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________________ सप्ततिका प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६ नामकर्म विषयक विशेष विवेचन बंधोदयसंताइं गुणेसु कहियाइ नामकम्मस्स । ' गइसु य अव्वगडंमि वोच्छामि इंदिएसु पुणो ॥ १२६ ॥ शब्दार्थ-बंधोदयसंताइंबंध, उदय और सत्ता स्थानों का, गुणेसुगुणस्थानों में, कहियाइ – कथन किया, नामकम्मस्स - नामकर्म के, गइसुगतियों में, य-और, अध्वगडंमि - अव्याकृत — नहीं कहे गये, वोच्छामि - कथन करता हूं, इंदिए - इन्द्रियों में, पुणो- पुनः । - २५१ गाथार्थ - पूर्व में नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का कथन करने के प्रसंग में यद्यपि सामान्य से गुणस्थानों और गतियों में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का वर्णन किया है । लेकिन अब वहाँ नहीं कहे गये विशेष का बोध करने के लिये गति, गुणस्थान और इन्द्रियों आदि में विस्तार से कथन करता हूँ । विशेषार्थ - यह प्रतिज्ञा गाथा है कि यद्यपि पूर्व में नामकर्म के बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विचार किया है । परन्तु वह प्रसंग किसी विशेष गुणस्थान या गति में बंध आदि स्थानों के प्रतिपादन करने के लिये नहीं होने से सामान्य रूप से किया गया है तथा सामान्य रूप में किये गये उक्त विचार का सुगमता से बोध कराने के लिये गुणस्थानों और जीवस्थानों में बंध, उदय और सत्ता स्थानों का विस्तार से विचार करते हैं । उसमें भी पहले गुणस्थानों में बंध आदि स्थानों का वर्णन करते हैं । जो इस प्रकार है मिथ्यात्व गुणस्थान – में नामकर्म के तेईस, पच्चीस, छब्बीस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस प्रकृतिक ये छह बंधस्थान हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान में चारों गति के जीव होते हैं और वे यथायोग्य चारों गति के योग्य बंध करते हैं । जिससे उक्त बंधस्थान संभव हैं । मात्र तीर्थकर नाम और आहारकद्विक युक्त बंधस्थान यहां नहीं होते हैं । इन बंधस्थानों में से कौन किस गति के योग्य और उनके बंधक कौन हैं आदि को इस प्रकार जानना चाहिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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