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________________ १०२ यानि नरकगति योग्य बंध करते बंधती हैं ।" अब अपर्याप्त बंधयोग्य बाईस प्रकृतियों को बतलाते हैं । अपर्याप्त बंधयोग्य प्रकृतियां हुण्डोरालं धुवबंधिणी गइ आणुपुव्वि जाई शब्दार्थ- हुण्डोरालं- हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर, धुवबंधिणी उ-ध्रुवबंधिनी नामनवक, अथिराइदूसरविणा — दुःस्वर से रहित अस्थिरषट्क, गइ - गति, आणुपुव्वि - आनुपूर्वी, जाई- जाति, बायरपत्तेयऽपज्जत्ते - बादर, प्रत्येक और अपर्याप्त नाम । पंचसंग्रह : १० उ १ अथिराइदूसरविणा । बारपत्तेयsपज्जत्ते ॥ ५२ ॥ गाथार्थ - हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर, ध्रुवबंधिनी नामनवक, दुःस्वरहीन अस्थिरषट्क, गति आनुपूर्वी, जाति, बादर, प्रत्येक और अपर्याप्त नाम ये बाईस प्रकृतियां अपर्याप्तयोग्य बंध करते बंधती हैं । विशेषार्थ - गाथा में अपर्याप्त बंधयोग्य बाईस प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं हुण्डसंस्थान, औदारिक शरीर, नामकर्म की ध्रुवबंधिनी वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, तैजस, कार्मण, उपघात और निर्माण रूप नौ प्रकृतियां तथा दुःस्वररहित अस्थिरषट्क यानि अस्थिर, अशुभ, दुभंग, अनादेय और अयशःकीर्ति रूप पांच प्रकृति, मनुष्यद्विक और तियंचद्विक में से एक द्विक, अन्यतर जाति, बादर, प्रत्येक और अपर्याप्त नाम Jain Education International गाथा में वैक्रिय और पर्याप्त का ग्रहण किये जाने से अपर्याप्त के बंधयोग्य बाईस प्रकृतियों में जो औदारिक और अपर्याप्त नाम का ग्रहण किया है, वह यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये तथा बाईस में तिर्यंचद्विक या मनुष्यद्विक दो में से एक का ग्रहण किया है, उसके बदले यहाँ नरकद्विक का ग्रहण करना चाहिये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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