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________________ सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५१ बंध नहीं होता है-'नो सुहमतिगेण जसं' और जब आहारकद्विक का बंध होता हो अथवा उदय हो तब अयशःकीर्ति, अस्थिर और अशुभ रूप तीन प्रकृतियों का बंध नहीं होता है-'नो अजसऽथिराऽसुभाहारे' एवं उनका उदय भी नहीं होता है। ____ अब बंधाश्रयी नरकगति सहचारिणी प्रकृतियों का उल्लेख करते हैं। नरकगति बंध सहचारिणी प्रकृतियां अपज्जत्तगबन्धं दूसरपरघायसास पज्जत्तं । तसअपसत्थाखगई वेउव्वं नरयगइहेऊ ॥५१॥ शब्दार्थ-अपज्जतगबन्धं-- अपर्याप्त बंध, दूसर-दुःस्वर, परघायपराघात, सास-उच्छ्वास, पज्जत्तं--पर्याप्तनाम, तस-त्रस, अपसत्थाखगईअप्रशस्त विहायोगति, वेउव्वं-क्रियद्विक, नरयगइहेऊ-नरकगति की हेतुभूत । गाथार्थ-अपर्याप्त-बंध, दुःस्वर, पराघात, उच्छ्वास, पर्याप्त नाम, त्रस, अप्रशस्त विहायोगति और वैक्रियद्विक ये नरकगति की हेतुभूत प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-गाथा में नरकगति सहचारिणी प्रकृतियां बतलाई हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं अपर्याप्त योग्य बंध करते बंधने वाली प्रकृतियों की अपर्याप्त-बंध यह संज्ञा है । ऐसी प्रकृतियां बाईस हैं जिनका स्वयं ग्रन्थकार ने आगे उल्लेख किया है। ये अपर्याप्त के बंधयोग्य प्रकृतियां नरकगति योग्य बंध करते बंधती हैं तथा दुःस्वर, पराघात, उच्छ्वास, पर्याप्तनाम, वसनाम, अप्रशस्तविहायोगति और वैक्रियद्विक इस तरह कुल मिलाकर अट्ठाईस प्रकृतियां बंध की अपेक्षा नरकगति-सहचारिणी हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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