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________________ पंचसंग्रह : १० अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर तेईस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध होता है । उसका बंध करने पर बादर और सूक्ष्म के प्रत्येक और साधारण के साथ चार भंग होते हैं । अर्थात् अपर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य तेईस प्रकृतियों को कोई बादर और प्रत्येक के साथ, कोई बादर और साधारण के साथ, कोई सूक्ष्म और प्रत्येक के साथ तथा कोई सूक्ष्म और साधारण के साथ बांधता है । जिससे तेईस का बंध चार प्रकार से होता है । अन्यत्र भी भंगों की भावना इसी प्रकार समझना चाहिये । २५२ इस अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य तेईस प्रकृति के बंधक एकेन्द्रियादि सभी तियंच और मनुष्य हैं । वे चारों विकल्प से तेईस प्रकृतियों का बंध करते हैं । देव यद्यपि एकेन्द्रिययोग्य बंध करते हैं, परन्तु वे प्रत्येकबादर-पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करते हैं, सूक्ष्म-साधारण या अपर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध नहीं करते हैं । पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य बंध करने पर पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान बंधता है । उसमें पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर बीस भंग होते हैं और अपर्याप्त विकलेन्द्रिय तिर्यच पंचेन्द्रिय और मनुष्ययोग्य पच्चीस प्रकृति का बंध करने पर प्रत्येक का एक-एक भंग होता है । इस प्रकार कुल मिलाकर पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान के पच्चीस भंग होते हैं । 2 , इस पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक भी तेईस प्रकृतियों के बंधक की तरह समझना चाहिये । मात्र प्रत्येक बादर-पर्याप्त एकेन्द्रिय योग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध ईशान स्वर्ग तक के देव करते हैं । १. युगलिक तिर्यंच और मनुष्य मात्र देवगति में ही जाने से देवगति योग्य अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के सिवाय अन्य कोई बंधस्थान का बंध नहीं करते हैं । २. इसी प्रकरण की गाथा ६० के विवेचन में देखिये | For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001907
Book TitlePanchsangraha Part 10
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages572
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size24 MB
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