________________
सप्ततिका-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२६
२५३ अतएव देवाश्रयी वह बंधस्थान भी ग्रहण करना चाहिये । देव स्थिरशुभ-यश:कीर्ति के साथ अस्थिर-अशुभ-अयशःकीर्ति का परावर्तन करने से आठ विकल्पों द्वारा एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस प्रकृतियों का बंध करते हैं तथा मनुष्य और तिर्यंच तो यथायोग्य रीति से पच्चीस भंगों द्वारा पच्चीस प्रकृतिक बंधस्थान का बंध करते हैं । __ पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य बंध करने पर छब्बीस प्रकृतियों का बंध होता है और उनके बंध के सोलह भंग होते हैं। यह बंधस्थान बादर पर्याप्त एकेन्द्रिययोग्य है। क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिययोग्य बांधने पर आतप या उद्योत का बंध नहीं होता है। इस बंधस्थान के बंधक एकेन्द्रिययोग्य पच्चीस के जो बंधक कहे हैं, वे सभी हैं।
देवगतियोग्य या नरकगतियोग्य बंध करने पर अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होता है। उनमें देवगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधने पर स्थिर-शुभ-यशःकीर्ति का अस्थिर-अशुभ-अयश:कीर्ति के साथ परावर्तन करने पर आठ भंग होते हैं तथा नरकगतियोग्य अट्ठाईस प्रकृतियों का बंध होने पर अस्थिर-अशुभ-अयश:कीति का ही बंध होने से और अन्य परावर्तमान अशुभ प्रकृतियां ही बंधने से एक ही भंग होता है । इस प्रकार अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के कुल नौ भंग हैं।
इन दोनों प्रकार के अट्ठाईस प्रकृतिक बंधस्थान के बंधक पर्याप्त अवस्था में वर्तमान गर्भज मनुष्य, तिर्यंच और संमूच्छिम तिर्यंच हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान में अपर्याप्तावस्था में रहते तिर्यंच या मनुष्य देवगति या नरकगति योग्य बंध नहीं करते हैं। इसीलिये पर्याप्तावस्था का ग्रहण किया है और एकेन्द्रिय या विकलेन्द्रिय तो नरक या देवगति योग्य प्रकृतियों का बंध ही नहीं करते हैं ।
पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य योग्य बंध करने पर नामकर्म की उनतीस प्रकृतियों का बंध होता है। उसमें पर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय योग्य बंध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org