होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में चार चौबीसी हैं । यहां मनोयोग चार, वचनयोग चार और औदारिक काययोग कुल नौ योग होते हैं । अतएव को चार से गुणा करने पर छत्तीस होते हैं । उपर्युक्त सब मिलाकर छह सौ सोलह चौबीसी होती है । उनको चौबीस से गुणा करने पर चौदह हजार सात सौ चौरासी तथा द्विकोदय और एकोदय के सत्रह भंग होते हैं। नौवें और दसवें गुणस्थान में योग नौ होते हैं । इसलिये सत्रह के साथ नौ का गुणा करने पर एक सौ त्र ेपन होते हैं । उनको पूर्व राशि में मिलाने पर चौदह हजार नौ सौ सैंतीस उदयभंग होते हैं । I Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ पंचसंग्रह : १० इन उदय भंगों में से जो भंग संभव नहीं हैं उन भंगों को कम करना चाहिये । अतएव अब जो भंग संभव नहीं हैं और वे संभव क्यों नहीं है, इसको स्पष्ट करते हैं-. वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कामणकाययोग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधि के उदय बिना की सात के उदय की एक, आठ के उदय की दो और नौ के उदय की एक इस प्रकार चार चौबीसी नहीं होती हैं । इसका कारण यह है जो आत्मा पहले क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होने पर अनन्तानुबंधि की विसंयोजना कर कालान्तर में परिणामों के परावर्तन द्वारा सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में आकर मिथ्यात्व रूप हेतु के द्वारा अनन्तानुबंधि का बंध प्रारम्भ करे, ऐसे मिथ्यादृष्टि जीव को एक आवलिका काल पर्यन्त अनन्तानुबंधि का उदय नहीं होता है। इसके सिवाय सम्यक्त्व से गिरकर आने वाले जीव के अनन्तानुबंधि का उदय अवश्य होता है । अनन्तानुबंधि की विसंयोजना करने के बाद सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में आने वाले का जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त आयु अवशेष होता है, जिससे उसी भव में वर्तमान वह जीव मिथ्यात्व रूप हेतु द्वारा अनन्तानुबंधि को बांधता है और बंधावलिका के जाने के बाद उसका वेदन भी करता है। जिससे विग्रहगति में रहते और भवान्तर में उत्पन्न होते मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधि का उदय अवश्य होता है। इसलिये उसके उदय बिना के उदय के विकल्प कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रियमिश्र में नहीं होते हैं। क्योंकि कार्मणयोग विग्रह गति में और उत्पत्ति के प्रथम समय में होता है और औदारिकमिश्र तथा वैक्रियमिश्र भवान्तर में उत्पन्न होते जीव को उत्पत्ति के दूसरे समय से अपर्याप्तावस्था में होता है। जिससे कार्मणकाययोग में सात के उदय की एक, आठ के उदय की दो और नौ के उदय की एक, इस प्रकार कुल चार तथा इसी तरह औदारिकमिश्र की चार और वैक्रियमिश्र की चार कुल बारह चौबीसी नहीं होती हैं। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२० यहाँ जो वैक्रियमिश्रकाययोग भवान्तर में उत्पन्न होने पर कहा है, वह बहुलता की अपेक्षा है। क्योंकि प्रत्येक देव और नारक को अपर्याप्तावस्था में वैक्रियमिश्रयोग होता है। यदि ऐसा न हो तो वैक्रियशरीर करते पर्याप्त मनुष्यों, तिर्यंचों के भी वैक्रियमित्र होता है। परन्तु सप्ततिका चूर्णिकार ने उसकी विवक्षा नहीं की है। उक्त बारह चौबीसी को चौबीस से गुणा करने पर दो सौ अठासी भंग होते हैं। इतने भंग मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में असम्भव हैं, नहीं होते हैं। वैक्रियमिश्रकाययोग में वर्तमान सासादन सम्यग्दृष्टि को नपुसकवेद का उदय नहीं होता है। क्योंकि वैक्रियमिश्र देव और नारकों के होता है । सासादन गुणस्थान लेकर देव में ही उत्पन्न होता है, नारक में उत्पन्न नहीं होता है और देव पुरुष और स्त्रीवेदी होते हैं, परन्तु नपुसकवदी नहीं होते हैं । इसलिये सासादन गुणस्थान में होती चार चौबीसियों के छियानवै भंग में से नपुसकवेद के उदय वाले बत्तीस भंग नहीं होते हैं । तथा कार्मणकाययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग में अविरतसम्यग्दृष्टि को स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। क्योंकि कार्मणकाययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग वाले स्त्रीवेद में अविरतसम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते हैं । सम्यक्त्वयुक्त मनुष्य और तिर्यंच को नरक में जाने पर मात्र नपुसकवेद का उदय होता है और देव में जाने पर पुरुषवेद का ही उदय होता है, परन्तु स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। जिससे अविरतसम्यग्दृष्टि को स्त्रीवेद में कार्मणकाययोग और वैक्रियमिश्रयोग नहीं होता है। __ यह कथन बहुलता की अपेक्षा समझना चाहिये। क्योंकि किसी समय स्त्रीवेदी में भी अविरतसम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति होती है। सप्ततिकाचूर्णि में कहा है किसी समय स्त्रीवेदी में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान वाले की उत्पत्ति भी होती है। परन्तु अनेक जीवों की Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ पंचसंग्रह : १० अपेक्षा जो संभव है उसका निर्देश यहाँ किया है। अतएव आठ चौबीसी के एक सौ बानवे भंगों में से स्त्रीवेद के उदय से होने वाले चौसठ भंग कार्मण काययोग में और चौंसठ वैक्रियमिश्रकाययोग में नहीं होते हैं और दोनों को मिलाकर एक सौ अट्ठाईस भंग नहीं होते हैं। औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि को एक पुरुषवेद ही होता है। स्त्रीवेद या नपुसकवेद नहीं होता है । क्योंकि सम्यक्त्वयुक्त जीव तिर्यंच या मनुष्य में उत्पन्न हो तो पुरुषवेदी में ही उत्पन्न होता है, स्त्री वेदी और नपुसकवेदी में उत्पन्न नहीं होता है। जिससे आठ चौबीसी के एक सौ बानव भंग में से स्त्रीवेद और नपुसकवेद के उदय से होने वाले एक सौ अट्ठाईस भंग औदारिकमिश्रकाययोग में नहीं होते हैं। यह कथन भी बहुलता की अपेक्षा समझना चाहिये। क्योंकि मल्लिनाथ और राजिमती जैसे अविरत सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के साथ स्त्रीवेदी में भी उत्पन्न होते हैं। परन्तु वैसी संख्या अल्प होने से यहाँ उसकी विवक्षा नहीं की है। इस प्रकार सब मिलाकर दो सौ छप्पन भंग अविरतसम्यग्दृष्टि में सम्भव नहीं है। प्रमत्तसंयत के आहारक और आहारकमिश्रकाययोग में स्त्रीवेद नहीं होता है। आहारकशरीर चौदह पूर्वधारी को ही होता है और स्त्रियों को चौदह पूर्व का अध्ययन सम्भव नहीं है । इसलिये प्रमत्तसंयत गुणस्थान की आठ चौबीसी के एक सौ बानवै भंगों में से स्त्रीवेद के उदय में होने वाले चौंसठ भंग आहारककाययोग के और चौंसठ भंग आहारकमिश्रकाययोग के कुल एक सौ अट्ठाईस भंग नहीं होते हैं तथा अप्रमत्तसंयत को भी पूर्वोक्त युक्ति के अनुसार आहारककाययोग में स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। इसलिये अप्रमत्तसंयत की आठ चौबीसी के एक सौ बानवै भंगों में से स्त्रीवेद के उदय में होने वाले चौंसठ भंग आहारककाययोग में नहीं होते हैं। अप्रमत्त Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२० २३६ संयत को आहारककाययोग ही होता है, आहारकमिश्रकाययोग नहीं होता है । इसलिये चौंसठ भंगों का निषेध किया है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न गुणस्थानों में अमुक-अमुक योग में नहीं होने वाले भंगों का जोड़ सात सौ अड़सठ हैं । इतने भंग पूर्व के चौदह हजार नौ सौ सैंतीस भंगों में से कम करने पर चौदह हजार एक सौ उनहत्तर भंग होते हैं । इस प्रकार से योगापेक्षा मोहनीयकर्म के गुणस्थानों में उदयभंग जानना चाहिये | अब योगगुणित पद संख्या का विचार करते हैं मिथ्यादृष्टि के अड़सठ ध्रुवपद हैं। जिनको तेरह योगों से गुणा करने पर आठ सौ चौरासी होते हैं । सासादन गुणस्थान में बत्तीस ध्रुवपद हैं । उनको भी तेरह योग से गुणा करने पर चार सौ सोलह होते हैं । मिश्रगुणस्थान में भी बत्तीस ध्रुवपद हैं। उनको दस योगों से गुणा करने पर तीन सौ बीस होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में साठ ध्रुवपद हैं । उनको तेरह से गुणा करने पर सात सौ अस्सी होते हैं । देशविरतगुणस्थान में बावन ध्रुवपद हैं। जिनको ग्यारह योगों से गुणा करने पर पाँच सौ बहत्तर होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में चवालीस ध्रुवपद हैं। जिनको तेरह योगों से गुणा करने पर पाँच सौ बहत्तर होते हैं । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में भी चवालीस ध्रुवपद हैं। जिनको ग्यारह योगों से गुणा करने पर चार सौ चौरासी होते हैं । अपूर्वकरणगुणस्थान में बीस ध्रुवपद हैं । उनको नौ योगों से गुणा करने पर एक सौ अस्सी होते हैं । उक्त सब मिलाकर बयालीस सौ आठ होते हैं और इनको चौबीस से गुणा करने पर एक लाख नौ सौ बानवे होते हैं तथा दो के उदय Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० पंचसंग्रह : १० के चौबीस पद और एक के उदय के पाँच पद कुल उनतीस पद नौवें, दसवें गुणस्थान के होते हैं। वहाँ नौ योग होने से नौ से गुणा करने पर दो सौ इकसठ होते हैं। जिन्हें पूर्व की राशि में मिलाने पर एक लाख एक हजार दो सौ त्रेपन (१०१२५३) होते हैं। इस राशि में से असम्भव पदों को कम करना चाहिये। अतएव अब उन असम्भव पदों का संकेत करते हैं कि मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधि के उदय बिना के सात के उदय में एक चौबीसी के ध्रवपद सात, आठ के उदय के दो चौबीसी के ध्रवपद सोलह और नौ के उदय के एक चौबीसी के ध्रवपद नौ, कुल बत्तीस ध्रवपद वैक्रियमिश्रकाययोग में, बत्तीस औदारिकमिश्रकाययोग में और बत्तीस कार्मणकाययोग में कुल छियानवै ध्रुवपद नहीं होते हैं । उनको चौबीस से गुणा करने पर तेईस सौ चार होते हैं। इतने मिथ्यादृष्टि के असंभवी पद हैं। वैक्रिय मिश्रयोग में वर्तमान सासादनगुणस्थान वाले को नपुंसकवेद का उदय नहीं होता है। इसका स्पष्टीकरण पूर्व में किया जा चुका है। नपुसकवेद के आठ भंग होते हैं। सासादनगणस्थान में बत्तीस ध्रवपद होने से आठ को बत्तीस से गुणा करने पर दो सौ छप्पन होते हैं । इतने पद सासादनगुणस्थान में सम्भव नहीं हैं। कार्मणकाययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि के स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि के साठ ध्र वपद होते हैं। स्त्रीवेद सम्बन्धी एक चौबीसी में आठ भंग होते हैं। उनको साठ से गुणा करने पर चार सौ अस्सी पद कार्मणकाययोग में और चार सौ अस्सी पद वैक्रियमिश्रयोग में और दोनों मिलकर नौ सौ साठ पद नहीं होते हैं तथा औदारिकमिश्रयोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि के एक पुरुषवेद का ही उदय होता है, स्त्रीवेद और नपुसकवेद का उदय नहीं होता है। स्त्री-नपुसकवेद के साथ सोलह भंग होते हैं। इसलिये सोलह को साठ से गुणा करने पर | Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२१,१२२,१२३,१२४ २४१ नौ सौ साठ होते हैं और कुल मिलाकर अविरतसम्यग्दृष्टि को एक हजार नौ सौ बीस पद सम्भव नहीं हैं। आहारक और आहारकमिश्र काययोग में वर्तमान प्रमत्तसंयत को स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है। प्रमत्तसंयतगुणस्थान में चवालीस ध्रुवपद होते हैं। चवालीस में से स्त्रीवेद में आठ भंग होते हैं । अतः आठ को चवालीस से गुणा करने पर तीन सौ बावन होते हैं। इतने आहारक और आहारकमिश्र काययोग में नहीं होते हैं और दोनों के मिलकर प्रमत्तसंयत के सात सौ चार पद सम्भव नहीं हैं । आहारक काययोग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत को भी उक्त प्रकार से तीन सौ बावन पद संभव नहीं होते हैं। ____ इस प्रकार पहले, दूसरे आदि गुणस्थानों में सब मिलाकर असंभवित पदों की संख्या पचपन सौ छत्तीस (५५३६) होती है । पूर्व राशि में से इतने पद कम करने पर पंचानवै हजार सात सौ सत्रह (६५७१७) रहते हैं। योग के साथ गुणित मोहनीयकर्म के इतने पद सभी गुणस्थानों में होते हैं। उदयपद के भंगों को बताने के प्रसंग में कम करने योग्य उदयभंगों का उल्लेख किया है। लेकिन अधिक सुगमता से बोध कराने के लिये सूत्र संकेत रूप में ग्रन्थकार आचार्य स्पष्ट करते हैं मीसद्गे कम्मइए अणउदविवज्जियाउ मिच्छस्स । चउवीसाउ ण चउरो तिगुणाओ तो रिणं ताओ ॥१२॥ वेउव्वियमीसम्मि नपुसवेओ न सासणे होइ । चउवीसचउक्काओ अओ तिभागा रिणं तस्स ॥१२२॥ कम्मयविउविमीसे इत्थीवेओ न होइ सम्मस्स । अपुमिस्थि उरलमीसे तच्चउवीसाण रिणमेय ॥१२३॥ आहारगमीसेसु. इत्थीवेओ न होइ उ पमत्ते। दोणि तिभागाउ रिणं अपमत्तजइस्स उतिभागो॥१२४॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० शब्दार्थ - मोसवुगे - मिश्रद्विक में ( औदारिकमिश्र वैक्रियमिश्र में ), कम्मइए - कार्मण काययोग में, अणउदयविवज्जियाउ - अनन्तानुबंधि के उदय बिना की, मिच्छस्स - मिध्यादृष्टि के, चवीसाउ - चौबीसी, ण-नहीं, चउरो - चार, तिगुणाओ-- त्रिगुणी, तो— फिर, रिणं कम करना, ताओइनमें से । २४२ asविमीसम्म - वैक्रियमिश्र में, नपुं सवेओ -- नपुंसकवेद, न नहीं, सासणे - सासादन में, होइ― होता है, चडवीसचउक्काओ - चार चौबीसियों में से, अओ - अतः, तिभागा- तीसरा भाग, रिणं - कम करना, तस्स - उसका । कम्मयविउध्विमीसे—कार्मण और वैक्रिय मिश्र योग में, इत्थोवेओस्त्रीवेद, न होइ नहीं होता है, सम्मस्स - अविरत सम्यग्दृष्टि के, अपुमिस्थिनपुंसक वेद और स्त्रीवेद, उरलमीसे—– औदारिकमिश्र में, तच्चउवीसाणउसको चौबीसी के, रिणमेय - कम करना चाहिये । आहारगमीसेसु - आहारक और आहारकमिश्रयोग में, इत्थीवेओस्त्रीवेद, न होइ नहीं होता है, उ-और, पत्ते -- प्रमत्तसंयत गुणस्थान में, दोणि तिभागाउ - दो तृतीयांश भाग, रिणं कम करना, अपमत्तजइस्सअप्रमत्तयति के, उ — और, तिमागो— तीसरा भाग । गाथार्थ - मिश्रद्विक और कार्मण काययोग में वर्तमान मिथ्यादृष्टिको अनन्तानुबंध के उदय बिना की चौबीसी संभव नहीं हैं । अतः त्रिगुणी वे चार चौबीसियां कम करना चाहिये । सासादन गुणस्थान में वैक्रियमिश्र योग में नपुसंकवेद का उदय नहीं होता है । अतएव उसकी चार चौबीसियों में से तीसरा भाग कम करना चाहिये । अविरतसम्यग्दृष्टि को कार्मण और वैक्रिय मिश्र में स्त्रीवेद नहीं होता है और औदारिकमिश्र में नपुसंक और स्त्रीवेद नहीं होता है । इसलिये उसकी चौबीसी के असंभव भंग कम करना चाहिये । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२१,१२२, १२३, १२४ २४३ प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक और आहारकमिश्र काययोग होने पर स्त्रीवेद नहीं होता है। अतः दो तृतीयांश भाग कम करना चाहिये और अप्रमत्तसंयत में तीसरा भाग कम करने योग्य है । विशेषार्थ - औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मण इन प्रत्येक योग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि को अनन्तानुबंधि के उदय बिना की चार चौबीसी नहीं होती हैं। इसलिये तीन गुणित चार यानि बारह चौबीसी और उनके दो सौ अठासी उदयभंग मिथ्यादृष्टि के कुल भंगों में से कम करना चाहिये और पद तेईस सौ चार कम करना चाहिये | सासादन गुणस्थान में वैक्रियमिश्र योग में नपुसंकवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये सासादन सम्बन्धी चार चौबीसियों में से उसका बत्तीस भंग रूप तीसरा भाग और पद संख्या दो सौ छप्पन कम करना चाहिये । कार्मण और वैक्रियमिश्र काययोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि को स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये अविरतसम्यग्दृष्टि की आठ चौबीसी के एक सौ बानव भंग में से तीसरा भाग कम करना चाहिये । यानि कार्मणयोग में स्त्रीवेद के उदय के आठ चौबीसी के चौंसठ भंग और वैक्रियमिश्र योग में स्त्रीवेद के उदय के आठ चौबीसी के चौंसठ भंग, कुल एक सौ अट्ठाईस भंग कम करना चाहिये । दारिकमिश्र योग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि के नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये चौबीसी का दो तृतीयांश भाग कम करना चाहिये । यानि एक सो अट्ठाईस भंग कम करना चाहिये । सब मिलाकर दो सौ छप्पन उदयभंग और नौ सौ साठ पद संख्या कम करना चाहिये । आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग में वर्तमान प्रमत्तसंयत के स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये प्रमत्तसंयत Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पंचसंग्रह १० की आठ चौबीसी में की प्रत्येक चौबीसी में से आहारककाययोगि के स्त्रीवेद में होने वाले आठ-आठ भंग कुल चौंसठ और आहारकमिश्र काययोगि के स्त्रीवेद में होने वाले प्रत्येक चौबीसी के आठ-आठ भंग कुल चौंसठ, कुल मिलाकर एक सौ अट्ठाईस भंग कम करना चाहिये । छठे गुणस्थान में कुल एक सौ बानवें भंग होते हैं । उनमें से दो योग के एक सौ अट्ठाईस भंग कम करना चाहिये । क्योंकि ये एक अट्ठाईस एक सौ बानवे के दो तृतीयांश भाग हैं तथा पद संख्या सात सौ चार कम करना चाहिये । क्योंकि कम करने योग्य भंगों की पद संख्या उतनी होती है । आहारककाययोग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत आत्मा को स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है । इसलिये अप्रमत्तसंयत को आठ चौबीसी के एक सौ बानव भंगों में के एक तृतीयांश भाग को कम करना चाहिये यानि चौंसठ भंग कम करना चाहिये और उनके तीन सौ बावन पद अप्रमत्त में होने वाले भंगों और पदों की संख्या में से कम करना चाहिये । इस प्रकार से गुणस्थान में योगापेक्षा होने वाले मोहनीय कर्म के उदयभंग और पदों को कम करना चाहिये । अब योग, उपयोग और लेश्या द्वारा होने वाली उदय के भंगों और पदों की संख्या प्राप्त करने का सामान्य उपाय बतलाते हैं । मोहनीय कर्म के उदय भंगों और पदों की संख्याप्राप्ति का उपाय उदसु चवीसा धुवगाउ पदेसु जोगमाईहिं । गुणिया मिलिया चउवीसताडिया इयरसंजुत्ता ॥ १२५ ॥ - चौबीसी का, धुवगाउ - - शब्दार्थ - उदए – उदय में, चउवीसाध्रुवकों का, पसु - पदों में, जोगमाईहि-योग आदि से, गुणिया - गुणा करके, मिलिया - मिलाने पर चउवोसताडिया -- चौबीस से गुणा करके, इयर संजुत्ता - इतर संख्या मिलाने पर । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२५ २४५ गाथार्थ - उदयभंगों को जानने के लिये चौबीसियों का और पदों की संख्या के लिये ध्रुवकों का योगादि से गुणा कर और फिर उन सबको जोड़कर उन्हें चौबीस से गुणा करने एवं इतर संख्या मिलाने पर भंग और पद संख्या प्राप्त होती है । विशेषार्थ - योग, उपयोग और लेश्या द्वारा होने वाली मोहनीय कर्म के उदयभंगों को संख्या प्राप्त करने के लिये जिस-जिस गुणस्थान में जितनी चौबीसी होती हैं, उनका उस उस गुणस्थान में संभव योग, उपयोग या लेश्याओं के साथ गुणाकार करके प्राप्त गुणनफल को चौबीस से गुणा करें - ' जोगमाईहि गुणिया । तत्पश्चात् दो और एक के उदय से होने वाले सत्रह भंगों को नौ योग, सात उपयोग और एक लेश्या से गुणा कर प्राप्त संख्या को पूर्व की संख्या में मिलायें और योग द्वारा होने वाली भंगों की संख्या में से पूर्व में कहे गये असंभव भंगों को कम करने पर योग द्वारा होने वाली भंग संख्या प्राप्त होती है । किन्तु लेश्या और उपयोग द्वारा होने वाली भंग संख्या में से उनके असंभव भंग नहीं होने से एक भी भंग कम नहीं किया जाता है । इसी प्रकार पद की संख्या प्राप्त करने के लिये उस-उस गुणस्थान के ध्रुवपदों का उस-उस गुणस्थान में प्राप्त योग, उपयोग या लेश्याओं के साथ गुणा करके सबका जोड़कर फिर चौबीस से गुणा करना चाहिये । तत्पश्चात् दो के उदय के और एक के उदय के उनतीस पदों को नौ योग, सात उपयोग और एक लेश्या के साथ गुणा करके योग द्वारा होने वाली संख्या में योग द्वारा गुणित, उपयोग द्वारा होने वाली संख्या में उपयोग द्वारा गुणित और लेश्या द्वारा होने वाली संख्या में लेश्या द्वारा गुणित पदों को मिलाने पर उनकी संख्या प्राप्त होती है । ऐसा करने पर योगगुणित उदयभंग चौदह हजार नौ सौ सैंतीस और पद एक लाख नौ सौ बानव प्राप्त होते हैं । परन्तु इनमें से Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ पंचसंग्रह : १० असंभवी उदयभंग और पदों को कम करना चाहिये। अतएव अब असंभवी उदयभंगों और पदों की संख्या प्राप्त करने का उपाय बताते हैं। असम्भवी उदयभंगों व पदों को प्राप्त करने का उपाय अपमत्तसासणेसु अड सोल पमत्त सम्म बत्तीसा। मिच्छंमि य छण्णउई ठावेज्जा सोहणनिमित्तं ॥१२६॥ जोगतिगेणं मिच्छे नियनियचउवीसगाहिं सेसाणं । गुणिऊणं पिडेज्जा सेसा उदयाण परिसंखा ॥१२७॥ शब्दार्थ-अपमत्तसासणेसु-अप्रमत्त और सासादन में, अड-आठ, सोल-सोलह, पमत्त-प्रमत्त में, सम्म–अविरतसम्यग्दृष्टि में, बत्तीसाबत्तीस, मिच्छंमि-मिथ्यात्व में, य-और, छण्ण ई-छियानवे, ठावेज्जास्थापित करना चाहिये, सोहणनिमिसं--कम करने के लिये । जोगतिगेणं-योगत्रिक से, मिग्छे-मिथ्या दृष्टिगुणस्थान के, नियनियचरवीसगाहि-अपनी-अपनी चौबीसी की संख्या द्वारा, सेसाणं-शेष गुणस्थानों के, गणिऊणं-गुणा करके, पिंडेज्जा-जोड़ करें, सेसा-कम करने से, उदयाण-उदयभंगों की, परिसंखा-पूर्ण संख्या । गाथार्थ-अप्रमत्त और सासादन गुणस्थान में आठ, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में सोलह, अविरतसम्यग्दृष्टि में बत्तीस और मिथ्यात्व में छियानवै कम करने के लिये स्थापित करना चाहिये। मिथ्यादृष्टि के स्थापने योग्य अंकों को योगत्रिक से और शेष गुणस्थानों के स्थापने योग्य अंकों को उस-उस गुणस्थान की चौबीसी की संख्या से गुणा करना चाहिये तथा गुणा करके उनका जोड़ करके उसे कुल संख्या में से कम करने पर उदयभंगों की कुल संख्या प्राप्त होती है । विशेषार्थ-'अपमत्तसासणेसु अड' अर्थात् अप्रमत्तसंयत और सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान सम्बन्धो कम करने के लिये आठ-आठ तथा प्रमत्तगुणस्थान सम्बन्धी सोलह-'सोल पमत्त' एवं अविरत Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६,१२७ २४७ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान सम्बन्धी बत्तीस-'सम्म बत्तीसा' और मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सम्बन्धी छियानवै स्थापित करना चाहिये । जिसका विशेषता के साथ स्पष्टीकरण इस प्रकार है आहारककाययोग में वर्तमान अप्रमत्तसंयत को स्त्रीवेद नहीं होता है और स्त्रीवेद में एक-एक चौबीसी में आठ-आठ भंग होते हैं । इसीलिये अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में कम करने योग्य आठ स्थापित करने का संकेत किया है। ___ वैक्रियमिश्रकाययोग में वर्तमान सासादनसम्यग्दृष्टि को नपुसकवेद नहीं होता है और नपुसकवेद में एक-एक चौबीसी में आठ-आठ भंग होते हैं। अतएव सासादन गुणस्थान में कम करने योग्य आठ स्थापित करना कहा है। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग में वर्तमान प्रमत्त यति को स्त्रीवेद नहीं होता है। स्त्रीवेद में आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग के प्रत्येक चौबीसी में आठ-आठ भंग होते हैं। इसीलिये प्रमत्तसंयत गुणस्थान में कम करने के लिये दोनों के आठ-आठ, कुल सोलह स्थापित करना चाहिये। औदारिकमिश्रकाययोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि को स्त्रीवेद और नपुसंकवेद नहीं होता है । स्त्रीवेद नपुसकवेद के प्रत्येक चौबीसी में आठ-आठ और दोनों मिलकर सोलह भंग होते हैं। इसलिये सोलह तथा वैक्रियमिश्र और कार्मणकाययोग में वर्तमान अविरतसम्यग्दृष्टि के स्त्रीवेद नहीं होता है । अतएव वहां भी पूर्वोक्त रीति से सोलह कुल बत्तीस स्थापित करना चाहिये । वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि के उस प्रत्येक योग में अनन्तानुबंधि के उदय बिना की . चार-चार चौबीसी होती हैं । चार चौबीसी के छियानवै भंग होते हैं। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ पंचसग्रह : १० जो उक्त तीन योग में से किसी योग में नहीं होते हैं। इसलिये छियानवै स्थापित करने का संकेत किया है। ___अब जिस गुणस्थान में जितने स्थाप्य कहे हैं, उनको उस गुणस्थान संबन्धी चौबीसियों के साथ गुणा करना चाहिये। जिससे कम करने योग्य भंगों की संख्या प्राप्त होती है । जैसे कि सासादनगुणस्थान में आठ स्थापित करने का संकेत किया है और उस गुणस्थान में चार चौबीसी होती हैं, अतएव आठ को चार से गुणा करने पर बत्तीस होते हैं, जो कम करने योग्य भंग हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में औदारिकमिश्र, वैक्रियमिश्र और कार्मणकाययोग इन प्रत्येक काययोग में चारचार चौबीसियां होती ही नहीं हैं, अतएव चार चौबीसियों को चार से गुणा करने पर प्रत्येक योग के कम करने योग्य भंग प्राप्त होते हैं। जो छियानवै होते हैं। इस प्रकार से स्थापना करने के योग्य अंकों को स्थापित करने के बाद असंभवी संख्या प्राप्त करने की प्रक्रिया यह है मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में स्थापना योग्य छियानवै भंग बताये हैं, वे छियानवै वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण इन तीनों योगों में नहीं होते हैं । अतएव उनका तीनों योगों से गुणा करने पर (९६ X ३=२८८) दो सौ अठासी होते हैं। गाथा में शेष अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में आठ आदि अंक स्थापित करना बताया है । उनको उस-उस गुणस्थान की चौबीसियों से गुणा करना चाहिये । अर्थात् जिस गुणस्थान की जितनी चौबीसियां हैं, उनके साथ उस गुणस्थान के स्थाप्य अंकों का गुणा करना चाहिये। जैसे कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आठ चौबीसी हैं । अतः उनके साथ उस गुणस्थान के स्थाप्य आठ का गुणा करने पर कम करने योग्य चौंसठ प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार सासादन गुणस्थान में चार चौबीसी हैं। उनसे उस गुणस्थान के स्थाप्य आठ को गुणा करने पर बत्तीस होते हैं । प्रमत्त Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२८ २४६ संयत गुणस्थान में आठ चौबीसी हैं । उनको उस गुणस्थान संबन्धी स्थाप्य अंक सोलह से गुणा करने पर एक सौ अट्ठाईस होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में आठ चौबीसी हैं। इसलिये उनके साथ उसके स्थाप्य बत्तीस अंक का गुणा करने पर दो सौ छप्पन होते हैं । उक्त कथन का सारांश यह हुआ कि गुणस्थानों के कम करने योग्य भंगों की स्थापना इस प्रकार है - २८८, ६४, ३२, १२८, २५६ । इन सबका जोड़ कुल मिलाकर सात सौ अड़सठ होता है । जो पूर्वोक्त उदयभंग की संख्या में से कम करना चाहिये। ऐसा करने पर शेष उदयभंगों की संख्या अर्थात् योगगुणित भंगों की पूर्वोक्त कुल संख्या चौदह हजार एक सौ उनहत्तर (१४१६६) प्राप्त होती है । अब कम करने योग्य पदों को प्राप्त करने के उपाय का कथन करते हैं चवीसाइगुणेज्जा पयाणि अहिगिच्च मिच्छ छन्नउइ । धुवगेहिं एगी किच्चा सेसाणं तओ सोहे ॥ १२८ ॥ शब्दार्थ - चवीसाइगुणेज्जा- चौबीस से गुणा करना चाहिये, पयाणिअहिगिच्च पदों की अपेक्षा, मिच्छ - - मिध्यात्व में, छन्नउइ - छियानवे, सेसाणं - शेष गुणस्थान के, धुवगेहिं - ध्रुवपदों के साथ, एगीfकच्चाजोड़कर, तओ - तत्पश्चात्, सोहे-कम करना चाहिये । गाथार्थ - मिथ्यात्व गुणस्थान में पदों की अपेक्षा छियानवे का चौबीस से गुणा करना चाहिये और शेष गुणस्थानों के स्थाप्य अंकों का ध्रुवपदों के साथ गुणा करके और तत्पश्चात् जोड़कर पद की कुल संख्या में से कम करना चाहिये । विशेषार्थ - गाथा में शोध्य पद - कम करने योग्य पदों को प्राप्त करने की विधि बताई है - पदापेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में छियानवें को चौबीस से गुणा करना चाहिये और छियानवें के साथ गुणा करने का कारण यह है Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० पंचसंग्रह : १० कि मिथ्यात्व गुणस्थान में वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण इन प्रत्येक योग में अनन्तानुबंधि के उदय बिना की सात के उदय की एक, आठ के उदय की दो बौर नौ के उदय की एक इस प्रकार चार चौबीसी नहीं होती हैं। . उनमें सात के उदय में सात पद और आठ के उदय की दो चौबीसी होने से आठ को दो से गुणा करने पर सोलह पद तथा नौ के उदय में नौ पद लेना चाहिये। जो सब मिलाकर बत्तीस पद होते हैं । ये बत्तीस पद वैक्रियमिश्र आदि तीन योगों में नहीं होते हैं । इसलिये बत्तीस के साथ तीन का गुणा करने पर छियानवै होते हैं । ये छियानवै पद चौबीसियों के आश्रित हैं। अतएव छियानवै का चौबीस से गुणा करने पर (६६४२४=२३०४) तेईस सौ चार पद होते हैं। इसी प्रकार शेष सासादन आदि गुणस्थानों के स्थाप्य अंकों का भी अपने-अपने ध्रवपदों के साथ गुणा करना चाहिये । सासादन संबन्धी पूर्वोक्त आठ का बत्तीस से गुणा करने पर दो सौ छप्पन होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि संबन्धी बत्तीस का अपने साठ ध्रुवपदों के साथ गुणा करने पर उन्नीस सौ बीस, प्रमत्तसंयत संबन्धी सोलह का अपने चवालीस ध्रवपदों के साथ गुणा करने पर सात सौ चार और अप्रमत्तसंयत संबन्धी आठ का अपने चवालीस ध्रुवपदों के साथ गुणा करने पर तीन सौ बावन होते हैं। ये सभी त्याज्य पद जोड़ करने पर पचपन सौ छत्तीस (५५३६) होते हैं। उनको पूर्व में बताई गई गुणस्थानों के पदों की पूर्ण संख्या में से कम करने पर गुणस्थानों में संभव पदों की कुल संख्या पंचानवै हजार सात सौ सत्रह (९५७१७) होती है। इस प्रकार से मोहनीय कर्म संबन्धी पूर्व में नहीं कहे गये विशेष का विवरण जानना चाहिये । अब नामकर्म संबन्धी विशेष का प्रतिपादन करते हैं। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ नामकर्म विषयक विशेष विवेचन बंधोदयसंताइं गुणेसु कहियाइ नामकम्मस्स । ' गइसु य अव्वगडंमि वोच्छामि इंदिएसु पुणो ॥ १२६ ॥ शब्दार्थ-बंधोदयसंताइंबंध, उदय और सत्ता स्थानों का, गुणेसुगुणस्थानों में, कहियाइ – कथन किया, नामकम्मस्स - नामकर्म के, गइसुगतियों में, य-और, अध्वगडंमि - अव्याकृत — नहीं कहे गये, वोच्छामि - कथन करता हूं, इंदिए - इन्द्रियों में, पुणो- पुनः । - २५१ गाथार्थ - पूर्व में नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का कथन करने के प्रसंग में यद्यपि सामान्य से गुणस्थानों और गतियों में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का वर्णन किया है । लेकिन अब वहाँ नहीं कहे गये विशेष का बोध करने के लिये गति, गुणस्थान और इन्द्रियों आदि में विस्तार से कथन करता हूँ । विशेषार्थ - यह प्रतिज्ञा गाथा है कि यद्यपि पूर्व में नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विचार किया है । परन्तु वह प्रसंग किसी विशेष गुणस्थान या गति में बंध आदि स्थानों के प्रतिपादन करने के लिये नहीं होने से सामान्य रूप से किया गया है तथा सामान्य रूप में किये गये उक्त विचार का सुगमता से बोध कराने के लिये गुणस्थानों और जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विस्तार से विचार करते हैं । उसमें भी पहले गुणस्थानों में बंध आदि स्थानों का वर्णन करते हैं । जो इस प्रकार है मिथ्यात्व गुणस्थान – में नामकर्म के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये छह बंधस्थान हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान में चारों गति के जीव होते हैं और वे यथायोग्य चारों गति के योग्य बंध करते हैं । जिससे उक्त बंधस्थान संभव हैं । मात्र तीर्थकर नाम और आहारकद्विक युक्त बंधस्थान यहां नहीं होते हैं । इन बंधस्थानों में से कौन किस गति के योग्य और उनके बंधक कौन हैं आदि को इस प्रकार जानना चाहिये Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर तेईस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध होता है । उसका बंध करने पर बादर और सूक्ष्म के प्रत्येक और साधारण के साथ चार भंग होते हैं । अर्थात् अपर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य तेईस प्रकृतियों को कोई बादर और प्रत्येक के साथ, कोई बादर और साधारण के साथ, कोई सूक्ष्म और प्रत्येक के साथ तथा कोई सूक्ष्म और साधारण के साथ बांधता है । जिससे तेईस का बंध चार प्रकार से होता है । अन्यत्र भी भंगों की भावना इसी प्रकार समझना चाहिये । २५२ इस अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृति के बंधक एकेन्द्रियादि सभी तियंच और मनुष्य हैं । वे चारों विकल्प से तेईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । देव यद्यपि एकेन्द्रिययोग्य बंध करते हैं, परन्तु वे प्रत्येकबादर-पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करते हैं, सूक्ष्म-साधारण या अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध नहीं करते हैं । पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य बंध करने पर पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान बंधता है । उसमें पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर बीस भंग होते हैं और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्ययोग्य पच्चीस प्रकृति का बंध करने पर प्रत्येक का एक-एक भंग होता है । इस प्रकार कुल मिलाकर पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान के पच्चीस भंग होते हैं । 2 , इस पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक भी तेईस प्रकृतियों के बंधक की तरह समझना चाहिये । मात्र प्रत्येक बादर-पर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध ईशान स्वर्ग तक के देव करते हैं । १. युगलिक तिर्यंच और मनुष्य मात्र देवगति में ही जाने से देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के सिवाय अन्य कोई बंधस्थान का बंध नहीं करते हैं । २. इसी प्रकरण की गाथा ६० के विवेचन में देखिये | Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २५३ अतएव देवाश्रयी वह बंधस्थान भी ग्रहण करना चाहिये । देव स्थिरशुभ-यश:कीर्ति के साथ अस्थिर-अशुभ-अयशःकीर्ति का परावर्तन करने से आठ विकल्पों द्वारा एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध करते हैं तथा मनुष्य और तिर्यंच तो यथायोग्य रीति से पच्चीस भंगों द्वारा पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध करते हैं । __ पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर छब्बीस प्रकृतियों का बंध होता है और उनके बंध के सोलह भंग होते हैं। यह बंधस्थान बादर पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य है। क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिययोग्य बांधने पर आतप या उद्योत का बंध नहीं होता है। इस बंधस्थान के बंधक एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस के जो बंधक कहे हैं, वे सभी हैं। देवगतियोग्य या नरकगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होता है। उनमें देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर स्थिर-शुभ-यशःकीर्ति का अस्थिर-अशुभ-अयश:कीर्ति के साथ परावर्तन करने पर आठ भंग होते हैं तथा नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होने पर अस्थिर-अशुभ-अयश:कीति का ही बंध होने से और अन्य परावर्तमान अशुभ प्रकृतियां ही बंधने से एक ही भंग होता है । इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के कुल नौ भंग हैं। इन दोनों प्रकार के अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक पर्याप्त अवस्था में वर्तमान गर्भज मनुष्य, तिर्यंच और संमूच्छिम तिर्यंच हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान में अपर्याप्तावस्था में रहते तिर्यंच या मनुष्य देवगति या नरकगति योग्य बंध नहीं करते हैं। इसीलिये पर्याप्तावस्था का ग्रहण किया है और एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय तो नरक या देवगति योग्य प्रकृतियों का बंध ही नहीं करते हैं । पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य बंध करने पर नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है। उसमें पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय योग्य बंध Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ पंचसंग्रह : १० करने पर प्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं, तिर्यच पंचेन्द्रिय योग्य बांधने पर छियालीस सौ आठ और इतने ही भंग अर्थात् छियालीस सौ आठ भंग मनुष्य योग्य बंध करने पर होते हैं । सब मिलाकर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बानवै सौ चालीस (६२४०) भंग होते हैं । 1 तीर्थंकर नाम सहित देवगति योग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान मिथ्यादृष्टि को नहीं होता है। क्योंकि तीर्थंकरनाम का बंध सम्यक्त्व रूप हेतु द्वारा होता है और मिथ्यादृष्टि को वह हेतु नहीं है । इसलिये देवगति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध मिथ्यादृष्टि को होता नहीं है । किन्तु तिर्यंच या मनुष्य प्रायोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक चारों गति के जीव हैं । चारों गति के जीव यथायोग्य रीति से तिर्यंच या मनुष्य गति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । मात्र विकले - न्द्रिय योग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यंच ही होते हैं, देव या नारक नहीं । देव या नारक मात्र संख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त गर्भज तिथंच या पर्याप्त गर्भज मनुष्य गति योग्य ही बंध करते हैं । अन्य कोई योग्य बंध नहीं करते हैं । मात्र देव बादर पर्याप्त पृथ्वी, बादर पर्याप्त अप् और बादर पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति काय योग्य बंध करते हैं । तथा " - पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और तियंच पंचेन्द्रिय योग्य बंध करने पर उद्योत नामकर्म के साथ नामकर्म के तीस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध होता है । उसमें पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय योग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर प्रत्येक के आठ-आठ भंग तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय योग्य बंध करने पर छियालीस सौ आठ भंग होते हैं और कुल मिलाकर तीस प्रकृतिक बंधस्थान के छियालीस सौ बत्तीस (४६३२) भंग होते हैं । तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतिक एवं आहारकद्विक सहित देवगतियोग्य तीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान मिथ्यादृष्टि Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २५५ के बंधयोग्य ही नहीं हैं। क्योंकि तीर्थकरनाम का बंधकारण सम्यक्त्व है और आहारकद्विक का संयम कारण है परन्तु ये दोनों कारण मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नहीं होने से तीर्थंकरनाम सहित मनुष्य प्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान या आहारकद्विक सहित देव प्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान मिथ्यादृष्टि को नहीं होता है। इस बंधस्थान के बंधक भी उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक की तरह चारों गति के जीव हैं। मात्र विकलेन्द्रिय योग्य तीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यंच हैं। __इस प्रकार मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में बंधक भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा छह बंधस्थान होते हैं और इन तेईस प्रकृतिक आदि बंधस्थानों की भंग संख्या इस प्रकार है चउ पणवीसा सोलस नव चत्ताला सयाय बाणउइ । बत्तीसुत्तर छायाल सया मिच्छस्स बंधविही ॥ अर्थात् तेईस प्रकृतिक बंधस्थान के चार, पच्चीस प्रकृतिक के पच्चीस, छब्बीस प्रकृतिक के सोलह, अट्ठाईस प्रकृतिक के नौ, उनतीस प्रकृतिक के बानवै सौ चालीस और तीस प्रकृतिक के छियालीस सौ बत्तीस भंग होते हैं । इनका कुल जोड़ तेरह हजार नौ सौ छब्बीस (१३६२६) होता है। यहां यह विशेष जानना चाहिये कि नामकर्म के आठ बंधस्थानों के कुल भंग तेरह हजार नौ सौ पैंतालीस है। किन्तु उनमें से तीर्थकरनामकर्म के साथ देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतिक स्थान के आठ भंग, तीर्थकरनाम सहित मनुष्यगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान के आठ भंग, आहारकद्विक सहित देवगतियोग्य तीस प्रकृतिक का एक भंग, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम सहित देवगतियोग्य इकत्तीस प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग और यशःकीर्ति रूप एक प्रकृतिक बंधस्थान का एक भंग, कुल उन्नीस भंगों को कम करने पर मिथ्या Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० दृष्टिगुणस्थान में छह बंधस्थानों के उपर्युक्त ( १३६४५ - १६= १३ε२६) तेरह हजार नौ सौ छब्बीस भंग होते हैं । २५६ मिथ्यादृष्टिगुणस्थान सम्बन्धी नामकर्म के उक्त बंधस्थानों के कथन का सारांश यह है कि यद्यपि नामकर्म के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक ये आठ बंधस्थान होते हैं। इनमें से कोई तिर्यंचगति, कोई मनुष्यगति, कोई देवगति और कोई नरकगति प्रयोग्य बंधस्थान हैं और इस कारण उनके अनेक अवान्तर भेद भी हो जाते हैं । लेकिन यहाँ उन बंधस्थानों का गुणस्थानों में प्राप्ति की अपेक्षा विचार किया जा रहा है । अतएव अंतिम दो को छोड़कर शेष तेईस से लेकर तीस प्रकृतिक तक छह बंधस्थान मिथ्यात्व गुणस्थान में पाये जाते हैं । इनमें भी तीर्थंकरनाम सहित देवगतिप्रायोग्य उनतीस प्रकृतिक, तीथंकरनाम सहित मनुष्यगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतिक एवं आहारकद्विक सहित देवगतिप्रायोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान के भंगों को ग्रहण नहीं करना चाहिये । इनके अतिरिक्त सामान्य उनतीस व तीस प्रकृतिक बंधस्थान ग्रहण करना चाहिये । , इन बंधस्थानों में तेईस प्रकृतिक के बंधक मनुष्य तिर्यंच हैं एवं अपर्याप्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य है । पच्चीस प्रकृतिक के बंधक तिर्यंच, मनुष्य व देव हैं तथा एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियत्रिक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच व मनुष्य प्रायोग्य है । छब्बीस प्रकृतिक के बंधक तिर्यंच, मनुष्य व देव हैं तथा पर्याप्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य बंधस्थान है। अट्ठाईस प्रकृतिक के बंधक पंचेन्द्रिय तिर्यंच व मनुष्य हैं व यह देव और नरकगति प्रायोग्य १ दिगम्बर कर्म साहित्य में भी इसी प्रकार नामकर्म के आठ बंधस्थान माने हैं | देखिये गो० कर्मकांड गा० ५२१ । २ दिगम्बर कर्म साहित्य में मिथ्यात्व गुणस्थान सम्बन्धी नामकर्म के इसी प्रकार से तेईस से लेकर तीस प्रकृतिक तक छह बंधस्थान बताये हैं । देखें पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा० ४०२ । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २५७ है। उनतीस प्रकृति के बंधक तिर्यंच, मनुष्य, देव व नारक हैं तथा यह विकलत्रिक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य व देवगति प्रायोग्य है। तीस प्रकृति के बंधक मनुष्य, देव, तिर्यंच और नारक हैं तथा यह विकलत्रिक, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देवगति प्रायोग्य बंधस्थान है ।1 इस प्रकार से मिथ्यादृष्टिगुणस्थान संबन्धी नामकर्म के बंधस्थानों का विवरण जानना चाहिये । अब क्रमप्राप्त उदयस्थानों का निरूपण करते हैं__ नामकर्म के बीस, इक्कीस और चौबीस से लेकर इकत्तीस प्रकृतिक तक आठ एवं नौ प्रकृतिक व आठ प्रकृतिक ये बारह उदयस्थान होते हैं। उनमें से मिथ्या दृष्टिगुणस्थान में इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतोस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक ये नौ उदयस्थान होते हैं। ये उदयस्थान किस तरह और उनके कितनेकितने प्रकार होते हैं, आदि समस्त वर्णन पूर्व में विस्तार से किया जा चुका है। लेकिन संक्षेप में पुन: आवश्यक होने से यहाँ संकेत करते हैं--- मिथ्यात्वगुणस्थान में आहारकसंयत, वैक्रियसंयत एवं केवली सम्बन्धी उदयस्थान और उनके भंग नहीं होते हैं। जिससे इस गुणस्थान के कुल सात हजार सात सौ इकानवै (७७६१) भंगों में से आहारक संयत के पाँच उदयस्थानों के सात, वैक्रियसंयत के अट्ठाईस, उनतीस १ इसी प्रकार से दिगम्बर साहित्य में भी नाम कम के इन बंधस्थानों की प्रायोग्यता का विचार किया गया है । देखिये गो० कर्मकाण्ड गाथा ५२२, . २ दिगम्बर साहित्य में भी नामकर्म के इन्हीं प्रकृति संख्या वाले नामकर्म के बारह उदयस्थान माने हैं। देखिए गो० कर्मकाण्ड गा० ५६२ । ३ दिगम्बर साहित्य में भी मिथ्यात्वगुणस्थान में इसी प्रकार के नौ उदय स्थान बताये हैं । देखिए पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा० ४०२ । ४ इसी अधिकार को गाथा ७३ से ६१ तक । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ पंचसंग्रह : १० और तीस प्रकृतिक इन तीन उदयस्थानों के एक-एक कुल तीन और तीर्थंकर, अतीर्थंकर के दस उदयस्थानों में से सामान्य मनुष्य में नहीं गिने गये आठ भंग कुल अठारह भंगों को कम करने पर सात हजार. सात सौ तेहत्तर (७७७३) उदयभंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं 1 मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के इकतालीस भंग होते हैं- एकेन्द्रिय के पाँच, विकलेन्द्रिय के नौ, तियंच पंचेन्द्रिय के नौ, मनुष्य के नौ, देव के आठ, नारक का एक । इनका कुल योग इकतालीस होता है । चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह भंग हैं और यह उदयस्थान एकेन्द्रियों के ही होता है । अन्य किन्हीं भी जीवों के चौबीस प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान के बत्तीस भंग इस प्रकार होते हैंएकेन्द्रिय के सात, वैक्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय के आठ, वैक्रिय मनुष्य के आठ, देवों के आठ और नारकों का एक । इन सबका जोड़ बत्तीस है । छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान के छह सौ भंग इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय के तेरह, विकलेन्द्रिय के नौ, तियंच पंचेन्द्रिय के दो सौ नवासी, मनुष्य के दो सौ नवासी । कुल छह सौ हुए । सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान के इकत्तीस भंग होते हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है -- एकेन्द्रिय के छह, वैक्रिय तिर्थंच पंचेन्द्रिय के आठ, वैक्रिय मनुष्य के आठ, देवों के आठ और नारकों का एक 1 अट्ठाईस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह सौ निन्यानवै भंग होते हैं । जो विभिन्न जीवों की अपेक्षा इस प्रकार हैं- विकलेन्द्रियों के छह, तियंच पंचेन्द्रियों के पाँच सौ छियत्तर, वैक्रिय तियंच के सोलह, मनुष्य के पाँच सौ छियत्तर, वैक्रिय मनुष्य के आठ, देवों के सोलह और नारकों का एक । कुल मिलाकर इनका जोड़ ग्यारह सौ निन्यानव होता है । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २५६ . उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के सत्रह सौ इक्यासी भंग विभिन्न जीवों की अपेक्षा इस प्रकार जानना चाहिये-विकलेन्द्रियों के बारह, तिर्यंचपंचेन्द्रिय के ग्यारह सौ बावन, वैक्रिय तिर्यंचपंचेन्द्रिय के सोलह, प्राकृत मनुष्य के पाँच सौ छियत्तर, वैक्रिय मनुष्य के आठ, देवों के सोलह और नारकों का एक । तीस प्रकृतिक उदयस्थान के उनतीस सौ चौदह भंग हैं । विभिन्न जीवों की अपेक्षा वे इस प्रकार हैं-विकलेन्द्रियों के अठारह, तियंचपंचेन्द्रिय के सत्रह सौ अट्ठाईस, वक्रिय तिर्यंच के आठ, मनुष्य के ग्यारह सौ बावन और देवों के आठ। इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह सौ चौंसठ भंग इस प्रकार जानना चाहिये-विकलेन्द्रिय के बारह और तिर्यंचपंचेन्द्रिय के ग्यारह सौ बावन । जो कुल मिलाकर ग्यारह सौ चौंसठ हुए। इस प्रकार मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में अपने नौ उदयस्थानों के सब मिलाकर सात हजार सात सौ तिहत्तर (७७७३) भंग होते हैं। इस प्रकार से मिथ्यादृष्टिगुणस्थान के उदयस्थान एवं उनके भंगों . को जानना चाहिये । यद्यपि नामकर्म के उदयस्थान बारह हैं और उन सबके कुल भंग बीस आदि प्रकृति रूप उदयस्थान के क्रम से १, ४२, ११, ३३, ६००, ३३, १२०२, १७८५, २६१७, ११६५, १, १ हैं और जिनका कुल जोड़ सात हजार सात सौ इक्यानवै है। किन्तु मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में आहारकसंयत, वैक्रियसंयत और केवली सम्बन्धी भंग सम्भव नहीं होने से केवली के आठ, आहारकसंयत के सात और उद्योत सहित वैक्रिय मनुष्य के तीन भंग कुल अठारह भंगों को कम कर देने पर सात हजार सात सौ तिहत्तर भंग प्राप्त होते हैं । जिनका ऊपर उल्लेख किया चुका है। ___ अब मिथ्यादृष्टिगुणस्थान के सत्तास्थान बतलाते हैं। नामकर्म के कुल सत्तास्थान बारह हैं। जो इन प्रकृति समुदाय रूप हैं-तेरानवै, बानवे, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी, उन्यासी, अठहत्तर, छिय Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० पंचसंग्रह : १० तर, पचहत्तर, नौ, और आठ प्रकृतिक । इनमें से मिथ्यादृष्टि के छह सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बानवे, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक । 2 इनमें से बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गति के आहारकचतुष्क की सत्ता वाले मिथ्यादृष्टियों के होता है तथा मिथ्यादृष्टि के आहारक और तीर्थंकर नाम की एक साथ सत्ता नहीं होने से तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है । किसी जीव ने नरकायु का बंध करने के बाद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उपार्जित कर तीर्थंकरनाम का निकाचित बंध किया । तत्पश्चात् वह जीव नरक में जाते अपनी आयु के चरम अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व का वमन कर मिथ्यात्वी होकर नरक में गया और वहाँ पर्याप्त होने के बाद पुनः क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उपार्जित करे। ऐसे जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तीर्थंकरनाम की सत्ता अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त होती है । जिससे तीर्थंकरनाम युक्त नवासी प्रकृतियों की सत्ता अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मिथ्यात्वगुणस्थान में संभव होने से नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान मिथ्यात्व गुणस्थान में बताया है । 1 आहारकचतुष्क और तीर्थंकर नाम रहित अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गति के मिथ्यादृष्टियों के संभव है । अठासी की सत्ता वाला यथायोग्य रीति से एकेन्द्रियों में जाकर देवद्विक या नरकद्विक की उवलना करे तब छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । छियासी प्रकृतियों की सत्ता वाले एकेन्द्रिय अनुवलित देवद्विक या नरकद्विक और वैक्रिय चतुष्क की उवलना करें तब अस्सी प्रकृतिक १. दि० साहित्य में ६४, ६२, १, ६०, ८८, ८४, ७७, १० और ६ प्रकृतिक ये तेरह सत्तास्थान कर्मकाण्ड गाथा ६०६ २. दिगम्बर साहित्य में ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२ प्रकृतिक ये छह सतास्थान बताये हैं । देखिये पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा. ४०३ ८२, ८०, ७९, ७८, ताये हैं । देखिए गो. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६१ सत्तास्थान होता है। तेज, वायुकायिक जीवों में जाकर मनुष्यद्विक की उद्वलना करें तब अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। मनुष्यद्विक की उद्वलना तेज-वायुकाय में गया जीव ही करता है, अन्य कोई नहीं करता है। तेज और वायुकाय में से निकलकर विकलेन्द्रिय या तिर्यंच पंचेन्द्रिय में उत्पन्न हो और जब तक मनुष्यद्विक को न बांधे, तब तक यानि अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त उनको भी अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तत्पश्चात् वे अवश्य मनुष्य द्विक का बंध करते हैं, जिससे उनको अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। इस प्रकार सामान्य से मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में बंध, उदय और सत्तास्थानों का कथन करके अब उनके संवेध का विचार करते हैं___ अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों को बांधते मिथ्यादृष्टि को मिथ्यात्वगुणस्थान के उदययोग्य सप्रभेद सभी नौ उदयस्थान जानना चाहिये । अर्थात् नौ में से किसी भी उदयस्थान में और उनके किसी भी भंग में वर्तमान मिथ्यादृष्टि तेईस प्रकृतियों का बंध करता है । मात्र इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इन छह उदयस्थानों में देवों ओर नारकों संबन्धी संभव भंग नहीं होते हैं। क्योंकि तेईस प्रकृतियां अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर बंधती हैं किन्तु देव वहाँ उत्पन्न नहीं होने से अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। नारक भी तेईस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि नारकों के तो एकेन्द्रिययोग्य किसी भी बंधस्थान का बंध नहीं होता है । जिससे देवों और नारकों की अपेक्षा संभव उदयस्थानों और उनके भंगों का तेईस प्रकृतिक बंधस्थान में निषेध किया है। सत्तास्थान पांच होते हैं। जो इस संख्यात्मक हैं जिन्होंने लब्धि प्रत्ययिक वैक्रिय शरीर किया हो ऐसे मनुष्य तियं च भी क्लिष्ट अध्यवसाय के द्वारा एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों का बंध कर सकते हैं। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पंचसंग्रह : १० बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक । इक्कीस, चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के उदय में पाँचों सत्तास्थान होते हैं। यहाँ यह जानना चाहिये कि पच्चीस प्रकृतिक उदस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक सत्वस्थान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के ही होता है तथा छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों के भी होता है और जो तेज व वायुकाय के जीव मरकर विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, कुछ काल तक उनके भी होता है। ___ सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इन प्रत्येक उदयस्थानों में अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार-चार सत्तास्थान होते हैं। कुल मिलाकर तेईस प्रकृतिक स्थान के बंधक के नौ उदयस्थान संबन्धी चालीस सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों के बंधक के लिये भी समझना चाहिये। मात्र यहाँ अपने समस्त उदयस्थानों में वर्तमान देव भी पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों का बंध करते हैं तथा वे मात्र बादर-पर्याप्त पृथ्वी, अप् और प्रत्येक वनस्पति योग्य ही प्रकृतियों का बंध करने वाले होने से स्थिरअस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीति-अयशःकीति का परावर्तन करने से होने वाले आठ भंगों से पच्चीस और छब्बीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । देव सूक्ष्म, साधारण या अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले किसी भी जीवस्थान में उत्पन्न नहीं होते हैं । अतएव उनके योग से होने वाले कोई भी भंग देवों में नहीं होते हैं। पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक बंधस्थानों के सत्तास्थानों का विचार तेईस प्रकृतिक बंधस्थान जैसा करना चाहिये। जिससे पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक इन दो बंधस्थानों में चालीस-चालीस सत्तास्थान Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६३ होते हैं, किन्तु इतना विशेष है कि यहां देवों के अपने सभी उदयस्थानों में बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान ही होते हैं, अन्य कोई सत्तास्थान नहीं होते हैं । 1 अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मिथ्यादृष्टि को तीस और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान होते हैं । अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान देव या नरक गति योग्य है और उसे पर्याप्त मिथ्यादृष्टि ही बांधते हैं । इसीलिये उक्त दो उदयस्थान ग्रहण किये हैं । उनमें से तीस प्रकृतिक उदयस्थान मनुष्य और तिर्यच दोनों को होता है और इकत्तीस प्रकृति रूप उदयस्थान मात्र तिर्यंचों को ही होता है । अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को बानवे, नवासी, अठासी, छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । उनमें देव या नरक गति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते तिर्यंच को तीस और इकत्तीस प्रकृति रूप उदयस्थान में बानवै, अठासी और छियासी प्रकृतिक ये तीनतीन सत्तास्थान होते हैं । मनुष्य को देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर उपर्युक्त तीन सत्तास्थान होते हैं और नरकगतियोग्य बंध करते मनुष्य को बानवं, नवासी, अठासी, छियासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान संभव हैं । उनमें बानवै और अठासी प्रकृतिक तो सामान्यतः होता है । अस्सी प्रकृतियों की सत्ता लेकर कोई एकेन्द्रिय जीव मनुष्य में उत्पन्न हो, वहां देवद्विक और वैक्रियचतुष्क अथवा नरकद्विक और वैक्रियचतुष्क बांधे तब छियासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तथा १. यहां दो उदयस्थान बताये हैं । इससे प्रतीत होता है कि उत्तर वैक्रिय शरीरी की विवक्षा नहीं की है । अन्यथा इसी अधिकार की गाथा ९६ में अट्ठाईस प्रकृतियों के बंध में पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में वैक्रिय शरीरी मिथ्यादृष्टि मनुष्यों और तिर्यंचों का भी ग्रहण किया है । अतः उस अपेक्षा यहां पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक आदि पांच इस तरह छह उदयस्थान भी हो सकते हैं । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० नरकायु का बंध करने के बाद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व उपार्जन कर जिसने तीर्थंकर नामकर्म बाँधा हो, ऐसा कोई मनुष्य अपनी अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहे तब परिणामों का परावर्तन होने से मिथ्यात्व २६४ जाये और नरक में जाने के सन्मुख हुआ वह जीव वहाँ नरक गति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करता है तो ऐसे किसी मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा नरकयोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंध में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । तीर्थंकरनाम का बंधक देवों में जाने पर तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व लेकर जाता है जिससे देवयोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर मिथ्यादृष्टि मनुष्य को नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है । इकत्तीस प्रकृतियों के उदय देव या नरक योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर नवासी प्रकृतिक के सिवाय तीन सत्तास्थान होते हैं। क्योंकि नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान तीर्थकरनाम सहित है । निकाचित तीर्थंकर नाम की सत्ता वाला कोई भी जीव तियंचगति में उत्पन्न होता नहीं है । जिससे नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान तिर्यंचगति में होता नहीं है । इस प्रकार गति के भेद बिना सामान्य से तीस प्रकृतियों के उदय में चार और इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में तीन, कुल सात सत्तास्थान अठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में होते हैं । उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान मनुष्यगतियोग्य, तियंचगतियोग्य और देवगतियोग्य इस तरह तीन प्रकार का है । उनमें से देवगतियोग्य के सिवाय शेष विकलेन्द्रिय, तियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते मिथ्यादृष्टि को सामान्य से पूर्व में कहे १. यहां निकाचित तीर्थंकरन म की ही विवक्षा है । क्योंकि अनिकाचित तीर्थंकर नाम की सत्ता लेकर तो तियंचगति में जाने से कोई विरोध नहीं है । एतद्विषयक समाधान पूर्व में बंधविधि प्ररूपणा अधिकार में विस्तार से किया गया है । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६५ गये नौ ही उदयस्थान होते हैं और सत्तास्थान बानवै, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिका ये छह होते हैं । इनमें इक्कीस प्रकृतियों के उदय में छहों सत्तास्थान होते हैं और उनमें भी इक्कीस प्रकृतियों के उदय में मनुष्ययोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान पूर्व में कहे गये अनुसार जिस मनुष्य ने तीर्थकरनाम का बंध किया है और मिथ्यात्वी होकर नरक में गया है । वैसे नारक को समझना चाहिये । बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान देव, नारक, (एकेन्द्रिय) विकलेन्द्रिय और तिर्यच पंचेन्द्रिय इन सबको होता है । छियासी और अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों के होते हैं और अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान एकेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों को होता है । मनुष्य या तिर्यंचगति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते चौबीस प्रकृतियों के उदयस्थान में वर्तमान एकेन्द्रियों के नवासी प्रकृतिक के सिवाय शेष पाँच सत्तास्थान होते हैं। यह उदयस्थान मात्र एकेन्द्रियों के ही होता है, अन्य किसी को नहीं होता है । इसलिये चौबीस प्रकृतियों के उदयस्थान में वर्तमान एकेन्द्रियों को होता है, यह संकेत किया है। १. किसी भी तिर्यंच या मनुष्य योग्य बंध करते मनुष्य को बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । तिर्यचों के अठहत्तर के साथ पांच होते हैं । नारक को तियंचगति योग्य बंध करने पर बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो और मनुष्ययोग्य बंध वरने पर नवासी प्रकृतिक के साथ तीन होते हैं । देवों के मनुष्य, तिर्यंच के योग्य बंध करने पर बानवै, अठासी प्रकृतिक ये दो होते हैं । इसी प्रकार अन्यत्र भी बंध, उदय और सत्तास्थानों के पूर्वापर संबन्ध को ध्यान में रख कर विचार करना चाहिये , Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पंचसंग्रह : १० पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान में छहों सत्तास्थान होते हैं। इनका विचार पूर्ववत् इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान जैसा करना चाहिये। छब्बीस प्रकृतियों के उदय में नवासी प्रकृतिक के सिवाय पांच सत्तास्थान होते हैं और उनका विचार पूर्ववत् करना चाहिये । इस उदयस्थान में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान न होने का कारण यह है कि मिथ्यादृष्टि होने पर नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान नरक में उत्पन्न होते नारकी को होता है, अन्य किसी को नहीं होता है। नारक को छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता, इसीलिये इस उदयस्थान में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान का निषेध किया है। __ सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष पाँच सत्तास्थान होते हैं। उनमें नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान पूर्वोक्त स्वरूप वाले नारकी की अपेक्षा होता है । पूर्वोक्त स्वरूप वाले नारक को अपने सभी उदयस्थानों में नवासी प्रकृतियों की सत्ता होती है। बानवै और अठासी प्रकृतियों की सत्ता देव, नारक, मनुष्य, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय इन सभी को होती है। छियासी, अस्सी प्रकृतिक सत्तास्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यापेक्षा होता है। इस उदयस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान तो होता नहीं है । क्योंकि सत्ताईस प्रकृतियों का उदय तेज और वायुकाय के जीवों के सिवाय आतप या उद्योत के उदय वाले एकेन्द्रियों अथवा नारकों और देवों के होता है। उनको अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान होता नहीं है। क्योंकि उनको अवश्य मनुष्यद्विक का बंध संभव है। अट्ठाईस प्रकृतियों के उदय में भी यही पाँच सत्तास्थान जानना चाहिये । उनमें से अठासी, नवासी और बानवै प्रकृतिक का विचार तो पूर्व की तरह करना चाहिये। यानि देवों में बानवै और अासी प्रकृतिक ये दो, नारकों में बानवै, नवासी और अठासी प्रकृतिक ये तीन और मनुष्य तिर्यंचों में बान और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्ता Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६७ स्थान होते हैं । छियासी और अस्सी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यापेक्षा समझना चाहिये । देव और नारकों में ये दो सत्तास्थान नहीं होते हैं । उनतीस प्रकृतियों के उदय में भी इसी प्रकार यही पाँच सत्तास्थान समझना चाहिये। तीस प्रकृतिक उदयस्थान में बानवै, अठासी, छियासी और अस्सी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । ये सत्तास्थान विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों सम्बन्धी समझना चाहिये । तीस प्रकृतियों का उदय देव, मनुष्य, विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों के होता है। उनमें से देवों के बानव और अठासी प्रकृतिक, मनुष्यों और विकलेन्द्रियादि तिर्यंचों को बानवे, अठासी, छियासी और अस्सी प्रकृतिक इस प्रकार सत्तास्थान होते हैं। इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में भी यही चार सत्तास्थान होते हैं। इकत्तीस प्रकृतियों का उदय विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रियों को ही होता है । अतः उपर्युक्त सत्तास्थान भी उनको ही होते हैं। सब मिलाकर उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर मिथ्यादृष्टि को पैंतालीस सत्तास्थान होते हैं । देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियां मिथ्यादृष्टि को बंधती नहीं है, इसका कारण पूर्व में कहा जा चुका है। __ मनुष्यगति और देवगति योग्य तीस प्रकृतियों के बंध के सिवाय विकलेन्द्रिय और तिर्यंच पंचेन्द्रिय योग्य तीस प्रकृतियों को बांधने पर मिथ्यादृष्टि को सामान्य से पूर्व में कहे नौ ही उदयस्थान होते हैं और नवासी प्रकृतिक के सिवाय शेष पाँच सत्तास्थान होते हैं । नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान न होने का कारण यह है कि नवासी प्रकृतियों की सत्ता वाले को तिर्यंचगतियोग्य बंध ही नहीं होता है । इक्कीस, चौबीस, पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों में वे पांचों सत्तास्थान पूर्व की तरह समझ लेना चाहिये । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पंचसंग्रह : १० सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इन प्रत्येक उदयस्थान में अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार-चार सत्तास्थान समझना चाहिये । अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान के निषेध का कारण पूर्व कथनानुसार जानना चाहिये। सब मिलाकर तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों को बाँधने पर मिथ्यादृष्टि को चालीस सत्तास्थान होते हैं। तीर्थंकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध होता है और आहारकद्विक सहित देवगतियोग्य तीस प्रकृतियाँ बंधती हैं। वे दोनों बंधस्थान मिथ्यादृष्टि को नहीं होते हैं । क्योंकि मिथ्यादृष्टि को तीर्थंकरनाम और आहारकद्विक का बंध होता ही नहीं है। इस प्रकार से मिथ्यात्व गुणस्थान संबन्धी बंध, उदय और सत्तास्थानों का संवेध जानना चाहिये। सुगम बोध के लिये उक्त समग्र कथन का प्रारूप पृष्ठ २६६-२७० पर देखिए । सासादनगुणस्थान-अब इस गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थान एवं उनके संवेध का विचार करते हैं । सासादनगुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं ।1 इनमें से अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के दो प्रकार हैं-१. देवगतियोग्य, २. नरकगतियोग्य । किन्तु सासादनगुणस्थान में नरकगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध नहीं होकर देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होता है और उसके बंधक पर्याप्तावस्था में वर्तमान गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य हैं। उसका बंध करने पर स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, और यश कीर्ति-अयशःकीर्ति के परावर्तन द्वारा आठ भंग होते हैं । अर्थात् इन आठ प्रकारों में से किसी भी एक प्रकार से मनुष्य और तिर्यंच अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं। १ दिगम्बर साहित्य में भी इसी प्रकार की प्रकृति संख्या वाले तीन बंधस्थान सासादनगुणस्थान में माने हैं। देखो पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गा. ४०३ । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ मिथ्यात्वगुणस्थान में नामकर्म के बंधादिस्थानों के संवेध का प्रारूप बंधस्थान २३ प्र. २५ प्र. २६ प्र. उदयस्थान २१ प्र. २४ २५ Mrrrr m 27 wr 99 is aloor २६ - 13 २७,, 37 २८ २६ " ३० ३१ 2 33 "" २१ प्र. २४ " ३०. ३१ २५ ” २६ २७ २८ २६ " 13 27 17 ३०,” ३१ " " २१. प्र. २४ ” २५.., २६ 17 २७, २८ २६ 21 सत्तास्थान ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ २, ८८, ८६, ८०, २, ८८, ८६, ८०, २,८८,८६,८० २, ८८, ८६, ८० १२, ८८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८० २,८८, ८६, ८० २, ८८, ८६, ८० २, ८८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८० ७८ ७८ 17 37 21 " "" 17 17 २,८८,८६,८०, ७८ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२,८८, ८६, ८०, ७८ २,८८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८० 21 "1 11 31 "" 37 17 " ܙܙ ह२, =८, ८६, ८०, ७८ प्र. ह२, ८८, ,८६,८०, ७८ ६२,८८,८६,८०, ७८ १२,८८, ८६,,८०, ७६ हं२, ८८, ८६, ८० १२, ८८, ८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८० ६२, ८८८६, ८० ६२, ८८, ८६, ८० :) "" 233 " " " 12 २६६ در Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० बंधस्थान २८ प्र. २६ प्र. ३० प्र. योग ६ उदयस्थान २१ प्र. २५, २६ २७ WWW 9 २८ २६ ३० m m ३१ २५ २६ "1 " "" 11 २१ प्र. २४ " 11 ५३ " " 1) २७ २८ २६ " ३० ३१ 11 " " " २१ प्र. २४ در २५,, २६ २७ " 37 २८ " RĈ 11 ३६," ३१ "" ६२, ८० ६२,८८ ६२, ८८ ६२, ८८ ६२,८८ ६२,८८ सत्तास्थान ६२, ८६, ८८, ८६ २,८८,८६ पंचसंग्रह : १० २३३ ܝܘܟ २,८१,८८,८६,८० २, ८८, ८६, ६०, प्र. 33 17 37 3 २, ८६, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २, ८८, ८६, ८०, ७८ ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, २,८६,८८, ८६, ८०, ह२, ८६, ८८, ८६, २, ८६,८८,८६,८०, २, ८६, ८८, ८६, ८०, २,८६,८८, ८६, ८०, २, ८६, ८८, ८६ " === " ७८ ७८ " 17 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प्रकृतियों को बांधने पर पाँच संहनन, पाँच संस्थान, विहायोगतिद्विक, स्थिर, शुभ-अशुभ, सुभग- दुभंग, सुस्वर - दुःस्वर, आदेय अनादेय और यशः कीर्ति अयश:कीर्ति के साथ परस्पर परावर्तन करने से बत्तीस सौ ( ३२०० ) भंग होते हैं । अर्थात् सभी प्रकृतियाँ परावर्तमान होने से उनका परस्पर परावर्तन करने पर उनतीस प्रकृतियों का बंध बत्तीस सौ प्रकार से होता है । इसी प्रकार मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध भी बत्तीस सौ प्रकार से होता है । इन दोनों को जोड़ने पर कुल मिलाकर चौंसठ सौ भंग होते हैं । तथा सासादनगुणस्थान में वर्तमान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी-संज्ञी तिर्यंच पंचेन्दिय, मनुष्य, देव और नारक उद्योतनाम युक्त तिर्यंचगति योग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । परन्तु तथाप्रकार के अध्यवसाय के अभाव में तीर्थंकरनाम युक्त मनुष्यगतियोग्य तीस या आहाRafae युक्त देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । यहाँ भी जैसे पूर्व में उनतीस प्रकृतियों का बंध होने पर बत्तीस सौ भंग बताये हैं, उसी प्रकार तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर भी बत्तीस सौ भंग होते हैं। तीनों बंधस्थानों के कुल Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पंचसंग्रह : १० मिलाकर छियानवे सौ आठ (६६०८ ) भंग होते हैं । एतद् विषयक गाथा इस प्रकार है अट्ठ सया चोसट्ठी बत्तीससया य सासणे भेया । अट्ठावीसाइसु हिय छत्र उइ ॥ अर्थात् सासादनगुणस्थान में अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधस्थान के आठ, उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के चौंसठ सौ और तीस प्रकृतिक बंधस्थान के बत्तीस सौ भंग होते हैं और इनका कुल जोड़ छियानवे सौ आठ है । अब सासादनगुणस्थान के उदयस्थानों का निर्देश करते हैं कि वे इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक, इस प्रकार सात हैं । उनमें से- इक्कीस प्रकृतियों का उदय पर्याप्त नामकर्म के उदय वाले बादर पृथ्वी, जल और प्रत्येक वनस्पति रूप एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी -संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के होता है । इन सभी जीवों के अपर्याप्तावस्था में शरीरपर्याप्ति पूर्ण होने के पहले सासादन होता है । सासादनभाव को लेकर कोई भी जीव नरक में उत्पन्न नहीं होता है, जिससे तद् विषयक इक्कीस प्रकृतियों का उदय नहीं होता है । इक्कीस प्रकृतियों के उदय में एकेन्द्रिय के बादर पर्याप्त के साथ यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति का परावर्तन करने से संभव दो भंग यहाँ होते हैं, अन्य कोई भंग नहीं होता है। क्योंकि सूक्ष्म और अपर्याप्त में सासादन सम्यक्त्वी उत्पन्न नहीं होता है । इसी कारण विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों को भी अपर्याप्त नामकर्म के साथ ही जो एक-एक भंग होता है वह सासादन में नहीं होता है, परन्तु शेष भंग होते हैं । जिससे एकेन्द्रिय के दो, विकलेन्द्रिय के दो-दो कुल छह तथा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के सुभग- दुभंग, आदेय- अनादेय और यशः कीर्ति १ दिगम्बर साहित्य में भी सासादन गुणस्थान सम्बन्धी सात उदयस्थान बताये हैं | देखो पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा ४०४ । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २७३ अयशःकीर्ति का परावर्तन करने से होने वाले आठ, इसी प्रकार के मनुष्यों के आठ और देवों के आठ, कुल मिलाकर इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान के बत्तीस भंग होते हैं । चौबीस प्रकृतियों का उदय एकेन्द्रिय में उत्पन्न मात्र को होता है । यहाँ भी बादर पर्याप्त के साथ यशः कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने पर संभव जो दो भंग हैं वही होते हैं । क्योंकि सासादन सम्यग् - दृष्टि के सूक्ष्म, साधारण एवं तेज व वायुकाय में उत्पन्न नहीं होने से सूक्ष्मादि के साथ होने वाले कोई भी भंग नहीं होते हैं । पच्चीस प्रकृतियों का उदय देव में उत्पन्नमात्र को होता है । यहाँ आय - अनादेय, सुभग दुर्भग और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति का परावर्तन करने से संभव आठ भंग होते हैं । } छब्बीस प्रकृतियों का उदय विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य में उत्पन्नमात्र को होता है । उनमें से विकलेन्द्रियों के प्रत्येक के दो-दो कुल छह, तिर्यंच पंचेन्द्रिय के छह संहनन, छह संस्थान, सुभग- दुभंग, आदेय - अनादेय और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति के परावर्तन से होने वाले दो सौ अठासी और इसी प्रकार से होने वाले मनुष्य के दो सौ अठासी, कुल मिलाकर पाँच सौ बयासी भंग होते हैं । अपर्याप्त नामकर्म के उदय के साथ होने वाला जो एक भंग, वह यहाँ संभव नहीं है । क्योंकि अपर्याप्त नामकर्म के उदय वाले जीवों में सासादनगुणस्थान वाले उत्पन्न नहीं होते हैं । जिससे अपर्याप्त नामकर्म के साथ होने वाले भंगों के सिवाय उपर्युक्त शेष भंग संभव हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि को सत्ताईस और अट्ठाईस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान नहीं होते हैं । क्योंकि वे उत्पन्न होने के बाद अन्तर्मुहूर्त बीतने पर होते हैं और सासादन भाव तो उत्पन्न होने के बाद कुछ कम छह आवलिका मात्र काल ही होता है । इसलिये ये दो उदयस्थान सासादनगुणस्थान में घटित नहीं होते हैं । उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त देवों और नारकों को होता है । उनतीस प्रकृतियों के उदय वाले देव या Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ पंचसंग्रह : १० नारक उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर अनन्तानुबंधिकषाय के उदय से गिरकर सासादनगुणस्थान प्राप्त करते हैं। उनमें से देवों के उनतीस प्रकृतियों के उदय में पूर्व में कहे गये आठ भंग होते हैं और नारक को एक ही भंग होता है। क्योंकि नारक को सुभग, आदेय और यश:कीति नाम का उदय नहीं होता है। कुल मिलाकर उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के नौ भंग होते हैं । तीस प्रकृतिक उदयस्थान भी उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर वहाँ से पतन कर समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त तिर्यंचों, मनुष्यों और उत्तर वैक्रिय शरीर में वर्तमान देवों के होता है। उनमें से तीस प्रकृतिक उदयस्थान में वर्तमान तिर्यंचों के छह संहनन, छह संस्थान, सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय, यशःकीति-अयशःकीति, विहायोगतिद्विक और सुस्वरदुःस्वर के साथ परावर्तन करने पर ग्यारह सौ बावन भंग, मनुष्यों को भी उतने ही भंग अर्थात् ग्यारह सौ बावन व देवों को आठ भंग होते हैं। नारकों के उद्योत का उदय नहीं होता है । जिससे उनको तीस प्रकृतिक उदयस्थान भी नहीं होता है। सब मिलाकर तीस प्रकतिक उदयस्थान के तेईस सौ बारह (२३१२) भंग होते हैं। इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त कर पतित पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय को ही होता है और यहाँ ऊपर कहे अनुसार ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं। इन सब भंगों की प्ररूपक गाथा इस प्रकार है बत्तीस दोन्नि अट्ठ य बासीय सया य पंचनव उदया। बाराहीया तेवीसा . बावन्नेक्कारससया य॥ अर्थात् इक्कीस प्रकृतिक उदय के बत्तीस, चौबीस प्रकृतिक उदय के दो, पच्चीस प्रकृतिक उदय के आठ, छब्बीस प्रकृतिक उदय के पाँच सो बयासी, उनतीस प्रकृतिक उदय के नौ, तीस प्रकृतिक उदय के तेईस सौ बारह और इकत्तीस प्रकृतिक उदय के ग्यारह सौ बावन भंग Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ होते हैं और कुल मिलाकर इन सात उदयस्थानों के सासादनगुणस्थान में चार हजार सत्तानवे भंग होते हैं । २७५ अब सासादनगुणस्थान के सत्तास्थानों को बतलाते हैं । इस गुणस्थान में बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । 1 इनमें से जो कोई जीव आहारकचतुष्क को बांधकर उपशम श्रेणि से गिरकर सासादन भाव को प्राप्त करता है उसे बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है, अन्य को नहीं होता है और आहारकचतुष्क का बंध किये बिना गिरकर आये हुए चारों गति के सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों के अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । अब संवेध का कथन करते हैं- अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करने पर सासादन सम्यग्दृष्टि के तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस प्रकार दो उदयस्थान होते हैं । क्योंकि सासादनगुणस्थान में अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध देवगतिप्रायोग्य ही होता है और वह बंध उसे करणपर्याप्तावस्था में ही होता है । जिससे यहां अन्य कोई उदयस्थान संभव नहीं है । यहाँ मनुष्य संबन्धी तीस प्रकृतियों के उदय में दोनों सत्तास्थान होते हैं और तिर्यंच पंचेन्द्रिय की अपेक्षा मात्र अठासी प्रकृतिक एक ही सत्तास्थान होता है । क्योंकि बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान आहारकचतुष्क का बंध करके उपशमश्रेणि से गिरने पर होता है और तिर्यंचों मैं तो उपशम श्रेणि होती ही नहीं है । इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान में एक अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है । क्योंकि इकत्तीस प्रकृतियों का उदय तिर्यच पंचेन्द्रियों को ही होता है । बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान न होने के कारण का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । - १. दिगम्बर साहित्य में मात्र नवें प्रकृतिक एक सत्तास्थान माना है'संतणउदीयं' – सत्व स्थानमेकं नवतिक्रम् | कुत ? तीर्थंकराऽऽहारकद्विकसवकर्मयुक्तो जीवः सासादनगुणस्थानं न प्रतिपद्यते तेन सत्त्वस्थानं नवतिकम् । - पंचसंग्रह, सप्ततिका अधिकार गा. ४०४ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ पचसंग्रह : १० तियंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यगति योग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करने पर सातों उदयस्थान होते हैं । अर्थात् उन सातों उदयस्थानों में से जिसको जो-जो उदयस्थान होता है, उस-उस उदयस्थानवर्तो वे मनुष्यगतियोग्य या तिर्यंचगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं। उसमें अपने-अपने उदयस्थानवर्ती एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, देव और नारकों के सासादनगुणस्थान में एक अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है और मात्र तीस प्रकृतिक उदयस्थान में वर्तमान मनुष्य को उपशम श्रेणि से गिरने पर यदि उसने आहारकचतुष्क का बंध किया हो तो सासादनगुणस्थान में बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। तीस प्रकृतियों के बंधक के लिये भी इसी प्रकार जानना चाहिये। सभी उदयस्थानों में सब मिलाकर सामान्य से अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में दो, तिथंचगतियोग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में दो, मनुष्ययोग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान में दो और तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतिक बंधस्थान में दो, इस प्रकार आठ सत्तास्थान होते हैं। १. सासादन गुणस्थान में बानवे प्रकृतिक सत्तास्थान आहारकचतुष्क बांधकर उपशम श्रेणि से गिरकर सासादन में आने वाले को होता है । इसीलिये मनुष्य को ही तीस प्रकृतियों के उदय में बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान बताया है । यहाँ प्रश्न यह है कि उपशम श्रेणि से गिरकर सासादन में आने वाला वहीं कालधर्म प्राप्त कर सासादन भाव लेकर देवगति में जाये तो देव संबन्धी इक्कीस, पच्चीस, प्रकृतियों के उदय में बानवे प्रकृतिक सत्तास्थान क्यों नहीं बताया है ? क्योंकि वैमानिक देव का आयु बांधकर उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होकर गिरने वाला सासादन गुणस्थान में कालधर्म को प्राप्त कर उस गुणस्थान को लेकर वैमानिक देवों में जा सकता है तो वहीं मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों को बांधने पर इक्कीस, पच्चीस प्रकृतियों के उदय में बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान भी संभव है । परन्तु उसको नहीं बताया है। विज्ञजन स्पष्ट करने की रुपा करें। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २७७ उक्त समग्र कथन का संक्षिप्त सारांश यह है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तो चौदह जीवभेदों में होता है और वहां चारों गति योग्य बंध होता है । परन्तु सासादन में नरकगति के सिवाय तीन गति योग्य बंध होता है । सासादन गुणस्थान पर्याप्तनाम के उदय वाले बादर पृथ्वी, जल और प्रत्येक वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्दिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, देव, मनुष्य और तियंच पंचेन्द्रिय को शरीर-पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले एवं देव, नारक, गर्भज तिर्यंच और गर्भज मतुष्य को पर्याप्तावस्था में होता है । अपर्याप्तावस्था में वर्तमान उपर्युक्त समस्त जीव मनुष्यगति योग्य उनतीस एवं तियंचगति योग्य उनतीस तथा तीस प्रकृतिक इस प्रकार दो बंधस्थानों का बंध करते हैं और पर्याप्तावस्था में वर्तमान देव, नारक मनुष्यगति योग्य उनतीस एवं तिर्यचगति योग्य उनतीस, तीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान बांधते हैं तथा गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्य देवगतियोग्य अट्ठाईस, मनुष्यगतियोग्य उनतीस तथा तिर्यंचगतियोग्य उनतीस, तीस प्रकृतिक बंधस्थानों को बांधते हैं । इस गुणस्थान में एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय या असंज्ञी पंचेन्द्रिय योग्य बंध नहीं होता है तथा शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पहले पृथ्वी, जल और प्रत्येक वनस्पति को इक्कीस, चौबीस, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी-संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य को इक्कीस छब्बीस, और देव के इक्कीस, पच्चीस प्रकृतिक ये दो-दो उदयस्थान होते हैं और पर्याप्तावस्था में देव को उनतीस, तीस, नारक को उनतीस, तिर्यंच को तीस, इकत्तीस और मनुष्य को तीस प्रकृतिक इस प्रकार उदयस्थान होते हैं। नारकों के अपर्याप्तावस्था में सासादन सम्यक्त्व नहीं होता है । अपने-अपने उदयस्थान में रहते वे जीव ऊपर कहे अनुसार बंधस्थान बांधते हैं। सासादनगुणस्थान में बानवै और अठासी प्रकृतिक यही दो सत्तास्थान होते हैं । अपने-अपने उदय में रहते और अपने-अपने योग्य बंधस्थान बांधते उनको बानवै या अठासी में से कोई भी सत्तास्थान होती है। इस प्रकार से सासादनगुणस्थानवर्ती बंध, उदय और सत्तास्थान Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ पंचसंग्रह : १० एवं उनका संवेध जानना चाहिये । संक्षेप में उक्त वर्णन का दर्शक प्रारूप इस प्रकार हैसासादन गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों के संवेध का प्रारूप बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान २८ प्र. ३० प्र. ६२, ८८ प्र. ८८ ॥ २६ प्र. mor rrrin me mnom rior orr aooramxur 2 0 - ३० प्र. । siis ii i I us us us i I i Isis II i II is is I is Is योग ३ a W मिश्रगुणस्थान-अब सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थान के बंध-उदयसत्तास्थानों और उनके संवेध का विचार करते हैं। इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि यह गुणस्थान गर्भज तिर्यच और गर्भज मनुष्य, देव और नारकों को पर्याप्तावस्था में ही होता है। इस गुणस्थान में देव और नारक मात्र मनुष्यगतियोग्य और Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २७६ मनुष्य तथा तिर्यंच मात्र देवगति योग्य ही बंध करते हैं। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर बंधादि स्थानों और उनके संवेध का विचार करना चाहिये। ___ सम्यगमिथ्यादृष्टिगुणस्थान में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं । सम्यगमिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं। उसके स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति-अयशःकीर्ति के भेद से आठ भंग होते हैं। देव और नारकों के मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है। इसके भी ऊपर कहे अनुसार आठ भंग होते हैं । क्योंकि परावर्तमान अशुभ प्रकृतियों का इस गुणस्थान में बंध नहीं होता है, जिससे अन्य कोई भंग नहीं होते हैं । ___ उदयस्थान उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस प्रकार तीन होते हैं। उनमें से तिर्यंचों के तीस, इकत्तीस प्रकृतिक, मनुष्यों के तीस प्रकृतिक, नारकों के उनतीस प्रकृतिक और देवों के भी उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इनमें से उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के देवापेक्षा सुभग-दुर्भग, आदेय-अनादेय और यशःकीर्ति-अयश:कीर्ति के भेद से आठ भंग होते हैं और नारकापेक्षा एक ही भंग होता है। क्योंकि उनको सुभग आदेय और यशःकीति का उदय नहीं होता है। सब मिलाकर नौ भंग होते हैं। तीस प्रकृतिक उदय के तिर्यंच पंचेन्द्रियों की अपेक्षा संपूर्ण पर्याप्तियों से पर्याप्तावस्था के जो ग्यारह सौ ब वन भंग होते हैं, उन्हीं को यहाँ भी समझना चाहिये, किन्तु भाषापर्याप्ति होने के पहले उद्योत के उदय के १ दिगम्बर साहित्य में भी इसी प्रकार मिश्र गुणस्थान में बंधस्थान और । उदयस्थान माने हैं - मिस्सम्मि ऊणतीसं अट्ठावीसा हवंति बंधाणि । इगितीसूणत्तीसं तीसं च य उदयठाणाणि ॥ -दि० पंचसंग्रह सप्ततिका, गा० ४०५ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० पचसंग्रह : १० विकल्प के जो भंग होते हैं, उनको यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये, क्योंकि यह गुणस्थान समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त होने के बाद ही होता है । इसी प्रकार मनुष्य को भी तीस प्रकृतियों के ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं । कुल मिलाकर तीस प्रकृतिक उदयस्थान के तेईस सौ चार भंग होते हैं। ___ इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान के तिर्यच पंचेन्द्रियों संबन्धी ग्यारह सौ बावन भंग होते हैं । यह उदयस्थान मनुष्यों को नहीं होता है। तीनों उदयस्थानों के कुल मिलाकर चौंतीस सौ पैंसठ भंग होते हैं। सत्तास्थान बानवै और अठासी प्रकृतिक इस प्रकार दो होते हैं ।। आहारकचतुष्क की सत्ता वाले को बानवै प्रकृतिक और उसकी सत्ता बिना को अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान चारों गति के जीवों के होता है। ___ अब इनके संवेध का निरूपण करते हैं-अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक सम्यगमिथ्यादृष्टि को तीस और इकत्तीस प्रकृति रूप दो उदयस्थान होते हैं। इन दोनों उदयस्थानों में वर्तमान तिथंच और तीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान मनुष्य देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध करते हैं और उस समय इन दोनों उदयस्थानों में बानवै और अठासी प्रकृतिक इस तरह दो सत्तास्थान होते हैं। __ मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक देव और नारक को उनतीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान होता है। उनतीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान देव और नारक मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों १ दिगम्बर साहित्य में बान और नब्ब प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान बतलाये हैं-'तीर्थकर प्रकृति की सत्तावाला जीव मिश्र गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता है । इसलिये उसके तेरानव और इक्यानवै प्रकृतिक सत्तास्थान संभव नहीं हैं । शेष बान और नब्बे प्रकृतिक दो सत्तास्थान उसके होते हैं । -दि० पंचसंग्रह सप्ततिका अधिकार गाथा ४०६ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ का बंध करते हैं, उस समय बानवै और अठासी प्रकृतिक में से कोई भी सत्तास्थान होता है। इस तरह तीनों में के प्रत्येक उदयस्थान में दो-दो सत्तास्थान होने से सामान्यतः छह सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार से मिश्रगुणस्थान संबन्धी बंध, उदय और सत्तास्थान एवं उनका संवेध जानना चाहिये । सुगम बोध के लिये उक्त कथन का दर्शक प्रारूप इस प्रकार है मिश्र गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों के संवेध का प्रारूप - बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान २८ प्र. ६२, ८८ प्र. m २६ प्र. ६२, ८८ ,, योग २ अविरतसम्यग्दष्टिगुणस्थान-इस गुणस्थान में वर्तमान जीव को अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये तीन बंधस्थान होते हैं। इनमें से अविरतसम्यग्दृष्टि तिर्यचों और मनुष्यों के देवगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। उसके स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशःकीति-अयशःकीति के भेद से आठ भंग होते हैं। इस गुणस्थान वाले अन्य किसी भी गतियोग्य बंध नहीं करते हैं। अतएव यहां नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ पंचसंग्रह : १० तीर्थकरनाम सहित देवगति योग्य बंध करने पर मनुष्यों को उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है और इसके भी पूर्वोक्त प्रकार से आठ भंग होते हैं। मनुष्यगतियोग्य बंध करते देव और नारकों के उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है। इसके भी यही आठ भंग होते हैं। तथा तीर्थकरनाम सहित मनुष्यगतियोग्य तीस का बंध करने पर उनको तीस प्रकृतिक बंधस्थान भी होता है और उसके भी पूर्वोक्तानुसार आठ ही भंग होते हैं। ___ इस गुणस्थान में आठ उदयस्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैंइक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस प्रकृतिक। इनमें से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान नारक, तिर्यच, मनुष्य और देव चारों गति संबन्धी समझना चाहिये। क्योंकि पूर्वबद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि की उक्त चारों गतियों में उत्पत्ति संभव है। अविरतसम्यग्दृष्टि अपर्याप्त नामकर्म के उदय वालों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसलिये अपर्याप्त के उदयस्थान में होने वाले भंगों को छोड़कर शेष भंग यहाँ समझना चाहिये और ऐसे भंग पच्चीस हैं । जिनका विवरण इस प्रकार है--तिर्यंच पंचेन्द्रिय संबन्धी आठ, मनुष्य संबन्धी आठ, देव संबन्धी आठ और नारकी संबन्धी एक । कुल मिलाकर ये पच्चीस होते हैं। पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान देव, नारक और वकिय तिर्यच-मनुष्यों की अपेक्षा समझना चाहिये । इनमें से नारक क्षायिक या वेदक सम्यग्दृष्टि होते हैं और देव तीनों प्रकार के सम्यक्त्व वाले होते है । यहाँ भंग अपने-अपने सभी समझना चाहिये । १ 'पणवीससत्तवीसोदया देवने र इए उव्विय वेतिरिमणुए य पडुच्च, नेरै इंगो खवइवेयगा सम्म हिट्ठी, देवो तिविह सम्मद्दिट्ठीविति ।' -सप्ततिका चूर्णि Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २८३ छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान क्षायिक और वेदक सम्यग्दृष्टि तिर्यच और मनुष्यों को होता है। औपशमिक सम्यग्दृष्टि तिर्यच और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते हैं। इसीलिये औपशमिक सम्यक्त्व को यहाँ ग्रहण नहीं किया है। तियंचों में वेदक सम्यग्दृष्टित्व बाईस की सत्ता वाले (असंख्य वर्ष की आयु वाले) तिर्यंचापेक्षा समझना चाहिये। ____ अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों में होता है। तीस प्रकृतियों का उदय तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य और देवों के तथा इकत्तीस प्रकृतियों का उदय तिर्यंच पंचेन्द्रियों को होता है। __ इन प्रत्येक उदयस्थान में भंग अपने-अपने सामान्य उदयस्थानों में कहे अनुसार सभी समझना चाहिये। इस गुणस्थान में तेरानवे, बानवै, नवासी और अठासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं। इनमें से जो अप्रमत्त या अपूर्वकरण गुणस्थान में वर्तमान जीव तीर्थकर और आहारकद्विक युक्त देवगति योग्य इक्कीस प्रकृतियों का बंध कर परिणामों के परावर्तन से वहां से गिरकर अविरतसम्यग्दृष्टि हों अथवा मरण कर देव हों तो उनकी अपेक्षा तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। आहारकद्विक का बंध कर परिणामों के परावर्तन द्वारा गिरकर चार में से किसी भी गति में उत्पन्न हों, और उस-उस गति में जाकर पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करें तो ऐसे जीवों की अपेक्षा बानवै प्रकृतिक तथा मात्र देव और मनुष्य में मिथ्यात्व प्राप्त नहीं करने वाले को भी अर्थात् पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतियों का उदय देवों और नारकों की अपेक्षा एवं उत्तरवैक्रिय तिथंच और मनुष्यों की अपेक्षा होता है । उनमें नारक क्षायिक और वेदक सम्यग्दृष्टि होते हैं और देव तीनों प्रकार के सम्यक्त्व यक्त Jain Education Internatio Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ पंचसंग्रह : १० बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है ।। नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान अविरतसम्यग्दृष्टि देव, नारक और मनुष्यों को होता है। क्योंकि ये तीनों गति वाले जीव तीर्थकरनाम का बंध कर सकते हैं । तिर्यंचों में तीर्थंकर नाम की सत्ता वाला उत्पन्न भी नहीं होता है। इसलिये तिर्यंच का ग्रहण नहीं किया है । अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान सामान्य से चारों गति वाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों के होता है । - इस प्रकार से अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थानों को जानना चाहिये अब इनके संवेध का निरूपण करते हैं। देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य और तिर्यंचों के यथायोग्य प्रकार से आठ उदयस्थान होते हैं। उनमें से पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान वैक्रिय तिर्यंच और मनुष्यों की अपेक्षा होता है । अपने-अपने उदय में रहते वे अट्ठाईस प्रकृतियों का बध करते हैं और एक-एक (प्रत्येक) उदयस्थान में बानवै और अठासी उदय प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं। उनतीस प्रकृतियों का बंध देवगतियोग्य और मनुष्यगतियोग्य, इस तरह दो प्रकार का है। उसमें देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तीर्थंकरनाम युक्त है और उसका बंध मनुष्य ही करते हैं। इसके उदयस्थान इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इस प्रकार सात हैं। इन उदयस्थानों में वर्तमान मनुष्य देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करते हैं । १ क्योंकि मनुष्य तो उपशम श्रेणि से गिरता-गिरता अविरत गुणस्थान में आता है और श्रेणि में काल करके सम्यक्त्व युक्त वैमानिक देव में उत्पन्न होता है । जिससे सम्यक्त्व से नहीं गिरने वाले मनुष्य और देव के बानवे प्रकृतिक सत्तास्थान घटित हो सकता है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २८५ इकत्तीस प्रकृतियों का उदय मनुष्यों में नहीं होता है। प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवै और नवासी प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं। मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध देव और नारक करते हैं। उनमें नारकों के इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान होते हैं और देवों के उक्त पांच और छठा तीस प्रकृतिक इस तरह छह उदयस्थान होते हैं। उनमें तीस प्रकृतिक उदयस्थान के उद्योत के वेदक देवों के समझना चाहिये । अपने-अपने उदयस्थानों में वर्तमान देवों और नारकों को मनुष्ययोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है और प्रत्येक उदयस्थान में बानवै और अठासो प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं। मनुष्यगतियोग्य तीर्थंकरनाम युक्त तीस प्रकृति अविरतसम्यग्दृष्टि देव और नारक बांधते हैं। उनमें से देवों के ऊपर कहे अनुसार छहों उदयस्थान होते हैं और उन प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवै और नवासी प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान जानना चाहिये । नारकों के तीस प्रकृतियों का बंध करने पर पांच उदयस्थान होते हैं और उन प्रत्येक उदयस्थान में एक मात्र नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। क्योंकि तीर्थकर नाम और आहारकचतुष्क इन दोनों की संयुक्त सत्ता होने पर कोई भी जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होता है । इसलिये उनको तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान संभव नहीं है । इस प्रकार सामान्य से इक्कीस से लेकर तीस प्रकृतिक उदयस्थानों में के प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवै, वानवै, नवासी, अठासी इस प्रकार चार सत्तास्थान होते हैं और इकत्तीस प्रकृतिक उदयस्थान में वानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं। कुल मिलाकर ये तोस सत्तास्थान होते हैं । संक्षेप में उक्त विवेचन का सारांश इस प्रकार हैयह गुणस्थान चारों गति के जीवों को करण-अपर्याप्तावस्था और Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ पंचसंग्रह : १० पर्याप्तावस्था में होता है। अपर्याप्तावस्था में नया सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता है, परन्तु सम्यक्त्व को साथ लेकर चारों गति में जा आ सकता है। अतएव अपर्याप्तावस्था में भी यह गुणस्थान होता है। इस गुणस्थानवर्ती देव और नारक मनुष्यगतियोग्य उनतीस और तीर्थंकरनाम सहित तीस प्रकृतियों का बंध करते हैं। मनुष्य देवगतियोग्य अट्ठाईस और तीर्थकरनाम सहित उनतीस प्रकृतियों को और तिर्यंच मात्र अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधते हैं। चारों गति के जीव अपने-अपने उदयस्थानों में रहते उपर्युक्त बंधस्थान बांधते हैं। सत्तास्थान तेरानवै, बानवे, नवासी और अठासी प्रकृतिक ये चार होते हैं। इनमें से देवगति में चारों, नरकगति में तेरानवै के सिवाय तीन, मनुष्यगति में चारों और तिर्यंचगति में बानवै एवं अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान संबन्धी बंध, उदय, सत्तास्थान एवं तत्संबन्धी संवेध जानना चाहिये । सुगम बोध के लिये जिसका प्रारूप पृष्ठ २८७ पर देखिए। देशविरत गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थानों का विवरण इस प्रकार है____ यह गुणस्थान संख्यात वर्ष के आयु वाले मनुष्य और तिर्यंचों के ही होता है और वह भी पर्याप्तावस्था में ही । अतएव इस गुणस्थान में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं। इनमें से अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान देशविरत मनुष्यों या तियंचों के देवगतियोग्य प्रकृतियों का बंध करने पर होता है और स्थिर-अस्थिर, शुभअशुभ, यश:कीर्ति-अयशःकीर्ति के भेद से आठ भंग होते हैं और उक्त १ यह गुणस्थान संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यचों के होता है और उन्हें उपशम या क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है । संख्यात वर्ष की आयु वालों में सायिक सम्यक्त्व नहीं होता है । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २८७ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों का प्रारूप - - - बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान २८ प्र. २६ प्र. | arxuruwooor kurU Words . . ه ا ६२,८८ , १२,८८ ,, ६२, ८८ ,. ६२, ८८ , ६२, ८८ ,, ६२, ८८ " ६२, ८८ ., ६३, ६२, ८६, ८८ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८ ६३, ६२, ८६, ८८ ६३, १२, ८६, ८ ,, ६३, ६२, ८६, ८८ ., ६३, ६२, ८६, ८८ ,, ६३, ६२, ८६, ८८ ., ६३, ८६ प्र. ६३, ८६ " ६३, ८६ , ६३, ८६" ९३, ८६, ६३, ८६, ل له لا ३० प्र. m m له ۸۲ ۸۱ اه اه سه mm योग ३ له . - अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान को तीर्थकरनाम युक्त करने पर उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है और यह बंधस्थान मात्र मनुष्यों के ही होता है । क्योंकि तिर्यचों के तीर्थकरनाम का बंध होता ही नहीं है। इसके भी उक्त आठ भंग होते हैं। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ पंचसंग्रह : १० __ यहाँ छह उदयस्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं-पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक । इनमें से आदि के चार उदयस्थान वैक्रिय तिथंच और मनुष्यों को होते हैं तथा इस गुणस्थान में दुर्भग, अनादेयं और अयशःकीति का उदय नहीं होने से चारों उदयस्थानों में एक-एक ही भंग होता है। तीस प्रकृतिक उदयस्थान वैक्रिय तिर्यंच एवं स्वभावस्थ तिर्यंचमनुष्यों के भी होता है । इसके भंग एक सौ चवालीस होते हैं। जो छह संस्थान, छह संहनन, सुस्वर-दुःस्वर, प्रशस्त विहायोगतिअप्रशस्त विहायोगति नाम के परावर्तन से होते हैं। दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति का उदय गुण के प्रभाव से ही देशविरत को होता नहीं है। जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । इकत्तीस प्रकृतियों का उदय तिर्यंचों के ही होता है। उसके भी ऊपर कहे एक एक सौ चवालीस भंग होते हैं। इस गुणस्थान में तेरानवै, बानवै, नवासी और अठासी प्रकृतिक इस प्रकार चार सत्तास्थान होते हैं। इनमें यदि कोई अप्रमत्त या अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव तीर्थकरनाम और आहारकद्विक बांधकर परिणामों के ह्रासोन्मुखी होने से देशविरति हो तो उसे तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है और शेष सत्तास्थानों का विचार अविरतसम्यग्दृष्टि की तरह समझना चाहिये। अब इनके संवेध का कथन करते हैं देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक देशविरत मनुष्य को पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान होते हैं। इनमें से आदि के चार उदयस्थान वैक्रिय मनुष्य और पांचवां स्वभावस्थ मनुष्य को होता है। इन प्रत्येक उदयस्थान में बानवै और अठासी प्रकृतिक इस तरह दो-दो सत्तास्थान होते हैं । देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक देशविरत तिर्यंच को भी ऊपर कहे अनुसार पांच एवं छठा इकत्तीस प्रकृतिक इस प्रकार छह Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २८६ उदयस्थान होते हैं । इन प्रत्येक उदयस्थान में भी बानव एवं अठासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । तीर्थकरनाम युक्त देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध देशविरत मनुष्यों के ही होता है । उसमें पहले मनुष्य को जो और जिस प्रकार से पांच उदयस्थान कहे हैं, वे उसी प्रकार से पांच उदयस्थान होते हैं । प्रत्येक उदयस्थान में तेरानवें और नवासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार देशविरत गुणस्थान में पच्चीस से तीस तक के पांच उदयस्थानों में चार-चार सत्तास्थान और इकत्तीस प्रकृतियों के उदय में दो सत्तास्थान, इस प्रकार कुल वाईस सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार से देशविरतगुणस्थान के बंधादि स्थान और उनका संवेध जानना चाहिये । सुगमता से समझने के लिये जिसका प्रारूप इस प्रकार है देशविरत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि स्थानों के संबंध का प्रारूप बंघस्थान २८ प्र. २६ प्र. योग २ उदयस्थान २५ प्र. २७,, २८ " २६ " ३० ३१ 11 २६,, २७, ११ " २८ १ २६ " ३० " सतास्थान २,८८ प्र ६२, ८८ ९२,८८ 33 ६२,८८ २,८८ ६२, ८८ ६३, ८६ ६३, ८६ ६३ ८६ ६३, ८६ ६३, ८६ २२ " " 21 37 11 33 37 " 17 10 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० प्रमत्तसंयत गुणस्थान- यह तथा इससे आगे के सभी गुणस्थान संयत मनुष्य को ही होते हैं । इस गुणस्थान सम्बन्धी बंध, उदय और सत्तास्थानों का विवरण इस प्रकार है २६० इस गुणस्थान में अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं । जो देशविरत की तरह समझना चाहिये तथा पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान होते हैं। ये सभी उदयस्थान वैक्रियसंयत और आहारकसंयत को होते हैं तथा अंतिम तीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ संयत को भी होता है। वैक्रियसंयत और आहारकसंयत के पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतियों के उदय में एक-एक भंग होता है । अट्ठाईस और उनतीस प्रकृतिक उदयस्थान के दो-दो और तीस प्रकृतिक उदयस्थान का एकएक भंग होता है । यानि वैक्रियसंयत के सात और आहारकसंयत के सात कुल चौदह भंग होते हैं । तीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ संयत को भी होता है और उसके देशविरति की तरह एक सौ चवालीस भंग होते हैं । तेरानवे, नवासी, बानव और अठासी प्रकृतिक इस तरह चार सत्तास्थान होते हैं । जिनका विचार देशविरत गुणस्थान के समान कर लेना चाहिये | अब इनके संवेध का कथन करते हैं देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक प्रमत्तसंयत को उपर्युक्त पांचों उदयस्थानों में बानव और अठासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । मात्र आहारकसंयत के प्रत्येक उदयस्थान में एक बानव प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है । क्योंकि आहारक की सत्ता वाला ही आहारकशरीर की विकुर्वणा कर सकता है। वैक्रियसंयत को दोनों सत्तास्थान संभव हैं । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६१ तीर्थंकरनाम युक्त देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक संयत को उपर्युक्त पांचों उदयस्थानों में तेरानवें और नवासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । मात्र आहारकसंयत को तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है । क्योंकि उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान तीर्थंकरनाम युक्त होने से उसकी सत्ता भी अवश्य होती है । वैक्रिय संयत और स्वभावस्थ संयत को दोनों सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार प्रमत्तसंयत को अपने समस्त उदयस्थानों में सामान्य से चार-चार सत्तास्थान संभव हैं । जिससे कुल मिलाकर बीस सत्तास्थान होते हैं । इस तरह से प्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध, उदय और सत्तास्थान एवं उनके संवेध का विवेचन जानना चाहिये । सुगमता से बोध करने के लिये प्रारूप इस प्रकार है प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादि के संवेध का प्रारूप बंधस्थान २८ प्र. २६ प्र. योग २ उदयस्थान २५ प्र. २७ " २८ " २६ " ३० " २६ प्र. २७ " २८ " २६ " ३० १० " सत्तास्थान २,८८ प्र. ६२,८८ ६२, ८ ६२, ८८ " २० " २, ८८ 17 ६३, ८६ प्र. 37 ३,८६ ६३, ८६ ६३, ८६ ६३, ८६, " " " Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० अप्रमत्तसंयत गुणस्थान -- अब क्रमप्राप्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंध, उदय, सत्तास्थानों और उनके संवेध का प्रतिपादन करते हैं । २६२ इस गुणस्थान में अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस तरह चार बंधस्थान होते हैं । उनमें से आदि के दो प्रमत्तसंयत गुणस्थान की तरह समझना चाहिये । आहारकद्विकयुक्त देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर तीस का तथा तीर्थकरनाम और आहारकद्विक इन तीनों का एक साथ बंध करने पर इकत्तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है | यहाँ प्रत्येक बंधस्थान का एक-एक भंग ही होता है । क्योंकि इस गुणस्थान में अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति का बंध नहीं होता है । इस गुणस्थान में उनतीस और तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं । उनमें जो कोई प्रमत्तसंयत आहारक या वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करके उसकी समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त हो इस गुणस्थान में आये, उसे उनतीस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है । इस उदयस्थान के वैक्रिय सम्बन्धी एक और आहारक सम्बन्धी एक इस प्रकार कुल दो भंग होते हैं | उद्योत का उदय होने के बाद तीस प्रकृतिक उदयस्थान भी यहाँ होता है । इसके पूर्व की तरह दो भंग होते हैं । इस प्रकार वैक्रियसंयत के दो और आहारकसंयत के दो, कुल चार भंग होते हैं । स्वभावस्थ अप्रमत्तसंयत को भी तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और उसके एक सौ चवालीस भंग होते हैं । वे भग प्रमत्तसंयत गुणस्थान में बताये गये अनुसार जानना चाहिये । इस गुणस्थान में भी पूर्व में कहे गये अनुसार तिरानवें, बानवं, नवासी, अठासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । अब इनके संवेध का निर्देश करते हैं इस गुणस्थान में अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक को दोनों उदयस्थानों में अठासी प्रकृतिक, उनतीस प्रकृतिक बंधस्थान के दोनों उदयस्थानों में नवासी प्रकृतिक, तीस प्रकृतियों को बांधने वाले को दोनों उदय Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ स्थानों में बानवै प्रकृतिक और इकत्तीस प्रकृतियों के बंधक को दोनों उदयस्थानों में तिरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । क्योंकि जिसने तीर्थकरनाम का निकाचित बंध किया है, वह उसकी बंधयोग्य भूमिका में प्रति समय अवश्य तीर्थंकरनाम कर्म का बंध करता है। इसी प्रकार आहारक का बंध होने के बाद भी उसकी बंधयोग्य भूमिका में आहारकद्विक का बंध होता रहता है। इसलिये प्रत्येक बंध में एक-एक सत्तास्थान संभव है। कुल मिलाकर आठ सत्तास्थान होते हैं। इस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के बंधादि स्थान और उनका संवेध जानना चाहिये। जिसका प्रारूप इस प्रकार हैअप्रमत्तसंयत गुणस्थान में नामकर्म के बंधादिस्थानों में संवेध का प्रारूप बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान له له 17 Pirnr rrr m سه له २४ प्र योग ४ अपूर्वकरण गुणस्थान--- इस गुणस्थान के बंध-उदय-सत्तास्थान एवं इनके संवेध का वर्णन इस प्रकार है--- यह गुणस्थान चारित्रमोह के उपशमक या क्षपक को होता है। यहाँ अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक ये पांच Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ पंचसंग्रह : १० बंधस्थान होते हैं । इनमें से आदि के चार का स्वरूप अप्रमत्तसंयत के बंधस्थानों के समान समझना चाहिये और अपूर्वकरण के छठे भाग में देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने के बाद यश:कीर्ति का बंध रूप एक प्रकृतिक बंधस्थान होता है । यहाँ तीस प्रकृतियों का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है । उसके चौबीस भंग होते हैं, जो वज्रऋषभनाराचसंहनन, छह संस्थान, सुस्वर- दुःस्वर और शुभ विहायोगति-अशुभ विहायोगति के परावर्तन द्वारा बनते हैं । लेकिन जिन आचार्यों का मत है कि आदि के तीन संहनन में से किसी भी संहनन वाला उपशम श्रेणि मांडता है, उनके मत से इन चौबीस को तीन संहनन से गुणा करने पर बहत्तर भंग होते हैं । इस प्रकार एक ही उदयस्थान और उसके भंग नौवें गुणस्थान में भी होते हैं । सत्तास्थान पूर्व में कहे अनुसार तिरानवे, नवासी बानवें और अठासी प्रकृतिक ये चार होते हैं । अब इनके संवेध का निर्देश करते हैं तीस प्रकृतियों के उदय में वर्तमान अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव को अठासी प्रकृतिक, उनतोस प्रकृतियों के बंधक को नवासी प्रकृतिक, तीस प्रकृतियों के बंधक को बानव प्रकृतिक और इकत्तीस प्रकृतियों के बंधक को तिरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होते हैं । एक प्रकृतिक बंधक को चारों सत्तास्थान इस प्रकार जानना चाहिये कि चारों में से किसी भी बंधस्थान वाला देवगतियोग्य बंधविच्छेद होने के बाद एक प्रकृति का बंधक होता है और अट्ठाईस आदि प्रकृतियों के बंधक को अनुक्रम से अठासी प्रकृतिक आदि चारों सत्तास्थान कहे हैं, जिससे एक प्रकृति के बंधक को भी चारों सत्तास्थान संभव हैं | इस प्रकार से अपूर्वकरण गुणस्थान के बंधादि स्थानों और उनका Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्र २६५ संवेध जानना चाहिये । सुगम बोध के लिये जिसका प्रारूप इस प्रकार है अपूर्वकरणगुणस्थान में नामकर्म के बंधादिस्थानों के संवेध का प्रारूप बंधस्थान २८ प्र. २६, ३०,, - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ ३१,, १ " योग ५ उदयस्थान ३० प्र. ३० " ३० " ܙ ܙ ܘ܆ ३० 17 सत्तास्थान ८८ प्र. ८६ " ६२,, ६३," ८, ८६, ६२, ६३ प्र. ८ अनिवृत्तिबादर संप रायगुणस्थान के बंधादि स्थानों का निरूपण इस प्रकार हैं इस गुणस्थान में यशः कीर्ति नाम का बंध रूप एक बंधस्थान और तीस प्रकृति का उदय रूप एक उदयस्थान है और सत्तास्थान तेरानवै, बानवे, नवासी, अठासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृति रूप आठ होते हैं । उनमें से प्रथम चार उपशमश्रेणि की अपेक्षा और क्षपक श्रेणि में जब तक तेरह प्रकृतियों का क्षय नहीं हुआ होता है, तब तक होते हैं और तेरह प्रकृतियों का क्षय होने के बाद अम्तिम चार सत्तास्थान होते हैं । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पंचसंग्रह : १० यहां बंध, उदय और सत्तास्थानों के भेद का अभाव होने से संवेध नहीं होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान - इस गुणस्थान में भी यशः कीर्ति का बंध रूप एक बंधस्थान, तीस प्रकृति का उदय रूप एक उदयस्थान होता है और सत्तास्थान नौवें गुणस्थान की तरह आठ होते हैं । उनमें से तेरानवै, बानवै, नवासी, अठासी प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान उपशम श्रेणि में और अस्सी, उन्यासी, छियहत्तर, पचहत्तर प्रकृतिक ये चार क्षपक श्रेणि में होते हैं तथा तीस प्रकृतिक उदयस्थान के चौबीस और बहत्तर भंग आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में जिस प्रकार बताये हैं, उसी प्रकार से नौवें और दसवें गुणस्थान में भी जानना चाहिये । यहां भी संवेध संभव नहीं है । इस प्रकार से पहले से लेकर दसवें गुणस्थान तक नामकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों एवं उनके संवेध के बारे में जानना चाहिये । ग्यारहवें आदि आगे के गुणस्थानों में नामकर्म की प्रकृतियों का बंध तो नहीं होता है । किन्तु उदय और सत्ता होती है । अतएव ग्यारहवें से लेकर चौदहवे गुणस्थान तक के उदय और सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं । उपशान्तमोहगुणस्थान- इस गुणस्थान में तीस प्रकृतियों का उदय रूप एक ही उदयस्थान होता है। उसके चौबीस अथवा बहत्तर भंग आठवें गुणस्थान की तरह समझना चाहिये तथा सत्तास्थान तेरानवै, नवासी, बानवे और अठासी प्रकृतिक ये चार हैं। क्षीणमोह गुणस्थान – इस गुणस्थान में तीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान होता है । यह गुणस्थान क्षपकश्रेणि द्वारा प्राप्त होता है और क्षपक श्रेणि प्रथम संहनन से ही प्राप्त होती है, जिससे भंग चौबीस ही होते हैं । उसमें भी क्षीणमोहगुणस्थान में वर्तमान तीर्थकरनाम की सत्तावालों के प्रथम संस्थान आदि शुभ प्रकृतियों का ही उदय होने से एक ही भंग होता है तथा अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान होते हैं । इनमें से उन्यासी और Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६७ पचहत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता बिना के जीवों के तथा अस्सी, छियत्तर प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान तीर्थंकरनाम की सत्तावालों के होते हैं। ___सयोगिकेवलीगुणस्थान-सयोगिकेवली भगवन्तों को बीस, इक्कीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक इस तरह आठ उदयस्थान होते हैं। इन आठ उदयस्थानों और इनके भंगों का विचार सामान्य से जहां नामकर्म के उदयस्थानों का विचार किया है तदनुरूप जानना चाहिये। सत्तास्थान अस्सी, उन्यासी, छियत्तर और पचहत्तर प्रकृतिक इस प्रकार चार होते हैं। उनमें उक्त उदयस्थानों में से जो-जो उदयस्थान सामान्य केवली को होते हैं उनको उन्यासी और पचहत्तर में से कोई भी सत्तास्थान होता है और जो उदयस्थान तीर्थंकर भगवन्तों को होते हैं, उनमें अस्सी और छियत्तर में से कोई भी सत्तास्थान होता है । जिनका दर्शक प्रारूप इस प्रकार है__ सयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्म के उदय और सत्तास्थानों के संवेध का प्रारूप बधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान ७६, ७५ प्र. ० mor 9 99॥ ७६, ७५ ,, 0 0 ७६, ७५ ८०, ७६, ७६, ७५ प्र. ८०, ७६, ७६, ७५ ,, ८०, ७६ प्र. ० योग x ८ । For Private & Personal use only mellorary.org Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ पंचसंग्रह : १० ____ आयोगिकेवलीगुणस्थान-इस गुणस्थान में आठ और नौ प्रकृतिक इस प्रकार दो उदयस्थान होते हैं । इनमें से आठ प्रकृतियों का उदय सामान्य अयोगिकेवली और नौ प्रकृतियों का उदय तीर्थंकर अयोगिकेवली को होता है तथा अस्सी, उन्यासी, छियत्तर, पचहत्तर, नौ और आठ प्रकृतिक ये छह सत्तास्थान होते हैं। उनमें से आठ प्रकृतिक उदयस्थान में उन्यासी, पचहत्तर और आठ प्रकृतिक ये तीन तथा नौ प्रकृतियों के उदय में अस्सी, छियत्तर और नौ प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं तथा इनमें से भी आदि के दो-दो अयोगिकेवली के द्विचरम समय पर्यन्त और अंतिम समय में तीर्थंकर केवली को नौ प्रकृतिक एवं सामान्य केवली को आठ प्रकृतिक सत्तास्थान होता है। उक्त कथन का सुगमता से बोध कराने वाला प्रारूप इस प्रकार हैअयोगिकेवली गुणस्थान में नामकर्म के उदय व सत्तास्थानों के संवेध का प्रारूप बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान us ८०, ७६, ६ प्र. ७६, ७५, ८, योग x इस प्रकार से गुणस्थानों में नामकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थान और उनके संवेध का निरूपण जानना चाहिये।। १ गुणस्थानापेक्षा दिगम्बर साहित्य में वर्णित नामकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों का विचार परिशिष्ट में देखिये । Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ २६६ अब गति आदि में नामकर्म के बंध आदि स्थानों का विचार करते हैं । नरकगति - नारकों के उनतीस और तीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं। उनमें से उनतीस प्रकृतिक स्थान नारकों को तियंचगतियोग्य और मनुष्यगतियोग्य बंध करने पर बंधता है तथा उद्योतनाम युक्त तीस प्रकृतिक तिर्यंचगतियोग्य बंध करने पर एवं तीर्थंकरनाम युक्त तीस प्रकृतिक मनुष्यगति योग्य बंध करने पर बंधता है । इन बंधस्थानों में जो भंग पूर्व में कहे हैं, वही यहाँ भी समझना चाहिये, यानि मनुष्य और तिर्यंच दोनों गति योग्य उनतीस के बंध के ४६०८ और तिर्यंचगति योग्य तीस के बंध के ४६०८ और मनुष्य योग्य तीस के बंध के आठ, इस प्रकार तिर्यंचगति योग्य दो बंधस्थान के ह२१६ और मनुष्यगति योग्य दो बंधस्थान के ४६१६ भंग होते हैं । नारकों के उदयस्थान पांच हैं- इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक । इन उदयस्थानों के भंग नारक सामान्य के उदयस्थानों के समान जानना चाहिये । सत्तास्थान तीन होते हैं - बानवे, नवासी और अठासी प्रकृतिक | इनमें से बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान तो जैसे सामान्यतः सभी को होते हैं उसी प्रकार नारकों के भी होते हैं । नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान तीर्थंकर नामकर्म का बंध करने के बाद मिथ्यात्व में जाकर नारकों में उत्पन्न हुओं को होता है । तेरानव प्रकृतिक सत्तास्थान नरकगति में नहीं होता है । क्योंकि तीर्थंकर और आहारक की सत्ता रहते कोई भी जीव नरक में उत्पन्न नहीं होता है । १. श्रेणिकादि की तरह नरकायु का बंध करने के पश्चात क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जन कर तीर्थंकरनाम को निकाचित कर सम्यक्त्वयुक्त भी नारकों में जाते हैं । ऐसे मनुष्यों को तीस प्रकृतिक बंधस्थान होता है और उनकी पाँचों उदयस्थानों में एक नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० पंचसग्रह : १० अब इनके संवेध का निर्देश करते हैं-तिर्यंचगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक नारक को उपर्युक्त पांचों उदयस्थान होते हैं यानि ऊपर कहे स्वयोग्य पांचों उदयस्थानों में वर्तमान नारकों को तिर्यंचगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है । उस समय उनको बानवै और अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से कोई एक सत्तास्थान होता है। तीर्थंकरनाम की सत्ता वाले नारक तिर्यचगतियोग्य बंध नहीं करते हैं, जिससे तिर्यंचगति योग्य बंध में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान नहीं होता है। इसी तरह उद्योतनाम के साथ तिर्यंचगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर भी पांचों उदयस्थान होते हैं तथा बानवै और अठासी प्रकृतिक सत्तास्थान में से कोई भी सत्तास्थान होता है। . मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का भी बंध करने पर पूर्वोक्त पाँचों उदयस्थान होते हैं । परन्तु उन प्रत्येक उदयस्थान में बानवे, नवासी, अठासी प्रकृतिक ये तीनों सत्तास्थान संभव हैं। उनमें से बानवै और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान तो उनतीस प्रकृतियों के बंध में जिस प्रकार से कहे हैं, उसी तरह से जानना चाहिये और नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान पहले कहा है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि नारक को प्रारम्भ के अन्तर्मुहुर्त पर्यन्त होता है और उस समय वे मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का ही बंध करते हैं । अर्थात् मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंध में नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान मिथ्यादृष्टि नारकों में होता है । क्योंकि वे पर्याप्त होने के बाद अवश्य सम्यक्त्व प्राप्त करते हैं और उस समय तीर्थकरनामयुक्त मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते हैं। तीर्थकरनामयुक्त मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते नारक को अपने-अपने सभी उदयस्थानों में मात्र नवासी प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है। इस प्रकार से नरकगति संबन्धी बंधादि स्थान जानना चाहिये। अब तिर्यंचगति में बंधादि स्थानों का विचार करते हैं। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ ३०१ तिर्यंचगति-तिर्यंचों में तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये छह बंधस्थान होते हैं । अर्थात् तिर्यच भिन्नभिन्न गति योग्य तेईस प्रकृतिक आदि छह बंधस्थानों में से किसी भी बंधस्थान को बांधते हैं। ___ इनमें से एकेन्द्रिय तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस, तीस प्रकृतिक बंधस्थानों को बांधते हैं, विकलेन्द्रिय और अपर्याप्त असंज्ञी भी इन्हीं पांच बंधस्थानों को बांधते हैं। मात्र पर्याप्त असंज्ञी और पर्याप्त-अपर्याप्त संज्ञी तिर्यंच यथायोग्य रोति से उपर्युक्त छहों बंधस्थानों का बंध करते हैं। यहां यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रथम गुणस्थान में देव या नरक गति योग्य बंध पर्याप्त अवस्था में ही होता है। मात्र अपर्याप्तावस्था में देवगतियोग्य बंध सम्यग्दृष्टिपने में होता है। इन बंधस्थानों और उनके भंगों का विचार जैसा पूर्व में किया है तदनुरूप यहाँ भी समझना चाहिये और किसको कौनसा बंधस्थान होता है, और वह किस गति योग्य है, इसका विचार करके भंगों को समझ लेना चाहिये। उदयस्थान नौ इस प्रकृतिसंख्या वाले हैं—इक्कीस और चौबीस से लेकर इकत्तीस तक । ये उदयस्थान एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी-संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय योग्य हैं। यह उन-उनके उदयस्थानों का कथन करने के प्रसंग में कहा जा चुका है । तदनुसार यहाँ भी समझ लेना चाहिये। - सत्तास्थान पाँच हैं-बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी, अठहत्तर प्रकृतिक । इनका विचार भी पूर्व की तरह यहां भी कर लेना चाहिये । तिर्यंचों में क्षपकश्रेणि और तीर्थंकरनाम की सत्ता का अभाव होने से तीर्थकर संबन्धी कोई भी सत्तास्थान नहीं होता है। __ अब संवेध का निर्देश करते हैं-तेईस प्रकृतियों के बंधक तिर्यंच को इक्कीस प्रकृतिक आदि पूर्वोक्त नौ उदयस्थान होते हैं। उनमें Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ पंचसंग्रह : १० आदि के इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस प्रकृतिक इन चार उदयस्थानों में पाच-पांच सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बानवै, अठासी, छियासी, अस्सी, अठहत्तर प्रकृतिक । इनमें से अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान तेज और वायुकायिक जीवों के होता है तथा तेज और वायु में से निकलकर जहां उत्पन्न होते हैं, वहां वे जब तक मनुष्यद्वि का बंध नहीं करते हैं तब तक होता है । शेष सत्ताईस प्रकृतिक आदि पांच उदयस्थानों में अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय चार-चार सत्तास्थान होते हैं । सत्ताईस प्रकृतिक आदि पांच उदयस्थानों में वर्तमान तिर्यंच अवश्य मनुष्यद्विक को बांधने वाले होने से उनको अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान संभव नहीं है । इसी प्रकार पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस प्रकृतियों के बंधक के लिये भी उदयस्थान और सत्तास्थान जानना चाहिये, लेकिन मात्र मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों का बंध करने वाले तियंचों को अपने योग्य सभी उदयस्थानों में अठहत्तर प्रकृतिक के सिवाय शेष चार-चार सत्तास्थान होते हैं । देव या नरक गति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक पर्याप्त असंज्ञी को तीस, इकत्तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं और अपर्याप्त संज्ञी तिर्यंच को आठ उदयस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं- इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस उनतीस, तीस और इकत्तीस प्रकृतिक । इनमें से इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान पूर्वबद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि और वेदक सम्यग्दृष्टि को जानना चाहिये । प्रत्येक उदयस्थान में बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो-दो सत्तास्थान होते हैं । पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतियों का उदय वैक्रिय तिर्यंच को होता है, वहाँ भी बानव और अठासी प्रकृतिक ये दो दो सत्तास्थान होते हैं । तीस और इकत्तीस प्रकृतियों का उदय समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि को होता है और Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ ३०३ प्रत्येक में इस प्रकार की संख्या वाले तीन-तीन सत्तास्थान होते हैंवानवै, अठासी, छियासी प्रकृतिक । इनमें से छियासी प्रकृतिक मिथ्यादृष्टि को ही होता है, सम्यग्दृष्टि को नहीं होता है। क्योंकि उनको अवश्य ही देवद्विक का बंध संभव है । इस प्रकार सभी बंधस्थान और उदयस्थानों की अपेक्षा दो सौ अठारह सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार जानना चाहिये - तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक इन प्रत्येक बंधस्थान में चालीस चालीस और अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान में अठारह सत्तास्थान होते हैं । जिनका कुल योग दो सौ अठारह है । अब मनुष्यगति के बंध, उदय और सत्तास्थानों का विचार करते हैं । मनुष्यगति – मनुष्य को तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक ये आठ बंधस्थान होते हैं । इन सभी बंधस्थानों का स्वरूप जैसा पूर्व में बताया जा चुका है, उसी प्रकार यहाँ सप्रभेद समझना चाहिये । क्योंकि मनुष्य चारों गति योग्य बंध करता है और उसे सभी गुणस्थान संभव हैं । उदयस्थान ग्यारह होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बीस, इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस अट्ठाईस उनतीस, तीस, इकत्तीस नौ " , 1 और आठ प्रकृतिक । ये सभी उदयस्थान स्वभावस्थ मनुष्य, वैक्रियशरीरी और आहारकशरीरी मनुष्य एवं तीर्थंकर, अतीर्थंकर सयोगि और अयोगि केवली की अपेक्षा पूर्व की तरह सप्रभेद समझ लेना चाहिये । चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान मात्र एकेन्द्रियों में ही होता है, इसलिये उसको यहाँ ग्रहण नहीं किया है । सत्तास्थान ग्यारह् होते हैं । वे इस प्रकार हैं - तेरानवे, बानवे, नवासी, अठासी, छियासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर, पचहत्तर, नौ और आठ प्रकृतिक । यद्यपि नामकर्म के बारह सत्तास्थान हैं, लेकिन उनमें से अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान मनुष्यों में नहीं होता है । क्योंकि मनुष्य को मनुष्यद्विक की सत्ता अवश्य होती है । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० अब संवेध का निर्देश करते हैं - एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य को इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये सात उदयस्थान होते हैं । स्वभावस्थ और वैक्रिय मनुष्य तेईस प्रकृतियों का बंध करता है । इसलिये तद्योग्य उदयस्थानों को ग्रहण किया है शेष केवली और आहारकसंयत के उदयस्थान यहाँ नहीं होते हैं । 7 इसका आशय यह हुआ कि तेईस प्रकृतियों के बंधक स्वभावस्थ मनुष्य को इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस तीस प्रकृतिक ये पाँच उदयस्थान तथा वैक्रिय मनुष्य को पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक ये चार उदयस्थान होते हैं । जिनके भंगों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है तथा पच्चीस और सत्ताईस प्रकृतियों का उदय वैक्रियशरीरी की दृष्टि से समझना चाहिये । ३०४ 1 उक्त प्रत्येक उदयस्थान में चार-चार सत्तास्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं- बानवं, अठासी, छियासी और अस्सी प्रकृतिक । मात्र वैक्रियशरीरी को प्रत्येक उदयस्थान में बानव और अठासी प्रकृतिक इस प्रकार दो-दो सत्तास्थान होते हैं । शेष सत्तास्थान जो तीर्थंकर, क्षपकश्रेणि, केवली और अन्यगति आश्रयी होते हैं, वे यहाँ संभव नहीं हैं । क्योंकि एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृतियों का बंध मिथ्यादृष्टि को ही होता है, जिससे वहाँ संभव सत्तास्थान ग्रहण करना चाहिये । सब मिलाकर चौबीस सत्तास्थान होते हैं । पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य और अपर्याप्त विकलेन्द्रियादि योग्य पच्चीस प्रकृतियों के बंधक और एकेन्द्रिययोग्य छब्बीस प्रकृतियों के बंधक को भी ऊपर कहे अनुसार उदयस्थान और उन उदयस्थानों में सत्तास्थान जानना चाहिये । मनुष्यगतियोग्य उनतीस और तीस प्रकृतियों के बंधक के लिये भी इसी प्रकार समझना चाहिये । नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य को सिर्फ तीस प्रकृति रूप एक उदयस्थान होता है । क्योंकि पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य ही नरकगतियोग्य बंध करता है । उस समय बानवै, अठासी I Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ और नवासी प्रकृतिक इन तीन सत्तास्थानों में से कोई भी सत्तास्थान होता है। देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य के सात उदयस्थान इस प्रकार हैं-इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक । मिथ्यादृष्टि मनुष्य तो पर्याप्तावस्था में ही देवगतियोग्य बध करता है परन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य अपर्याप्तावस्था में भी देवगतियोग्य बंध करता है। इसलिये अपर्याप्तावस्था में भी संभव उदयस्थान यहाँ ग्रहण किये हैं। इनमें इक्कीस और छब्बीस प्रकृतियों का उदय करण-अपर्याप्त अविरतसम्यग्दृष्टि को होता है तथा पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक ये चार उदयस्थान पंचम गुणस्थान तक वैक्रिय शरीरी मनुष्य को होते हैं। पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक ये पांच उदयस्थान वैक्रिय शरीरी और आहारक शरीरी संयत को होते हैं। अट्ठाईस, उनतीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान करण-अपर्याप्त अविरतसम्यग्दृष्टि को होते हैं और तीस प्रकृतिक उदयस्थान स्वभावस्थ सम्यक्त्वी या मिथ्यात्वी मनुष्य को होता है। पूर्वोक्त प्रत्येक उदयस्थान में दो-दो सत्तास्थान होते हैं। वे इस प्रकार हैं-बानवै और अठासी प्रकृतिक । मात्र आहारक संयत को अपने सभी उदयस्थानों में बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है और तीस प्रकृतिक उदयस्थान वाले मनुष्य को यह चार सत्तास्थान होते हैं -बानवै, अठासी, छियासी, नवासी प्रकृतिक । इनमें से आदि के तीन मिथ्यादृष्टि मनुष्य को और सम्यग्दृष्टि मनुष्य को आदि के दो ही सत्तास्थान होते हैं। नवासो प्रकृतिक सत्तास्थान नरकगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य को होता है और शेष तीन सत्तास्थान नरकगतियोग्य या देवगतियोग्य बंध करने पर होते हैं । कुल मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतियों के बंध में सोलह सत्तास्थान होते हैं। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० तीर्थंकरनाम के साथ देवगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक मनुष्य को सात उदयस्थान होते हैं और वे पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों के बंधक जैसे समझना चाहिये । मात्र यहाँ तीस प्रकृतिक उदयस्थान सम्यग्दृष्टि को ही जानना चाहिये । सभी उदयस्थानों में दो-दो सत्तास्थान होते हैं, जो इस प्रकार हैं- तेरानवे और नवासी प्रकृतिक । आहारकसंयत को मात्र तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है । ३०६ आहारकद्विक युक्त देवगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करते संयत को उनतीस और तीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं । यह तीस प्रकृतियों का बंध अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में होता है। वहां तीस प्रकृतियों का उदय स्वभावस्थ मनुष्य को होता है, उस समय बानवै प्रकृतिक एक ही सत्तास्थान होता है तथा जो संयत वैक्रिय या आहारक शरीर की विकुर्वणा करके उन शरीर के योग्य सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर अंतिम समय में उद्योत का उदय होने के पूर्व अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आता है, उसे उनतीस प्रकृतियों का उदय होता है और उसी को उद्योत के उदय में तीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है और इन दोनों उदयस्थानों में एक बानवै प्रकृतिक सत्तास्थान ही होता है । यद्यपि आहारक शरीरी प्रमत्तसंयत भी उनतीस और तीस प्रकृतियों का उदय वाला होता है, परन्तु वह आहारकद्विकका बंध नहीं करता है । क्योंकि वहां उसके बंध का कारण विशिष्ट संयम नहीं है । इकत्तीस प्रकृतियों के बंधक अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान वाले को एक तीस प्रकृतिक उदयस्थान और तेरानवै प्रकृतिक सत्तास्थान होता है । एक ( यश: कीर्ति) प्रकृति के बंधक को तीस प्रकृतिक एक ही उदयस्थान होता है । सत्तास्थान आठ होते हैं । जो इस प्रकार हैं-तेरानव, बानवे, नवासी, अठासी, अस्सी, उन्यासी, छियत्तर, पचहत्तर प्रकृतिक । इनका निर्देश पूर्व में किया जा चुका है । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ ३०७ सर्व बंधस्थानों और उदयस्थानों की अपेक्षा सत्तास्थान एक सौ उनसठ होते हैं और बंधविच्छेद होने के बाद उदय और सत्तास्थानों का परस्पर संवेध जिस प्रकार सामान्य संवेध का विचार किया है, तदनुरूप समझना चाहिये। इस प्रकार मनुष्यगति संबन्धी नामकर्म के बंध आदि स्थानों को जानना चाहिये। अब देवगति संबन्धी बंध, उदय और सत्तास्थानों का विचार करते हैं। देवगति-देवों में यह चार बंधस्थान होते हैं-पच्चीस, छब्बीस उनतीस और तीस प्रकृतिक । इनमें से पच्चीस और छब्बीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान पर्याप्त बादर पृथ्वी, अप् और प्रत्येक वनस्पति योग्य बंध करने पर होते हैं । यहां स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीति-अयशःकीर्ति के परावर्तन द्वारा आठ भंग होते हैं। छब्बीस प्रकृतियों का बंध आतप या उद्योत सहित होता है। यहाँ सोलह भंग होते हैं । मनुष्य और तिर्यंच गति योग्य बंध करने पर उनतीस प्रेकृतियों का बंध सप्रभेद पूर्व की तरह समझना चाहिये । उद्योतनाम युक्त तिर्यंचगतियोग्य बंध करने पर तीस प्रकृतियों का बंध होता है । उसके छियालीस सौ आठ भंग होते हैं । तीस प्रकृतियों का बंध तीर्थकरनाम युक्त मनुष्यगतियोग्य होता है। उसके स्थिर-अस्थिर, शुभअशुभ, यशःकीर्ति-अयशःकीति के परावर्तन द्वारा आठ भंग होते हैं । उदयस्थान छह हैं। वे इस प्रकार हैं-इक्कीस, पच्चीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस प्रकृतिक । इनका विस्तारपूर्वक कथन पूर्व में किया जा चुका है। तदनुसार यहाँ समझ लेना चाहिये। सत्तास्थान चार हैं-तेरानवै, बानवै, नवासी और अठासी प्रकृतिक । अन्य सत्तास्थान संभव नहीं हैं। क्योंकि उक्त चार के अतिरिक्त कितने ही एकेन्द्रियसंबन्धी और कितने ही क्षपकसंबन्धी होते हैं । जिससे वे देवों के संभव नहीं हैं। अब संवेध का कथन करते हैं-एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस प्रकृतियों Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ पंचसंग्रह : १० के बंधक देवों के अपने छहों उदयस्थानों में बानवे और अठासी प्रकृतिक ये दो सत्तास्थान होते हैं । इसी प्रकार छब्बीस प्रकृतियों के बंधक और तिर्यंचगतियोग्य या मनुष्यगतियोग्य उनतीस प्रकृतियों के बंधक को भी तथा उद्योत सहित तिर्यंच पंचेन्द्रिययोग्य तीस का बंध करने पर भी यही उदयस्थान और सत्तास्थान होते हैं । तीर्थंकर नाम सहित मनुष्यगतियोग्य तीस प्रकृतियों का बंध करने पर अपने छहों उदयस्थानों में तेरानवे और नवासी प्राकृतिक इन दो में से कोई भी सत्तास्थान होता है। कुल मिलाकर साठ सत्तास्थान होते हैं । इस प्रकार देवगति में नामकर्म के बंधादि स्थानों और उनके संवेध को जानना चाहिए । अब गतियों की तरह इन्द्रियों में भी बंधादि स्थानों का विचार करते हैं । इन्द्रियों में बंधादि स्थान इगि विगले पण बंधा अडवीसूणा उ अट्ठ इयरंमि । पंच छ एक्कारुदया पण पण बारस उ संताणि ॥ १३०॥ शब्दार्थ - इगि – एकेन्द्रिय, विगले - विकलेन्द्रिय, पण -पांच, बंधाबंधस्थान, अडवीसूणा - अट्ठाईस प्रकृतिक से न्यून, उ-और, अट्ठ-आठ, इयरंमि — इतर - पंचेन्द्रिय में, पंच छ एक्कारुदया-पांच, छह और ग्यारह उदयस्थान, पण पण बारस - पांच, पांच और बारह, उ- और, संत्राणि - सत्तास्थान । गाथार्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में अट्ठाईस प्रकृतिक से न्यून पांच-पांच बंधस्थान होते हैं । इतर- पंचेन्द्रिय में आठों बंधस्थान होते हैं तथा अनुक्रम से पांच, छह और ग्यारह उदयस्थान एवं पांच-पांच तथा बारह सत्तास्थान होते हैं । विशेषार्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्दियों में अट्ठाईस प्रकृतिक के सिवाय तेईस प्रकृतिक आदि पाँच-पाँच बंधस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं-तेईस, पच्चीस, छब्बीस, उनतीस और तीस प्रकृतिक । एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीव मात्र मनुष्य और तियंच गति Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३० ३०६ योग्य ही बंध करने वाले होने से उक्त बन्धस्थानों में से देवगतियोग्य उनतीस और तीस प्रकृतिक एवं मनुष्य गति योग्य तीर्थंकरनाम सहित तीस प्रकृतिक बन्धस्थान और उसके भंगों के सिवाय शेष मनुष्य तिर्यंच गति योग्य समस्त ऊपर के बधस्थानों और उन बंधस्थानों के होने वाले भंगों का बंध करते हैं। इसका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। पंचेन्द्रिय मार्गणा में आठ बंधस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैंतेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस और एक प्रकृतिक । पंचेन्द्रिय में चारों गति के जीवों का समावेश होता है और वे अपनी-अपनी योग्यतानुसार उक्त बंधस्थानों का बंध करते हैं। यानि सर्व गति योग्य ये समस्त बंधस्थान और इनके भंग पूर्व में जिस प्रकार से कहे हैं, उसी प्रकार इस पंचेन्द्रिय मार्गणा में भी समझ लेना चाहिए। अब इन इन्द्रिय मार्गणा के भेदों में उदयस्थानों का निर्देश करते हैं-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में अनुक्रम से पाँच, छह और ग्यारह उदयस्थान होते हैं । एकेन्द्रिय के पाँच उदयस्थान इस प्रकार हैं--इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस प्रकृतिक । इन सभी उदयस्थानों का विचार पूर्व में किया जा चुका है। विकलेन्द्रियों में इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस प्रकृतिक ये छह उदयस्थान होते हैं । इन उदयस्थानों का निरूपण भी पूर्व की तरह कर लेना चाहिए। ___ पंचेन्द्रियों के बीस, इक्कीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस, आठ और नौ प्रकृतिक इस प्रकार ग्यारह उदयस्थान होते हैं। चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान मात्र एकेन्द्रिय में ही होता है, इसलिए उसका निषेध किया है। मनुष्यादि भिन्न-भिन्न गति में जिस प्रकार से पूर्व में उदयस्थानों का कथन किया है उसी प्रकार वे सभी यहाँ भी जानना चाहिए। उदयस्थान और उनके कुल भंगों में से एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय संबंधी उदयस्थान Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० पंचसंग्रह : १० और उनके भंगों के सिवाय शेष समस्त उदयस्थान और भंग पंचेन्द्रिय में जानना चाहिए | अब सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं- एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में अनुक्रम से पाँच-पाँच और बारह सत्तास्थान होते हैं । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में वे इस प्रकार हैं- बानवे, अठासी, छियासी, अस्सी, अठहत्तर प्रकृतिक तथा पंचेन्द्रिय में तेरानव प्रकृतिक आदि बारह सत्तास्थान होते हैं और उनका पूर्व में जिस प्रकार से निर्देश किया गया है, तदनुसार यहाँ भी जानना चाहिए । अब जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्तास्थानों का प्रतिपादन करने के लिए पहले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय के बंधादि स्थानों का निर्देश करते हैं । ज्ञानावरण-दर्शनावरण, अन्तराय कर्म के बंधादि स्थान नाणंतरायदंसण बंधोदयसंत भंग जे मिच्छे । ते तेरसठाणेसु सष्णिम्मि गुणासिया सव्वे ॥१३१॥ शब्दार्थ - नाणंतराय दंसण-ज्ञानावरण, अन्तराय और दर्शनावरण, बंधोदय संत-बंध, उदय और सत्तास्थान, भंग-भंग, जे - जो, मिच्छेमिथ्यात्व गुणस्थान में, ते वे, तेरसठाणेसु -- तेरह जीवस्थानों में, सणिम्मिसंज्ञी में, गुणासिया - गुणस्थानाश्रित, सब्वे - सभी । - गाथार्थ - ज्ञानावरण, अन्तराय और दर्शनावरण कर्म के बंध, उदय और सत्ता के जो भंग मिथ्यात्व गुणस्थान में कहे हैं वे सभी तेरह जीवभेदों में होते हैं और संज्ञी में गुणस्थानाश्रित सभी जानना चाहिए । विशेषार्थ - ज्ञानावरण, अन्तराय की पाँच-पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं अतः पाँच प्रकृतिक बन्ध, उदय और सत्ता जो मिथ्यादृष्टि को कही हैं, वही सब पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय सिवाय शेष तेरह जीवस्थानों में जानना चाहिए | इसका कारण यह है कि इन दोनों कर्मों का ध्रुवबंध, ध्रुव उदय और ध्रुवसत्ता होने से ज्ञानावरण और अन्तराय इन Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३२ ३११ दोनों के पाँच का बंध, पाँच का उदय, पाँच की सत्ता रूप एक-एक स्थान होता है। दर्शनावरण कर्म के नौ का बंध, चार का उदय, नौ की सत्ता; नौ का बंध, पाँच का उदय, नौ की सत्ता ये दो भंग होते हैं । क्योंकि इन तेरह जीवस्थानों में आदि के दो गुणस्थान होते हैं। जिससे पूर्वोक्त भंग उनमें संभव हैं । संज्ञी अपर्याप्त में चौथा गुणस्थान होता है, जिससे उसे दर्शनावरण कर्म के अन्य भंग भी घटित होते हैं, परन्तु वे करण-अपर्याप्त के होते हैं और यहाँ लब्धि-अपर्याप्त की विवक्षा है। जिससे पूर्वोक्त भंग ही संभव हैं। अब वेदनीय ओर गोत्र कर्म के भंगों का निर्देश करते हैं । वेदनीय और गोत्र कर्म के बंधादि स्थान तेरससु वेयणीयस्स आइमा होंति भंगया चउरो। निच्चुदय तिणि गोए सवे दोण्हपि सण्णिस्स ॥१३२॥ शब्दार्थ-तेरससु-तेरह जीवस्थानों में, वेयणीयस्सवेदनीय कर्म के, आइमा-आदि के, होंति-होते हैं, भंगया-भंग, चउरो-चार, निच्चुदयनीच के उदय वाले, तिण्णि-तीन, गोए-गोत्र के, सब्वे-सभी, वोण्हंपिदोनों के, सण्णिस्स-संज्ञी पंचेन्द्रिय के । गाथार्थ-वेदनीयकर्म के आदि के चार भंग और गोत्रकर्म के नीचगोत्र के उदय वाले तीन भंग तेरह जीवस्थानों में होते हैं तथा संज्ञी में दोनों कर्म के सभी भंग होते हैं। विशेषार्थ-संज्ञी पर्याप्त के सिवाय शेष तेरह जीवस्थानों में वेदनीयकर्म के आदि के चार भंग होते हैं जो इस प्रकार हैं ... १. असाता का बंध, असाता का उदय, साता-असाता दोनों की सत्ता, २. असाता का बंध, साता का उदय, दोनों की सत्ता, ३. साता का बंध, असाता का उदय, दोनों की सत्ता, ४. साता का बंध, साता का उदय, दोनों की सत्ता । For Private & Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० इन्हीं तेरह जीवस्थानों में गोत्रकर्म के नीचगोत्र के उदय से होने वाले तीन भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं- (१) नीचगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, नीचगोत्र की सत्ता । यह भंग तेज और वायुकायिक जीवों में होता है अथवा तेज और वायुकाय में से निकलकर अन्य तिर्यंचों में उत्पन्न हुओं को जब तक उच्चगोत्र का बंध न हो, तब तक होता है । (२) नीच का बंध, नीच का उदय, नीच उच्च की सत्ता, (३) उच्चगोत्र का बंध, नीचगोत्र का उदय, दोनों की सत्ता । इन तीन के अतिरिक्त अन्य कोई भंग सम्भव नहीं है । क्योंकि इन तेरह जीवस्थानों में उच्चगोत्र का उदय नहीं होता है । ३१२ संज्ञी पंचेन्द्रिय में पूर्व में जिस प्रकार से गुणस्थानों में वेदनीय और गोत्रकर्म के भंग कहे हैं, वे सभी भंग समझना चाहिये । क्योंकि संज्ञी में सभी गुणस्थान सम्भव हैं । 1 अब आयुकर्म के भंगों का निर्देश करते हैं । जीवस्थानों में आयुकर्म के बंधादि स्थान तिरिउदए नव भंगा जे सव्वे असणि पज्जत्ते । नारयसुरचजभंगायर हिया इगिविगल दुविहाणं ॥ १३३॥ असणि अपज्जते तिरिउदए पंच जह उ तह मणुए । मणपज्जत्ते सव्वे इयरे पुण दस उ पुव्वता ॥ १३४ ॥ , शब्दार्थ - तिरिउदय - तिर्यंचायु के उदय के, नवभंगा-नो भंग, जेजो, सब्वे - सभी असणि पज्जसे- असंज्ञी पर्याप्त में नारयसुरचउमंगायरहिया - नारक और देव आयु के चार भंगों से रहित, इगिविगलदुबिहाणंदोनों प्रकार के ( पर्याप्त अपर्याप्त ) एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में । असणि अपज्जत्ते - अपर्याप्त असंज्ञी में, तिरिउदए - तियंचायु के उदय में, पंच-पांच, जह - जैसे, उ - और, तह – उसी तरह, मणुए—मनुष्य में, मणपज्जते – संज्ञी पर्याप्त में, सव्वे सभी, इयरे - इतर अपर्याप्त में, पुणपुनः, दस-दस, उ — और, पुष्बुत्ता - पूर्वोक्त । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३३,१३४ ३१३ गाथार्थ-तिर्यंचायु के उदय में जो नौ भंग कहे हैं, वे सभी असंज्ञी पर्याप्त में होते हैं तथा पर्याप्त-अपर्याप्त एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में नारक और देव के चार भंगों रहित शेष पाँच भंग होते हैं। तिर्यंचायु के उदय में जैसे पहले पाँच भंग कहे हैं, उसी प्रकार पाँच भंग असंज्ञी अपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य में होते हैं। पर्याप्त संज्ञो में सभी भंग होते हैं और इतर---अपर्याप्त संज्ञी में पूर्वोक्त दस भंग होते हैं। विशेषार्थ-तिर्यचों को आयु के बंधकाल के पूर्व का एक, आयु के बंधकाल के चार और बंधोत्तरकाल के चार इस प्रकार जो नौ भंग पूर्व में कहे हैं, वे सभी असंज्ञी पंचेन्द्रियों में होते हैं। क्योंकि वे चारों गति के योग्य बंध करते हैं । ___उक्त नौ भंगों में से नारक और देव आयु के बंधकाल का एक-एक और बंधोत्तरकाल का एक-एक, कुल चार भंगों को छोड़कर शेष पाँच भंग पर्याप्त-अपर्याप्त एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों में होते हैं। क्योंकि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय देव और नरक आयु का बंध नहीं करते हैं परन्तु मनुष्य और तिर्यंच आयु का ही बंध करते हैं। जिससे बंधकाल से पूर्व का एक, मनुष्य और तिर्यंच आयु के बंधकाल का एक-एक और उन दोनों आयु के बंधोत्तरकाल के बाद का एक-एक: इस प्रकार कुल पाँच भंग ही होते हैं। तिर्यंचायु का उदय रहते पूर्व में जो एकेन्द्रिय आदि में पाँच भंग कहे हैं, वही अन्यूनातिरिक्त पाँच भंग असंज्ञी अपर्याप्त तिर्यंच और असंज्ञी मनुष्य में भी समझना चाहिये । क्योंकि अपर्याप्त असंज्ञी तिर्यच और संमूच्छिम मनुष्य मनुष्यायु और तिर्यंचायु का ही बंध करते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में आयु के अट्ठाईस भंग होते हैं। क्योंकि वे चारों गति में होते हैं और चारों गतियोग्य बंध करते हैं। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ पंचसंग्रह : १० इतर-संज्ञी अपर्याप्त मनुष्याश्रयी पाँच और तिर्यंचाश्रयी पाँच, कुल मिलाकर दस भंग होते हैं। क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त संज्ञी मनुष्यायु और तिर्यंचायु का ही बंध करते हैं । जिससे बंध-पूर्व का एक, बंधकाल के दो आयु का बंध होने से दो और उपरत बंधकाल के बाद के दो, कुल पाँच भंग मनुष्य के और पांच तिर्यंच के कुल मिलाकर दस भंग होते हैं । देव और नारक लब्धि-अपर्याप्त नहीं होते हैं एवं वे अपर्याप्त अवस्था में आयु का बंध भी नहीं करते हैं । जिससे उनको अपर्याप्तावस्था में बंधकाल से पूर्व का एक-एक भंग कुल दो भंग और लें तो संज्ञी अपर्याप्त में बारह भंग होते हैं। इन दो भंगों का ग्रहण गाथा गत 'उ-तु' शब्द से किया गया है। इस प्रकार से जीवस्थानों में आयुकर्म के बंधादि स्थानों को जानना चाहिये अब मोहनीयकर्म के बंधादि स्थानों को बतलाते हैं । जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के बंधादि स्थान बंधोदयसंताई पुण्णाइं सणिणो उ मोहस्स। बायरविगलासण्णिसु पज्जेसु दु आइमा बंधा ॥१३॥ अट्ठसु बावीसोच्चिय बंधो अट्ठाइ उदय तिण्णेव । सत्तगजुया उ पंचसु अडसत्तछवीस संतमि ॥१३६॥ शब्दार्थ-बंधोदयसंताई-बंध, उदय और सत्तास्थान, पुण्णाई-पूर्णसभी, सणिणो-संज्ञी को, उ-और, मोहस्स-मोहनीयकर्म के, बायरविग. लासण्णिसु-बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय में, पज्जेसुपर्याप्त में, दु-दो, आइमा-आदि के, बंधा-बंधस्थान । अट्ठसु-आठ जीवस्थानों में, बावीसोच्चिय-बाईस का ही, बंधोबंधस्थान, अट्ठाइ-आठ आदि, उदय-उदयस्थान, तिण्णेव-तीन ही, सत्तगजुया-सात सहित, उ-और, पंचसु-पाँच जीवभेदों में, अडसत्तछवीसअट्ठाईस, सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक, संतंमि-सत्तास्थान । Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३५, १३६ ३१५ गाथार्थ- संज्ञी जीवस्थान में मोहनीयकर्म के सभी बंध, उदय और सत्तास्थान होते हैं । बादर एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में आदि के दो बंधस्थान होते हैं । आठ जीवस्थानों में बाईस का बंध और आठ आदि तीन उदयस्थान होते हैं तथा पाँच जीवभेदों में सात सहित चार उदयस्थान होते हैं । तेरह जीवभेदों में अट्ठाईस सत्ताईस और छब्बीस प्रकृतिक ये तीन सत्तास्थान होते हैं । 1 विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में मोहनीयकर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों को जीवस्थानों में घटित किया है । जो इस प्रकार है मोहनीयकर्म के सभी बंधस्थानों, उदयस्थानों और सत्तास्थानों का निर्देश पूर्व में किया है, वे सभी अन्यूनातिरिक्त पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में होते हैं । क्योंकि पर्याप्त संज्ञी में सभी गुणस्थान होते हैं । जिससे गुणस्थानों की अपेक्षा सम्भव सभी बंधादि स्थान और उनके भंग होते हैं । बादर एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में बाईस और इक्कीस प्रकृतिक ये दो बंधस्थान होते हैं। इनमें से बाईस प्राकृतिक बंधस्थान मिथ्यादृष्टि में और इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान सासादनगुणस्थान में होता है । इन जीवों में सासादनगुणस्थान पर्याप्त नामकर्म में उदयवालों को करण - अपर्याप्तावस्था में सम्भव है । जिससे उस गुणस्थान की अपेक्षा इक्कीस प्रकृतिक बंधस्थान का ग्रहण किया है । पर्याप्त - अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त - बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय इन आठ जीवस्थानों में मोहनीयकर्म का बाईस प्रकृति रूप एक ही बंधस्थान होता है, और उसका सप्रभेद कथन पूर्व की तरह है । अर्थात् बाईस प्रकृतिक बंधस्थान के तीन वेद और युगल के परावर्तन से जो छह भेद पूर्व में कहे हैं वे यहाँ भी होते हैं । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० इन्हीं आठ जीवस्थानों में से प्रत्येक में आठ, नौ, दस प्रकृतिक इस तरह तीन-तीन उदयस्थान होते हैं । इन जीवस्थानों में अनन्तानुबंधि कषाय के उदय बिना का सात प्रकृतिक उदयस्थान नहीं होता है। क्योंकि इनको अनन्तानुबंधि कषाय का अवश्य उदय होता है । उक्त आठ, नौ, प्रकृतिक उदयस्थान अनन्तानुबंधि कषाय युक्त ही यहाँ ग्रहण करना चाहिये तथा उनको वेदत्रिक में से नपुसकवेद का ही उदय होता है, स्त्री-पुरुषवेद का उदय नहीं होता है। जिससे आठ प्रकृतिक उदयस्थान के चार कषाय और युगल के परावर्तन से आठ भंग होते हैं तथा भय या जुगुप्सा के मिलाने से नौ प्रकृतिक उदयस्थान के सोलह तथा दस प्रकृतिक उदयस्थान के आठ इस प्रकार बत्तीसबत्तीस भंग प्रत्येक में हाते हैं। पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय इन पाँच जीवस्थानों में पूर्वोक्त तीन उदयस्थानों के साथ सात प्रकृतिक उदयस्थान को और जोड़ने से चार-चार उदयस्थान होते हैं । अर्थात् उपर्युक्त पाँच जीवस्थानों में से प्रत्येक को इस प्रकार चार-चार उदयस्थान होते हैं-सात, आठ, नौ और दस प्रकृतिक। इन जीवस्थानों में मिथ्यात्व और सासादन ये दो गुणस्थान होते हैं। इनमें से मिथ्यादष्टि में आठ, नौ और दस प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं और सासादनगुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं होने से सात, आठ और नौ प्रकृतिक ये तीन उदयस्थान होते हैं। इन जीवस्थानों में वेदत्रिक में से एक नपुसकवेद का ही उदय होता है। जिससे चौबीस के बजाय आठ-आठ भंग ही होते हैं। जिससे मिथ्यादृष्टि और सासादनगुणस्थान में तीन-तीन उदयस्थान के कुल मिलाकर बत्तीस-बत्तीस भंग होते हैं । इन्हीं पूर्वोक्त आ3 और पाँच कुल तेरह जीवस्थानों में तीन-तीने सत्तास्थान होते हैं, जो इस प्रकार हैं-अट्ठाईस, सत्ताईस और Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३५,१३८,१३६ ३१७ छब्बीस प्रकृतिक तथा गाथा में आगत 'उ-तु' शब्द अधिक अर्थ का सूचक होने से सासादनभाव में वर्तमान बादर एकेन्द्रियादि पाँच जीवस्थानों में मात्र अट्ठाईस प्रकृतिक एक ही सत्तास्थान होता है । करण-अपर्याप्त कितने ही संज्ञी जीवों में सत्रह प्रकृतिक बंधस्थान, छह प्रकृतिक आदि चार उदयस्थान और चौबीस प्रकृतिक आदि सत्तास्थान होते हैं। यह अर्थ अधिक समझना चाहिये। क्योंकि करणअपर्याप्त संज्ञी को चौथा गुणस्थान भी होता है। जिससे उनमें सत्रह प्रकृतिक बंध, छह, सात, आठ और नौ प्रकृतिक इस तरह चार उदयस्थान और अट्ठाईस, चौबीस, बाईस और इक्कीस प्रकृतिक ये चार सत्तास्थान संभव हैं। इस प्रकार से जीवस्थानों में मोहनीय कर्म के बंध, उदय और सत्तास्थानों को जानना चाहिए । अब नामकर्म के बंधादि स्थानों का विचार करते हैं। जीवस्थानों में नामकर्म के बंधादि स्थान सण्णिम्मि अठ्ठऽसणिम्मि छाइमा तेऽट्ठवीस परिहीणा। पज्जत्तविगलबायरसुहमेसु तहा अपज्जाणं ॥१३७॥ इगवीसाई दो चउ पण उदया अपज्ज सुहम बायराणं । सण्णिस्स अचउवीसा इगिछडवीसाइ सेसाणं ॥१३८॥ तेरससु पंच संता तिण्णधुवा अट्ठसीइ बाणउइ । सण्णिस्स होति बारस गुणठाणकमेण नामस्स ॥१३६॥ शब्दार्थ-सण्णिम्मि-संज्ञी में, अट्ठ-आठ, असणिम्मि-असंज्ञी में, छाइमा-आदि के छह, तेऽवीस-वे अट्ठाईस प्रकृतिक के, परिहोणासिवाय, पज्जत्त-पर्याप्त, विगल-विकलेन्द्रिय, बायरसुहुमेसु-बादर सूक्ष्म एकेन्द्रिय में, तहा--तथा, अपज्जाणं-अपर्याप्तों में ।। इगवीसाई-इक्कीस प्रकृतिक आदि, दो-दो, चउ-चार, पण-पांच, उदया-उदय स्थान, अपज्जसुहमवायराणं-अपर्याप्त सूक्ष्म बादर के, सणिस्स Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ पंचसंग्रह : १० , संज्ञा के अचउवोसा - चौबीस सिवाय के इगिछडबीसाइ - इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक आदि, सेसाणं -- शेष जीवों को । --- तेरससु - तेरह जीवभेदों में, पंच-पांच, संता - सत्तास्थान, तिण्णधुवा - तीन अध्र ुव, अट्ठसीइ-अठासी, बाणउई - बानवे प्रकृतिक, सष्णिस्स -संज्ञी के, होंति --होते हैं, बारस - बारह, गुणठाणकमेण ——– गुणस्थान के क्रम अनुसार, नामस्स- नामकर्म के । गाथार्थ - संज्ञी में आठ बंधस्थान होते हैं, असंज्ञी में आदि के छह और अट्ठाईस के सिवाय शेष पर्याप्त अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और बादर - सूक्ष्म एकेन्द्रिय में होते हैं । इक्कीस प्रकृतिक आदि दो, चार और पाँच उदयस्थान अनुक्रम से सभी अपर्याप्त, सूक्ष्म पर्याप्त और बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय में होते हैं। संज्ञी में चौबीस के सिवाय शेष सभी होते हैं और शेष भेदों में इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक आदि उदयस्थान होते हैं । तेरह जीवभेदों में तीन अध्रुव, अठासी और बानव प्रकृतिक इस तरह पाँच सत्तास्थान होते हैं तथा संज्ञी में गुणस्थान के क्रमानुसार बारह सत्तास्थान होते हैं । विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में पहली गाथा में नामकर्म के बंधस्थानों का, दूसरी में उदयस्थानों का और तीसरी में सत्तास्थानों का निर्देश किया है । यथाक्रम से जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है बंधस्थान - पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में नामकर्म के आठों बंधस्थान होते हैं और वे जिस प्रकार से पूर्व में बताये गये हैं, तदनुरूप यहाँ भी समझ लेना चाहिए। पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय में आदि के छह बंधस्थान होते हैं । जो इस प्रकार हैं - तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक | पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय देव और नरक गति योग्य बंध करते हैं, जिससे उनको अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान भी होता है । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३७,१३८,१३६ ३१६ उक्त छह बंधस्थानों में से अट्ठाईस प्रकृतिक के सिवाय पाँच बंधस्थान पर्याप्त-अपर्याप्त विकलेन्द्रिय और बादर-सूक्ष्म एकेन्द्रियों में होते हैं। क्योंकि वे मात्र मनुष्य और तिर्यंच इन दो गति योग्य ही बंध करते हैं। ___ लब्धि-अपर्याप्त असंज्ञी, संज्ञी में भी उपर्युक्त पाँच-पाँच बंधस्थान होते हैं। क्योंकि लब्धि-अपर्याप्त सभी जीव तिर्यंच और मनुष्य गति योग्य कर्म का ही बंध करते हैं। किन्तु देव नरकगति योग्य कर्म का बंध नहीं करते हैं, जिससे लब्धि-अपर्याप्त-असंज्ञी-संज्ञी में पाँच-पाँच बंधस्थान ही होते हैं और उनको पूर्वोक्त प्रकार से सप्रभेद यहाँ भी समझ लेना चाहिए। ___ करण-अपर्याप्त संज्ञी चौथे गुणस्थान में देवगति योग्य भी बंध करते हैं और अपर्याप्तावस्था में नरकगतियोग्य बंध नहीं होता है, यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है। इस प्रकार से जीवस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों को जानना चाहिए । अब उदयस्थानों का कथन करते हैं उदयस्थान-सभी (लब्धि-) अपर्याप्तकों को प्रारम्भ में इक्कीस प्रकृतिक आदि दो-दो उपयस्थान होते हैं। उनमें अपर्याप्त सूक्ष्म और बादर एकेन्द्रिय को इक्कीस और चौबीस प्रकृतिक ये दो उदयस्थान होते हैं। इनमें से सूक्ष्म अपर्याप्त को उदयप्राप्त इक्कीस प्रकृतियां इस प्रकार हैं-तिर्यंचद्विक, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, वर्णचतुष्क, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयश:कीर्ति और निर्माण नाम । इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय को होता है । यहाँ भंग एक ही होता है। क्योंकि अपर्याप्त को परावर्तमान परस्पर विरोधी प्रकृतियों का अभाव होता है। बादर अपर्याप्त को भी यही इक्कीस प्रकृति विग्रह-गति में उदय होती हैं । मात्र सूक्ष्मनाम के स्थान पर बादरनाम कहना चाहिए। यहाँ भी एक ही भंग होता है । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० पंचसंग्रह : १० सूक्ष्म और बादर दोनों अपर्याप्त शरीरस्थ एकेन्द्रिय को उपर्युक्त इक्कीस प्रकृतियों में औदारिक शरीर, हुण्डक संस्थान, उपघातनाम और प्रत्येक अथवा साधारण में से एक इन चार प्रकृतियों को मिलाने और तिर्यंचानुपूर्वी को कम करने पर चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ सूक्ष्म-अपर्याप्त के प्रत्येक अथवा साधारण के साथ दो भंग होते हैं। इसी प्रकार बादर अपर्याप्त के भी दो भंग होते हैं। इस तरह सूक्ष्म अपर्याप्त के एवं बादर अपर्याप्त के अपने-अपने उदय के तीन-तीन भंग होते हैं। विकलेन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी अपर्याप्त को इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक इस तरह दो उदयस्थान होते हैं। इनमें अपर्याप्त द्वीन्द्रिय को उदय-प्राप्त इक्कीस प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं-तैजस, कार्मण, . अगुरुलघु, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ वर्णादि चतुष्क, तिर्यचगति, तिथंचानुपूर्वी, द्वीन्द्रियजाति, त्रस, बादर, अपर्याप्त, दुर्भग, अनादेय और अयशःकीर्ति । इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान द्वीन्द्रिय को होता है। परावर्तमान सभी प्रकृतियाँ अशुभ होने से यहाँ एक ही भंग होता है। __ शरीरस्थ अपर्याप्त द्वीन्द्रिय को इक्कीस प्रकृतियों में औदारिक शरीर, औदारिक-अंगोपांग, हुण्ड संस्थान, सेवार्त संहनन, उपघात और प्रत्येक इन छह प्रकृतियों को मिलाने और तिर्यंचानुपूर्वी को कम करने से छब्बीस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है। यहाँ भी एक ही भंग होता है । इस प्रकार अपर्याप्त द्वीन्द्रिय को अपने दो उदयस्थान के दो ही भंग होते हैं। ___ इसी तरह अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय के लिए भी समझना चाहिए । मात्र जातिनामकर्म को बदलते जाना चाहिए । जैसे कि त्रीन्द्रिय के लिए त्रीन्द्रियजातिनाम, चतुरिन्द्रिय के लिए चतुरिन्द्रियजातिनाम इत्यादि । प्रत्येक के दो-दो उदयस्थानाश्रयी दो-दो भंग कहना चाहिए। मात्र अपर्याप्त संज्ञी को चार जानना चाहिए। क्योंकि जैसे अपर्याप्त Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३७,१३८,१३६ संज्ञी मनुष्य हैं, वैसे तिर्यंच भी हैं। जिससे प्रत्येक के दो-दो भंगों का ग्रहण करने पर चार भंग होते हैं ।1 पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्दियों को चार उदयस्थान होते हैं। जो इस प्रकार जानना चाहिए-इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बोस प्रकृतिक । इनमें से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार है-तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, वर्णचतुष्क, निर्माण, तिर्यंचद्विक, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, दुर्भग, अनादेय और अयश:कीर्ति। इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान सूक्ष्म, पर्याप्त, एकेन्द्रिय को होता है। यहाँ प्रतिपक्षी किसी भी प्रकृति का उदय नहीं होने से एक ही भंग होता है। __इस इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान में औदारिक शरीर, उपघात, हुण्डसंस्थान और प्रत्येक या साधारण में से एक इन चार प्रकृतियों को मिलाने और तिर्यंचानुपूर्वी को कम करने पर शरीरस्थ सूक्ष्म एकेन्द्रिय को चौबीस प्रकृतियों का उदय होता है। प्रत्येक और साधारण के साथ परावर्तन करने से एक चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान दो प्रकार से होता है। तत्पश्चात् शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त को पराधातनाम को मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। इस उदयस्थान के भी पूर्वोक्त प्रकार से दो भंग होते हैं। - इसके बाद श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास नाम को मिलाने पर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्व कथनानुसार वही दो भंग होते हैं । - सूक्ष्म पर्याप्त के चार उदयस्थान सम्बन्धी कुल मिलाकर सात भंग होते हैं। १ इसी प्रकार अपर्याप्त असंज्ञी भी चार भग हो सकते हैं। क्योंकि जैसे अपर्याप्त असंज्ञी तियं च हैं, वैसे ही अपर्याप्त असंज्ञो मनुष्य भी हैं । | Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ पंचसंग्रह : १० पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय को इक्कीस प्रकृतिक आदि पाँच उदयस्थान होते हैं। जो इस प्रकार हैं-इक्कीस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस प्रकृतिक । इनमें से इक्कीस प्रकृतिक उदयस्थान इस प्रकार जानना चाहिए-तैजस, कार्मण, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, अगुरुलघु, वर्णचतुष्क, तिर्यंचगतिद्विक, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, बादर, पर्याप्त, दुर्भग, अनादेय और यशःकीति-अयशःकीर्ति में से एक। इन इक्कीस प्रकृतियों का उदय विग्रहगति में वर्तमान बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय को होता है और यश कीति, अयश:कीर्ति का परावर्तन करने से इसके दो भंग हाते हैं। - इसके बाद शरीरस्थ बादर पर्याप्त एकेन्द्रिय को उक्त इक्कीस प्रकृतियों में से तिर्यंचानुपूर्वी को कम करके औदारिक शरीर, हुण्ड संस्थान, उपघात और प्रत्येक या साधारण इन दोनों में से एक, इस प्रकार चार प्रकृतियों को मिलाने पर चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ प्रत्येक और साधारण के साथ यशःकीर्ति और अयश:कीति का परावर्तन करने से चार भंग होते हैं। वैक्रिय शरीर करते बादर वायुकाय को भी चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है, किन्तु वहाँ औदारिक शरीर के बदले वैक्रिय शरीर कहना चाहिए। शेष प्रकृतियाँ यही समझना चाहिये। इसका एक ही भंग होता है। क्योंकि उसको साधारण और यश:कीर्ति नाम का उदय नहीं होता है। कुल मिलाकर चौबीस प्रकृतिक उदयस्थान के पाँच भंग होते हैं । __ तदनन्तर शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को पराघातनाम का उदय मिलाने पर पच्चीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है । यहाँ भी पूर्व कथनानुरूप पाँच भंग होते हैं। तत्पश्चात् उच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त को श्वासोच्छ्वास का उदय मिलाने से छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान होता है। यहाँ भी पूर्व में कहे अनुसार पाँच भंग होते हैं। अथवा शरीरपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास का उदय होने से पहले आतप या उद्योत दोनों में से किसी एक का उदय हो तो भी छब्बीस प्रकृतिक उदय Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १३७,१३८,१३६ ३२३ स्थान होता है। यहाँ आतप और प्रत्येक के साथ यशःकीर्ति-अयश:कीर्ति का परावर्तन करने से दो भंग होते हैं। साधारण को आतप का उदय नहीं होता है, जिससे तदाश्रित विकल्प भी नहीं होते हैं । उद्योत के साथ प्रत्येक-साधारण को यश:कीति-अयशःकीति के साथ परावर्तन करने से चार भंग होते हैं । कुल मिलाकर छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान के ग्यारह भंग होते हैं। इसके बाद प्राणापानपर्याप्ति से पर्याप्त को उच्छ्वास सहित छब्बीस प्रकृतिक के उदय में आतप या उद्योत दोनों में से एक को मिलाने पर सत्ताईस प्रकृतियों का उदयस्थान होता है। यहाँ आतप के साथ दो और उद्योत के साथ चार भंग होते हैं। जिससे सत्ताईस प्रकृतिक उदयस्थान के कुल मिलाकर छह भंग होते हैं। बादर पर्याप्त के पाँच उदयस्थानों के कुल मिलाकर उनतीस भंग होते हैं। पर्याप्त संज्ञी को चौबीस प्रकृतिक के सिवाय शेष सभी उदयस्थान होते हैं । क्योंकि चौबीस प्रकृतियों का उदय एकेन्द्रिय में ही होता है अन्य किसी को नहीं होता है, जिससे उसका निषेध किया है। उदयस्थान और उनके भंग देव, नारक, तिर्यंच, मनुष्य की अपेक्षा जो पूर्व में कहे जा चुके हैं तदनुरूप पर्याप्त संज्ञी के लिए जानना चाहिए। शेष पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय को इक्कीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस, इकत्तीस प्रकृतिक ये छह उदयस्थान होते हैं। इनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को पहले जिस प्रकार उदयस्थान और उनके भंग कहे हैं तदनुरूप यहाँ जानना चाहिए। जिस प्रकार प्राकृत-सामान्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय को पूर्व में भंग कहे हैं, उसी प्रकार पर्याप्त असंज्ञी को भी कहना चाहिये । मात्र द्वीन्द्रियादि सभी को इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक उदयस्थान में अपर्याप्त की अपेक्षा एक-एक भंग पूर्व में कहा है, वह यहाँ नहीं होता है । क्योंकि यहाँ पर्याप्त की अपेक्षा ही विचार किया है। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ पंचसंग्रह : ६ इस प्रकार से चौदह जीवस्थानों में नामकर्म के उदयस्थान जानना चाहिये । अब सत्तास्थानों का निरूपण करते हैं। सत्तास्थान-पर्याप्त संज्ञी के अतिरिक्त शेष तेरह जीवभेदों में पाँच-पाँच सत्तास्थान होते हैं। इनमें तीन तो अध्र व संज्ञा वाले छियासी, अस्सी और अठहत्तर प्रकृतिक तथा शेष दो बान और अठासी प्रकृतिक हैं । इस प्रकार कुल पाँच सत्तास्थान होते हैं। अठहत्तर प्रकृतिक सत्तास्थान सूक्ष्म-बादर एकेन्द्रिय, तेज, वायुकायिक के अपने चारों उदयस्थानों में होता है एवं तेज, वायुकायिक में से निकलकर पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय में उत्पन्न हुए को इक्कीस और चौबीस प्रकृतिक इस प्रकार दो उदयस्थानों में और द्वीन्द्रियादि तिर्यचों में उत्पन्न हुआ हो, उसको इक्कीस और छब्बीस प्रकृतिक इस प्रकार दो उदयस्थान में होता है । शेष उदयस्थानों में नहीं होता है। संज्ञी में गुणस्थान के क्रम से बारह सत्तास्थान होते हैं, जो पूर्व में कहे गये अनुसार जानना चाहिये । ___इस प्रकार चौदह जीवस्थानों में नामकर्म के सत्तास्थान जानना चाहिये और इसके साथ ही चौदह जीवस्थानों में नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता के स्थानों का निरूपण पूर्ण हुआ। अब गति आदि मार्गणाओं में बंध, उदय और सत्तास्थानों के सम्बन्ध में सत्पदप्ररूपणा करते हैं। मार्गणाओं में बंधादि स्थानों को सत्पदप्ररूपणा बझंति सत्त अट्ठ य नारयतिरिसुरगईसु कम्माइं। उदीरणावि एवं संतोइण्णाइं अट्ठ तिसु ॥१४०॥ शब्दार्थ-बमंति-बांधते हैं, सत्त अट्ठ-सात आठ, य-और, नारयतिरिसुरगईसु-नरक, तिर्यंच और देवगति में, कम्माई-कर्म, उदीरगावि-उदीरणा भी, एवं-इसी प्रकार, संतोइण्णाई-सत्ता और उदय में, अठ्ठ-आठ, तिसु-तीन में । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तनिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४१ गाथार्थ-नारक, तियंच और देव इन तीन गतियों में सात या आठ कर्म बँधते हैं, उदीरणा भी सात या आठ कर्म की होती है तथा तीनों में सत्ता और उदय में आठ कर्म होते हैं । ३२५ विशेषार्थ - मूल कर्म प्रकृतियों की अपेक्षा नरक, तियंच और देव इन तीन गतियों में प्रति समय सात या आठ कर्म बँधते हैं । इनमें जब आयुकर्म का बंध हो तब आठ कर्मों का बंध होता है । अन्यथा प्रति समय सात कर्मों का बंध होता रहता है | उदीरणा भी सात या आठ कर्मों की होती है । अपनी-अपनी आयु की अन्तिम एक आवलिका सत्ता में शेष रहे तब उस एक आवलिका पर्यन्त सात की और शेष काल में आठ कर्मों की उदीरणा होती है तथा सत्ता और उदय नारक, तिर्यंच और देवों के आठों कर्मों का होता है क्योंकि उनको क्षपक या उपशम श्रेणि की प्राप्ति का अभाव होने से किसी भी समय सात या चार का उदय नहीं होता है । गुणभिहियं मणुसु सगलतसाणं च तिरियपडिवक्खा । मणजोगी छउमाइ व कायवई जह सजोगीणं ॥ १४१ ॥ शब्दार्थ - गुणभिहियं - गुणस्थानानुसार, मणुए सु - मनुष्यगति में, सगलतसाणं - पंचेन्द्रिय और त्रस में, च - और, तिरियपडिवक्खा – प्रतिपक्षी मार्गपात्रों में तिर्यंचगति के समान, मणजोगी - मनोयोगी में, छउमाइ - क्षद्मस्थ गुणस्थान, व- - और, कायवई- --काय और वचन योगी को, जह—यथा, समान, सजोगीणं-सयोगी के । गाथार्थ - मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति और त्रसकाय में गुणस्थानानुसार, प्रतिपक्ष मार्गणा में तिर्यंचगति के समान, मनोयोगी को छद्म गुणस्थान के समान और काययोगी, वचनयोगी को सयोगी के समान जानना चाहिये । विशेषार्थ - मनुष्यगति में, इन्द्रिय मार्गणा के भेद पंचेन्द्रिय जाति में, काय मार्गणा के भेद सकाय में जैसे पूर्व में चौदह गुणस्थानों में Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ पंचसंग्रह : १० बंधादि का निर्देश किया है, तदनुरूप कथन करना चाहिये । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है मिश्र गुणस्थान के सिवाय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक सात अथवा आठ कर्मों का बंध होता है । आयु के बंधकाल में आठ का और उसके सिवाय शेष काल में सात कर्म का बंध होता है । मिश्र, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में आयु के बिना सात कर्म का बंध होता है । क्योंकि अतिविशुद्ध परिणामों के कारण इन गुणस्थानों में आयु का बंध होता है । सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में आयु और मोहनीय कर्म के सिवाय छह कर्मों का बंध होता है । क्योंकि इस गुणस्थान में बादर कषाय का उदय नहीं होने से मोहनीयकर्म का भी बंध नहीं होता है । उपशान्त, क्षीण मोह और सयोगिकेवली गुणस्थान में एक वेदनीयकर्म का ही बंध होता है । शेष कर्मों के बंध हेतु — कषाय के उदय का अभाव होने से उनका बंध ही नहीं होता है । सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान तक आठ कर्मों का उदय और सत्ता होती है । उपशान्तमोहगुणस्थान में सात का उदय और आठ की सत्ता होती है | क्षीणमोहगुणस्थान में सात कर्मों का उदय और सत्ता होती है तथा सयोगि और अयोगिकेवली इन दो गुणस्थानों में चार कर्म का उदय और सत्ता होती है । प्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त आठ अथवा सात कर्मों की उदीरणा होती है। इनमें जब आयुकर्म की मात्र अन्तिम आवलिका शेष रहे तब उसकी उदीरणा नहीं होने से सात कर्मों की ही उदीरणा होती है और शेषकाल में आठ कर्मों की उदीरणा होती है । मिश्रगुणस्थान में सर्वदा आयु के बिना सात कर्मों की ही उदीरणा होती है । क्योंकि आयुकर्म की पर्यन्तावलिका शेष रहने पर मिश्रगुणस्थान ही असंभव है । अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसंपराय इन तीन गुणस्थानों में वेदनीय, और आयु के सिवाय छह कर्मों की उदीरणा होती है । Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४१ ३२७ क्योंकि उन गुणस्थानों में वेदनीय और आयुकर्म की उदीरणा के योग्य अध्यवसायों का अभाव है। सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में छह या पाँच कर्मों की उदीरणा होती है। उसमें पहले छह की उदीरणा होती है । और वह वहाँ तक होती है कि दसवें गुणस्थान की आवलिका शेष न रहे । आवलिका शेष रहे तब मोहनीयकर्म की मात्र अन्तिम एक आवलिका ही शेष रहने से उसके बिना पाँच की उदीरणा होती है। उपशान्तमोहगुणस्थान में उन पाँच की ही उदीरणा होती है। क्षीणमोहगुणस्थान में भी उन्हीं पाँच कर्मों की तब तक उदीरणा होती है कि उनकी आवलिका शेष न हो, आवलिका शेष रहे तब ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय ये तीन कर्म आवलिका प्रविष्ट होने से उनकी उदीरणा नहीं होती है। मात्र नाम और गोत्रकर्म की ही उदीरणा होती है। सयोगिकेवलीगुणस्थान में भी नाम और गोत्र इन दो कर्मों को ही उदीरणा होती है तथा अयोगिकेवलीगुणस्थान में वर्तमान आत्मा के किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं होती है । पंचेन्द्रिय की प्रतिपक्षी-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जाति तथा त्रस काय की पतिपक्षी-स्थातर काय-पृथ्वी, अप, तेज, वायु और वनस्पति काय इन सभी को तिर्यंचगति के समान बंधादि जानना चाहिये । अर्थात् एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तथा पृथ्वीकायादि स्थावरकाय को सात अथवा आठ कर्मों का बंध होता है, सात अथवा आठ की उदीरणा और आठ का उदय और सत्ता होती है। मनोयोगि को वीतराग छद्मस्थ बारहवें गुणस्थान पर्यन्त जैसे बंधादि का निर्देश किया है, तदनुसार समझना चाहिये । अर्थात् जैसे पहले मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान तक में बंधादि विषयक सत्पदप्ररूपणा की है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । क्योंकि मनोयोगि को क्षीणमोह गुणस्थान तक के गुणस्थान संभव हैं। काययोगि और वचनयोगि को सयोगिकेवली गुणस्थान तक में जैसे पूर्व में बंधादि का कथन किया है, उसी प्रकार समझना चाहिये। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ पंचसंग्रह : १० क्योंकि काययोग और वचनयोग सयोगि केवली गुणस्थान तक संभव है । तथा— ई नवगुणतुल्ला तिकसाइवि लोभ दसगुणसमाणो । सेसाणिवि ठाणाई एएण कमेण नेयाणि ॥ १४२ ॥ शब्दार्थ - बेई - वेदत्रिक में, नवगुणतुल्ला – आदि के नौ गुणस्थान के तुल्य, तिकसाइवि-तीन कषायों में भी, लोभ -- लोभ कषाय में, दसगुणसमानो - दस गुणस्थान के तुल्य, सेसाणि विठाणाई -- शेष स्थान भी, एएनइसी, कमेण - क्रम से, नेयाणि- - जानना चाहिये । गाथार्थ - वेदत्रिक और तीन कषायों में आदि के नौ गुणस्थान के तुल्य और लोभ कषाय में दस गुणस्थान के तुल्य जानना चाहिये | इसी क्रम से शेष स्थान भी जानना चाहिये । विशेषार्थ - वेदमार्गणा के स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद तथा कषाय मार्गणा के क्रोध, मान और माया इन तीन भेदों, कुल छह भेदों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान पर्यन्त जैसे बंधादि का कथन किया है, उसी के समान समझना चाहिये | क्योंकि तीनों वेद और तीनों कषाय नौवें गुणस्थान पर्यन्त ही संभव हैं । 1 लोभ के संबन्ध में दसवें गुणस्थान तक जैसा पूर्व में कहा है, तदनुरूप समझना चाहिये । क्योंकि लोभ सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान तक ही संभव है । इसी तरह शेष मार्गणास्थानों में भी उक्त प्रकार से समझना चाहिये । जो इस प्रकार है ज्ञान मार्गणा के भेद मति अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान मार्गणा में मिथ्यादृष्टि से मिश्रगुणस्थान तक, मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान मार्गणा में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणमोहगुणस्थान तक, मनपर्यायज्ञानमार्गणा में प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीण Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४२ ३२६ मोहगुणस्थान पर्यन्त जैसे पूर्व में बंधादि का निरूपण किया है, उसी प्रकार समझना चाहिये । केवलज्ञान मार्गणा में सयोगि और अयोगि केवली इन दो गुणस्थानों के कथनानुरूप जानना चाहिये । चारित्रमार्गणा के भेद सामायिक और छेदोपस्थापना में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान, परिहारविशुद्धि में प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान, सूक्ष्मसंपराय में सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान और यथाख्यातचारित्र में उपशांतमोह से अयोगिकेवली गुणस्थान, देशविरति में देशविरत गुणस्थान और असंयममार्गणा में मिथ्यादृष्टि से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक जिस प्रकार से बंधादि का कथन किया है, तदनुरूप समझना चाहिये। ____दर्शनमार्गणा के भेद चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षोणमोह गुणस्थान पर्यन्त, अवधिदर्शन में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान पर्यन्त और केवलदर्शन में सयोगि-अयोगि केवली गुणस्थान के समान बंधादि जानना चाहिये। लेश्यामार्गणा के भेद आदि की पांच (कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म) लेश्याओं में मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त और शुक्ललेश्या में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्त के तुल्य बंधादि समझना चाहिये। भव्य मार्गणा के भेद भव्य में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक और अभव्यमार्गणा में मिथ्यात्वगुणस्थान की तरह बंधादि जानना चाहिये। सम्यक्त्वमार्गणा के भेद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में अविरतसम्यगदृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक, औपशमिक१. आदि को तीन लेश्याओं में पहले से चौथे अथवा छठे, तेज, पद्म, लेश्या में सात और शुक्ल लेश्या में पहले से तेरह गुणस्थान कर्मग्रन्थ में बताये हैं । लेकिन यहां आद्य पांच लेश्याओं में सात गुणस्थान कहे हैं । विज्ञजनों से समाधान की अपेक्षा है । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० पंचसंग्रह : १० सम्यक्त्व में अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर उपशांतमोहगुणस्थान तक, क्षायिक सम्यक्त्व में अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवलीगुणस्थान तक, मिथ्यात्व में मिथ्यात्व गुणस्थान, सासादन में सासादन गुणस्थान और मिश्र सम्यक्त्व में मिश्र गुणस्थान की तरह बंधादि जानना चाहिये। संज्ञी मार्गणा में मनुष्य गति के अनुरूप एवं असंज्ञी मार्गणा में मिथ्यात्व एवं सासादन गुणस्थान के समान बंधादि जानना चाहिये । आहारकमार्गणा के भेद अनाहारक में मिथ्यादृष्टि, सासादन, अविरतसम्यग्दष्टि, सयोगि केवली और अयोगि केवली गुणस्थान की तरह और आहारक में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान • तक की तरह बंधादि का विधान जानना चाहिये ।। इस प्रकार से सत्पदप्ररूपणा का आशय जानना चाहिये । अब बंधापेक्षा द्रव्य प्रमाण का कथन करने के लिये चौदह गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की बंधसंख्या बतलाते हैं। गुणस्थानों में बंध-प्रकृतियों की संख्या सत्तरसुत्तरमेगुत्तरं तु चोहत्तरोउ सगसयरी। सत्तट्ठी तिगसट्ठी गुणसट्ठी अट्ठवन्ना य ॥१४३॥ निद्दादुगे छवण्णा छब्बीसा णामतीसविरमंमि । हासरईभयकुच्छाविरमे बावीस पुवंमि ॥१४४॥ पुवेयकोहमाइसु अबज्झमाणेसु पंचठाणाणि । बारे सुहमे सत्तरस पगतिओ सायमियरेसु ॥१४॥ शब्दार्थ-सत्तरसुत्तरमेगुत्तर--सत्रह और एक अधिक सौ अर्थात् एक सौ सत्रह, एक सो एक, तु-और, चोहत्तरीउ-चौहत्तर, सगसयरी-सत्तहत्तर, १. मार्गणा स्थानों में आठकों की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थानों के प्रारूप परिशिष्ट में देखिये । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४३, १४४,१४५ सत्तट्ठी - सड़सठ, तिगसट्ठी - त्र ेसठ, गुणसट्ठी - उनसठ अट्ठावन्नाअट्ठावन, य— ओर । 1 ३३१ निधादुगे - निद्राद्विक, छवण्णा - छप्पन, छठवीस-छब्बीस, णामतीसविरमंमि- नामकर्म की तीस प्रकृतियों का विच्छेद होने पर, हासरई मयकुच्छाविरमे - हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का विच्छेद होने पर, बावीस-बाईस, पुध्वंमि - अपूर्वकरण में । --- पुवेयको हमाइसु - पुरुषवेद क्रोधादि का अबज्झमणेसु -- बंध नहीं होने पर, पंच ठाणाणि -- पांच बंधस्थान, बारे-- - बादर संपराय में, गुहुमे सूक्ष्मसंपराय में, सत्तरस - सत्रह, पगतिओ — प्रकृतियां, सायमियरेसु—अन्य गुणस्थानों में एक सातावेदनीय । गाथार्थ - मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में यथाक्रम से पहले में एक सौ सत्रह, दूसरे में एक सौ एक, तीसरे में चौहत्तर, चौथे में सतहत्तर, पाँचवें में सड़सठ, छठे में त्रेसठ, सातवें में उनसठ, अपूर्वकरण में अट्ठावन, निद्राद्विक का विच्छेद होने पर छप्पन, नाम की तीस प्रकृतियों का विच्छेद होने पर छब्बीस और हास्य, रति, भय, जुगुप्सा का बंधविच्छेद होने के बाद अनिवृत्तिबादरसंपराय में बाईस प्रकृतियों का बंध होता है तथा वहीं पुरुषवेद और क्रोधादि का अनुक्रम से बंध विच्छेद होने पर इक्कीस आदि पाँच बंधस्थान होते हैं, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में सत्रह प्रकृतियों का और शेष तीन गुणस्थान में एक सातावेदनीय का बंध होता है । ( अयोगिकेवली गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का बंध नहीं होता है ।) विशेषार्थ - इन तीन गाथाओं में गुणस्थानों में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या का निर्देश किया है । यथाक्रम से जिसका विस्तृत स्पष्टीकरण इस प्रकार है बंधापेक्षा ज्ञानावरण आदि आठों मूल कर्म की एक सौ बीस प्रकृतियाँ मानी जाती हैं । उनमें से पहले मिथ्यादृष्टि - गुणस्थान में Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ पंचसंग्रह : १० आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग और तीर्थंकर नाम इन तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि तोर्थंकर-नाम के बंध में सम्यक्त्व और आहारकद्विक के बंध में संयम हेतु है। परन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सम्यक्त्व या चारित्र में से एक भी हेतु नहीं है । इसलिए इन तीन प्रकृतियों के सिवाय शेष एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ मिथ्यादृष्टि को बंधती है। सासादन गुणस्थान में एक सौ एक बंधती हैं । क्योंकि मिथ्यात्व, नपुसकवेद, नरकत्रिक, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, हुण्डसंस्थान, सेवार्त संहनन, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और आतप इन सोलह प्रकृतियों का मिथ्यात्व गुणस्थान में बंध विच्छेद होता है तथा तीर्थकरनाम और आहारकद्विक रूप तीन प्रकृतियाँ पूर्वोक्त युक्ति से यहाँ भी नहीं बंधती हैं। इसलिए सासादन गुणस्थान में एक सौ एक प्रकृतियाँ बंधती हैं। मिश्र गुणस्थान में चौहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं। इसका कारण यह है कि पूर्वोक्त एक सौ एक प्रकृतियों में से स्त्यानद्धित्रिक, स्त्रीवेद, अनन्तानुबंधिचतुष्क, तिर्यंचत्रिक, मध्यम चार संहनन, चार संस्थान, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, अनादेय, दुःस्वर और नीच गोत्र इन पच्चीस प्रकृतियों का सासादन गुणस्थान में बंधविच्छेद होता है तथा मिश्रदृष्टि तथास्वभाव से किसी भी आयु का बंध आरम्भ नहीं करता है, जिससे यहाँ मनुष्यायु और देवायु का भी बंध नहीं होता है। इसलिए एक सौ एक में से सत्ताईस प्रकृतियों को कम करने पर मिश्रदृष्टि गुणस्थान में चौहत्तर प्रकृतियों का बंध होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में सतहत्तर प्रकृतियाँ बंधयोग्य हैं। इनमें चौहत्तर तो पूर्व में कही जा चुकी हैं और इस गुणस्थान में मनुष्यायु, देवायु और तीर्थकरनाम ये तीन प्रकृतियाँ भी बंधयोग्य अध्यवसाय होने से बंधती हैं। जिससे इस गुणस्थान में सतहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४३, १४४, १४५ देशविरत गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क, मनुष्यत्रिक, प्रथम संहनन और औदारिकद्विक इस प्रकार दस प्रकृतियों के कम करने पर सड़सठ प्रकृतियों का बंध होता है । इस गुणस्थान में देशविरति रूप गुण के निमित्त से अप्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय का अभाव होने से ये दस प्रकृतियाँ बंधती नहीं हैं, इसलिए सड़सठ प्रकृतियाँ बंध योग्य हैं । ३३३ इनमें से प्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क का विच्छेद होने पर प्रमत्तसंयत गुणस्थान में त्रेसठ प्रकृति बंधयोग्य हैं । प्रत्याख्यानावरण कषाय का बंध नहीं होने का कारण उनके उदय का अभाव है । इस गुणस्थान में सर्वविरति साधु को उन कषायों का उदय नहीं होता है । इन प्रकृतियों में से अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति, असातावेदनीय, शोक और अरति मोहनीय इन छह प्रकृतियों को कम करने पर और आहारकद्विक को मिलाने पर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उनसठ प्रकृतियों का बंध होता है । अप्रमत्त यति, विशुद्ध संयमी होने से अस्थिरादि छह प्रकृतियों को नहीं बाँधता है और तद्योग्य विशुद्ध अध्यवसाय होने से आहारकद्विकका बंध करता है । इसलिए अप्रमत्तयति को उनसठ प्रकृतियों का बंध होता है । देवायु के बिना अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव अट्ठावन प्रकृतियों का बंध करता है । अपूर्वकरणादि गुणस्थानवर्ती अतिविशुद्ध परिणाम के योग से आयु के बंध को प्रारम्भ ही नहीं करता है । इन अट्ठावन प्रकृतियों का बंध अपूर्वकरण के सात भाग में पहले भाग तक ही होता है । पहले भाग के चरम समय में निद्रा और प्रचला का बंधविच्छेद होता है, जिससे दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें और छठे भाग तक छप्पन प्रकृति बंधती हैं और छठे भाग के अंत में देवद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तैजस, कार्मण, समचतुरस्र संस्थान, वर्ण चतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, त्रसनवक, प्रशस्त विहायोगति, निर्माण और तीर्थंकरनाम इन तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है। इन तीस प्रकृतियों का बंधविच्छेद Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० होने के बाद छब्बीस प्रकृतियों का बंध होता है और वह अपूर्वकरण के चरम समय पर्यन्त होता है। उस चरम समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों का बंधविच्छेद होने से अनिवृत्तिबादर-संपराय गुणस्थान के प्रथम समय में बाईस प्रकृतियाँ बंधयोग्य होती हैं। इन बाईस प्रकृतियों का बंध वहाँ तक होता है कि अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे। तत्पश्चात् पुरुषवेद का बंधविच्छेद होने पर इक्कीस प्रकृति बंधयोग्य होती हैं और वे भी वहाँ तक बंधती हैं कि शेष रहे संख्यातवें भाग प्रमाण काल के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे। उसके बाद संज्वलन क्रोध का बंध विच्छेद होने से बीस प्रकृति बंधयोग्य होती हैं और वे भी शेष रहे काल के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे। तत्पश्चात संज्वलन मान का बंधविच्छेद होने से उन्नीस प्रकृति बंधयोग्य होती हैं । वे भी शेष रहे काल के संख्यात भाग जायें और एक भाग शेष रहे, वहाँ तक बंधती हैं। तत्पश्चात् संज्वलन माया का भी बंधविच्छेद होने से अठारह प्रकृतियाँ बंधयोग्य होती हैं और वे अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त बंधती हैं। उस चरम समय में संज्वलन लोभ का भी बंधविच्छेद होने से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के प्रथम समय में सत्रह प्रकृति बंधती हैं । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, अन्तरायपंचक, यशःकीर्ति नाम और उच्च गोत्र इन सोलह प्रकृतियों का बंधविच्छेद होता है, जिससे उपशांत मोह, क्षीणमोह और सयोगि केवली इन तीन गुणस्थान में मात्र एक सातावेदनीय का ही बंध होता है, अन्य किसी भी प्रकृति का बंध होता है। ___ इस प्रकार गुणस्थानों में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या जानना चाहिये। अब नरकगति आदि में गुणस्थान के क्रम से बंधसंख्या का कथन करते हैं। नरकगति में बंध-प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४६, १४७ नरकगति में बंधयोग्य प्रकृति मिच्छे नरएस सयं छण्णउई सासगो सयरि मीसो । बावर्त्तारं तु सम्मो चउराइसु बंधति मणुयदुगुच्चागोयं भवपच्चइयं न होइ गुणपच्चइयं तु बज्झइ मणुयाऊ ण सव्वहा तत्थ ॥ १४७॥ शब्दार्थ - मिच्छे – मिथ्यात्व गुणस्थान में, नरएसुनारकों में, सयंसो, छण्णउई - छियानवे, सासणी - सासादन, सयरि-सत्तर, मोसो – मिश्र गुणस्थान, बावर्त्तारं - बहत्तर, तु-और, सम्मो— अविरतसम्यग्दृष्टि में, चउराइसु- चौथी आदि पृथ्वियों में, बंधति अतित्था - तीर्थंकरनाम के बिना ( इकहत्तर) बंधती हैं । इयं - गुणप्रत्यय से, तु — और, बज्झइ – बंधती है, नहीं, सव्वहा - सर्वथा, तत्थ - वहाँ । ३३५ मणुयदुगुच्चागोयं - मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र, भवपच्चइयं - भवप्रत्यय से ही न होइ नहीं बंधते हैं, चरिमाए— अन्तिम नरक- पृथ्वी में, गुणपच्च 7 मणुवाऊ - मनुष्यायु ण अतित्था ।।१४६।। चरिमाए । गाथार्थ - नरकगति में वर्तमान मिथ्यादृष्टि नारक सौ, सासासन छियानवे, मिश्रगुणस्थान वाला सत्तर और अविरत सभ्यग्दृष्टि बहत्तर प्रकृतियों का बंध करता है और चौथी आदि पृथ्वियों में तीर्थंकरनाम के बिना इकहत्तर प्रकृति बँधती हैं । अन्तिम नरक पृथ्वी (सातवीं नरक) में मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र भवप्रत्यय से ही नहीं बँधते हैं गुणप्रत्यय से तो बँधते हैं । मनुष्यायु का तो सर्वथा बंध होता ही नहीं है । विशेषार्थ - इन दो गाथाओं में गुणस्थानापेक्षा नरकगति में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या बताई है । नरकगति में आदि के चार गुणस्थान होते हैं । जिनमें यथाक्रम से बंध प्रकृतियों की संख्या इस प्रकार है I नरकगति में वर्तमान मिथ्यादृष्टि सौ प्रकृतियों का बंध करता है । इसका कारण यह है कि नारक के भवप्रत्यय से ही वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवत्रिक, नरकत्रिक, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, एके Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ पच संग्रह : १० न्द्रियादि चार जाति, स्थावर और आतप ये उन्नीस प्रकृतियाँ नहीं बंधती हैं तथा मिथ्यादृष्टि नारक तीर्थंकर नामकर्म का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि इसके बंध में सम्यक्त्व निमित्त है। जिससे बीस प्रकृति कम करने पर शेष सौ प्रकृतियाँ ही मिथ्यादृष्टि नारक के बँधती हैं। सासादनगुणस्थान में वर्तमान नारक छियानवै प्रकृतियों का बंध करते हैं। क्योंकि उनके मिथ्यात्वमोहनीय, नपुसकवेद, हुण्डसंस्थान और सेवार्त संहनन इन चार प्रकृतियों का गुणप्रत्यय से ही बंध नहीं होता है। मिश्रदृष्टि नारक सत्तर प्रकृतियों का बंध करते हैं। क्योंकि मिश्रदृष्टि स्त्याद्धित्रिक, दुःस्वर, दुर्भग, अनादेय, तियंचत्रिक, मध्यम संहननचतुष्क, मध्यम संस्थानचतुष्क, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, उद्योत, नीचगोत्र और मनुष्यायु इस प्रकार छब्बीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि नारक बहत्तर प्रकृति बाँधते हैं। क्योंकि वे मनुष्यायु और तीर्थंकरनाम का बंध करते हैं। किन्तु चौथी से छठी नरकपृथ्वी तक के नारक तीर्थंकरनाम का बंध नहीं करने वाले होने से इकहत्तर प्रकृतियों का बंध करते हैं। उनके पहले, दूसरे और तीसरे गणस्थान के बंध में कुछ भी अन्तर नहीं है । तथाप्रकार के भवस्वभाव से चौथी आदि पृथ्वी वाले नारक तीर्थकरनाम का बंध करते ही नहीं हैं । तथा-- सातवीं नरकपृथ्वी में भवप्रत्यय से ही मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र बंधयोग्य नहीं, जिससे सातवीं नरकपृथ्वी में मिथ्यादृष्टि और सासादनगुणस्थान में इन तीन प्रकृति से न्यून प्रकृतियाँ बंधयोग्य समझना चाहिये । जिससे पूर्व में पहले और दूसरे गुणस्थान में नारकों को जो बंध कहा है, उससे इन तीन प्रकृतियों से न्यून बंध सातवीं नरक पृथ्वी में जानना चाहिये। परन्तु तीसरे और चौथे गुणस्थान में गुणप्रत्यय से मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र का बंध होता है जिससे इन दोनों गुणस्थान में सातवीं Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १४८ ३३७ नरकपृथ्वी में इकहत्तर प्रकृतियाँ बंधयोग्य हैं, लेकिन सातवीं नरकपृथ्वी में भवप्रत्यय या गुणप्रत्यय से मनुष्यायु का बंध ही नहीं होता है जिससे उनको पहले गुणस्थान में छियानवै, दूसरे गुणस्थान में इक्यानवै और तीसरे, चौथे गुणस्थान में सत्तर प्रकृतियों का बंध होता है। ___ इस प्रकार से गुणस्थानापेक्षा नरकगति में बंधयोग्य प्रकृतियों की संख्या जानना चाहिए। अब देवगति में बंधयोग्य प्रकृतियों को बतलाते हैं। देवगति में बंधयोग्य प्रकृतियां सामण्ण सुराजोग्गा आजोइसिया ण बंधति सतित्था। इगिथावरायवजुया सणंकुमारा ण बंधति ॥१४॥ शब्दार्थ-सामण्ण सुराजोग्गा-सामान्य से देवों के अयोग्य, आजोइसिया-ज्योतिष्क तक के देव, ण-नहीं, बंधंति---बांधते, सतित्था-तीर्थकर नाम युक्त, इगिथावरायवजुया-एकेन्द्रिय स्थावर, आतप सहित, सणंकुमारासनत्कुमारादि, ण बंधंति-नहीं बांधते हैं। गाथार्थ-सामान्य से देवों के बंध अयोग्य जो प्रकृतियाँ हैं, उनको तीर्थंकर नाम सहित ज्योतिष्क तक के देव नहीं बाँधते हैं, तथा एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप युक्त उन प्रकृतियों को सनत्कुमार आदि के देव नहीं बाँधते हैं। विशेषार्थ—सामान्य से देवों के बंध-अयोग्य जो सोलह प्रकृतियाँ पूर्व में कहीं गई हैं,1 वे इस प्रकार हैं—वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवत्रिक, नरकत्रिक, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण और विकलत्रिक । इन सोलह प्रकृतियों के साथ तीर्थंकर नामकर्म को मिलाने पर कुल सत्रह प्रकृतियाँ ज्योतिष्क तक के देव अर्थात् भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिष्क देव भव-स्वभाव से ही नहीं बाँधते हैं। १ बंधविधि अधिकार गाथा ३० Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० । उक्त सोलह प्रकृतियों में एकेन्द्रियजाति, स्थावर और आतप नाम को मिलाने पर उन्नीस प्रकृतियों को सनत्कुमारादि देव नहीं बांधते हैं । तथा तिरितिगउज्जोवजुया आणयदेवा अणुत्तरसुरा उ। अणमिच्छणीयदुन्भगथीणतिगं अपुमथीवेयं ॥१४॥ संघयणा संठाणा पण-पण अपसत्थविहगई न तेसि । शब्दार्थ-तिरितिग-तियंचत्रिक, उज्जोवजुया-उद्योत के साथ, आणयदेवा-आनत आदि के देव, अणुतरसुरा-अनुत्तर विमानवासी देव, उऔर, अमिच्छ- अनन्तानुबंधिचतुष्क, मिथ्यात्व, णीय-नीच गोत्र, दुब्भगदुर्भम, थोणतिगं-स्त्यानद्धित्रिक, अपुमथीवेयं-नपुसक और स्त्रीवेद । ____ संघयणा संठाणा पण पण---पाँच संहनन और पाँच संस्थान, अपसत्थविहगइ-अप्रशस्त विहायोगति, न--नहीं, तेसि-उनको । गाथार्थ-तिर्यंचत्रिक और उद्योत युक्त पूर्वोक्त प्रकृतियाँ आनतादि देव नहीं बांधते हैं । अनुत्तर विमानवासी देव अनन्तानुबंधि कषायचतुष्क, मिथ्यात्व, नीचगोत्र, दुर्भगत्रिक, स्त्यानद्धित्रिक, नपुसकवेद, स्त्रीवेद तथा पहले के सिवाय पांच संहनन, पहले के सिवाय पांच संस्थान और अप्रशस्त विहायोगति का भी बंध नहीं करते हैं। विशेषार्थ-पूर्व में सनत्कुमारादि देवों के बंध-अयोग्य जो उन्नीस प्रकृतियाँ कही हैं, उनमें तिर्यंचत्रिक (तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, तिर्यंचायु) और उद्योतनाम को मिलाने पर कुल तेईस प्रकृतियाँ आनतादि देवों के भवप्रत्यय से बंधती ही नहीं हैं तथा गुणप्रत्यय से जो प्रकृति नहीं बंधती हैं, उनको गुणस्थान क्रम से समझ लेना चाहिये । __ अनुत्तरविमानवासी देव अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क, मिथ्यात्व, नीचगोत्र, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीति, स्त्याद्धित्रिक, नपुसकवेद, स्त्रीवेद और 'तु' शब्द से ग्रहीत दुःस्वर नाम को नहीं बांधते हैं एवं Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५०,१५१ ३३६ उनको पहले के सिवाय शेष पांच संहनन और पहले के सिवाय शेष पांच संस्थान और अप्रशस्त विहायोगति का भी बंध नहीं होता है। क्योंकि ये अनुत्तरविमानवासी देव सम्यग्दृष्टि हैं और सम्यग्दृष्टि उक्त प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं तथा आनतादि देवों के लिये जो तेईस प्रकृति बंध के अयोग्य कही हैं, उनको भी अनुत्तरदेव नहीं बांधते हैं। इस प्रकार से कुल मिलाकर अनुत्तरविमानवासी देवों के उनचास (४६) प्रकृतियाँ बंध-अयोग्य हैं। जिससे उनको चौथे गुणस्थान में इकहत्तर प्रकृतियाँ बंधती हैं। इस प्रकार से देवमतियोग्य बंधप्रकृतियाँ जानना चाहिये। अब शेष रही तिर्यंचगति, मनुष्यगति सम्बन्धी बंधप्रकृतियों का निर्देश करते हैं। तिर्यंच और मनुष्यगति योग्य बंधप्रकृति पज्जत्ता बंधंति उ देवाउमसंखवासाऊ ॥१५०॥ तित्थायवउज्जोयं नारयतिरिविगलतिगतिगेगिदी। आहार थावरचऊ आउ णासंखपज्जत्ता ॥१५॥ शब्दार्थ-पज्जत्ता-पर्याप्त, बंधंति-बांधते हैं, उ-और, देवाउं-देवायु को, असंखवासाऊ~-असंख्यात वर्षायुष्क । तित्थायवउज्जोयं-तीर्थकरनाम, आतप, उद्योत, नारयतिरिविगलतिगतिग-नरकत्रिक, तियंचत्रिक, विकलत्रिक, एगिदी-एकेन्द्रियजाति, आहारआहारकद्विक, थावरचऊ-स्थावरचतुष्क, आउ-आयु, णासंखपज्जत्ताअसंख्यात वर्षायुष्क अपर्याप्त बंध नहीं करते हैं । गाथार्थ-असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य देवायु का बंध करते हैं । असंख्य वर्षायुष्क अपर्याप्त तीर्थंकरनाम, आतप, उद्योत, नरकत्रिक, तिर्यचत्रिक, विकलत्रिक, एकेन्द्रियजाति, आहारकद्विक स्थावरचतुष्क और आयु का बंध नहीं करते हैं । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० विशेषार्थ-मनुष्य और तिर्यंच दो प्रकार के हैं—संख्यात वर्षायुष्क और असंख्यात वर्षायुष्क। इनमें से संख्यात वर्षायुष्क वाले तिर्यंच और मनुष्यों के लिये तो जैसा पहले गुणस्थानों में बंध प्रकृतियों का कथन किया है, तदनुरूप ही जानना चाहिये लेकिन असंख्यात वर्षायुष्कों विषयक विशेष का यहाँ उल्लेख करते हैं असंख्यात वर्ष की आयु वाले पर्याप्त मनुष्य और तिर्यच देवायु का बंध करते हैं, अन्य किसी भी आयु को नहीं बांधते हैं तथा अपर्याप्त-अपर्याप्तावस्था में वर्तमान मनुष्य और तिर्यंच तीर्थंकर, आतप, उद्योत, नरकत्रिक, तिर्यंचत्रिक, विकलत्रिक, एकेन्द्रियजाति, आहारकद्विक, स्थावरचतुष्क, देव-मनुष्यायु कुल मिलाकर इक्कीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। तथा पज्जतिगया दुभगतिगणीयमपसत्थविहनपुसाणं । संघयणउरलमणुदुगपणसंठाणाण अबन्धा ॥१५२॥ शब्दार्थ- पज्जतिगया–पर्याप्त, दुभगतिग-दुभंगत्रिक, गोयं-नीचगोत्र, अपसत्थविह-अप्रशस्त विहायोगति, नसाणं-नपुंसक वेद का, संघयण-सहनन नाम, उरल-औदारिकद्विक, मणुदुग- मनुष्यद्विक, पणसंठाणाण-पाँच संस्थान के, अबंधा-अबंधक हैं। गाथार्थ-सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त युगलिक दुर्भगत्रिक, नीचगोत्र, अप्रशस्त विहायोगति, नपुसकवेद, संहनन नाम, औदारिकद्विक, मनुष्यद्विक, अन्तिम पाँच संस्थान के अबंधक हैं। विशेषार्थ-समस्त पर्याप्तियों से पर्याप्त असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य अथवा तिर्यंच दुर्भगत्रिक-दुर्भग, अनादेय, अयशःकीति, नीचगोत्र, अप्रशस्त विहायोगति, नपुसकवेद, छह संहनन, औदारिकशरीर, औदारिक-अंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, समचतुरस्र संस्थान के बिना शेष पाँच संस्थान, इस प्रकार इक्कीस प्रकृति तथा पूर्वगाथा में कही देवायु के बिना शेष बीस प्रकृति कुल इकतालीस प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं। Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५३,१५४,१५५ ३४१ इस प्रकार से चतुर्गति में बंध सम्बन्धी विशेषता जानना चाहिये। अब शेष मार्गणाओं सम्बन्धी विशेषता का प्रतिपादन करते हैं। शेष मार्गणाओं में बंधयोग्य प्रकृतियाँ किण्हाइतिगे अस्संजमे य वेउविजुगे न आहारं । बंधइ न उरलमीसे नरयतिगं छटुममराउ ॥१५३।। कम्मजोगि अणाहारगो य सहिया दुगाउ णेयाओ। सगवण्णा तेवट्ठी बंधति आहारमुभएसु॥१५४॥ तेउलेसाईया बंधंति न निरयविगलसुहमतिगं। सेगिदिथावरायवतिरियतिगुज्जोय नव बारं ॥१५५।। शब्दार्थ-किण्हाइतिगे-कृष्णादि तीन लेश्याओं में, अस्संजमे-असयम में, य-और, वेउविजुगे-वैक्रिय द्विक मागंणा में, न- नहीं, आहारआहारकद्विक, बंधइ-बंधती हैं, न-नहीं. उरलमीसे-औदारिकमिश्र मे, नरयतिग-नरकत्रिक, छ?---छठी, अमराउं- देवायु को। ____ कम्मजोगि-कार्मणकाययोग में, अणाहारगो .. अनाहा र क मार्गणा में, य-और. सहिया-सहित, दुगाउ-दो आयु, णेयाओ- इनका नहीं सगवण्णा–सत्तावन, तेवट्ठी--सठ, बंधति-बांधते हैं, आहारमुभएK-दोनों आहारकशरीर मार्गणा में । तेउलेसाईया-तेजोलेश्यातीत, बंधतिः-बांधते हैं, न-नहीं, निरयविगलसुहमतिर्ग-नरकत्रिक, विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, सेगिविथावरायव- एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप सहित, तिरितिगुज्जोय-तिर्यंचत्रिक, उद्योत, नव-नो, बार-बारह । ___ गाथार्थ-कृष्णादि तीन लेश्याओं, असंयम, वैक्रिय, वैक्रियमिश्र मार्गणा में वर्तमान आहारकद्विक का बंध नहीं करते हैं। औदारिकमिश्रयोग में वर्तमान आहारकद्विक, नरकत्रिक और छठी देवायु इन छह का बंध नहीं करते हैं। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० कार्मणकाययोग और अनाहार मार्गणा में वर्तमान दो आयु सहित इनका (पूर्वोक्त छह ) कुल आठ का बंध नहीं करते हैं । आहारककाययोग मार्गणा में वर्तमान सत्तावन और आहारकमिश्र मार्गणा में वर्तमान त्रेसठ प्रकृतियों का बंध करते हैं । ३४२ तेजोलेश्यातीत नरकत्रिक, विकलत्रिक और सूक्ष्मत्रिक इन नौ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं, पद्म लेश्यातीत एकेन्द्रिय स्थावर और आतप के साथ बारह का तथा शुक्ल लेश्यातीत तियंचत्रिक और उद्योत का भी बंध नहीं करते हैं । विशेषार्थ - गति मार्गणा की उत्तरवर्ती इन्द्रिय और कायमार्गणा के सम्बन्ध में द्रव्य प्रमाण 'नरयतिगं देवतिगं इगिविगलाणं' गाथा द्वारा कहा जा चुका है । शेष मार्गणाओं में मनुष्य की तरह समझना चाहिये । लेकिन उनमें जो विशेष है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है श्यामार्गणा के कृष्ण, नील, कापोत इन तीन भेदों में, संयममार्गणा के भेद असंयम में, योगमार्गणा के भेद वैक्रिय और वैक्रियमिश्रमार्गणा में वर्तमान जीव आहारकशरीर और आहारक अंगोपांग नाम का बंध नहीं करते हैं। क्योंकि इन मार्गणाओं में विशिष्ट संयम नहीं होने से आहारकद्विक का बंध नहीं होता है । औदारिक मिश्रयोग में वर्तमान आहारकद्विक, नरकत्रिक और देवायु इन छह प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । इसका कारण यह है कि औदारिकमिश्रयोग अपर्याप्तावस्था में होता है । उस समय मनःपर्याप्ति से अपर्याप्त होने के कारण देवायु एवं नरकत्रिक के बंधयोग्य अध्यवसाय सम्भव नहीं हैं तथा विशिष्ट संयम की प्राप्ति भी उस समय ..नहीं होती है जिससे आहारकद्विक का भी बंध सम्भव नहीं है । इस लिये औदारिकमिश्रकाययोगी को इन छह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । तियंचायु और मनुष्यायु अल्प अध्यवसाय द्वारा बंधयोग्य हैं । वैसे अध्यवसाय अपर्याप्तावस्था में हो सकने से उस अवस्था में Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५३, १४५, १५५ औदारिकमिश्रयोगी को इन दो आयु का बंध सम्भव है । योगमार्गणा के भेद कार्मणकाययोग में तथा आहारकमार्गणा के भेद अनाहारक में पूर्वोक्त छह प्रकृतियों के साथ दो आयु को मिलाने पर आठ प्रकृति बंध के अयोग्य हैं । अर्थात् कार्मणकाययोगी और अनाहारक के आहारकद्विक, नरकत्रिक, देवायु, मनुष्यायु और तियंचायु इन आठ प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । ३४३ आहारककाययोग में वर्तमान सत्तावन और आहारकमिश्रयोग में वर्तमान त्रेसठ प्रकृतियों का बंध करते हैं। जिसका अर्थ यह हुआ कि ये दोनों अनुक्रम से त्रेसठ और सत्तावन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । इसका तात्पर्य यह है आहारकमिश्र काययोग में वर्तमान आदि की बारह कपाय, मिथ्यात्वमोहनीय, तिर्यंचद्विक, मनुष्यद्विक, तियंचायु, मनुष्यायु, दुभंग, दुःस्वर, अनादेय, स्त्यानद्धित्रिक, विकलत्रिक, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, नरकत्रिक, संहननषटक्, प्रथम के बिना अन्तिम पाँच संस्थान, औदारिकद्विक, आहारकद्विक, स्थावर, एकेन्द्रियजाति, आतप, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, उद्योत, नीचगोत्र, और अशुभ विहायोगति इन सत्तावन प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं तथा आहारकशरीर में वर्तमान प्रमत्त या अप्रमत्त संयत उक्त सत्तावन तथा अस्थिर, अशुभ, अयशः कीर्ति, अरति शोक और असातावेदनीय इन छह प्रकृतियों को भी नहीं बांधते हैं । इसलिये कुल मिलाकर त्रेसठ प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । , लेश्यामार्गणा के तेज आदि तीन लेश्याओं के बंध के विचार का यह रूप है कि तेजोलेश्या के पहला, दूसरा और तीसरा (मंद, तीव्र, अतितीव्र) इस प्रकार विशुद्धि की अपेक्षा यह तीन विभाग हैं । उनमें तेजोलेश्या के पहले भाग को पार कर चुके यानि दूसरे और तीसरे भाग में वर्तमान (तीव्र और अतितीव्र तेजोलेश्या वाले) जीव नरकत्रिक, विकलत्रिक, सूक्ष्मत्रिक, इन नौ प्रकृतियों का बंध नहीं करते Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० हैं। क्योंकि तेजोलेश्या वाले मनुष्य और तिर्यच नरकादि में उत्पन्न नहीं होते हैं। देव भी उक्त नौ प्रकृति के उदय वाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। जिससे तेजोलेश्या वालों के इन प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है। शुद्ध पद्मलेश्या वाले जीव एकेन्द्रिय, और आतप सहित उक्त नौ प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं। अर्थात् बारह प्रकृतियों का बंध नहीं करते हैं । इसका कारण यह है कि पद्मलेश्या वाले मनुष्य या तिर्यंच देवों में ही उत्पन्न होते हैं। एकेन्द्रियादि में उत्पन्न नहीं होते हैं तथा पद्मलेश्या युक्त देव भी एकेन्द्रियादि में उत्पन्न नहीं होते हैं, जिससे शुद्ध पद्मलेश्या वाले के उक्त बारह प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है। शुद्ध शुक्ललेश्या वाले जीव के उक्त बारह प्रकृतियों में तिर्यंचत्रिक और उद्योत नाम को मिलाने पर कुल सोलह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। क्योंकि परमविशुद्ध शुक्ललेश्या वाले तिर्यंच, मनुष्य और देव उक्त प्रकृतियों के उदय वाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिये शुद्ध शुक्ललेश्या वाले के इन सोलह प्रकृतियों के बंध का निषेध किया है। ___ इस प्रकार से प्रसक्तानुप्रसक्त समस्त अभिधेय का निरूपण करने के अनन्तर आचार्य उपसंहार रूप में अन्त मंगल करते हुए ग्रन्थ पूर्ण करने का संकेत करते हैं सुयदेविपसायाओ पगरणमेयं समासओ भणियं । समयाओ चंदरिसिणा समईविभवाणुसारेण ॥१५६॥ शब्दार्थ-सुयदेविपसायाओ-श्रुतदेवी की कृपा से, पगरणमेयं-यह प्रकरण, समासओ-संक्षेप में, भणियं-कहा है, समयामो-सिद्धान्त में से, चंदरिसिणा- चन्द्रर्षि के द्वारा, समईविमवाणुसारेण-अपने बुद्धि वैभव के अनुसार। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १५६ ३४५ गाथार्थ - श्रुतदेवी की कृपा से अपने बुद्धिवैभव के अनुसार सिद्धान्त में से संक्षिप्त करके चन्द्रषि द्वारा यह प्रकरण कहा गया है । विशेषार्थ - गाथा में ग्रन्थकार ने अपनी लघुता प्रदर्शित करते हुए ग्रन्थ समाप्ति का संकेत किया है द्वादशांग रूप श्रुतदेवी के प्रसाद भक्ति के कारण होने वाले कर्म क्षयोपशम से मैंने - चन्द्रषि ने सिद्धान्त में से दोहन करके इस पंचसंग्रह नामक प्रकरण का कथन किया है । यद्यपि सिद्धान्त में अनेक अर्थों की विस्तार से प्ररूपणा की गई है, लेकिन मेरे द्वारा उन सबका कथन किया जाना शक्य नहीं होने से मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार संक्षिप्त करके इस पंचसंग्रहात्मक प्रकरण में कतिपय अमुक अर्थों पर प्रकाश डाला है । जिससे तत्त्व जिज्ञासु लाभ प्राप्त करें । यही हार्दिक इच्छा है । अन्त में वर्तमान शासनपति श्रमण भगवान महावीर का पुण्य स्मरण करते हुए श्रद्धापूर्वक नमस्कार करता हूँ । इस प्रकार इस सप्ततिका अधिकार की समाप्ति के साथ श्रीमदाचार्य चन्द्रपि महत्तर विरचित पंचसंग्रह ग्रन्थ की वक्तव्यता समाप्त हुई । 11 जैन जयतु शासनम् ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ( १ ) सप्ततिका अधिकार की मूल गाथायें मूलुत्तर पगईणं, साइ-अणाई - परूवणाणुगयं । भणियं बंधविहाणं, अहुणा संवेगं भणिमो ॥ १ ॥ आउम्मि अट्ठ मोहेट्ठ सत्त एक्कं च छाइ वातइए । बज्झतयंमि बज्झति सेसएसु छ सत्तट्ठ ॥२॥ मोहस्सुदए अट्ठवि सत्तय लब्भन्ति सेसयाणुदए । सन्तोइण्णाणि अघाइयाणं अड सत्त चउरो य ||३|| बंधइ छ सत्त अट्ठ य मोहुदए सेसयाण एक्कं च । पत्तेयं संतेहि बंधइ एगं छ सत्तट्ठ ||४|| सत्तट्ठ छ बंधेसु उदओ अट्ठण्ह होइ पयडीणं । सत्तण्ह चउन्हं वा उदओ सायरस बंधमि ||५|| दो संतट्ठाणाई बंधे उदए य ठाणयं एक्कं । वेयणियाउयगोए एगं नाणंतरासु ||६|| नाणंतरायबंधा आसुहुम उदयसंतया खीणं । नारयतिरिमणुसुराऊणं ॥ ७ ॥ आइमदुगच उत्तम संतयाऊणं ॥ ८ ॥ नारयसुराउ उदओ चउ पंचम तिरि मणुस्स चोद्दसमं । आसम्म देसजोगी उवसंता अब्बंधे इगि संतं दो दो बद्धाउ बज्झमाणाणं । चउसुवि एक्कस्सुदओ पण नव नव पंच इइ भेया ॥ ॥ नव छच्चउहा बज्झइ दुगटठ्दसमेण दंसणावरणं । नव बायरम्मि सन्तं छक्कं चउरो य खीणम्मि || १० | नवभेए भंगतियं वे छावट्ठिउ छव्विहस्स ठिई । समयाओ अंतो अंतमुहूत्ताउ नव छक्के ॥ ११ ॥ चउ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ ३४७ दसण सनिददंसणउदओ समयं तु होइ जा खीणो। जाव पमत्तो नवण्ह उदओ छसु चउसु जा खीणो ॥१२॥ चउ पण उदओ बंधेसु तिसुवि अब्बंधगेवि उवसंते । नव संतं अद्वैवं उइण्ण संताई चउ खीणे ॥१३॥ खवगे सुहममि चउ बंधगंमि अबंधगंमि खीणम्मि । छस्संतं चउरुदओ पंचण्हवि केइ इच्छंति ॥१४॥ बंधो आदुग दसमं उदओ पण चोद्दसं तु जा ठाणं । निच्चुच्चगोत्तकम्माण संतया होइ सव्वेसु ॥१५।। बंधइ ऊइण्णयं चिय इयरं वा दोवि संत चउ भंगा। नीएसु तिसुवि पढमो अबंधगे दोण्णि उच्चुदए ॥१६॥ तेरसमछट्ठएसु सायासायाण बंधवोच्छेओ। संतउइण्णाइ पुणो सायासायाई सव्वेसु ॥१७॥ बंधइ उइण्णयं चिर इयरं वा दोवि संत चउ भंगा। संतमुइण्णमबंधे दो दोण्णि दुसंत इइ अट्ठ ॥१८॥ दुगइगवीसा सत्तरस तेरम नव पंच चउर ति दु एगो। बंधो इगिदुग चउत्थय पणट्ठणवमेसु मोहस्स ।।१६।। हासरइअरइसोगाण बंधया आणवं दुहा सव्वे । वेयविभज्जता पुण दुगइगवीसा छहा चउहा ॥२०॥ मिच्छा बंधिगवीसो सत्तर तेरो नवो कसायाणं । अरईदुगं पमत्ते ठाइ चउक्कं नियटिमि ॥२१॥ देसूणपुवकोडी नव तेरे सत्तरे उ तेत्तीसा। बावीसे भंगतिगं ठितिसेसेसु मुहुत्तंतो॥२२॥ इगिदुगचउएगुत्तर आदसगं उदयमाहु मोहस्स । संजलणवेयहासरइभयदुगुछतिकसायदिट्ठी य ॥२३।। दुगआइ दसंतुदया कसायभेया चउविहा ते उ। बारसहा वेयवसा अदुगा पुण जुगलओ दुगुणा ॥२४।। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ पंचसंग्रह : १० अणसम्मभयदुगंछाण गोदओ संभवेवि वा जम्हा | उदया चउवीसा विय एक्केक्कगुणे अओ बहूहा ||२५|| मिच्छे सगाइ चउरो सासणमीसे सगाइ तिण्णुदया | छप्पंचचउरपुव्वा चउरो तिअ अविरयाईणं ॥ २६ ॥ दसगाइसु चउवीसा एक्क छिक्कारदससग चउक्कं । एक्का य नवसयाइं सट्ठाई एवमुदयाणं ॥२७॥ बारस चउरो ति दु एक्कगाउ पंचाइबंधगे उदया । अब्बंध वि एक्को तेसीया नवसया एवं ||२८|| चउबंधगेवि बारस दुगोदया जाण तेहि छूढेहि । बंधगभेएवं पंचूण सहस्समुदयाणं ॥ २६ ॥ बारस दुगोदएहिं भंगा चउरो य संपराएहि । सेसा तेच्चिय भंगा नवसय छावत्तरा एवं ||३०|| मिच्छाइ अप्पमत्तंतयाण अट्ठट्ठ होंति उदयाणं चउवीसाओ सासाण - मीसअपुव्वाण चउ चउरो ||३१|| चउवसगुणा एए बायरसुहुमाण सत्तरस अण्णे | सज्वेसुवि मोहुदया पण्णसट्ठा बारससयाओ ||३२| उदयविगप्पा जे जे उदीरणाएवि होंति ते ते उ । अंतमुहुत्तिय उदया समयादारब्भ भंगा य ||३३|| मिच्छत्तं अणमीसं चउरो चउरो कसाय वा संमं । ठाइ अपुव्वे छक्कं वेयकसाया तओ लोभं ||३४|| अट्ठगसत्तगछक्कगचउतिगदुग एक्कगाहिया वीसा | तेरस बारेक्कारस संते पंचाई जा एक्कं ||३५|| अणमिच्छमीससम्माण अविरया अप्पमत्त जा खवगा । समयं अट्ठकसाए नपुं सइत्थी कमा छक्क |३६|| पुवेयं कोहाइ नियट्टि नासेर सुहुम तिण्णेगतिपण चउसु तेक्कारस चउति तणुलोभं । संताणि ||३७|| Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.४६ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ छन्वीसणाइमिच्छे उव्वलणाए व सम्ममीसाणं । चउवीस अणविजोए भावो भूओ वि मिच्छाओ ॥३८॥ सम्ममीसाणं मिच्छो सम्मो पढमाण होइ उव्वलगो। बंधावलियाउप्पि उदओ संकंतदलियस्स ॥३६॥ बावीसं बंधते मिच्छे सत्तोदयंमि अडवीसा। संतं छसत्तवीसा य होंति सेसेसु उदएसु ॥४०॥ सत्तरसबंधगे छोदयम्मि संतं इगट्ठ चउवीसा। सगति दुवीसा य सगट्ठगोदये नेयरिगिवीसा ॥४१।। देसाइसु चरिमुदए इगिवीसा वज्जियाइ संताई। सेसेसु होंति पंचवि तिसुवि अपुवंमि संततिगं ॥४२।। पंचाइबंधगेसू इगठ्ठचउवीसऽबंधगेगं च। तेरसबारेक्कारस य होंति पणबंधि खवगस्स ॥४३।। एगाहियाय बंधा चउबंधगमाइयाण संतंसा। बंधोदयाण विरमे जं संतं छुभइ अण्णत्थ ।।४४।। सत्तावीसे पल्लासंखंसो पोग्गलद्ध छब्बीसे। बे छावट्ठी अडचउवोसिगिवीसे उ तेत्तीसा ॥४५॥ अंतमुहुत्ता उ ठिई तमेव दुहओ विसेससंताणं । होइ अणाइ अणंतं अणाइ संतं च छन्वीसा ॥४६।। अपज्जत्तगजाई पज्जत्तगईहि पेरिया बहुसो। बंधं उदयं च उति सेसपगइउ नामस्स ॥४७॥ उदयप्पत्ताणुदओ पएसओ अणुवसंतपगईणं । अणुभागमो उ निच्चोदयाण सेसाण भइयन्वो ।।४।। अथिरासुभचउरंसं परघायदुगं तसाइ धुवबंधी। अजसपणिदि विउब्वाहारग सुभखगइ सुरगइया ।।४।। बंधइ तित्थनिमित्ता मणु उरलदुरिसभदेवजोगाओ। नो सुहुमतिगेण जसं नो अजसऽथिराऽसुभाहारे ॥५०॥ | Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० पंचसंग्रह : १० अपज्जत्तगबन्धं दूसरपरघायसासपज्जत्तं । तसअपसत्थाखगई वेउव्वं नरयगइहेऊ ॥५१॥ हुण्डोरालं धुवबंधिणीउ अथिराइदूसरविहूणा । गइ आणुपुवि जाई बायरपत्तेयऽपज्जत्ते ।।५२।। बंधइ सुहुमं साहारणं च थावरतसंगछेवळें । पज्जत्ते उ सथिरसुभजससासुज्जोवपरघायं ॥५३॥ आयावं एगिदियअपसत्थविहदूसरं व विगलेसु । पंचिदिएसु सुसराइखगइसंघयणसंठाणा ॥५४॥ तेवीसा पणुवीसा छन्वीसा अट्ठवीस गुणतीसा । तीसेगतीस एगो बंधट्ठाणाइ नामऽट्ठ ।।५।। मणुयगईए सव्वे तिरियगईए य छ आइमा बंधा। नरए गुणतीस तीसा पंचछवीसा य देवेसु ॥५६।। अडवीस नरयजोग्गा अउवीसाई सुराण चत्तारि। तिगपणछन्वीसेगिदियाण तिरिमणुय बंधतिगं ॥५७।। मिच्छम्मि सासणाइसु तिअट्ठवीसाइ नामबंधाओ। छत्तिण्णि दोति दोदो चउपण सेसेसु जसबंधो ॥८॥ तग्गयणुपुग्विजई थावरमाईय दूसरविहूणा।। धुवबंधि हुण्डविग्गह तेवीसाऽपज्जथावरए ॥५६।। पगईणं वच्चासो होइ गइइंदियाइ आसज्ज । सपराघाऊसासा पणवीस छवीस सायावा ॥६०॥ तग्गइयाइदुवीसा संघयणतसंग तिरियपणुवीसा। दूसर परघाउस्सासखगइ गुणतीस तीसमुज्जोवा ॥६१॥ तिरिबंधा मणुयाणं तित्थगरं तीसमंति इह भेओ। संघयणूणिगुतीसा अडवीसा नारए एक्का ॥६२।। तित्थयराहारगदोतिसंजुओ बंधो नारयसुराणं । अनियट्टीसुहमाणं जसकित्ती एस इगिबंधो ॥६३॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ साहारणाइ मिच्छो सहुमायवथावरं सनरयदुगं । इगिविगलिदियजाई सासायणेऽपसत्थाविहगगई अणाज्जं तिरियदुगं मोसो सम्मोरालमणुयदुगयाइ आइसंघयणं । अथिरासुभअज सपुव्वाणि ॥ ६६ ॥ बंधइ देसो विरओ अपमतो सनियट्टि परघाउसासखगई सुरदुगवेउव्वजुयलधुवबंधी । तसाइचउरंस पंचेंदि ॥६७॥ हुण्डमपज्जत्तछेवट्ठ ॥ ६४ ॥ दूसरदुभगुज्जोवं । मज्झिमसंघयणसं ठाणा ॥ ६५ ॥ उभयं । विरए आहारुदओ बंधो पुण जा नियट्टि तित्थस्स अविरयाओ जा सुमो ताव उज्जोवआयवाणं उदओपुव्विपि होइ ऊसाससरेहितो सुमतिगुज्जोय उज्जोवेनायावं सुहुमतिगेण न बज्झए उज्जोवजसाणुदए जायइ साहारण सुदओ ||७०।। दुभगाईणं उदए बायरपज्जो विउव्वए पवणो । देवगईए उदओ दुभगअणा एज्ज उदवि ॥ ७१ ॥ सूसरउरओ विगलाण होइ विरयाण देसविरयाणं । उज्जोवुदओ जायइ उव्वाहारगद्धाए ॥ ७२ ॥ अडनववीसिगवीसा चउवीसेगहिय जाव इगितीसा । चउगइएसु बारस उदयट्ठाणाई नामस्स || ७३ ॥ मणुसु अचउवीसा वीसडनववज्जियाउ तिरिएसु । इगपण सगट्ठनववीस नारए सुरे सतीसा ते ||७४ || इगवीसाई मिच्छे सगट्ठवीसा य सासणे हीणा । चउवीसूणा सम्मे सपंचवीसाए जोगिम्मि ||७५ || पणवीसाए देसे छब्वीसूणा पमत्ति पुण पंच । गुणतीसाई मीसे तीसिगुतीसा य अपमत्ते ||७६|| अपमत्ता । कित्तीए ॥ ६८ ॥ पच्छावि । नायावं || ६ || ३५१ Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ पंचसंग्रह : १० अट्ठो नवो अजोगिस्स वीसओ केवलीसमुग्याए । इगिवीसो पुण उदओ भवंतरे सव्वजीवाणं ॥७७॥ चउवीसाई चउरो उदया एगिदिएसु तिरिमणुए। अडवीसाइ छन्वीसा एक्केक्कूणा विउव्वंति ।।७।। गइआणुपुग्विजाई थावरदुभगाइतिण्णि धुवउदया। एगिदियइगिवीसा सेसाण व पगइ वच्चासो ॥७॥ सा आणुपुविहीणा अपज्जएगिदितिरियमणुयाणं । पत्तेउवधायसरीरहुण्ड सहिया उ चउवीसा ॥८॥ परघाय सासआयवजुत्ता पणछक्कसत्तवीसा सा। संघयण अंगजुत्ता चउवीस छवीस मणुतिरिए ॥१॥ परघायखगइजुत्ता अडवीसा गुणतीस सासेणं । तीसा सरेण सुज्जोव तित्थ तिरिमणुय इगतीसा ।।८२॥ तिरिउदय छन्वीसाइ संघयणविवज्जियाउ ते चेव । उदया नरतिरियाणं विउव्वगाहारगजईणं ।।३।। देवाणं सव्वेवि ह ते एव विगलोदया असंघयणा। संघयणुज्जोयविवज्जिया उ ते नारएसु पुणो ॥४॥ तसबायरपज्जत्तं सुभगाएज्जं पंचिदिमणुयगई। जसकीत्तितित्थयरं अजोगिजिण अट्ठगं नवगं ॥८॥ निच्चोदयपगइजुआ चरिमुदया केवलीसमुग्घाए। संठाणेसु सव्वेसु होति दुसरावि केवलिणो ।।६।। पत्तेउवघायउरालदु छ य संठाण पढमसंघयणा । छूढे छसत्तवीसा पुव्वुत्ता सेसया उदया ॥८७।। तित्थयरे इगतीसा तीसा सामण्णकेवलीणं तु। खीणसरे गुणतीसा खीणुस्सासम्मि अडवीसा ॥८॥ साहारणाउ मिच्छे सुहुअपमज्जत्त आयवाणुदओ। सासायणमि थावरएगिदिविगलजाईणं ॥८६॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५३ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ सम्मे विउव्विछक्कस्स दुभगणाएज्जअजसपुव्वीणं । विरयाविरए उदओ तिरिगइउज्जोयपुव्वाणं ॥१०॥ विरयापमत्तएसु अंततिसंघयणपुव्वगाणुदओ। अपुव्वकरणमादिसु दुइयतइज्जाण खीणाओ ॥६॥ नामधुवोदय सूसरखगई ओरालदुव य पत्तेयं । उवघायति संठाणा उसभ जोगम्मि पुव्वुत्ता ।।१२।। पिंडे तित्थगरुणे आहारुणे तहोभयविहूणे । पढमचउक्कं तस्सउ तेरसगखए भवे बीयं ।।३।। सुरदुगवेउव्वियगइदुगे य उव्वट्टिए चउत्थाओ। मणुदुगेय नवट्ठ दुहा भवे संतयं एक्कं ॥६४।। थावरतिरिगइदोदो आयावेगेंदि विगलसाहारं । नरयदुगुज्जोवाणि य दसाइमेगंततिरिजोगा ॥६५॥ एगिदिएसु पढमदुर्ग वाऊतेऊसु तइयगमणिच्चं । अहवा पणतिरिएसु तस्संतेगिदियाइसु ॥६६॥ पढमं पढमगहीणं नरए मिच्छमि अधुवतियजुत्त। देवेसाइचउक्कं तिरिएसु अतित्थमिच्छसंताणि ||७|| पढमचउक्कं सम्मा बीयं खीणाउ बार सुहुमे अ। सासणमीसि वितित्थं पढममजोगंमि अट्ठ नव ॥६॥ नवपंचोदयसत्ता तेवीसे पण्णवीस छव्वीसे । अट्ठ चउरट्ठवीसे नवसत्तिगुणतीसतीसे य ।।६।। एक्केक्के इगतीसे एक्के एक्कुदय अट्ठ संतंसा । उवरयबंधे दस दस नामोदयसंतठाणाणि ॥१००॥ बंधोदयसंतेसु पण पण पढमंतिमाण जा सुहमो। संतोइण्णाइं पुण उवसमखीणे परे नत्थि । १०१॥ मिच्छा सासायणेसु नवबंधुवलक्खिया उ दो भंगा। मीसाओ य नियट्टी जा छब्बंधेण दो दो उ॥१०२।। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ पंचसंग्रह : १० चउबंधे नवसंते दोण्णि अपुवाउ सुहुमरागो जा। अब्बंधे णवसंते उवसंते हुन्ति दो भंगा ॥१०३॥ चउबंधे छस्संते बायरसुहमाणमेगुक्खवयाणं । छसु चउसु व संतेसु दोण्णि अबंधमि खीणस्स ॥१०४।। चत्तारि जा पमत्तो दोण्णि उ जा जोगि सायबंधेणं । सेलेसि अबंधे चउ इगि संते चरिमसमए दो ॥१०॥ अट्टछलाहियवीसा सोलस वीसं च बारस छ दोसु । दो चउसु तीसु एक्कं मिच्छाइसु आउए भंगा ॥१०६॥ नरतिरिउदए नारयबंधविहूणा उ सासणि छन्वीसा। बंधसमऊण सोलस मीसे चउ बंध जुय सम्मे ॥१०७।। देसविरयम्मि बारस तिरिमणुभंगा छबंधपरिहीणा। मणुभंगतिबंधूणा दुसु सेसा उभयसेढीसु ॥१०८।। पंचादिमा उ मिच्छे आदिमहीणा उ सासणे चउरो। उच्चबन्धेणं दोण्णि उ मीसाओ देसविरयं जा ॥१०६।। उच्चेणं बन्धुदए जा सुहमोऽबंधि छट्टओ भंगो। उवसंता जाऽजोगीदुचरिम चरिमंमि सत्तमओ ॥११०।। ओहम्मि मोहणीए बंधोदयसंतयाणि भणियाणि । अहुणाऽवोग्गडगुणउदयपयसमूहं पवक्खामि ॥१११।। जा जंमि चउव्वीसा गुणियाओ ताउ तेण उदएणं । मिलिया चउवीसगुणा इयरपएहिं च पयसंखा ।।११२।। सत्तसहस्सा सट्ठीए वज्जिया अहव ते तिवण्णाए। इगुतीसाए अहवा बंधगभेएण मोहणिए ।।११३॥ अटठी बत्तीसा बत्तीसा सटिठ्मेव बावन्ना । चउयाला चउयाला वीसा मिच्छाउ पयधुवगा ।।११४।। तिण्णिसया बावण्णा मिलिया चउवीस ताडिया एए। बायरउदयपएहिं . सहिया उ गुणेसु पयसंखा ॥११॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ तेवीसूणा सत्तरस वज्जिया अहव सत्तअहियाइं। पंचासीइसयाइं उदयपयाइं तु मोहस्स ।।११६॥ एवं जोगुवओगालेसाईभेयओ बहुभेया। जा जस्स जंमि उ गुणे संखा सा तंमि गुणगारो ॥११७॥ उदयाणुवयोगेसु सगसयरिसया तिउत्तरा होंति । पण्णासपयपहस्सा तिण्णिसया चेव पण्णरसा ॥११८।। तिगहीणा तेवन्नसया उ उदयाण होंति लेसाणं । अडतीससहस्साइं पयाण सय दो य सगतीसा ॥११६।। चोद्दस उ सहस्साई सयं च गुणहत्तरं उदयमाणं । सत्तरसा सत्तसया पणनउइ सहस्स पयसंखा ॥१२०॥ मीसदुगे कम्मइए अणउदयविवज्जियाउ मिच्छस्स । चउवीसाउ ण चउरो तिगुणाओ तो रिणं ताओ ॥१२१॥ वेउव्वियमीसम्मि नपुसवेओ न सासणे होइ । चउवीसचउक्काओ अओ तिभागा रिणं तस्स ।।१२२॥ कम्मयविउव्विमीसे इत्थीवेओ न होइ सम्मस्स । अपुमित्थि उरलमीसे तच्चउवीसाण रिणमेय ॥१२३।। आहारगमीसेसु इत्थीवेओ न होइ उ पमत्ते । दोण्णि तिभागाउ रिणं अपमत्तजइस्स उ तिभागो ॥१२४॥ उदएसु चउवीसा धुवगाउ पदेसु जोगमाईहिं । गुणिया मिलिया चउवीसताडिया इयरसंजुत्ता ॥१२५।। अपमत्तसासणेसु अड सोल पमत्त सम्म बत्तीसा। मिच्छंमि य छण्णउई ठावेज़्जा सोहणनिमित्तं ॥१२६।। जोगतिगेणं मिच्छे नियनियचउवीसगाहिं सेसाणं । गुणिऊणं पिंडेज्जा सेसा उदयाण परिसंखा ॥१२७॥ चउवीसाइगुणेज्जा पयाणि अहिगिच्च मिच्छ छन्नउइ । सेसाणं धुवगेहिं एगीकिच्चा तओ सोहे ॥१२॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ पंचसंग्रह : १० वंधोदयसंताई गुणेसु कहियाइ नामकम्मस्स । गइसु य अव्वगडंमि वोच्छामि इंदिएसु पुणो ।।१२६।। इगि विगले पण बंधा अडवीसूणा उ अट्ठ इयरंमि । पंच छ एक्कारुदया पण-पणं बारस उ संताणि ॥१३०॥ नाणंतरायदंसण बंधोदयसंत भंग जे मिच्छे । ते तेरसठाणेसु सण्णिम्मि गुणासिया सव्वे ।।१३१।। तेरससु वेयणीयस्स आइमा होंति भंगया चउरो । निच्चुदय तिणि गोए सव्वे दोण्हपि सण्णिस्स ।।१३२।। तिरिउदए नव भंगा जे सवे असण्णि पज्जत्ते । नारयसुरचउभंगायरहिया इगिविगलदुविहाणं ॥१३३।। असण्णि अपज्जत्ते तिरिउदए पंच जह उ तह मणुए। मणपज्जत्ते सव्वे इयरे पुण दस उ पुव्वुत्ता ।।१३४।। बंधोदयसंताई पुण्णाइं सणिणो उ मोहस्स । बायर विगलासण्णिसु पज्जेसु दु आइमा बंधा ॥१३५।। अट्ठसु बावीसोच्चिय बंधो अट्ठाइ उदय तिण्णेव । सत्तगजुया उ पंचसु अडसत्तछ्बीस संतंमि ।।१३६।। सण्णिम्मि अट्ठसण्णिम्मि छाइमा तेऽट्ठवीस परिहीणा । पज्जत्तविगलबायरसुहमेसु तहा अपज्जाणं ।।१३७।। इगवीसाई दो चउ पण उदया अपज्जसुहुमबायराणं । सण्णिस्स अचउवीसा इगिछडवीसाइ सेसाणं ॥१३८।। तेरससु पंच संता तिण्णुधुवा अट्ठसीइ बाणउइ । सण्णिस्स होंति बारस गुणठाणकमेण नामस्स ।।१३६।। बझंति सत्त अट्ठ य नारयतिरिसुरगईसु कम्माई। उदीरणावि एवं संतोइण्णाइं अट्ठ तिसु ॥१४०।। गुणभिहियं मणुएसुसगलतसाणं च तिरियपडिवक्खा। मणजोगी छउमाइ व कायवई जह सजोगीणं ।।१४१॥ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १ वेई नवगुणतुल्ला तिकसाइवि लोभ दसगुणसमाणो । सेसाणिवि ठाणाई एएण कमेण नेयाणि ॥ १४२ ॥ सत्तरसुत्तरमेगुत्तरं तु चोहत्तरीउ सगसयरी | सत्तट्ठी गुणसट्ठी गुणसट्ठी अट्ठवन्ना य ।। १४३ ।। निद्दादुगे छवण्णा छवीसा णामतीसविरमंमि । हासरईभयकुच्छाविरमे बावीस पुव्वंमि ॥ १४४ ॥ पुवेयको माइसु अबज्झमाणेसु पंच ठाणाणि । बारे सुहुमे सत्तरस पगतिओ सायमियरेसु || १४५ || मिच्छे नरएसु सयं छण्णउई सासणो सयरि मीसो । बावर्त्तारं तु सम्मो चउराइसु बंधति अतित्था || १४६ || मणुयदुगुच्चागोयं भवपच्चइयं न होइ चरिमाए । गुणपच्चइयं तु बज्झइ मणुयाऊ ण सव्वहा तत्थ ।।१४७।। सामण्णसुराजोग्गा आजोइसिया ण बंधंति सतित्था । इगिथावरायवजुया सकुमारा ण बंधंति ॥ १४८ ॥ तिरितिगउज्जोवजुया आणयदेवा अणुत्तरसुरा उ । अणमिच्छणीयद्व्भगथीणतिगं अपुमथीवेयं || १४ | संघयणा संठाणा पण पण अपसत्थविहगइ न तेसिं । पज्जत्ता बंधंति उ देवा उमसंखवासाऊ ।। १५० ।। तित्थायवउज्जोयं नारयतिरिविगल तिगतिगेगिंदी | आहार थावरचऊ आउ णासंखपज्जत्ता ॥ १५१ ॥ पज्जतिगया गतिगणीयमपसत्यविहनपुर साणं । संघयणउरलमणुदुगपणसं ठाणाण किण्हाइतिगे अस्संजमे य वेउध्विजुगे न आहारं । बंधइ न उरलमीसे नरयतिगं छट्ठममराउं ।।१५३। कम्मजोगि अणाहारगो य सहिया दुगाउ णेयाओ । सगवण्णा तेवट्ठी बंधति अबंधा ।। १५२ । आहारमुभएसु ं ।।१५४ ३५७ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ पंचसंग्रह : १० तेउलेसाईया बंधति न निरयविगलसुहमतिगं। सेगिदिथावरायवतिरियतिगुज्जोय नव बारं ॥१५५।। सुयदेविपसायो पगरणमेयं । समासओ भणियं । समयाओ चंदरिसिणा समईविभवाणुसारेण ॥१५६॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : स्थान २२ प्र. २१ प्र. १७ प्र. १३ प्र. & ST. स्थानगत प्रकृतियां X मि., १६ क. १वे, २यु. भ. जु. 11 X १२क.,, X दक. 77 X ४क. " "" " "1 ܙܕ 11 " मोहनीय कर्म के बंधस्थानों का प्रारूप "1 11 " "" 11 गुणस्थान पहला दूसरा तीसरा चौथा गुणस्थान पांचवां ६, ७, ८ गुणस्थान बंध प्रकार ६ प्रवार २ युगल और वेदत्रिक के गुणाकार से ४ प्रकार २ वेद X यु० २ २ प्रकार ( युगल द्वारा) २ प्रकार ( युगल द्वारा ) १ प्रकार छठे गुणस्थान २ प्रकार काल प्रमाण जयन्य अन्तर्मुहूर्त देशोनार्ध पुद्गल परावर्तन एक समय उत्कृष्ट "" अन्तर्मुहूर्त साधिक ३३ सागर "" ६ आवलिका देशोन पूर्व कोटि वर्ष " सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २ ३५६. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल प्रमाण स्थानगत प्रकृतियां যুখান बंध प्रकार जघन्य उत्कृष्ट ५ प्र. x ४क. पुरुषवेद हवें के प्रथम भाग पर्यन्त १ प्रकार एक समय अन्तमुहूर्त ४ प्र. X ४क. हवें के दूसरे भाग पर्यन्त ३ प्र. संज्व. मान, माया, लोभ हवें के तीसरे भाग पर्यन्त २ प्र. संज्व. माया, लोभ हवें के चौथे भाग पर्यन्त १ प्र. संज्व. लोभ हवें के पांचवें भाग पर्यन्त पंचसंग्रह : १० Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रिशिष्ट ३ : व्यस्थान प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. अन्यतम संज्वलन कषाय स्थानगत प्रकृतियाँ अन्यतम वेद का प्रक्षेप " हास्य युगल या शोक युगल के प्रक्षेप से भय के प्रक्षेप से कुत्सा के प्रक्षेप से अन्यतम प्रत्या. कषाय के प्रक्षेप से अप्रत्या. के प्रक्षेप से अनन्ता के प्रक्षेप से "" मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप मिथ्यात्व के प्रक्षेप से उदयस्थान प्रकार ४ प्रकर ( क्रोधादि के द्वारा) १२ प्रकार ( ४ कषाय X ३ वेद ). २४ प्रकार ( ४ क. X ३वे X २ यु.) 11 " 11 " " 13 जघन्य काल एक समय "" "} "" " S "1 " " " उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त 11 17 "1 "1 "1 11 17 सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३ AU M 2 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ४: गुणस्थानापेक्षा मोहनीयकर्म के उदयस्थानों के संभव भंगों का प्रारूप उदयस्थानगत प्रकृतियाँ ३६२ ४ ४ ४ गुणस्थान उदयस्थान चौबीसी भंग कुल भंग मिथ्यात्व . अनन्ता . अप्रत्या . प्रत्या संज्व. ४ युगल ४ जुगुप्सा भय मिथ्यात्व ७ प्र. ० १ १ १ १ २ ० । १९२ भंग ८ चौबीसी प्र. ८ प्र. oranar xnxx • Morrowroom ० ० xoxo ~~ Www ???????? १ १ १ १ १ २ ० सासादन 16 ० ० १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ २ २ ० ० ० १ ६६ भंग ४ चौबीसी 생생?? ~~MOM . 8 प्र. ० १ १ १ १ १ २ १ १ पंचसंग्रह : १० Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ४ 1 ६६ भंग ४ चौबीसी २४ २४ २४ २४ ० 80 0 o ० Ꮕ Ꮕ Ꮕ Ꮘ ooo o ܗ ܘ o मिश्र. Vvvv Nove o मिश्र. "1 5) U o av " ० ★ ★ 11 is w १६२ भंग ८ चौबीसी ० o o a Ovov a ० अवि. सम्य. ० ● ० MY MY M ० ० vvvvvvvv ० ० सम्य. ० ० a oo or o oro o (( ~হং*ন o ov ० w 9 9 9 U U "} Ovov ० ० " सम्य. U १६२ भंग ८ चौबीसी 3 ० o Ꮘ Ꮘ Ꮕ Ꮕ ● o ० 86 ० ० ov ov देशविरत ० २४ ० ० ० VOV ० ० or or or on or on or of २ 0 0 सम्य. १ १ १ १ o ० " ० NYY ० २४ २४ " Vov ३६३ ov ov 1 a ov o ० ० ० t ★ ★ ★ ★ ★ ★ X www 9 99 ० सम्य. ८ प्र. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान प्रमत्त अप्रमत्त संयत अपूर्व. उदयस्थान ४ प्र. ५ प्र. ५ प्र. ५ प्र. ६ प्र. ६ प्र. ६ प्र. ७ प्र. ४ प्र. ५ प्र. ५. प्र. ६ प्र. kilkahj ० ० "1 " "" सभ्य. ० सम्य. ० O 0 अनता. ४ ०० ० ० ० ० ० ० -0 ० ० ० अप्रत्या. ४ ० ० ० ० ० O ००० Q उदयस्थान प्रकृतियां प्रत्या. ४ ०० O ०००० सज्व. ४ vvvvvvvv १ १ Ovove on ov १ १ वेद ३ युगल ४ ܗ ܗ ܗ ܗ ܗ ܗ ܗ ܝܘ ovo on ov ~~~~~~~~ NYM भय ० ० o or o o or oooo जुगुप्सा 002 O Ooo ० १ १ oooo चौबीसी भंग कुल भंग २४ २४ २४ २४ २४ 2 2 2 २४ २४ २४ २४ २४ २४ २४ १६२ भंग ८ चौबीसी प्रमत्त और अप्रमत्त संयत गुणस्थानों की समस्त वक्त व्यता जानना चाहिए। ६६ भग ४चोबीसी आगे के गुणस्थानों में चौबीसी प्राप्त नहीं होती हैं । अतः उनका वर्णन पृष्ठ ३६५ के प्रारूप के अनुसार जानना चाहिये । ३६४ पंचसंग्रह : १० Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध ५. प्र. ४ प्र. ३ प्र. २ प्र. १ प्र. संज्वलनकषाय ( बंधकाल में) मोहनीयकर्म के उदयविकल्प उदय प्रकृतियां वेद १ ( १ मतान्तर से ) X X X X भग १२ क. ४४ वे. ३ = १२ ४ ( १२ ) | अन्यतम संज्वलन (सं० ४ X वे. ३ = १२ मतान्तर से ) mov भगोत्पत्ति २३ संज्वलनत्रिक से संज्व. माया, लोभ से संज्व. लोभ " सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ४ ३६५ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ५ : उदयस्थान १० प्र. ६ प्र. ८ प्र. ७ प्र. ६ प्र. ५ प्र. ४ प्र. योग चौबीसी w ११ १० ७ ४ गुणस्थानापेक्षा मोहनीयकर्म के पूर्वोक्त उदयस्थानों की चौबीसी की प्राप्ति का प्रारूप मिथ्या. सासा. मिश्र. देशवि. ० १ ४ १ ० O अवि. ४ १ ३ o ५ O प्रमत्त ० भंग ८. २४ १४४ २६४ ४० चौ. इन १६० भंगों में पूर्वोक्त २३ भंगों को मिलाने से मोहनीयकर्म के उदयस्थानों के सर्व भंग ६८३ होते हैं । २४० १६८ ६६ २४ ६६० M ती पंचसंग्रह : १० Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ः मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप सत्तास्यान प्रकृतियां जघन्य काल उत्कृष्ट काल २८ प्र. सभी प्रकृतियां । अन्तमुहर्त पल्य का असं. भागाधिक ६६ सागर सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ६ २७ प्र. सम्यक्त्व की उद्वलना | पल्य. असं. भाग पल्य. असं. भाग २६ प्र. मिश्र की उद्वलना अथवा | अन्तर्मुहूर्त अनादिमिथ्यादृष्टि देशोन अर्धपुद्गल परावर्तन (अनादिसांत, अनादि-अनन्त) अनन्ता. की उद्वलना, क्षय | ६६ सागर मिथ्यात्व का क्षय अन्तर्मुहूर्त मिश्रमोह का क्षय सम्यक्त्वमोह का क्षय मनुष्यभवद्वयाधिक ३३ सागर कषायाष्टक का क्षय अन्तमुहूर्त १२ प्र. नपु. वेद का क्षय ३६७ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्तास्थान प्रकृतियां जघन्य काल उत्कृष्ट काल ३६८ स्त्रीवेद का क्षय अन्तर्मुहूर्त अन्तमुहूर्त हास्यषट्क क्षय पुरुषवेद का क्षर संज्व. क्रोध क्षय ,, मान क्षय " माया क्षय | पंचसग्रह : १० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७: गुणस्थानों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थान दर्शक प्रारूप सत्तास्थान गुणस्थान पहला २८, २७, २६ प्र. सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ७ दूसरा २८ प्र. तीसरा २८, २७, २४ प्र. चौथा २८, २४, २३, २२, २१ प्र. पांचवां छठा सातवां आठवां २८, २४, २१ प्र. नौयाँ २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५, ४, २, १ प्र. ३६६ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान दसवां ग्यारहवा बारहवां तेरहवां चौदहवां सतास्थान २८, २४, २१, १ प्र. २८, २४, २१ प्र. ३७० पंचसंग्रह : १० Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ८ : मोहनीयकर्म के बंध-उदय-सत्तास्थानों का संवेध दर्शक प्रारूप Jain Educalon Internatidnal उदय स्वामित्व ७ प्र. २८ प्र. मिथ्यादृष्टि सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ८ ८, ९, १० प्र. २८, २७, २६ प्र. ७, ८, ६ प्र. २८ प्र. सासादनी २८, २४ प्र. चतुर्थ गुण. औप. सम्यक्त्वी ह , क्षायिक ७, ८ प्र. २८, २४, २३, २२, २१ प्र. , सम्यग्दष्टि २८, २७, २४ प्र. मिश्रदृष्टि चतुर्थ गुण. क्षायो. सम्यक्त्वी २८, २४, २३, २२ प्र. ३७१ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदय सत्ता स्वामित्व औप. तिर्यच पांचवें गुणस्थान. ३७२ س प्र. ५, ६, ७,८प्र. २८ प्र. س २४ प्र. क्षायो. " " १३ प्र. २१, २४, २८ प्र. देशविरत मनुष्य س २८, २४, २३, २२, २१ प्र. له २८, २४, २३, २२ प्र. क्षायो. देशविरत मनुष्य २८, २४, २१ प्र. प्रमत्ताप्रमत्त २८, २४, २३, २२, २१ प्र. हप्र. २८, २४, २३, २२ प्र. २८, २४, २१ प्र. न. अपूर्वकरण गुणस्थान. अनिवृत्ति. गुणस्यान. २८, २४, २१, १३, १२, ११ प्र. पचसंग्रह : १० २, ? प्र. २८, २४, २१, ११, ४, ५ प्र.. Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध ३ प्र. २ प्र. १ प्र. अबंध उदय १ प्र. १ प्र. १ प्र. १ प्र. सता २८, २४, २१, ४, ३ प्र. २८, २४, २१, ३, २ प्र. २८, २४, २१, २, १ प्र. २८, २४, २१, १ प्र. अनिवृत्ति गुणस्थान 11 स्वामित्व 11 सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ८ ww m Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ६ : गुणस्थानों में नामकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप गुणस्थानबंधस्थान बंधक जीव गतिप्रायोग्य मिथ्यात्व २३ प्र. नियंच, मनुष्य एकेन्द्रियप्रायोग्य २५, २६ नारको के अतिरिक्त सभी २५ प्र. तिर्यच, मनुष्य तिर्यंच, मनुष्य प्रायोग्य देव, नारक प्रायोग्य २८ , " २६, ३० प्र. चातुर्गतिक जीव तिर्यंच, मनुष्य प्रायोग्य सासादन तिर्यंच, मनुष्य देव प्रायोग्य २६ प्र. देव, नारक तिर्यंच, मनुष्य प्रायोग्य तिर्यच प्रायोग्य " पंचसंग्रह : १० Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिश्र "1 अवि. सभ्य. " זן "7 देशविरत २८ प्र. २६ प्र. २८ प्र. २६ प्र. २६ प्र. ३० प्र. २८ प्र. २६ प्र. प्रमत्तविरत २८, २६, प्र. अप्रमत्तविरत २८, २९, ३०, ३१ प्र. तिर्यंच, मनुष्य देव, नारक तिर्यंच, मनुष्य मनष्य देव, नारक 11 तिर्यंच, मनुष्य मनुष्य , " देव प्रायोग्य मनुष्य प्रायोग्य देव प्रायोग्य "" मनुष्य प्रायोग्य " देव प्रायोग्य 11 " 31 सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३७५ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान बंधस्थान बंधक जीव गति प्रायोग्य ३७६ अपूर्वकरण २८, २९, ३०, ' मनुष्य देव प्रायोग्य अनिवृत्तिकरण : १ प्र. सूक्ष्म सराय १ प्र. पचसंग्रह : १० Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १० : बंधस्थान ३ प्र. २५ प्र. भग ४ तत् तत् गतित्रायोग्य नामकर्म के बंधस्थानों के भंग बा. स. २ अयश के 11 एकेन्द्रियप्रायोग्य बंध में ( ४० ) X यश. अयश. भंग प्राप्ति साधा. प्र. २ = ४ शुभ. अशु. २ स्थि. अस्थि. २ स्थि. अस्थि. २ X स्थिर. अस्थि. अगु. शु. शु. अशु. = ४ X सा. प्र. सू. X = प्रायोग्य बंध में अपर्याप्त एकेन्द्रिय प्रायोग्य बंध पर्याप्त बादर प्रत्येक 11 11 साधारण सूक्ष्म साधा. सू. प्र. प्रायोग्य बंध सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १० ३७७ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधस्थान भंग प्राप्ति प्रायोग्य बध में ३७८ आत. उद्यो.. स्थि. अस्थि. . २६ प्र. १६ पर्याप्त प्रत्येक बादर प्रायोग्य बंध शु. अणु. ४ यश. अयणः = १६ विकलेन्द्रिय प्रायोग्य बंध में (१७,१७,१७) प्रतिपक्ष प्रकृति के अभाव से २५ प्र. । अपर्याप्त विकलेन्द्रिय प्रायोग्यबंध स्थि. अस्थि. ४ शु. अशु. यश. अयश. २६ प्र. पर्याप्त , ३० प्र. " ये १७ भंग द्वीन्द्रिय प्रायोग्य हैं । इसी प्रकार से त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय प्रायोग्य में भी जानना चाहिये । अतः विकलेन्द्रिय प्रायोग्य बंध का कुल योग ५१ होता है। पंचसंग्रह : १० Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यच पंचेन्द्रिय प्रायोग्य में (६२१७) प्रतिपक्ष प्रकृति का अभाव होने से अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय प्रा. २५ प्र. १ । संस्थान - संहनन , खगति स्थिर. आस्थर पर्याप्त नियंच पंचेन्द्रिय प्रायोग्य. २६ प्र. ४६०८ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १० स्वर शुभेतर - सुभगेतर - सुम्बर दुःस्बर ४ यश. अयश. -४६०८ ३० प्र. | ४६०८ २६ प्रकृतिक बधस्थानवत ६२१७ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंधस्थान भांग भंग प्राप्ति प्रायोग्य बध में ३८० मनुष्यगतिप्रायोग्य बंध में (४६१७) २५ प्र. प्रतिपक्ष प्रकृति के अभाव से अपर्याप्त मनुष्यगति प्रायोग्यबंध पर्याप्त मनुष्यगति प्रायोग्यबध २६ प्र. ४६०८ तिर्यंच पचेन्द्रिय वत् ३० प्र. ८ स्थिर.अस्थिर , शुभ, अशुभ x यश. अयश. =८ | तीर्थ. सह. प. प्रा. ४६१७ नरकगति प्रायोग्य बंध में (१) २८ प्र. १ सर्व अशुभ प्रकृतियां होने से नारक प्रायोग्य बंध देवगति प्रायोग्य बंध में (१८) यश अयश. २८ प्र. स्थिर अस्थिर शुभ-अशुभ २२ देवप्रायोग्य बंध में पंचसंग्रह : १० Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० प्र. सवं शुभ प्रकृति होने से देवायोग्य बंध में ३१ प्र. सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान (१) यशःकीति मात्र के बंध की अपेक्षा सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १० यशःकीन बंध मात्र से ३८१ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ११: जीवस्थानों में नामकर्म के उदयस्थान और भंगों का प्रारूप ३८२ उदयस्थान उदयस्थानगत प्र भंग भंगोत्पत्ति किसको (एकेन्द्रिय के उदयस्थान ५. भंग ४२) २१ प्र. बा. सू. x पो. अपयो. =४ पर्याप्त अपर्याप्त एकेन्द्रिय तं. का. अगू. स्थि., अस्थि . शु. अशु. वर्णचतुष्क. निर्माण यह १२ / ध्र वादेया. तथा तियं वद्विक, स्था. एके. बा. सू. प. अपा.दुर्भगनाम, यशः, अयशः इति ६ सहित २१ प्रकृतियां । (परस्पर विरोधी प्रकृतियों में सर्वत्र विकल्प से | एक प्रकृति ग्रहण करना चाहिये। बाद. पर्याप्त यशः. १ २४ प्र. १० । ओ. हु. उप. प्रत्ये. साधा. सहित लियंचगत्यानु रहित पूर्वोक्त प्र. आ. यश. अयश. _. 1. =४ बादर पर्याप्त शरीरस्थ २ २ प्र. सा.. -=२ अयश. के साथ बादर अपर्याप्त शरीरस्थ पचसंग्रह : १० Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्र. २५ प्र. २६ प्र. २६ प्र. क्रियद्विक सहित ओदा. द्विक रहित पूर्वोक्त पूर्वोक्त २४ में पराघात मिलाने से पूर्वोक्त २५ में उच्छ्वास को मिलाने से को उच्छ्वास के पूर्व आतप या उद्योत अधिक ୬ पर्या. अप. २ अयश. के साथ प्र. सा. X बा. पर्या. प्र. अयण के साथ = ४ प्र. सा. यश. अयश. X प्र. सा. २ बादर पर्याप्त प्र. अयश के द्वारा १ पूर्ववत् = २ अयश. के साथ प्र. सा. २ उद्योत के द्वारा = ४ यश. अयश =४ सूक्ष्म शरीरस्थ वीक्रिय बा. वायु काय देह पर्याप्त बादर देह पर्या. सूक्ष्म वैक्रिय वायुकाय उच्छ्वास पर्याप्त देह पर्याप्त बादर सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ११ لله س Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थान २५ प्र. २१ प्र. २६ प्र. २८ प्र. २६ प्र. २६ प्र. सोच्छ्वास (आतप या उद्योत के उदयस्थानगत प्रकृतियाँ साथ) ( द्वीन्द्रिय के उदयस्थान गंग २२) ध्रुवोदय १२, तिर्यंचद्विक, द्वी. प्र. बा. अप. पर्या., दुभंग, अना. यश. अयश. ६ = २१ तिर्यंचानु रहित पूर्वोक्त २१ तथा औदा. आदि ६ परा. अशुभ खगति अधिक २६ प्रकृति उच्छ्वास अधिक २८ प्रकृति उद्योत सहित २८ प्र. उच्छ्वास से पूर्व भंग m F ४ प्र. पूर्वोक वत भगोत्पत्ति पूर्ववत् यश. अयश अयश का १ अपर्या. के यश अयश. २ पर्याप्त के यश. अयश के पर्याप्त के "" "" किसको देहपर्याप्त बादर उच्छवास पर्याप्त गत्यन्तराल से देहस्थ "1 देह पर्याप्त उच्छ्वास पर्याप्त देह पर्याप्त ३८४ पंचसंग्रह : १० Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०प्र. भाषा पर्याप्त स्वर सहित २६ प्रकृति सुस्वर, दुःस्वर यश. अय. २ २ यश. अयश.द्वारा ३० प्र. उद्योत सहित २६ प्र. स्वर से पूर्व उच्छ्वास पर्याप्त सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ११ १ प्र. उद्योत सहित ३० प्रकृति | यश. अय. स्वर द्विक_ २-X २ -=४ =४ भाषा पर्याप्त इसी प्रकार से त्रीन्द्रिय के २२, चतुरिन्द्रिय के २२ कुल मिलाकर विकले न्द्रियों के ६६ भंग होते हैं। सामान्य तिर्यंच पंचेन्द्रिय उदयस्थान भंग (४६०६) सामान्य मनुष्य उदयस्थान भंग (२६०२) मनुष्य को उद्योत संबन्धी मंग नहीं होते। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थान २१ प्र. २६ प्र. उदयस्थानगत प्रकृति १२ ध्रुवोदया, गतिद्विक, पंचे. आदे. यश. त्रस. बा. पर्या. अप. सुभग, अयश. ६ औ. २, संह. संस्था उप. प्रत्ये सहित आनु. रहित पूर्वोक्त २१ भग मनान्तर से ५ २०१ मंगोत्पत्ति सुभग दुभंग X आदे. अना. यश. अयण. = ८ पर्याप्त २ दुभंग, अना. अय. १ अर्याप्त सुभगादेय - दुर्भगाना. २ यश अयश = ४ पर्याप्त २ दुर्भगानादेयायश. १ अपर्याप्त को संह. सस्था. सुभ. दुर्भ. X ६ ६ X किसको गत्यन्तराल में मनुष्य, तिर्यंच " "1 " देहस्थ म. ति. ३८६ पंचसंग्रह : १० Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jair Education International आदे. अना.. यश. अयश.. आदे. अना. ४ यश २८८ पर्याप्त के पराघात खगति युक्त २६ प्र. ५७६ । पूर्वोक्त २८८x२ खगति=५७६ | देह पर्याप्त पर्याप्त के म. ति. सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ११ उच्छ्वास युक्त २८ प्रकृति पूर्ववत् उच्छ्वा . पर्याप्त म.ति. देह पर्या. म. ति. उद्योत युक्त २८ प्रकृति ५७६ प्र. स्वर युक्त २६ प्र. (उच्छ्वास | ११५२ / सहित) ५७६ X २ स्वर से गुणित ११५२] भाषा पर्या. म. नि. ३० प्र. । उद्योत युक्त २६ प्र. (उच्छ्वास । ५७६ ।। सहित) पूर्वोक्तानुसार उच्छ्वा . पर्या. ति. ३८७ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थान किसको उदयस्थानगत भंगोत्पत्ति ३१ प्र. पूर्वोक्तवत् भाषा पर्या. लि. उद्योत युक्त ३० प्र. (स्वर | ११५२ सहित) इस प्रकार सामान्य तिर्यच पचेन्द्रिय के ४६०६ भंग तथा सामान्य मनुष्य के २६०२ भंग जानना चाहिये। ___ मनुष्यों में उद्योत सम्बन्धी ३१ प्रकृतिक स्थान का अभाव है। वैक्रिय तियंच पंचेन्द्रिय के उदय । भंग (५६) २५ प्र. सुभग-दुर्भग , आदे.-अना.. देहस्थ व. २, समच., उप. प्रत्येक युक्त तिर्यंचानपूर्वी रहित ति. पं. प्रायोग्य २१ प्र. यश. अयश. पंचसंग्रह : १० Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Education International २७ प्र. २८ प्र. २८ प्र. २६ प्र. २६ प्र. ३० प्र. २५ प्र. पराघात, सुखगति युक्त १५ प्र. उच्छ्वास युक्त २७ प्र. उद्योत युक्त २७ प्र. सुस्वर सहित २८ प्र. ( उच्छवास युक्त) युक्त) उद्योत युक्त २८ प्र. ( उच्छवास उद्योत युक्त २६ प्र. ( स्वर सहित वैक्रिय मनुष्य के उदय भंग (३५) मनु. ग. पंचे. वं. २, समच. उप. श्रसादि ४, सुभग. आदे. यश. ध्रुवोदया १२ LS ५ u IS ม 15 15 ८ पूर्वोक्तवत् सुभग- दुभंग यश. अयश. २ " " 11 11 11 X आदे. अना. X देह पर्याप्त उच्छ. पर्याप्त. देह पर्याप्त भाषा पर्याप्त उच्छवास पर्या. भाषा पर्याप्त वैक्रि. देहस्थ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ११ W ग Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थान उदयस्थानगत प्रकृतियां भंगोत्पत्ति किसको परा. सुखगति सहित २५ प्रकृति पूर्ववत् वै. देह-पर्याप्त उच्छ्वास सहित २७ प्र. 4. उच्छ्वा . उद्योत सहित २७ प्र. सुभग-आदेय-यश. १ (संयत) पर्याप्त | वं. देह-पर्याप्त सुम्वर सहित २८ प्रकृति (उच्छ्वास युक्त) पूर्वोक्त रीति से वै. भाषा पर्या. २६ प्र. सुभग-आदेय-यश. १ (संयत) वै. उच्छ्वास पर्याप्त उद्योत सहित २८ प्रकृति (उच्छ्वास युक्त) स्वर से पूर्व . उद्योत सहित २६ प्रकृति (स्वर युक्त) 4. भाषा पर्या. आहारक मनुष्य उदयस्थान भंग (७) पंचसंग्रह : १० Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. प्र. २७ प्र. २८ प्र. २८ प्र. २६ प्र. २६ प्र. ३० प्र. २० प्र. अद्दा. २. समच. उप. प्र. रहित सामान्य युक्त मनुष्यानुपूर्वी योग्य २१ प्र. मनुष्य परा. सुखगति सहित २५ प्र. उच्छ्वास सहित २७ प्र. उद्योत सहित २७ प्र. सुस्वर युक्त २८ प्र ( उच्छ्वास सहित ) उद्योत युक्त २८ प्र. (,, ) उद्योत युक्त २६ प्र. ( सुस्वर सहित ) केवलि के उदयस्थान भंग (६२) म. गति. पंचे. प. बा. पर्या. सुभ भादे. यश, ध्रुवोदया १२ १ १ १ १ १ सभी प्रशस्त पदों से १ 17 " 'ן "" " 7: आहा. देहस्थ आहा. देह पर्या. उच्छ्वा पर्याप्त आहा. देह पर्या. भाषा पर्या. उच्छ्वा. पर्या भाषा पर्याप्त सर्व प्रशस्त पद ( समुद्घात में अजिन कार्मणयोगि के ) सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ११ ३६१ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थान उदयस्थानगत प्रकृतियां भंगोत्पत्ति किसको २१.प्र. जिन नाम सहित पूर्वोक्त २० । पूर्ववत् जिन २६प्र. औदा. २, संस्था. १, वजऋ सं. प्र. उप. युक्त २० प्रकृति ६ संस्थान द्वाग ६ (समुद्घात में अजिन । औदा. मिश्रयोगि) २७ प्र. जिन नाम सहित २६ प्र.. समच. संस्था. १ (समुद्घात में जिन - ओदा. मिश्रयोगि) ३० प्र. परा. उन्छ्वास, ग्वगति १ स्वर २४ । १ युक्त २६ प्रकृति संस्था. खगति - स्वर = अजिन ६ २२ाजन २४ (औदारिक काययोगि) ३१ प्र. जिन नाम युक्त ३० - सर्व प्रशस्त पद (औदा. काय- जिन योगि) ३० प्र. स्वर रहित ३१ (जिन युक्त) निरुद्ध काययोगजिन पंचसंग्रह :१० Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ प्र. पूर्वोक्त (निरुद्ध उच्छ्वास) जिन उच्छ्वास रहित ३० (जिन युक्त) स्वर रहित ३० (जिन रहित) १२ । अजिन संस्था. ५ खगति = १२ (निरुद्ध वाक्योग) १२. पूर्ववत् (निरुद्ध उच्छ्वास) १ प्रशस्त पद होने से (अयोगि चरम समय) सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ११ स्वर रहित २१ प्र. मनु. ग. पंचे. वसत्रिक. सुभग त्रिक, जिन. जिन ८प्र. अजिन जिन रहित पूर्वोक्त देवों के उदयस्थान भंग (६४) देव. २, त्रसत्रिक. पंचे. सुभग त्रिक, १२ ध्र वोदया ८ । गत्यन्तराल में सुभगदुभंग आदे. अना. यश. अयश. ३३३ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदयस्थान उव्यस्थानगा भंग ३६४ भंगोत्पत्ति किसको २५ प्र. is वक्रि. २, उप., प्र. समच. युक्त आनुपूर्वी रहित पूर्वोक्त २१ प्र. पूर्ववत् । देहस्थ २७प्र. परा. सुखगति युक्त २५ प्रकृति is देह पर्याप्त २८ प्र. उच्छ्वास युक्त २७ प्र. is उच्छ. पर्याप्त २८ प्र. उद्योत युक्त २७ प्र. w देह पर्याप्त २६ प्र. w भाषा पर्याप्त २६ प्र. सुस्वर युक्त २८ प्र. (उच्छ्वास । सहित) उद्योत युक्त २८ प्र. ( , ) उद्योत युक्त २६ प्र. (सुस्वर । सहित) w उच्छ. पर्याप्त ३० प्र. w भाषा पर्याप्त पंचमंग्रह : १० नारकों के उदयस्थान भंग (५) Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ प्र. २५ प्र. २७ प्र. २८ प्र. २६ प्र. नरकद्विक. पंच त्रसत्रिक. दुर्भग, अनादेय, अयश, १२ ध वादया वै. २, हूं. उप. प्र. युक्त, आनु. रहित २१ प्रकृति परा कुखगति युक्त २५ प्र. उच्छ्वास युक्त २७ प्र. दुःस्वर युक्त २८ प्र. १ १ १ सर्व अप्रशस्त पद 11 ܐ ܙ 73 17 गत्यन्तराल देहस्थ देह पर्याप्त उच्छ् पर्याप्त भाषा पर्याप्त सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ११ ३६५ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसग्रह : १० परिशिष्ट १२ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बंध-उदय-सत्त्व के संवेध भंगों के प्रारूप कर्म विचारणा में यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि प्रतिसमय कितनी प्रकृतियों का बंध, उदय और सत्त्व संभव है। इसीलिये दोनों जैन परम्पराओं ने एतद् विषयक विचार किया है। इस प्रक्रिया में दृष्टिकोण की भिन्नता की अपेक्षा अधिकांश समानता होते हुए भी कतिपय अन्तर भी आ गये हैं। जो अपेक्षाओं के सूचक तो हैं, लेकिन विरोध के नहीं। ग्रन्थ में श्वेताम्बराचार्यों के विचारों को तो प्रस्तुत कर दिया है और अब तुलनात्मक अध्ययन के लिये दिगम्बर आचार्यों की दृष्टि को प्रारूपों द्वारा स्पष्ट करते हैं । आशा है, विज्ञजन कारण सहित मीमांसा के लिये उन आचार्यों के ग्रन्थों का अवलोकन करेंगे। मूल प्रकृतियों के बंध, उदय और सत्त्वस्थानों के संभव भंगों का प्रारूप उदय सत्त्व is is us us 9 x अबन्ध x Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १३ परिशिष्ट १३ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में मूल प्रकृतियों के बंध, उदय, सत्त्व का संवेध गुणस्थान नाम मिथ्यात्व सासादन मिश्र. अवि. सम्य. देशवि. प्रमत्तवि. अप्रमत्तवि. अपूर्व. अनिवृत्ति. सूक्ष्मसंपराय उपशांतमो. क्षीणमोह सयोगि. केवल अयोगि केवल बंध ७/८ प्र. ७/८ प्र. ७ ७/८ प्र ७/८ प्र ७/८ प्र. ७/८ प्र ७ ST. ७ प्र. ST. ६ प्र. १ प्र. १ प्र. १ प्र. अबध उदय ८ ८ ८ 15 द ८ प्र. ir ८ IS ५ ८ 15 19 द प्र. ७ प्र. ४ प्र. ४ प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. प्र. ST. प्र. सत्त्व ८ J1 ८ IS ८ ८ ग IS द प्र. ८ IS ८ 15 ३६७ IS ८ प्र. प्र. ४ ST. प्र. प्र. प्र. ८ प्र. ST. प्र. प्र. ७ प्र. प्र. ४ प्र. Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट १४ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार चौदह जीवस्थानों में मूल प्रकृतियों के बंध-उदय-सत्त्व स्थान आदि के तेरह जीवस्थानों (एकेन्द्रिय सूक्ष्म अपर्याप्त से संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त पर्यन्त) में सात प्रकृतिक बंधस्थान, आठ प्रकृतिक उदयस्थान और आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान तथा आठ प्रकृतिक बंधस्थान, आठ प्रकृतिक उदयस्थान और आठ प्रकृतिक सत्त्वस्थान ये दो भंग होते हैं तथा चौदहवें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में पांच भंग होते हैं । जो इस प्रकार हैं १. आठ का बंध, आठ का उदय, आठ का सत्त्व । २. सात का बंध, आठ का उदय, आठ का सत्त्व । ३. छह का बंध, सात का उदय, आठ का सत्त्व । ४. एक का बंध, सात का उदय, आठ का सत्त्व । ५. एक का बंध, सात का उदय, सात का सत्त्व । सयोगि केवली में एक (साता वेदनीय) का बंध, चार (अघाति चतुष्क) का उदय व सत्त्व तथा इसी प्रकार अयोगिकेवली में अबंध तथा चार प्रकृतियों उदय और सत्त्व होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में केवली भगवान भी गभित हैं। लेकिन उनकी विशेष स्थिति होने से पृथक् उल्लेख किया है। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १५ ३६६ परिशिष्ट १५ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थान गुणस्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान ५ प्र. ५ प्र. मिथ्यात्वादि सूक्ष्मसंपराय पर्यन्त दस उपशांतमोह bi क्षीणमोह XXXX bi सयोगि के. X अयोगि के. X Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट १६ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में दर्शनावरण कर्म की उत्तर प्रकृतियों के बंधादि स्थान गुणस्थान बंधस्थान उवयस्थान सत्तास्थान मिथ्यात्व सासादन मिश्र. अवि. सम्य. देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण wwwy अनिवनिकरण सूक्ष्मसंपराय उपशांतमोह . क्षी. मो.उपा. समय क्षी. मो. च. समय xxx Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १७ ४०१ परिशिष्ट १७: दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में वेदनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादिस्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान गुणस्थान असाता वे. असाता वे. | असाता वे. साता वे. १, २, ३, ४, ५, ६ साता वे. १, २, ३, ४, ५, ६ साता वे. असाता वे. | १ से १३ तक साता वे. १ से १३ तक असाता वे. १४वें के उपान्त्य समय तक साता वे. १४वें के उपान्त्य समय तक X XXX असाता वे. असाता वेदनीय १४वें के अन्तिम समय में साता वेद. | साता वेदनीय १४वें के अन्तिम समय में Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट १८ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में मोहनीयकर्म की उत्तरप्रकृतियों के बंधादिस्थान गुणस्थान मिथ्यात्व सासादन मिश्र. अवि सभ्य देशविरत प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत] अपूर्वकरण अनिवृत्ति क. 77 13 सूक्ष्म संप राय उपशांत मोह क्षीणमोह बंधस्थान २१ २२ प्र. १०, ६, ८, ७ प्र. २८, २७, २६ प्र. ६, ८, ७ प्र. ६, ८, ७ १७ १७ १३ ६ Mm ε ६ ४ 37 31 X 11 71 ५ " 17 ३,२,१ प्र. 21 उदयस्थान ६, ८, ७, ६ ८, ७, ६, ५, ७, ६, ५, ६, ५, ४ ४ ७, ६, १ २, १,, no १ 11 11 37 " X ५ 13 " 71 २८ "1 सत्तास्थान २८, २४ २८, २४, २३, २२, २१ प्र. २८, २४, २३, २२, २१,, ४ २८, २४, २३, २२, २१,,, V ૪ २८, २४, २३, २२, २१,, उपशम श्रेणी | २८, २४, २१ प्र. २१ प्र. | २८, २४, २१ २८, २४, २१ २८, २४, २१, २१, १३, X 31 1. | २८, २४, २१ ( २८, २४, २१,, 11 27 73 क्षपक श्रेणी १२, ११ १३, १२, ११, ५ ४, ३, २, १ प्र. १ प्र. Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट १६ परिशिष्ट १६ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में नामकर्म को उत्तरप्रकृतियों के बंधादिस्थानों का प्रारूप गुणस्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान मिथ्यात्व | २३, २५, २६, २१, २४, २५, २६, २८, २९, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२ प्र. सासादन - २८, २९, ३० प्र. २१, २४, २५, २६, ! ६० प्र. २६, ३०, ३१ प्र. मिश्र. २८, २६ प्र. २६, ३०, ३१ प्र. ६२, ६० प्र. अवि. सम्य. २८, २९, ३० प्र. २१, २५, २६, २७, | ६३, ६२, ६१, २८, २९, ३०, ३१ ६० प्र. देशविरत २८, २६ प्र. ३०, ३१ प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. प्रमत्तविरत २८, २६ प्र. ! २५, २७, २८, २६, . ३० प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. अप्रमत्तविरत २८, २९, ३०, ३० प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. अपूर्वकरण | २८, २९, ३०, ३१, १ प्र. ३० प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. अनिवृत्तिक. १ प्र. ३० प्र. ६३, ६२, ६१,६० प्र. उप. Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ गुणस्थान सूक्ष्मसंप राय १ प्र. उपशांत मोह क्षीणमोह सयोगि के. बंधस्थान अयोगि के. X X उदयस्थान ३० प्र. ३० प्र. ३० ३०, ३१ प्र. ६, ८ प्र. पंचसंग्रह : १० सत्तास्थान ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. क्षपक ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. क्षपक ६३, ६२, ६१, ६० प्र. उप. ३, ६२, ६१, ६० प्र. ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. ८०, ७६, ७८, ७७, १०, ६ प्र. Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २० परिशिष्ट २० : दिगम्बर सप्ततिकानुसार गुणस्थानों में ___ गोत्रकर्म के बंधादिस्थानों के भंग बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान गुणस्थान नीचगोत्र नीचगोत्र पहला नीचगोत्र नी.गो. उ.गो. पहला, दूसरा उच्चगोत्र उच्चगोत्र नीचगोत्र पहले से पांचवें तक पहले से दसवें तक उच्चगोत्र : X " ११, १२, १३, तथा १४ का उ.स. X उच्चगोत्र | १४ का अन्तिम समय Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट २१ : दिगम्बर सप्ततिकानुसार मार्गणास्थान भेदों में नामकर्म के बंधादिस्थानों का प्रारूप - मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान १ गतिमार्गणा नरकगति २९, ३० प्र. २१, २५, २७, २८, ६२, ६१, ६० प्र. २६ प्र. तियंचगति २३, २४, २६, २८,२१, २४, २५, २६, ६२, ६०, ८८, ८४, | २६, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, ८२ प्र. ३१ प्र. मनुष्यगति | २३, २५, २६, २८,२०, २१, २५, २६, ६३, ६२, ६१, ६०, २९, ३०, ३१, २७, २८, २९, ३०, ८८,८४, ८०, ७६, १ प्र. ७८, ७७, १०, ६ प्र. देवगति - २५, २६, २६, ३० प्र. २१, २५, २७, २८, ६३, ६२, ६१,६० प्र. २६ प्र. २ इन्द्रिय मार्गणा एकेन्द्रिय २३, २५, २६, २६, २१, २४, २५, २६, ६२, ६०, ८८, ८४, ३० प्र. २७ प्र. ८२ प्र. विकलत्रिक | २३, २५, २६, २६, २१, २६, २८, २९, ६२, ६०, ८८, ८४, ३० प्र. ३०, ३१ प्र. ८२ प्र. सकलेन्द्रिय २३, २५, २६, २८,२०, २१, २५, २६, ६३, ६२, ६१,६०, २९, ३०, ३१, २७, २८, २९, ३०, ८८, ८४, ८२, ८०, १ प्र. ३१, ६, ८ प्र. ७६, ७८, ७७,१०, हैप्र. Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २१ ४०७ ३ कायमार्गणा पृथ्वी. २३, २५, २६, २६, २१, २४, २५, २६, ६२, ६०, ८८, ८४, ३० प्र. २७ प्र. ८२ प्र अप्. तेज. पृथ्वीकायवत् पृथ्वीकायवत् पृथ्वीकायवत् वनस्पति. | पृथ्वीकायवत् पृथ्वीकायवत् पृथ्वीकायवत् २१,२४,२५, २६ प्र. पृथ्वीकायवत् २१,२४,२५, २६ प्र. पृथ्वीकायवत् पृथ्वीकायवत् पृथ्वीकायवत् त्रस. सकले न्द्रियवत् सकलेन्द्रियवत । सकलेन्द्रियवत् ४ योगमार्गणा मनोयोग | २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६३, ६२, ६१, ६०, २६, ३०, ३१, १ प्र. ८८, ८४, ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. वचनयोग | मनोयोगवत् मनोयोगवत् मनोयोगवत् औदारिककाय मनोयोगवत् २५, २६, २७, २८, ६३, ६२, ६१,६०, २६, ३०, ३१ प्र. | ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. औदारिकमिश्र २३, २५, २६, २८, २४, २६ प्र. २६, ३० प्र. औदारिककायवत् वैक्रिय काय.| २५, २६, २८, २६, २७, २८, २६ प्र. ६३, ६२, ६१,६० प्र. ३० प्र. वैक्रियमिश्र. | २६, ३० प्र. २५ प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ पंचसंग्रह : १० मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान आहारक काय २८, २६ प्र. २७, २८, २६ प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. २५ प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. आहारकमिश्र २८, २९, प्र. कार्मण काय | २३, २५, २६, २८, २१ प्र. २९, ३० प्र. . ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. ५ वेद मार्गणा त्रय वेद । २३, २५, २६, २८,२१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ६१, ६०, २६, ३०, ३१, १ प्र. २८, २९, ३०, ८८, ८४, ८२, ८०, ३१ प्र. ७७, ७८, ७७ प्र. ६ कषाय मार्गणा कषाय | २३, २५, २६, २८ २१, २४, २५, २६, ६३, ६२, ६१, ६०, चतुष्क २६, ३०, ३१, १ प्र.२७, २८, २९, ३०, ८१, ८४, ८२, ८०, ३१ प्र. ७६, ७८, ७७ प्र. ७ ज्ञान __ मार्गणा मति-श्रुत- अज्ञान २३, २५, २६, २८, २१, २४, २५, २६. ६२, ६१, ६०, ८८, . २६, ३० प्र. २७, २८, २६. ३०, ८४, ८२ प्र. ३१ प्र. विभंग ज्ञान । मति-श्रत-अज्ञानवत् | २८. ३०, ३१ प्र. ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२ प्र. Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २१ ४०३ मति-श्रत- २८, २९, ३०, ३१,२१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ६१, ६०, अवधि ज्ञान १ प्र. २८, २९, ३०, ८०,७६,७८, ७७ प्र. ३१ प्र. मनपर्यव ज्ञान २८, २९, ३०, ३१, ३० प्र. १ प्र. ६३, ६२, ६१, ६०, ८०, ७६, ७८,७७ प्र. केवलज्ञान X ३०, ३१, ६, ८ प्र. ८०, ७६, ७८, ७७, १०,६ प्र. ८ संयम मार्गणा सामा. छेदो. २८, २९, ३०, ३१,२५, २७, २८, २६, ६३, ६२, ६१, ६०, ३० प्र. ८०, ७६, ७८,७७ प्र. ३० प्र. ६३, ६२, ६१, ६० प्र. परिहार वि. २८, २९, ३०, | ३१ प्र. सूक्ष्मसंपराय १ प्र. ३० प्र. ६३, ६२,६१, ६०, ८०,७६,७८,७७ प्र. यथाख्यात x ३ ०, ३१, ६, ८ प्र. ६३, ६२, ६१, ६०, ८०,७६, ७८, ७७, १०, ६ प्र. देशसंयम २८, २६ प्र. ३०, ३१ प्र. ९३, ६२, ६१, ६० प्र. असंयम. २३, २५, २६, २८,२१, २४, २५, २६, ६३, ६२, ६१, ६०, | २९, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, ८८, ८४, ८२ प्र. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० मार्गणास्थान ६ दर्शन मार्गणा चक्षुदर्शन २३, २५, २६, २८, २१.२५, २६, २७, २६, ३०, ३१, १ प्र. अचक्षुदर्शन | चक्षुदर्शनवत् केवलदर्शन. १० लेश्या मार्गणा कृष्णादि तीन लेश्या बंधस्थान अवधिदर्शन २८, २६, ३०, ३१, २१, २५, २६, २७, १ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. तेज- पद्म लेश्या उदयस्थान X २८, २९, ३०, ३१ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. २३, २५, २६, २८, २१, २४, २५, २६, २६, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, ३१ प्र. ३०, ३१, ६, ८ प्र. २१, २४, २५, २६, चक्षुदर्शनवत् २७, २८, २९, ३०, | ३१ प्र. शुक्ल लेश्या २८, २९, ३०, ३१, तेजपद्द्मलेश्यावत् १ प्र. पंचसंग्रह : १० सत्तास्थान ६३, ६२, ६१, ६०, ८८,८४,८२,८०, ७६,७८, ७७ प्र. ६३, ३२, ६१, ६०, ८०, ७६,७८, ७७ प्र. ८०, ७६,७८, ७७, १०, ६ प्र. २१, २५, २७, २८, ६३, ६२, ६१, ६० २६, ३०, ३१ प्र. प्र. ६३, ९२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२ प्र. ६३, ६२, ६१, ६०, ८०,७६,७८, ७७ प्र. Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २१ ४११ अलेश्य x , ८ प्र. ८०,७६, ७८, ७७, १०,६ प्र. ११ भव्य मार्गणा भव्य २३, २५, २६, २८, २१, २४, २५, २६, ६३, १२,६१, ६०, २६, ३०, ३१, २७, २८, २९, ३०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. अभव्य २३, २५, २६, २८, २१, २४, २५, २६, ६०, ८८,८४, ८२ प्र. २६, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, नोभव्य नोअभव्य ३०, ३१, ६, ८ प्र. ८०, ७६, ७८, ७७, १०,६ प्र. १२ सम्यक्त्व मार्गणा उपशम सम्य. २८, २९, ३०, ३१,२१, २५, २६, ३०, ६३, ६२, ६१, ६० प्र. ३१, प्र. वेदक सम्य.| २८, २९, ३०, २१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ६१, ६० प्र. २८, २९, ३०, क्षायिक सम्य. २८, २९, ३०, ३१,२०, २१, २५, २६, ६३, ६२, ६१, ६०, २७, २८, २९, ३०, ८०, ७६, ७८, ७७, ३१, ६, ८ प्र. १०, ६ प्र. सासादन सम्य. २८, २९, ३० प्र. २१, २४, २५, २६, १० प्र. २६, ३०, ३१ प्र. Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ पचसंग्रह : १० मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सतास्थान मिश्र. सम्य २८, २६ प्र. २६. ३०, ३१ प्र. २, ६० प्र. मिथ्यात्व २३, २५, २६, २८, २१, २४, २५, २६, ६२, ६१, ६०, ८८, २६, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, ८४, ८२ प्र. ३१ प्र. १३ संजी मार्गणा संज्ञी, २३, २५, २६, २८,२१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ६१, ६०, २६,३०,३१, १ प्र.२८, २९, ३०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. असंज्ञी २३, २५, २६, २८,२१, २६, २८, २६, २६, ३० प्र. ३०, ३१ प्र. ६२,९०,८८, ८४, ८२ प्र. x ३१, ३०, ६, ८ प्र. नोसंज्ञी नोअसज्ञी ८०, ७६, ७८, ७७, १०,६ प्र. १४ आहा. मार्गणा आहारक २३, २५, २६, २८,२४, २५, २६, २७, ६३, ६२, ६१, ६०, २९, ३०, ३१, १ प्र.२८, २९, ३०, ८८,८४, ८२, ८०, ७६, ७८, ७७ प्र. अनाहारक | २३, २५, २६, २८,२१, ३०, ३१, ६, २९, ३० प्र. ८ प्र. ६३, ६२, ६१, ६०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७६, ८७, ७७, १०, Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२ परिशिष्ट २२ : ग्रन्थानुसार मार्गणाभेदों में नामकर्म के बंधादिस्थानों का प्रारूप मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान १ गति मार्गणा नरकगति | २६ प्र. २१, २५, २७, २८, | ६२, ८६, ८८ प्र. २६ प्र. तिर्यंचगति २३ प्र. २१ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. । २५ प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६२,८८,८६,८०,७८ प्र. २७ से ३१ प्र. तक । ६२, ८८, ८६, ८० प्र. Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ मार्गणास्थान बंधस्थान २६ प्र. २८ प्र. २६ प्र. ३० प्र. मनुष्यगति २३ प्र. २५ प्र. २६ प्र. २५ प्र. उदयस्थान २१, २५, २६, २७, २८, २६ प्र. ३०, ३१ प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६२,८८, ८६, ८०, ७८. ६२,८८, ८६, ८० प्र. २७ से ३१ प्र. तक ६२,८८ प्र. ६२,८८,८६ प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० ७८ प्र. २७ से ३१ प्र. तक ६२, ८८, ८६, ८० प्र. २१, २६, २८, २६, ३० प्र. २५, २७ प्र. पंचसंग्रह : १० २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८प्र. २७ से ३१ प्र. तक २,८८,८६,८० प्र. २,८८,८६, ८० प्र. २१, २६, २८, २६, ३० प्र. २५, २७ प्र. सत्तास्थान २१, २६, २८, २६, ३० प्र. २५, २७ प्र. २१, २५, २६, २७, २८, २६ प्र. ३० प्र. ६२,८८ प्र. २,८८,८६, ८० प्र. ६२, ८८ प्र. ६२,८८, ८६, ८० प्र. २,८८ प्र. ६२,८८ प्र. ६२, ६, ८८, ८६ प्र. Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२ ४१५ २६ प्र. २१, २६, २८, २६, ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ३० प्र. ८० प्र. २५, २७ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८ प्र. ३० प्र. २१, २६, २८, २६, ९२, ८८, ८६, ८० प्र. ३० प्र. २५, २७ प्र. ६२, ८८ प्र. ३१ प्र. ३० प्र. ६३ प्र. १प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८०, ७६, ७६, ७५ प्र. देवगति २५, २६, २६ प्र. २१, २५, २७, २८, ९२, ८८ प्र. २६, ३० प्र. ३० प्र. | २१, २५, २७, २८,६३, ६२, ८६, ८८ प्र. २६, ३० प्र. २ इन्द्रिय मार्गणा एकेन्द्रिय २३ प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६३, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २७ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. २५ प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, । ७८ प्र. । ६२, ८८, ८६, ८० प्र. २७ प्र. २६ प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २७ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. . Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ पंचसंग्रह : १० मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान २६ प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २७ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. ३० प्र. २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २७ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. विकलत्रिक | २३ प्र. २१, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. २५ प्र. २१, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २६ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. २१, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६२,८८, ८६, ८० प्र. २१ प्र. २१, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. ३० प्र. २१, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२ पंचेन्द्रिय २३ प्र. २५ प्र. २६ प्र. २८ प्र. २६ प्र. | २१, २६ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. २१, २६ प्र. २५, २७ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. २१, २६ प्र. २५, २७ प्र. | २८, २९, ३०, ३१ प्र. २१, २५, २६, २७, २५, २६ प्र. ३० प्र. ३१ प्र. (२१, २६ प्र. २५, २७ प्र. २८, २९, ३० प्र. ३१ प्र. ६२,८८, ८६, ८०, ७८ प्र. ६२, ८८, ८६, ८० प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २,८८ प्र. ४१७ २,८८,८६,८० प्र. ६२, ६८, ६६, ८०, ७८ प्र. ६२,८८ प्र. २,८८,८६, ८० प्र. २,८८ प्र. २,८६,८८,८६ प्र. २,८८, ८६ प्र. २,८८, ८६, ८०, ७८, ६३, ८६ प्र. ६३, ९२, ८६, ८८ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८० प्र. ६३, ८८, ८६, ८० प्र. Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ पंचसंग्रह : १० मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान ३० प्र. २१ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २५, २७ प्र, ६३, ६२, ८६, ८८ प्र. २६ प्र. १२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. २८, २९, ३० प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८० प्र. ३१ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८० प्र. ३१ प्र. ३० प्र. ६३ प्र. १ प्र. ३० प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८०, ७६ प्र. ३ कायमार्गणा पृथ्वी अप्काय एकेन्द्रियवत् तेजस्काय | एकेन्द्रियवत् एकेन्द्रियवत् एकेन्द्रियवत् २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. वायुकाय | एन्द्रियवत् २१, २४, २५, २६ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. वनस्पति काय एकेन्द्रियवत २१, २४, २५, २६, २७ प्र. ६२, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. - Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२ चसकाय । २३, २५, २६, २०, २१, २५, २६, २८, २९, ३०,२७, २८, २९, ३०, ३१, १ प्र. ३१, ६, ८ प्र. ४१६ ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७८, । ७५,७६, ६, ८ प्र. ४ योगमार्गणा मन-वचन २३, २५, २६, २५, २७, २८, २६, योग २८, २९, ३०, ३०, ३१ प्र. ३१, १ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७६, ७५ प्र. काययोग २३, २५, २६, २०, २१, २४, २५, ६३, ६२, ८६, ८८, २८, २९, ३०, | २६, २७, २८, २६, | ८६, ८०, ७६, ७८, ३१, १ प्र. ३०, ३१ प्र. ७६, ७५ प्र. ५वे मार्गणा पुरुष वेद २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ प्र. २१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ८६, ८८, २८, २९, ३०, ३१ प्र. ८६, ८०, ७६, ७८, ७६, ७५ प्र. स्त्री वेद २३, २५, २६, | २१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ८६, ८८, २८, २९, ३०, | २८, २९, ३०, ३१ प्र. ८६, ८०, ७६, ७८, नपुंसक वेद.२३, २५, २६, । २१, २४, २५, २६, ६३, ६२, ८६, ८८, २८, २९, ३०, २७, २८, २९, ३०, ८६, ८०, ७६, ७८, ३१, १ प्र. ३१ प्र. ७६, ७५ प्र. ६ कषाय मार्गणा क्रोधादि- २३, २५, २६, | २१, २४, २५, २६, ६३, ६२, ८६, ८८, चतुष्क २८, २९, ३०, | २७, २८, २९, ३०, ८६, ८०,७६, ७८, ३१,१ प्र. ३१ प्र. ७६, ७५ प्र. १ यहाँ भाववेद की विवक्षा है, द्रव्यवेद की नहीं है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० पंचसग्रह : १० मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान ७ ज्ञान मार्गणा मति, श्रुन, २८, २९, ३०, | २१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ८६, ८८, अवधि ३१, १ प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. ८०, ७६, ७६, ७५ प्र. मनयर्याय ज्ञान २८, २९, ३०, | २५, २७, २८, २६, ३१, १ प्र. ३० प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८०, ७६, ७८, ७६ प्र, केवलज्ञान २०, २१, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ८,६ प्र. ८०, ७६, ७६, ७५, ६, ८ प्र. मति-श्रुत- २३, २५, २६, | २१, २४, २५, २६, ६२, ८६, ८८, ८६, अज्ञान २८, २९, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, | ८०, ७८ प्र. विभ गज्ञान |२३, २५, २६, | २१, २५, २६, २७, । ६२, ८६, ८८ प्र. २८, २९, ३० प्र. २८, २९, ३०, ३१ प्र. (प्रथम मत) २१, २५, २७, २८, २६. ३० ३१ प्र. (द्वितीय मत) Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२ ४२१ - - - - - ८ संयम मार्गणा अविरत २३, २५, २६, २१, २४, २५, २६, २८, २९, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. ३, ६२, ८६, ८८ प्र. देशविरति २८, २६, प्र. | २५, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्र. सामा. छेदोप.२८, २९, ३०, २५, २७, २८, २६, ६३, ६२, ८६, ८८, ३१, १ प्र. ३०, प्र. ८०, ७६, ७६, ७५ प्र. ३० प्र. परिहार विशुद्धि २८, २९, ३०, ३१ प्र ६३, ६२, ८६, ८८ प्र. सुक्ष्मसंपराय १ प्र. १३, ६२, ८६, ८८ प्र. (उपशम श्रेणि अपेक्षा) ८०,७६, ७८, ७६ प्र. (क्षपक श्रेणि-अपेक्षा) प्रथाख्यात X २ ०, २१, २६, २७, | २८, २९, ३०, ३१, ६, ८प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८०, ७६, ७६, ७५, ६ दर्शन मार्गणा चक्षुदर्शन २३, २५, २६, | २५, २७, २८, २६, २८, २९, ३०, ३०, ३१ प्र. ३१, १ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७६, .... ७५ प्र. Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ पंचसंग्रह : १० मार्गणास्थान बंधस्थान उदयस्थान सत्तास्थान अचक्षुदर्शन चक्षुदर्शनवत् । २१, २४, २५, २६, . ६३, ६२, ८६, ८८, २७, २८, २९, ३०, ८६, ८०, ७६, ७८, ३१ प्र. अवधिदर्शन २८, २९, ३०, ३१,१ प्र. २१, २५, २६, २७,६३, ६२, ८६, ८८, २८, २९, ३०, ३१ प्र. ८०, ७६, ७६, ७५ प्र. केवल दर्शन | २०, २१, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ८,६ प्र. ८०, ७६, ७६, ७५, ६, ८ प्र. १० लेश्या मार्गणा कृष्णादि २३, २५, २६, २१, २४, २५, २६, ६३, ६२, ८६, ८८, लेश्यात्रिक २८, २९, ३० प्र. २७, २८, २९, ३०, ८६, ८०, ७६ प्र. ३१ प्र. तेज. २५, २६, २८, २१, २४, २५, २६,६३, ६२, ८६, ८८, २६, ३०, ३१ प्र. २७, २८, २९, ३०, | ८६, ८०, प्र. ३१ प्र. पद्म. २८, २९, ३०, ३१ प्र. २१, २५, २६, २७, ६३, ६२, ८६, ८८, २८, २९, ३०, ३१ प्र. ८६, ८० प्र. शुक्ल २८, २९, ३०, |३१, १ प्र. २०, २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७६, - - Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२ ११ भव्य मागणा भव्य अभव्य १२ सम्यक्त्व मार्गणा २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ प्र. सासादन २३, २५, २६, २८, २९, ३० प्र. मिथ्यात्व २३, २५, २६, २८, २९, ३० प्र. मिश्र. | २८, २६ प्र. क्षायोप- २८, २९, ३०, शमिक ३१ प्र. औपशमिक २८ २६, ३०, ३१, १ प्र. २०, २१, २४ २५, २६, २७, २८, २६, ३०, ३१, ६, ८ प्र. '२७, २९, ३०प्र. | २१, २४, २५, २६, २६, ३०, ३१ प्र. २६, ३०, ३१ प्र. २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१प्र. २६, ३०, ३१ प्र. २१, २५, २७, २८, २६, ३०, ३१ प्र. ( मतान्तर से ) २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्र. २१. २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्र. ६३, ६२, ८६,८८, ८६, ८०, ७६, ७८, ७६, ७५, ६, ८ प्र. ८८, ८६, ८०, ७८ प्र. ४२३ २, ८६,८८,८६, ८०, ७८ प्र. ६२,८८ प्र. ६२,८८ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८ प्र. ३, २, ८६, ८८ प्र. Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ मार्गणास्थान बंधस्थान क्षायिक १३ संज्ञी मार्गणा संज्ञी असज्ञी २८, २९, ३०, ३१, १ प्र. २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ प्र. २३, २५, २६, २८, २९, ३० प्र. उदयस्थान २०, २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ६, ८ प्र. २०, २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१, ८, प्र. (केवली को संज्ञो मानने पर और) २१, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्र. (केवली को सज्ञी की विवक्षा न करने पर ) २१, २४, २५, २६, २७, २८, २९, ३०, ३१ प्र. पंचसंग्रह : १० सत्तास्थान ६३, ६२, ८६, ८८, ८०, ७६, ७६, ७५, ६, ८ प्र. ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७८, ७६, ७५, ६, ८ प्र. (केवली को संज्ञी मानने पर ओर) ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६,७८, ७६, ७५ प्र. (केवली को संज्ञी की विवक्षा न करने पर ) २,८८,८६,८०, ७८ प्र. Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २२ ४२५ १४ माहार मार्गणा आहारी २३, २५, २६, २८, २९, ३०, ३१, १ प्र. २४, २५, २६, २७, ६३, ६२, ८६, ८८, २८, २९, ३०, ३१ २.८६, ८०, ७६, ७८, ७६, ७५ प्र. अनाहारी २३, २५, २६, २८, २९, ३० प्र. २०, २६, ६, ८ प्र. | ६३, ६२, ८६, ८८, ८६, ८०, ७६, ७८, ७६, ७५, ६, ८ प्र. - Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट २३ : मार्गणाभेदों में भूल कर्मप्रकृतियों के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृति क्रम मार्गणा तिर्यचगति एकेन्द्रिय जाति द्वीन्द्रिय | जाति ८ का बध ८ का उदय ८ को सत्ता ७ का बंध ८ का उदय ८ की सत्ता ६ का बंध ८ का उदय ८ की सत्ता १ का बंध ७ का उदय ८ की सत्ता १ का बंध ७ का उदय ७ की सत्ता १ का बंध ४ का उदय ४ की सत्ता अबंध ४ का उदय ४ की सत्ता प्रत्येक मार्गणा में । कुल संवेध - Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २३ ४२७ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मूल कर्म-प्रकृतियों के संवेध का प्रारूप श्रीन्द्रिय जाति जाति पथ्वीकाय | तेउकाय वायुकाय | वनस्पति सकाय | | | | - ००१ Jan Education International Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ पंचसंग्रह :१० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मूल कर्मप्रकृतियों के संवेध का प्रारूप पुरुषवेद स्त्रीवेद नपुंसकवेद प्रकषाय मानकषाया माया १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ " | Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २३ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मूल कर्म प्रकृतियों के संवेध का प्रारूप लोभ कषाय २५ 8 १ O O मतिज्ञान २६ 34 ५ ८ श्रुतज्ञान २७ १ अवधि ज्ञान २८ १ १ मनपर्याय ज्ञान w २६ केवलज्ञान ३० १ २ ४२६ मतिअज्ञान ३१ १ २ | Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मूल कर्मप्रकृतियों के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृति : श्रुत अज्ञान, विभंग क्रम मार्गणा ज्ञान सामायिक चारित्र छेदोपस्था | पनीय चा. राय चा.. परिहार | विशुद्धिचा. au | सूक्ष्मसंप _ ३२ । ३३ । ३४ । ३५ । ३६ / ३७ G ८ का बंध ८ का उदय ८ की सत्ता ७ का बंध ८ का उदय ८ की सत्ता ६ का बंध ८ का उदय ८ की सत्ता १ का बंध ७ का उदय ८ की सत्ता १ क बंध ७ का उदय ७ की सत्ता १ का बंध ४ का उदय ४ को सत्ता अबंध ४ का उदय ४ की सत्ता प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २३ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मूल कर्मप्रकृतियों के संवेध का प्रारूप यथाख्यात चारित्र देशविरत ३८ ३६ ० ० १ ४ १ C रे अविरत ४० १ १ 6 चक्षुदर्शन ४१ १ १ X ४२ १ ११ १ ० ४३ ४४ ५ १ ० ५ ० v ४ ४५ १ ० २ ४३१ ४६ O O ० २ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मूल कर्मप्रकृतियों के संवेध का प्रारूप । कापीत लेश्या पद्मलेश्या . तेजो शुक्ल लेश्या मध्य अभव्य क्षायिक सम्यक्त्व क्षायोप. सम्यक्त्व | - - औपशमिक । ४८ । ४६ ५० ५१ . ५२ ५३ । ५४ । । - » Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २३ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मूल कर्मप्रकृतियों के संवेध का प्रारूप मिश्र । सम्यक्त्व सासा. सम्यक्त्व संज्ञी 5 मिथ्यात्व असंज्ञी आहारक अनाहारक प्रत्येक संवैध कुल ___ मार्गणाओं में - - । m » १/० Jai Education International - Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट २४ : मार्गणा भेदों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्मों के संवेध का प्रारूप -AnMun संवेधगत प्रकृति ति. ग. म.ग. क्रम मार्गणा ए. जा. द्वी. जा. |mन. ग. x | ५ का बंध ५ का उदय ५ की सत्ता अबंध ५ का उदय ५ की सत्ता प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध १. चतु. जा. अप. का. पचे. ते. का. दन. का. | वा. का. त्रस का. 1 " OGत्री. जा. Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २४ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्मों के संबंध का प्रारूप मनो यो. १६ १ १ २ लो. क. २५ १ १ ८ वचन यो. १७ W मति ज्ञा. २६ १ काय यो. १८ १ १ श्र. ज्ञा. २७ १ पु. वे. १ १ " स्त्री. वे. अव. ज्ञा. २८ २० २१ २२ २३ १ नपु . वे. R | ? | ? ♡ क्रोध क. मन. ज्ञा. २६ मान. के. ज्ञा. ३० १ १ ४३५ ts ५ माया २४ मति अ. ३१ १ ० १ १ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० (क्रमश:) मार्गणा भेदों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्मों के संवेध का प्रारूप चा. संवेधगत प्रकृति | श्रु. अ. क्रम मार्गणा सा. चा. विमंग छेदो. परि. चा. * २७ - - S ear ५ का बंध ५ का उदय ५ की सत्ता अबंध ५ का उदय ५ की सत्ता प्रत्येक मार्गणा मे कुल संवेध यथा चा.! | देश. दि. । अधि. अच. द.. अब.. कृ. ले. नी. ले. ३८ ३६ | ४० ४१ ४२ ४३४४ ४५ ४६ ० ० - Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २४ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में ज्ञानावरण और अंतराय कर्मों के संवेध का प्रारूप - का. ले. ते. ले. 8 पद्म ले. शुक्ल ले. अभव्य. क्षायि. स. k क्षायो. स. औप. स. ४७ ४८ । ४६ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ । ५५ ।। - - - | -- मिश्र. स.. । मिथ्यात्व असंज्ञी xसासा. स. प्रत्येक संवेध कुल अहारी अनाहारी | मार्गणा में ५६ । ५७ | ५८ | ५६ / ६० २० - Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ पंचसंग्रह : १ परिशिष्ट २५ : मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृति ६ का बंध ४ का उदय ६ की सत्ता ६ का बंध ५ का उदय ६ की सत्ता ६ का बंध ४ का उदय ६ की सत्ता ६ का बंध ५ का उदय ६ की सत्ता ४ का बंध ४ का उदय ६ की सत्ता ४ का बंध ५ का उदय ६ की सत्ता क्रम मार्गणा न. ग. १ १ १ १ १ fa. T. १ १ १ म. ग. १ दे. ग. १ १ ए. जा. r १ १ द्वी. जा. w १ O १ ० Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ ४३६ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप जा. . | Gत्री 1 / चतु. जा. पंचे. जा. | अप. का. ४ | ते. का. 0 | वा. का. त्रस. का वन.का. ६ | १० ११ १२ १३ १४ | | | १ o - Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप देच. यो. काय. यो. .वे. स्त्री नपु. वे. को. क. मान मायाक. ० २१ २२ २३ २४ - - Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ ४४१ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप मति. ज्ञा. 6 | श्रु. ज्ञा. अवधिज्ञा. | मन.ज्ञा. | के. शा. मति. अ. । २७ २८ २६ | Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृति . अज्ञा. सामा.चा. छेदो. चा. परि. चा. . ६ का बध ४ का उदय ६ की सत्ता ६ का बंध ५ का उदय है की सत्ता ६ का बंध ४ का उदय ६ की सत्ता ६ का बंध ५ का उदय ६ की सत्ता ४ का बंध ४ का उदय है की सत्ता ४ का बंध ५ का उदय ६ की सत्ता Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण धर्म के संवेध का प्रारूप यथा. चा. ३८ ० ० ง देश वि. ३६ ० १ १ ० ४० ४१ no १ १ १ to १ अच. द. ४२ १ १ १ १ १ अव. द. ४३ ७. १ १ ४४ o 0 तह 150 ४५ १ ४४३ १ नो. ले. १ १ ४६ १ १ 0 ० Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप का. ले. पद्म ले. शुक्ल. ले भव्य अभव्य क्षा. स. ओप.स. रक्षायो. स. ४७ / ४८ | ४६ | ५० | ५१ । ५२ । ५३ । १४/१५ ४७ ५ | | ० ० Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ ४४५ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप मिध. - संजी 6 मिथ्या. | असंजी आहारी अनाहारी | प्रत्येक संवेध कुल | मार्गणाओं में ० IG सासा. स. | 0 | | | ० - Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ (क्रमशः ) (२) संवेधगत प्रकृति ४ का बंध ४ का उदय ६ की सत्ता अबंध ४ का उदय ६ की सत्ता अबंध ५ का उदय ६ की सत्ता अबंध ४ का उदय ६ की सत्ता अबंध ४ का उदय ४ को सत्ता पंचसंग्रह : १० मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप मार्गणा क्रम प्रत्येक मार्गणा मे कुल संवेध नरकगति १ ४ | तियंचगति r ० ४ m १ १ ११ X x Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप श्रीन्द्रिय जाति १) C ० ० M r ० ליין Vv २ ११ १० ० Y ११ ० r १२ ० १३ C ० २ वनस्पति काय त्रसकाय १४ १५ ० ४४७ ० ४ १ १ ११ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप ४४८ मनोयोग १६ १ १ १ १ ११ वचनयोग १७ १ an १ काययोग १८ १ १ १ १ ११ १. ११ पुरुषवेद १६ २० १ स्त्रीवेद ० १ ० ० ० ७ नपुंसकवेव २१ १ ० ० ० क्रोध कषाय २२ ० ० १) " मानकषाया २३ १ ० ० ० ० माया कषाय २४ १ ० 9 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ ४४६ (क्रमशः) (२) मार्गणाभेदों में दर्शनावरणकर्म के संवेध का प्रारूप लोभ कषाय मतिज्ञान श्रुतज्ञान अवधि ज्ञान मनपर्याय B " केवलज्ञान मतिअज्ञान २५ २६ २७ २८ २६ । ० ० Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) (२) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप - - संवेधगत प्रकृति : " श्रुत अज्ञान विभंग ज्ञान सामायिक चारित्र छेदोपस्था पनीय चा. परिहार विशुद्धिचा. सूक्ष्मसंप राय चा.] क्रम ३४ । ३५ । G | ४ का बंध ४ का उदय ६ की सत्ता . अबंध ४ का उदय है की सत्ता अबंध ५ का उदय ६ की सत्ता अबंध ४ का उदय ६ की सत्ता अबंध ४ का उदय ४ की सत्ता प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध - - - - - - Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप यथाख्यात चारित्र देशविरत ३८ ३६ १ १ १ ४ ० अविरत ४० ० ० ४ 3 चक्षुदर्शन ४१ १ ११ अचक्षु दर्शन ४२ ११ ४३ ४४ १ ह ४५१ नोल लेश्या ४५ ४६ ウ ४ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप ४५२ [1] ४७ ० ० 0 ० ૪ ४८ ४६ ५० ४ १ ११ ५१ १ १ १ ११ अभव्य ० ५२ ५.३ ५४ ० क्षायिक सम्यक्त्व २ १ १ १ क्षायोप. सम्यक्त्व m ० 0 R औपशमिक ५५ १ O pibhth ० Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्र -प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में दर्शनावरण कर्म के संवेध का प्रारूप मिश्र सम्यक्त्व ५६ ५७ ० ० ० सासा. सम्यक्त्व २ ० 0 ० ० मिथ्यात्व ५८ Q ० २ ५६ ov १ ११ २ आहारक ६१ ov १ १ १ १ ११ अनाहारक ६२ ० o ४ प्रत्येक संवेध कुल मार्गणाओं में २८ २० २० १६ ४५३ & Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट २६ : मार्गणा भेदों में वेदनीय कर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृति . जा. दी. जा. क्रम ! मार्गणा ए m असाता का बंध असाता का उदय दोनों की सत्ता असाता का बंध साता का उदय दोनों की सत्ता साता का बंध असाता का उदय दोनों की सत्ता साता का बंध साता का उदय दोनों की सत्ता अबंध असाता का उदय दोनों की सत्ता अबंध साता का उदय दोनों की सत्ता अबंध असाता का उदय असाता की सत्ता अबंध साता का उदय साता की सत्ता प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ (क्रमश:) मार्गणा भेदों में वेदनीयकर्म के संवेध का प्रारूप त्री. जा. G १ १ ० ० 0 ૪ चतु. जा. ५ १ १ १ O ० ४ w ७ १० ० ४ ११ no १ ० ४ त. का. Ac १२ v १ ४ वा. का. १३ ov १ ० ४ वन. का. १४ १ ४ ४५५ त्रस का. १५ १ ५ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ (क्रमश:) मनो यो. १६ 8 १ १ ० ० ० ४ वचन यो १७ १ ४ मार्गणा भेदों में वेदनीयकर्म के संवेध का प्रारूप काय यो. १८ ० पु. वे. १ १ O १६ २० ० स्त्री. वे. ० १ १ १ ० O ४ नपुं. वे. २१ १ १ ० क्रोध क. २२ ܘ १ ० पंचसंग्रह : १० ४ मान. क. २३ १ ० ४ - माया. क. २४ १ १ १ १ ० ४ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५७ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में वेदनीयकर्म के संवेध का प्रारूप लो. क. . अवज्ञा मन.ज्ञा. | मति अ. २५ २६ । . . . __ . . . . . ४ ४ ४ ४ । ४ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ (क्रमश:) मार्गणा भेदों में वेदनीयकर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृति मार्गणा असाता का बंध असाता का उदय दोनों की सत्त असाता का बंध क्रम साता का उदय दोनों की सत्ता साता का बंध असाता का उदय दोनों की सत्ता साता का बंध साता का उदय दोनों की सत्ता अबंध असाता का उदय दोनों की सत्ता अबंध साता का उदय दोनों की सत्ता अबंध असाता का उदय असाता की सत्ता अबध प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध साता का उदय साता की सत्ता श्र. अ. ३२ १ १ १ ४ विभंग ३३ १ ० ४ सा. चा. ३४ १ १ ० ० ४ छेदो. चा. ३५ C C ० पंचसंग्रह : १० ४ परि चा. ३६ ढ सूक्ष्म. चा. ३७ १ ० Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथा.चा. M | देश. वि. ० अवि. (क्रमशः) मार्गणा भेदों में वेदनीयकर्म के संवेध का प्रारूप सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ 5 अच. ३. X अव. ३. | २ के. दे. कृ. ले. . . . . . . . . || नी. ले. ४५६ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में वेदनीयकर्म के संवेध का प्रारूप का. ले. ते. ले. पद्म ले. शुक्ल ले. भव्य. अभव्य. क्षायि. स. औप. स. Rक्षायो ४७ ४८ । ४६ ५०५१ ५२ - R २ maner - e - - - Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६१ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में वेदनीयकर्म के संवेध का प्रारूप सासा. स. मिथ्यात्व | संज्ञी अहारी है | असंज्ञी अनाहारी प्रत्येक संवेध कुल | मार्गणा में ६ | ५६ । ६० ६१ । ६२ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट २७ : मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप ४६२ प्रकृतिक बंधस्थान २२ प्र. २१ प्र. १७ प्र. १३ प्र. ६ प्र. ५ प्र. ४ प्र. ३ प्र. २ प्र. १ प्र. क्रम | मार्गणा प्रत्येक मार्गणा में कुल बंधस्थान न. ग. १ ० m ति. ग. r म. ग. ३ १ १ १ १ १ १ १ १० दे. ग. ४ १ १ ० m ए. जा. ५ १ Y हो. जा. w १ O ० Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० ० ० ० ० त्रा. जा. ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० 1 चतु. जा. - - - - - - - m m m | |६ पचे. जा. सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २७ १० | - । ११ अप. का. (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप | ० ते. का. १२ वा. का.. १३ १३ वन.का. १४ - - - - ४६३ - Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ मनो. यो. १६ १ १ १. १ १ १ १ १ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप १ १० वच. यो. १७ १ १० काय. यो. १८ | १९ १ १ १ पु. वे १० ६ स्त्री. वे. २० a ० नपुं. व. २१ १ १ १ को. क. २२ १ ० ७ मान क. २३ १ ८ माया क. २४ १ १ १ ० Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २७ लो. क. २५ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप २६ ० मति. ज्ञा. ८ २७ ० १ १ १ श्रु. ज्ञा. ८ २८ c ० १ अवधि. ज्ञा. ८ मन. ज्ञा. २६ ६ के. ज्ञा. ३० ० ० ० ० ४६५ ० मति. अ. ३१ १ १ १/० ३/२ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ बंधस्थान प्रत्येक मार्गणा में कुल प्रकृतिक बंधस्थान क्रम | मार्गणा ३/२ 29 | श्र. अज्ञा. विभंग. (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप ३/२ ३३ । सामा.चा. ___w n n n n n . . . . छवी. चा. ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० । परि. चा. पंचसंग्रह : १० & सूक्ष्म चा. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० यथा. चा. ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० " देश वि. अवि. सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २७ १. च. द. अच. द. (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप - ____n n n n n n n n . . | अव. द. . . . . . . . . . . मी. ले. ४६७ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप का. ले. ४७ १ १ १ १ १ o ० ० ० ० ते. ले. ४८ १ १ ५ ले पद्म ले. ४६ ० शुक्ल. ले ५० १ १० भव्य ५१ १ १ १ १ १० अभव्य ५२ १ ० क्षा. स. ५३ १. १ १ पंचसंग्रह : १० ८ * क्षायो. स. ५४ ५५ ० ० औप. स. m ० १ १ १ ८ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २७ ४६६ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के बंधस्थानों का प्रारूप मिश्र. सासा. स. 5 | मिथ्या. | संजी | असंज्ञी आहारी अनाहारी प्रत्येक बंधस्थान कुल मार्गणाओं में ६० ६१ | १ ० ० ० ० ० ०ी ० ० ० - Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट २८ : मार्गणाभेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप प्रकृतिक उदयस्थान मार्गणा | देवगति एकेन्द्रिय जाति द्वीन्द्रिय जाति क्रम | " | . १० प्र. 8 प्र. m . ८प्र. m . ७प्र. . . . ५प्र. ४प्र. . २ प्र. . १ प्र. . प्रत्येक मार्गणा में कुल उदयस्थान Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २८ ४७१ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप - त्रीन्द्रिय जाति जाति जाति 1 चतुरिन्द्रिय पथ्वीकाय त्रसकाय ० ० ० ० ० ० ० -- ० ० ० र Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० पंचसंग्रह :१० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप | मनोयोग क्रोधकषाय मानकषाय माया कषाय । | I ० ० m ० m ० . m ० . ० . ० ० . ० . - Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २८ ४७३ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप कषाय श्रुतज्ञान लज्ञान ज्ञान ज्ञान २५ २६ २७ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों का प्रारूप प्रकृतिक उदयस्थान १० प्र. ६ प्र. ८ प्र. ७ प्र. ६ प्र. ५ प्र. ४ प्र. २ प्र. १ प्र. क्रम | मार्गणा प्रत्येक मार्गणा में कुल उवयस्थान श्रुत अज्ञान ३२ १ १ १ १ ० ४ विभग ज्ञान सामायिक चारित्र ४ ३३ ३४ ३५ O Ikib126 १ पनीय चा. १ १ परिहार विशुद्धिचा. ३६ ४ सूक्ष्म संपराय चा. ३७ ० ० १ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २५ (क्रमश:) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप यथाख्यात चारित्र देशविरत ३८ ३६ O ० ० O O ० १ ४ अविरत ४० १ ० ५ चक्षुदर्शन अचक्षु दर्शन ४१ १ १ (2) v ४२ ४३ ४४ ४५ ४६ w १ १ ८ ४७५ 8 १ नोल लेश्या १ १ १ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप कापोत तेजो लेश्या लेश्या 34 पद्मलेश्या अभव्य क्षायिक सम्यक्त्व क्षायोप. सम्यक्त्व भव्य औपमिक सम्यक्त्व ५१ ५२ & Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २८ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के उदयस्थानों का प्रारूप मिश्र सम्यक्त्व ५६ ५७ ० १ १ ० सासा. सम्यक्त्व ० ० ० ellaby ५८ १ ४ संज्ञी ५६ १ १ १ १ असंज्ञी १ १ १ ४ आहारक ६१ १ १ १ १ no ६ अनाहारक ६२ १ १ ५ ४७७ प्रत्येक उवयस्थान कुल मार्गणाओं में ४४ ५१ ५४ ५५ ४१ ३७ ३४ २८ २६ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट २६ : मार्गणाभेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप प्रकृतिक सत्तास्थान EEEE ति. ए. जा. क्रम | । २ । ३ । ४ । ५ । ६ २८ प्र. ० m m mmन. ० . २७प्र. ० . ० २४प्र. m . २३ प्र. . ० . . ० . २१ प्र. . ० . . ० . १रप्र.. . ० . . ० . . ० . . ० . . ० . . ० . . ० . प्रत्येक मार्गणा में कुल सत्ता. ६ । ६ । १५ । ६ । ३ । Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका - प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ (क्रमश:) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप जा. श्री. ७ 2016 १ १ 0 0 ० ७ ० C ० ० ० ० ० जा. ग चतु. ० o m ८ १ १ 1 45 पंच. १ १ १ १५ ε १ पु. का. १० 9 o १ 1 ३ का. अप्. ११ १ १ ० ० ते. का. to १२ | १३ १ १ ० १ वा. का. ३ ० ० ० 1 का. ५७ १४ १ Q ४७६ अस का. १५ १ १ १ १ १ १ १ १ १५ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप क.. क. य. यो. . वे. स्त्री मान.क. 1. सर2 १८ । १६ । २० । २१ । २२ । २३ । २४ war lar r ~ or r ~ r or r . u a . - r . . . r . . or . or m . or . . or ० . or ० . m ० ० १५ | १५ __१०..। १२ । १३ । Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८१ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप . ज्ञा. जा . मन अ 1- मति २५ । २६ । २७ । २८ । २६ । ३० । ३१ - ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० . . १५ । १३ । १३ । १३ । १३ । ० Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप प्रकृतिक सत्ता. श्रु. अ. विभंग सूक्ष्म. चा. म ३२ । ३३ । ३४ । ३५ । ३६ 128mar ० - २८ प्र. lan ० ० ० २७प्र. . ० ० - ० . ० ० ० ० ० . ३ प्र. ० ० ० . . ० ० ० . २१ प्र. ० ० . ३प्र. ० ० . ० . ० ० ० . . ० ० ० . . ० ० ० . . ४प्र. ० ० . . ० ० ० ० . . . २ प्र. ० ० . . ० ० . <. प्रत्येक मार्गणा में कुल सत्ता. ४/३ | ४/३ | १३ । १३ । ५ । ४ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८३ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थान का प्रारूप यथा.चा अव.द. अव. [अच. व.] नी. ले. 14 अवि. ___३८ । ३६ | ४० । ४१ । ४२ ४३ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० n ० n n wm १५ १५ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ४८ ७ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० x - - - - ते. ले. । ७ पद्म ले. । १५ । १५ । ४६५० । ५१ । . . . . . orr or r or o or or भव्य. or ४८४ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप पंचसंग्रह : १० १ अभव्य. । । . . . . . . . . . . . . . . |. । | ५३ । ५४ । |० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० क्षायो. 0 0 ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० आप. स. Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८५ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट २६ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में मोहनीयकर्म के सत्तास्थानों का प्रारूप सासा.स. संजी असजा अहारी प्रत्येक सत्तास्थान कुल मार्गणा में । ५६ । ५७ ५८ ५६ । ६० । ६१ - ० . .00| अताहारी ४४ ० ४६/४३ ० ३२ ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ३ । १ । ३ । १५ । ३ । १५ । ६ । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट ३० : मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृति मार्गणा ति. ग. | दे. ग. ए. जा. mन. ग. द्वा.जा. - | अबंध न. का उदय न. की सत्ता ति. का बंध न. का उदय न. ति. की सत्ता मनुष्य का बंध न. का उदय न. म. की सत्ता अबंध न. का उदय न. ति. की सत्ता अबंध न. का उदय न. म. की सत्ता अबंध ति. का उदय ति. की सत्ता न. का बंध ति. का उदय न. ति. की सत्ता ति. का बंध ति. का उदय ति. ति. की सत्ता Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ४८७ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप G | श्री. जा. चतु. जा. पंचे. जा. अप. का. ते. का. वा.का. वन.का. त्रस.का. ११ १२ १३ १४ १५ - - . . . . . . . - | Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप वच. यो. काय. यो.. | स्त्री. वे. मान क. मायाक १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬e सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप - ला. क. मति. ज्ञा. अधि.ज्ञा. मन.ज्ञा. मति. अ. २७ २८ २९ I w __ - Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૯૦ (क्रमशः ) मार्गणाभेदों में वायुकर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृतियाँ - अबंध न. का उदय न. की सत्ता ति का बंध न. का उदय न. ति का सत्ता म. का बंध न का उदय न. म. की सत्ता अबंध क्रम न. का उदय न. ति की सत्ता अबंध न. का उदय न. म. की सत्ता अबंध ति का उदय ति की सत्ता न. का बंध ति का उदय न. ति का सत्ता ति का बंध ति का उदय ति. ति की सत्ता श्र. अज्ञा. ३२ V विभंग. १ सामा. चा. ३४ 0 ० छेदो. चा. ३५ ० ० c पंचसंग्रह : १० 0 परि चा. ३६ ० c सूक्ष्म चा. ३७ ० ० ० ० ० Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० (क्रमशः ) यथा. चा. ३८ ० O ० ० देश वि. ३६ १ ० मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप अवि. ४० १ १ १ १ ● | १ च. द. ४१ ov १ १ १ अच. द. ४२ ov १ १ १ १ १ अव. द. ४३ १ १ के. द. ४४ ० ० ० ० कृ. ले. ४५ १ ४६१ नो. ले. ४६ १ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ (क्रमश:) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप का. ले. ४७ ov १ १ १ १ १ १ ते. ले. ४८ ० १ ल पद्म ले. ४६ १ १ 6 शुक्ल. ले ५० ० १ १/० भव्य ५१ १ १ अभव्य ५२ १ क्षा. स. ५३ पंचसंग्रह : १० १ x क्षायो. स. ५४ १ १ १ १ १ १ औप स ५५ १ १ 0 १ १ १ १ १ १ O Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ४६३ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप मिश्र. संज्ञी | सासा. स. 8 | मिथ्या. छ | असंही 3 | आहारी 3 | अनाहारी प्रत्येक संवेध कुल मार्गणाओं में ६ ५६ । ६० । ६१ । ६२ . . . . . . . __ . Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) (२) मार्गणाभेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृतियाँ नरकगति ० तिर्यंचगति क्रम | मार्गणा एकेन्द्रिय जाति मनुष्यगति द्वीन्द्रिय जाति - ००२ देवगति - ० म. का बंध ति. का उदय म. ति. की सत्ता दे. का बंध ति. का उदय दे. ति. की सत्ता अबंध ति. का उदय न. ति. की सत्ता अबंध ति. का उदय ति. ति की सत्ता अबंध ति. का उदय ति. म. की सत्ता अबंध ति. का उदय ति. दे. की सत्ता अबंध म. का उदय म. की सत्ता न. का बंध म. का उदय न. म. की सत्ता Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ४६५ (क्रमशः) (२) मार्गणा भेदों में वायुकर्म के संवेध का प्रारूप चतुरिन्द्रिय जाति पंचेन्द्रिय जाति पृथ्वीकाय तेउकाय 5 अप्काय वनस्पति काय IG जाति 20 वायुकाय त्रसकाय ० Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ पंचसंग्रह :१० (क्रमशः) (२) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप मनोयोग वचनयोग काययोग पुरुषवेद . स्त्रीवेद नपुंसकवेद क्रोधकषाय मानकषाय माया कषाय ० ० ० ० ० ० ० ० Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ४६७ (क्रमशः) (२) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप कषाय श्रुतज्ञान अवधि ज्ञान मनपर्याय ज्ञान लज्ञान 2 : २५ २६ २७ - - । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप संबेधगत प्रकृतियाँ - म. का बंध ति का उदय म. ति. की सत्ता दे. का बंध ति का उदय दे. ति. की सत्ता क्रम अबंध ति का उदय न. ति को सत्ता अबंध ति का उदय तिति की सत्ता अबंध ति का उदय ति म. की सत्ता अबंध ति का उदय ति दे. का सत्ता अबंध म. का उदय म. की सत्ता न. का बंध म. का उदय न. म. की सत्ता श्रुत अज्ञान विभंग ज्ञान १ ३२ ३३ ३४ १ १ सामायिक चारित्र १ छंदोपस्था पनीय चा. पंचसंग्रह : १० ३५ परिहार विशुद्धिचा. ३६ ० सूक्ष्म संपराय चा. ३७ ० Q ० O १ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ४६8 (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप यथाख्यात चारित्र देशविरत अविरत चक्षुदर्शन अचक्षु दर्शन अवधि दर्शन केवल दर्शन कृष्ण लेश्या नील लेश्या ३८ । ३६ । ४० | ४१ ४२ ४३ ___ - Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) (२) मागंणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप कापोत लेश्या तेजो लेश्या शुक्ल । लेश्या . पद्मलेश्या अभव्य क्षायिक सम्यक्त्व क्षायोप. औपशमिक सम्यक्त्व मध्य र - -- - Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० (क्रमश:) (२) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप मिश्र सम्यक्त्व ५६ ० १ १ १ सासा. सम्यक्त्व ५७ १ Bilbab ५८ १ संज्ञी असंज्ञी ५६ ६० १ १ १ १ १ १ १ आहारक ६१ १ १ १ १ 0 अनाहारक! ६२ o ० १ O ५०१ प्रत्येक संवेध कुल मार्गणाओं में ३६ ३६ ४० ४६ ४७ 333 ४१ ५० ३० Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ पचसंग्रह : १० (क्रमशः) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप - - संवेधगत प्रकृति न. ग. ति. ग. ए. जा. दी.जा. ऋम मार्गणा x . - . . . . . ति. का बंध म. का उदय म. ति. की सत्ता म. का बंध म. का उदय म. म. की सत्ता दे. का बंध म. का उदय दे. म. की सत्ता अबंध म. का उदय म. न. की सत्ता अबंध म. का उदय म. ति. की सत्ता अबंध म. का उदय म. म. की सत्ता अबंध म. का उदय म. दे. की सत्ता अबंध दे. का उदय दे. की सत्ता . . . . Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० श्री. जा. 6) ० ० ० ० (क्रमशः ) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप चतु. जा. IS ८ ० पंचे. जा. w १ १ पु. का. १० अप. का. ११ ० a ते. का. १२ ० वा. का. 作 १३ ० ० बने. का. १४ ५०३ ० त्रस. का. १५ १ १ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ पंचसंग्रह : १० (क्रमश:) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप - - वच. यो. .. | काय. यो. ७ | स्त्री. वे मानक. मायाक १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ । २४ - Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ५०५ (क्रमशः) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप लो.क. मति ज्ञा. | श्र. ज्ञा. अवज्ञा. मन.ज्ञा. मति अ. - - - Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप संवेवगत प्रकृति का श्रु. अ. सा. चा. क्रम मार्गणा छेवो. चा. परि. चा. सम. चा. ४ ति. का बंध म. का उदय ति. म. की सत्ता म. का बध म. का उदय म. म. की सत्ता दे. का बंध म. का उदय दे. म. की सत्ता अबंध म. का उदय म. न. की सत्ता अबंध म. का उदय म. ति.की सत्ता अबंध म. का उदय म. म. की सत्ता अबंध म. का उदय म. दे. की सत्ता अबंध दे. का उदय दे. को सत्ता Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ५०७ (क्रमशः) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप यथा.चा देश. वि. अवि. अव. द. कृ. ले. नी. ले. ३८ ३६ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप ते. ले. पद्म ले. अभःय. 8 | शुक्ल ले. क्षायि. स. की - क्षायो. स. औप. स. । ५३ ४ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० (क्रमशः) (३) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप मिश्र. स. मासा. स. मिथ्यात्व संज्ञी असंज्ञा अ in अहारी प्रत्येक संवेध कुल मार्गणा में in अनाहारी ___५६ | ५७ | ५८ ५६ ६० ६२ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) (४) मार्गणाभेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप - - जा. संवेधगत प्रकृतियां न. ग. ति. ग. म. ग. क्रम मार्गणा |x/ए. जा. - - ति. का बंध दे. का उदय ति. दे. की सत्ता म. का बंध दे. का उदय म. दे. की सत्ता अबंध दे. का उदय दे. ति. की सत्ता अबंध दे. का उदय दे. म. की सत्ता प्रत्येक मार्गणा में कुल संवध Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-अरूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ५११ (क्रमश:) (४) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप चतु. जा. पंचे. जा. अप. का. . जा. Gत्रा ते. का. वा.का. त्रस का. १० ११ १२ १३ २८ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ पचसंग्रह : १० (क्रमश:) (४) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप मनो यो. वचन यो. काय. यो. स्त्री. वे. नप. वे. क्रोध क. माने.क. माया. क. - २ २३ २४ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० लो. क. २५ १ १ १ (क्रमश:) (४) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप १ २८ २६ ० मति. ज्ञा. १ १ २१ २७ १ श्रु. ज्ञा. १ २१ अवधि.ज्ञा. २८ १ २१ मन. ज्ञा. २६ ० ६ के. ज्ञा. ३० ० १ ५१३ मति. अ. ३१ १ १ १ २८ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) (४) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप ऋम | मार्गणा श्रु. अज्ञा. संवेधगत प्रकृतियाँ # र सामा. चा. " | छेदो. चा. परि. चा. सुक्ष्म चा. ३२ । ३३ । ३४ । ३५ । ३६ । ३७ ति. का बंध दे. का उदय ति. दे. की सत्ता म. का बंध दे. का उदय म. दे. का सत्ता अबंध दे. का उदय दे. ति. की सत्ता अबंध दे. का उदय दे. म. की सत्ता २८ प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० (क्रमशः) (४) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप यथा. चा. देश वि. अवि. च. द. अच. द. अव.द नी. ले. | ४० ४१ ४२ । ४३ । ४४ ४५ 4. Tanwar Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ पंचसंग्रह : १० (क्रमश:) (४) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप | का. ले. ते. ले. भव्य 28 पद्म ले. शुक्ल. ले अमव्य क्षा. स. क्षायो.स. 5 | औप. स. ४ | ५२ ५३ ५४ । ५५ | २८ २१ २१ २१/१७ २८, २८ । १५ । २० १६ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३० ५१७ (क्रमशः) (४) मार्गणा भेदों में आयुकर्म के संवेध का प्रारूप मिश्र. Gसासा. स. मिथ्या. संजी असंजी आहारी 9 अनाहारी प्रत्येक संवेध कुल मार्गणाओं में ५६ ५७ ५८ ५६ । ६० । ६१ ६२ ३०/२६ ३६ ३७/३६ ० १ १ । १ ० १ ० ३८ । ३८ १६ २६ । २८ २८ | १४ | २८ - ४ Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ पंचसंग्रह : १० परिशिष्ट ३१ : मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्रकृतियाँ है नरकगति तियंचति मनुष्यगति एकेन्द्रिय जाति | देवगति | क्रम | मार्गणा द्वीन्द्रिय जाति नीच का बंध नीच का उदय नीच की सत्ता नीच का बंध नीच का उदय नी. उ. की सत्ता नीच का बंध उच्च का उदय नी. उ. की सत्ता उच्च का बंध नीच का उदय नी. उ. की सत्ता उच्च का बंध उच्च का उदय नी. उ. की सत्ता अबंध उच्च का उदय नी. उ. की सत्ता अबंध उच्च का उदय उच्च की सत्ता प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध २ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३१ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप श्रीन्द्रिय जाति जाति जाति 1 चतुरिन्द्रिय m पंचेन्द्रिय ४ पृथ्वीकाय अपकाय ते उकाय 20 वायुकाय वनस्पति त्रसकाय ६ १० ११ १२ १३ १४ । Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप नो.यो. वच. यो. काय. यो. .वे. | स्त्री - नवे. क्रो.क. मानक. मायाक - - १६ १७ १८ १९ २० २१ २२ २३ २४ ____.. - Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२१ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३१ (क्रमशः) मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप कषाय मतिज्ञान श्रुतज्ञान ज्ञान मनपर्याय ज्ञान केवलज्ञान | मतिअज्ञान २५ २६ ६ | I - Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप संवेधगत प्र श्रुत अज्ञान सामायिक चारित्र छेदोपस्था पनीय चा. | परिहार विशुद्धिचा. | क्रम मार्गणा सूक्ष्मसंप राय चा. ३७ नीच का बंध नीच का उदय नीच की सत्ता नीच का बध नीच का उदय नीन उ. की सत्ता नीच का बंध उच्च का उदय नी. उ. की सत्ता उच का बंध नीच का उदय नी. उ. की सत्ता उच्च का बंध उच्च का उदय नी. उ. की सत्ता अबध उच्च का उदय नी. उ. का सत्ता अबंध उच्च का उदय उच्च को सत्ता प्रत्येक मार्गणा में कुल संवेध Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३१ (क्रमश:) यथाख्यात चारित्र देशविरत ३८ ० ० १ ४ ३६ ० MM मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप अविरत ४० चक्षुदर्शन ४१ १ no ५ अचक्षु दर्शन ४२ १ १ १ १ 2 ४३ It ० a ३ ४४ v ४५ १ ५२३ ४६ ० Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ पंचसंग्रह : १० (क्रमशः) मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप - कापोत लेश्या तेजो लेश्या पद्मलेश्या शुक्ल लेश्या अभव्य क्षायिक सम्यक्त्व भव्य क्षायोप. सम्यक्त्व औपमिक सम्यक्त्वा ४७ ४८ ४६ ५० ५१ x ५२ - - - mare । १ - --------- ------ - - - २ -' मा Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३१ (क्रमश:) मिश्र सम्यक्त्व ५६ १ १ ० सासा. सम्यक्त्व ५७ ० ८ ४ मार्गणा भेदों में गोत्रकर्म के संवेध का प्रारूप मिथ्यात्व ५८ संज्ञी ५६ १ १ असंज्ञी ६० ६१ १ आहारक १ १ अनाहारक ६२ १ ५२५ प्रत्येक संवेध कुल मार्गणाओं में ३४ ४५ ३३ ५२ ४७ २३ १० Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ३२ गाथाओं की अकारादि अनुक्रमणिका अट्ठगसत्तगछक्कग अछला हवीसा अट्टी बत्तीसा असु बावीसोच्चिय अट्ठो नवो अजोगिस्स अडनव वीसिगवीसा अडवीस नरयजोग्गा अणमिच्छ मीस सम्माण अणसम्म भय दुगंछाण अथिरासुभचउरंसं अपज्जत्तगजाई अपज्जत्तगबंध अपमत्त सासणेसु अपमत्तो सनियि अब्बंधे इगिसंत असणि अपज्जत्ते अंतमुहुत्ता उठि आउम्मि अमो आयावं एगिंदिय आहारगमीसेसु इसाई दो चउ इगवीसाई मिच्छे इगिदुगच उएगुत्तर इगि विगले पण बंधा उच्चेणं बंधुद उज्जोव आयवाण उज्जोवेनायावं ३५।७० १०६।२१३ ११४।२२४ १३६।३१४ उदएसु चउवीसा ७७५१४१ उदयप्पत्ताणुदओ उदयविगप्पा जे जे उदयाणुवयोगे सु ७३|१३८ ५.७।१०८ ३६।७१ एक्केक्के इती २५.५२ एगहियाय बंधा ४६१६८ एगिदिएसु पढमदुगं ४७१६६ एवं जोगुवओगा ५१।१०१ ओहम्मि मोहणीए १२६।२४६ ६७।१३२ २१ १३४।३१२ ४६ / ६२ २४ ५४।१०३ १२४।२४१ १३८।३१७ चरबंधे छस्संते चबंधे नवसंते कम्मजोगि अणाहरगो कम्मयवि उव्विमीसे किव्हा इति अस्संजमे खवगे सुहुमंमि चउ गइआणुपुव्विजाई गुणभिहियं मणुए सु चउपण उदओ बंधेसु चउबंधगेवि बारस ७५।१४० २३।४६ चउवीसाई चउरो १३०|३०८ चउवीसगुणा एए ११०।२१७ ६६।१३५ ७०/१३५ १२५|२४४ ४८/६७ ३३।६६ ११८२२८ १००।१८६ ४४ । ८६ ६६।१८४ ११७।२२७ १११।२२० १५४।३४१ १२३।२४१ १५३।३४१ १४।३२ ७६।१४८ १४१।३२५ १३।३२ २६६४ १०४।२०६ १०३।२०२ ७८।१४७ ३२।६६ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : परिशिष्ट ३२ ५२७ १५७ चउवीसाइ गुणेज्जा १२८।२४६ दुभगाईणं उदए चत्तारि जा पमत्तो १०५।२११ देवाणं सव्वेविहु चोदसउ सहस्साई १२०१२३४ देसविरयम्मि बारस छव्वीसणाइ मिच्छे ३८१७४ देसाइसु चरिमुदए जा मि चउव्वीसा ११२।२२० देसूण पुव्वकोडी जोगतिगणं मिच्छे १२७।२४६ दो संतट्ठाणाई तग्गइयाइदुवीसा ६१११२० दसण सनिद्द दसण तग्गयणुपुग्वि जाई ५६।११४ नर तिरि उदए नारय । तसबायरपज्जत्तं ८५११६६ नव छच्चउहा बज्झइ तिगहीणा तेवन्नसया ११६।२३१ नव पंचोदयसत्ता तिण्णिसया बावण्णा ११५।२२४ नवभेए भंगतियं तित्थयराहारग दो ६३।१२७ नाणंतरायदंसण तित्थयरे इगतीसा ८८१७४ नाणंतरायबंधा तित्थायव उज्जोयं १५१।३३६ नामधुवोदय सूसर तिरि उदय छव्वीसाइ ८३।१५६ नारयसुराउ उदओ तिरि उदए नवभंगा १३३।३१२ निच्चोदयणाइजुआ तिरितिग उज्जोवजुया १४६।३३८ निदादुगे छवण्णा । तिरिबंधामणयाणं ६२।१२४ पगईणं वच्चासो तेउ लेसाईया १५५।३४१ पज्जतिगया दुभग तेरसमछट्टएसु १७।३६ पढम चउक्कं सम्मा तेरससुपंचसंता १६६।३१७ पढमं पढमगहीणं तेरससु वेयणीयस्स १३२।३११ पणवीसाए देसे तेवीसा पणुवीसा ५५।१०५ पत्तेउवघाय उराल दु तेवीसूणा सत्तरस ११६।२२५ परघाय खगइजुत्ता थावरतिरिग ईदोदो ६५।१८३ परघायसास आयव दसगाई चउवीसा २७.६१ पिंडे तित्थगरूणे दुगआइ दसंतुदया २४१५० पंचाइ बंधगेसु दुगइगवीसा सत्तरस १९६४पंचादिमा उ मिच्छे ७१।१३५ ८४।१६५ १०८।२१३ ४२१८३ २२।४६ ६।१८ १२।३० १०७।२१३ १०॥२६ ६६।१८६ ११।२८ १३१।३१० ७।१६ ६२।१७८ ८२० ८६१६६ १४४।३३० ६०१११४ १५२।३४० १८।१८७ ६७।१८५ ७६१४० ८७।१६६ ८२।१५४ ८११५२ ६३११८० .४३।८६ १०६।२१७ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२८ पंचसंग्रह : भाग १० ६८।१३२ पुवेय कोहमाइसु पुवेयं कोहाई नियट्टि बारस चउरो ति दु बारस दुगोदए हैं बावीतं बंधते बंबइ उइण्णयं चिर बधइ ऊइण्णयं चिय बधइ छ सत्त अट्ट बंधइ तित्थनिमित्ता बंधइ सुमं साहारणं वंधो आदुग दसमं बंधोदय संताई बंधोदय संताई बंधोदय संतेसु मणुएसु अचउवीसा मणुयगईए सव्वे मणुयदुगुच्चागोय मिच्छत्तं अणमीसं मिच्छम्मि सासणाइसु मिच्छाइ अप्पमत्तं मिच्छाबंधिगवीसो मिच्छासासायणेसु मिच्छे नरएसु सयं मिच्छे सगाइ चउरो मीसदुगे कम्मइए मीसो सम्मोराल १४५३३० मूलुत्तर पगईणं १६३ ३७।७१ मोहस्सुदए अढवि ३७ २८।६२ वज्झंति सत्त अट्ठय १४०।३२४ ३०।६४ विरए आहारुदओ । .४०।७७ विरयापमत्तएसु ६१।१७८ १८३६ वेई नवगुणतुल्ला १४२१३२८ १६।३६ वेउव्वियमीसम्मि १२२।२४१ ४६ सण्णिम्मि अट्रसण्णि मिन १३७।३१७ ५०।६६ सालट्ठ छ बंधेसु ५।१२ ५३११०३ सत्तरसुत्तर मेगुत्तरं १४३१३३० १५।३६ सत्तरस बंधगे छोदयम्मि ४११७६ १२६।२५१ सत्तसहस्सा सट्ठीए ११३।२२० १३५१३१४ सत्तावीसे पल्ला ४५।६२ १०१।२०७ सम्ममीसाणं मिच्छो ३९७६ ७४।१३६ सम्मे विउव्वि छक्करस ६०।१७६ ५६।१०६ सा आणुपुग्विहीणा ८०।१४६ १४७१३३५ सामण्णसुराजोग्गा १४८।३३७ ३४।६६ सासायणेऽपात्था ६५।१३० ५८।१०६ साहारणाइ मिच्छो ६४११२६ ३१।६६ साहारणाउ मिच्छे ८६।१७५ २११४३ सुयदेवि पसायाओ १५६।३४४ १०२।२०८ सुरदुग वेउव्विय ६४।१८० १४६।३३५ सूसरउदओ विगलाण ७२।१३५ २६।४३ संघयणा संठाणा १५०।३३८ १२१।२४१ हासरइ अरइसोगाण २०१४३ ६६।१३२ हुडोरालं धुवबंधिणी ५२।१०२ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रन्थ : एक परिचय कर्मसिद्धान्त एवं जैनदर्शन के प्रकाण्ड विद्वान आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर (विक्रम 6-10 शती) द्वारा रचित कर्मविषयक * पाँच ग्रन्थों का सार संग्रह है-पंचसंग्रह। इसमें योग, उपयोग, गुणस्थान, कर्मबन्ध, बन्धहेतु, उदय, * सत्ता, बन्धनादि आठ करण एवं अन्य विषयों का प्रामाणिक विवेचन है जो दस खण्डों में पूर्ण है। __ आचार्य मलयगिरि ने इस विशाल ग्रन्थ पर अठारह हजार श्लोक परिमाण विस्तृत टीका लिखी है / वर्तमान में इसकी हिन्दी टीका अनुपलब्ध थी। श्रमणसूर्य मरुधरकेसरी श्री मिश्रीमल जी महाराज के सान्निध्य तथा मरुधराभूषण श्री सुकनमुनि जी की संप्रेरणा से इस अत्यन्त महत्वपूर्ण, दुर्लभ, दुर्बोध ग्रन्थ का सरल हिन्दी भाष्य प्रस्तुत किया है-जैनदर्शन के विद्वान श्री देवकुमार जैन ने / यह विशाल ग्रन्थ क्रमश: दस भागों में प्रकाशित किया जा रहा है। इस ग्रन्थ के प्रकाशन से जैन कर्म सिद्धान्त विषयक एक विस्मृतप्रायः महत्वपूर्ण निधि पाठकों के हाथों में पहुंच रही है, इसका एक ऐतिहासिक मूल्य है। -श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्राप्ति स्थान :श्री मरुधर केसरी साहित्य प्रकाशन समिति पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) jaineliborg