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पंचसंग्रह : १० ___ मोहनीय की सत्ता उपशान्तमोहगुणस्थान तक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय की सत्ता क्षीणमोह पर्यन्त और वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र की सत्ता अयोगिकेवली गुणस्थान पर्यन्त होती है तथा आठों कर्मों का बंध मिश्र के बिना अप्रमत्तसंयतगुणस्थान पर्यन्त, सात का बंध अनिवृत्तिबादरसंपराय पर्यन्त, छह का बंध सूक्ष्मसंपराय में और एक का बंध ग्यारहवें से तेरहवें गुणस्थान तक होता है । इसलिये सभी कर्मों की सत्ता होने पर चारों प्रकृतिक बंधप्रकार सम्भव है । उदाहरणार्थ मोहनीय की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक होने से और वहां तक यथासंभव चारों बंधस्थान होने से मोहनीय की सत्ता होने से चारों बंधस्थान घटित होते हैं। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये।
इस तरह बंध का सत्ता के साथ संवेध का विचार जानना चाहिये । अब बंध का उदय के साथ संवेध का निरूपण करते हैं। बन्ध-उदय संवेध
सत्तट्ठ छ बंधेसु उदओ अट्ठह होइ पयडीणं ।
सत्तण्ह चउण्हं वा उदओ सायस्स बंधमि ॥५॥ शब्दार्थ-सत्तट्ठ छ बंधेसु-सात, आठ और छह का बन्ध होने पर, उदओ-उदय, अट्ठह-आठ का, होइ–होता है, पयडीणं-मूलकर्म प्रकृतियों का, सत्तण्ह चउण्ह-सात का, चार का, वा-अथवा, उदओ-उदय, सायस्स -सातावेदनीय का, बंधमि-बंध हो ।
गाथार्थ—सात, आठ अथवा छह का बंध होने पर आठ कर्म प्रकृतियों का उदय होता है और मात्र सातावेदनीय का बन्ध हो तब सात या चार का उदय होता है।
विशेषार्थ-सात, आठ या छह प्रकृतिक इन तीन बंधस्थानों में से किसी भी एक का बंध होने पर आठों कर्म प्रकृतियों का अवश्य उदय होता है। क्योंकि आठों कर्मों का उदय दसवें गुणस्थान पर्यन्त होता है और उक्त तीनों बंधस्थान भी वहीं तक संभव हैं तथा मात्र सातावेदनीय का बंध होने पर सात या चार प्रकृतियों का उदय होता है।
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